Thursday, 23 February 2017

फेकू किस्म के लोग

फेकू किस्म के लोग
जब से ‘नमो’ को, दिग्गी काका ने फेकू कहा है तब से हमने अपने आस-पास के फेकुओं की खबर लेने की सोची |
आम बोलचाल की डिक्शनरी में फेकू का मतलब वह, जो बात –बेबात लंबी –लंबी डींगे मारता हो | फेकने का मतलब ये कि ‘हवाई –फायर’ टाइप कुछ कह दो,कहीं न लगे तो बहुत अच्छा ,वरना मिस-फायर का भी अपना एक धौंस होता है ?
मुझे किसी के फेके हुए किसी चीज में कभी दिलचस्पी नहीं रही |अगले के बेकाम का रहा होगा ,फेक दिया |उधर क्या देखना ?फिर उसके फेके का हमारे यहाँ क्या काम ?हम फेके को कभी उठाने की सोचते भी नहीं |
हमने एक बार एक महंत से,जिन्हें लोग सिद्ध –पुरुष माफिक मानते थे अचानक बिना सन्दर्भ के एक सवाल पूछ लिया ,बाबा आपकी नजर में, जो बिना बात के बात को बढा-चढा कर बताते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे ?
बाबा ने सोचा ,हमने जरुर कोई गम्भीर धार्मिक विषय को छेडा है,वे तनिक बाबानुमा हरकत में आए और अपना प्रवचन प्रारंभ किया ,बोले संसार में सभी प्राणियों को बोलने का हक है |जब से ये दुनिया बनी है तब से ही प्राणी सवाक-वाचाल  हो गया है |केवल मनुष्य मात्र को ये वरदान है कि वो बोलकर अपनी भावना को दूसरों तक पहुचा सकता है |अगर तुम्हारे मन में अच्छे विचार हैं तो अच्छी बाते सामने आएगी |सच कहने वाला बडबोला नहीं होता |केवल कम शब्दों में काम निकल जाता है|
 मगर जहाँ असत्य जैसा कुछ है तो उसे समप्रेषित  करने के लिए तर्कों पर निर्भर होना पडता है |ये तो आप सब जानते ही हैं कि, जहाँ तर्को की गुन्जाइश आरंभ हो जाती है वहाँ आपको, बातों की बेल को चढाने के लिए एक से बढ़ के एक सहारे की जरूरत होती है |इस सहारे को आप बिना बात के बात बोल लेते हैं, ये अच्छी बात नइ है |
हमारी ये आदत है कि बाबाओं को जब तक वे निरुत्तर न हो जाए नहीं छोडते| उनको , उनकी ही बातों में लोचा देख के लपेट लेते हैं|
 हमने पूछा ,बाबाजी मनुष्य को ये वरदान किस प्रभु ने दिया है, कि वो बोलकर अपनी बात दूसरों तक पहुचा सकता है?
बाबा निरूत्तर थे बोले ;वत्स अगले सत्संग में तुम्हारे प्रश्न को उठाएंगे |वे अपना बाक़ी चौमासा मौन-व्रत  में निकाल दिए |
मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिले जैसा नहीं लगा |मैंने आपने प्रोफेसर मित्र से घटना  का जिक्र किया |
वे अपनी राय तुरंत दे डाले |पांच –छह बार ‘फेकू’ शब्द  को जानी लीवर,राजकुमार  स्टाइल  में दुहराते रहे |फेकू .....?फेकू ..... फेकू यानी .....
क्या बताया? लोकल मीनिग क्या बताया था ,जो बात –बेबात लंबी डींगे हाकता हो ?
नहीं यार  मेरे विचार से ऐसा कुछ नहीं है |वे दाशर्निक मुद्रा में आ गए |प्रोफेसर मित्र की यही खासियत है वे प्रचलित चीज को जैसी वो है वैसे  नहीं लेते |वे तुरंत दार्शनिकता की तरफ बढ़ लेते हैं ,इससे उनकी छाप सुनने वाले पर पड़ती है |
वे हट के काम करने में विशवास रखते हैं, ऐसा उनका मानना है |
मुझे असहज बिलकुल नहीं लगा जब वे ‘फेकू-प्रजाति’ के प्राणियों का वर्गीकरण अपने हिसाब से करने में उतारू हो गए |
उन्होंने कहा देखो भाई अगर कोई आदमी अमेरिका में रह के आवे और अमेरिका का गुण गाने लगे, उसकी अच्छाइयों का डिंडोरा पीटने लगे तो तुम्हे लगेगा वो फेक रहा है |
नहीं ,गलत |
सचाई का सपाट बयान जब फेकने जैसा महसूस होने लगे तो इसमे फेकने वाले से ज्यादा कसूर, उठाने से इनकार करने वाले पर है |
है कि नहीं बोलो ?
प्रोफेसर के नए तर्क ने  हमारी बोलती भले बंद कर दी, मगर फेकुओं पर से नजरिया नहीं बदला |
हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं समझो |
हमें फेकुओ का विश्वास न करना विरासत में मिला है |
बजाय इसके कि  फेकुओ की बातों में दस –पचास परसेंट घटा कर विश्वास कर लेते, हम समूचे बयान को झूठा समझ लेते हैं |
अखबारों में रोज बयान छपता है ,एक रुपये  में ,पांच रुपये में ,बारह  रुपये में खाना |
हम फ्लेश-बेक में चले जाते हैं |पचास-साठ का दशक, आपके पास एक रुपया हो तो तोडने वाला नहीं होता था|मजे से छकते तक खाओ, एक का नोट दिखाओ होटल मालिक विनम्रता से कह देता  ,कल ले लेगे जी आप ही का होटल है |वो एक रुपय्या आपको होटल का मालिकाना हक भी दे जाता था |आज तो हजार का नोट एक हज्जाम-धोबी, अपनी दूकान में खड़े-खड़े  तोड़ देता है |
सत्तर के दशक में पांच रूपए में दो लोग जीम लेते थे |अस्सी-पचासी तक   बारह  रूपए हुए तो  चिकन-मुर्ग-मुस्सल्लम  की तरफ देखा जा सकता था |होटल वाला आपकी हैसियत के माफिक अपना बिल एडजेस्ट कर लेता था | वो एक-आध बोटी भले कम कर ले, अपना ग्राहक नहीं छोड़ता था |
आज कोई भूले से कोई  कह दे कि इतने पैसों में कोई खा सकता है तो उन अमीरों के जैसा बयान लगता है कि, खाने को जिन्हें रोटी नहीं वे ब्रेड क्यों नहीं खा लेते ??
हमारे-उनके दादाजी/दादीजी  वाला किस्सा, हर दो-तीन फेमली मेंबर के मिलने पर चालु हो जाता है |
हमारे दादाजी अंग्रजों के जमानी में लोहे के चने चबा लिया करते थे| अरे ये तो कुछ नहीं, हमारे दादाजी जिसमे वे बंधे रहते थे पूरे सांकल ही चबा डालते थे |बोलने वाले को शायद  दादा के खुरापाती इतिहास का पता नहीं होता, कि किस कारण उनको सांकल में बाँध के रखना पड़ता था ? वे तो बस एक हिस्से को आगे बढाते रहते हैं |
 हमारी दादीजी बटुए में चवन्नी ले के जाती थी और बैल गाड़ियों  में उस जमाने में सब्जी ले आती थी |
उस ज़माने का उनका  फेमली फटोग्राफ मेरा देखा हुआ है| सब के सब मरियल टी.बी पेशेंट माफिक लगते हैं ,अगर सही पोषण होता तो चार- छह पैक वाले भी एक-आध तो दिखते ?
ये लोग सुनी –सुनाई बातों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी फेकते हुए कभी थकेंगे या नहीं ?  पता नहीं ?

सुशील यादव
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