Thursday 23 February 2017

,,,,एक चिता अचानक ......



कहानी ........    सुशील यादव    

,,,,एक चिता अचानक ......

पता नहीं किस टेलीपेथी से, बरसों बाद मै अपने पुराने पुश्तैनी मकान की तरफ चला गया, जिसे बरसों पहले बेचकर, हम भाई लोग अलग-अलग शहर में  अपनी सुविधानुसार बस गए थे|
पुराने इलाके के, टपोरी होटल में चाय पीने की तलब  और पुराने लोगों से कुछ  मेल-मुलाक़ात हो जाए, इस मकसद से गया | खपरैल के छप्पर वाले होटल की जगह,कंक्रीट  छत के नीचे , दो कमरे का कस्बा-नुमा बिना प्लास्टर का , गोडपारा का मराखन होटल आज भी उसी नाम से जाना जाता है|
तकरीबन सब नए नये चहरे दिखे, जो बीस-पच्चीस साल पहले पैदा हुए, नई पीढी के पौध लग रहे थे | इन सब को शायद मै पहली बार देख रहा था | वे लोग मुझे अजनबी जैसी निगाह में कनखियों से देख रहे थे| मेरी निगाह किसी पर ठहरती इससे पहले ,किसी कोने में बैठे , थोड़े से बुजुर्ग जैसे शख्स ने मेरे बचपन के नाम से पुकारा ,कैसे अनिल ,बहुत दिन बाद दिखे ....?बस मुझे बैठने का ठिकाना मिल गया |उससे बतियाने का ,पुराने मोहल्ले की भूली-बिसरी यादों को ताजा करने का मुझे मौक़ा मिल गया |एक-एक लोगों के घर-परिवार की लंबी तहकीकात मैंने शुरू कर दी| उस होटल में ताजा बने समोसे ,भजिये के दो-दो प्लेट  आर्डर कर बैसाखू के सामने परसवा दिया |वो मुझे आश्चर्य मिश्रित झिझकती नजर से  देखने लगा|उसकी झिझक को शांत करते हुए मैंने कहा सब तुम्हारे लिए है ,मै तो एक आध  खा पाउँगा |हाँ यहाँ की चाय तब  गजब की होती थी वही पीने रुक गया था |पता नहीं ये नए लोग अब वैसा बना पाते हैं या नहीं ?
दो स्पेशल चाय बनाने को बोला,चाय के काउंटर में बैठे नौजवान से मुखातिब होकर बताया तुम लोग मुझे नहीं पहचानते होगे |ये पीछे  ठेठवार गली में हम लोगों का पुश्तैनी मकान होता था |समझ लो इस होटल में मेट्रिक-कालेज पढ़ते तक घंटों चाय पीने का मजमा दोस्तों के साथ लगाए रहते थे|तुम्हारे बाबूजी हम लोगो को बहुत उधारी देते थे |
                मैंने बैसाखू से पूछा क्या बात है ,इस मोहल्ले में अब पहले जैसी रौनक नहीं रही ?कहाँ तो...... इस चबूतरे पर, पासा खेलते लोग ,उस पर दर्शकों की भीड़ ,हल्लागुल्ला,किसी कोने में सटोरियों की अलग चौपाल ,शाम को टुन्न होकर गरियाते लोगों के,मा- बहनों वाले  अंतहीन संवाद  |सब अभी जी रहे हैं या.......?
बैसाखू ने कहा ,किया बताएं बाबू सा ,पहले जैसी मस्ती तो, आजकल के ये लड़के कहाँ पायेंगे ? लोग,.... उस जमाने में  कम कमाते थे, मगर जीते शान से थे ?
किसी भी तीज त्यौहार में जिस गली से गुजर लो, अच्छे-अच्छे पकवानों की देशी खुशबु आती थी |
‘पुलिस-सक्ती’ करने लायक अपराध होते नहीं थे......., तो पुलिस भी झाकती न थी|
देर रात के  बारह-एक बजे तक बड़े धूम से होटल चालु रहता था |सट्टे के ‘क्लोसिंग नम्बर’ जो बाढ़ बजे खुलते थे , सुनने वाले उताव्लियों से मोहल्ला गुलजार होता था |
‘मुण्डा-मुछड’,जानते हैं न आप ....? हाँ हाँ ...टकलू को अच्छे से जानता था ,क्या बेदम पीता था बाप रे ......|वही, क्लोस का नबर, फर्राटे से साइकिल में चिल्लाते निकलता था दो सौ चालीस .....छक्का.......उस स्टाइल की नकल आज तक कोई नहीं कर पाया | संयोग देखिये जिस दिन उसका  हजार रूपये का आकडा फंसा, उसी दिन जगह-जगह, ज्यादा पी के मर गया|
वैसे बाबू सा......!,अच्छा हुआ आप लोग इस मुहल्ले से निकल लिए |ये मुहल्ला आज भी किसी  घर के बच्चों पर, अच्छे संस्कार पड़ने नहीं देता |चपरासी की नौकरी से आगे कोई निकल ही नहीं पाता |पता नही क्या अभिशाप है इधर.........? सुना है आपके बच्चे विदेश में हैं ....?  हाँ बैसाखू ,तुमने सही सुना है ,बच्चो को विदेश  में नौकरी मिल गई,वे लोग निकल गए   |बाबू आप लोग बच्चों को, इतनी दूर भेजने की हिम्मत कैसे कर लेते हो |हम लोग तो बच्चे के ससुराल से वापिस आने तक में उपर-नीचे होते रहते हैं|
मैंने कहा, आजकल मोबाइल-कम्प्यूटर का जमाना है ,रोज हालचाल जान लेते हैं,और क्या चाहिए ?उन लोगो को खुश जानकार तसल्ली हो जाती है |  मैंने कहा और सुनाओ .....?
मैंने गौर किया कि, उसकी निगाह होटल के दीवार-घड़ी की ओर कनखियों से गई ,मैंने पूछा ,कहीं जल्दी है क्या ....?
वो झेपते हुए बोला ,अभी मंगली भैया....खैर .....आप नहीं जानते होंगे शायद ,पंचानबे साल की उम्र में, कल रात ख़तम हो गए |इस मोहल्ले के सबसे बुजुर्ग में से थे |उनकी ‘काठी’(अंत्येष्टि) में जाना था .....|
मेरा मुह खुला का खुला रह गया ....!
मंगली दादा...... , जिसे वो सोचता था मै नहीं जानता,इनको पता नहीं मै कितने करीब से जानता था उन्हें |मैंने होटल में बिल देकर बैसाखू से कहा चलो मै भी श्मशान चलता हूँ |उसे अपनी कार ने बिठा के, श्मशान की तरफ निकल चला |पांच किलो मीटर के फासले को, अनगिनत यादों के साथ बैसाखू के साथ शेयर करते रहा |
बैसाखू ,मैंने मंगली दादा को हमेशा खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट में देखा है |हम लोग यहाँ से जब दूसरे शहर शिफ्ट हुए , तब तक वे मुनिस्पेलटी की चौथे दर्जे की नौकरी से रिटायर हो गए थे |अभी जिस होटल में बैठे थे, उसी  के करीब उनका खपरैल वाला कच्चा मगर साफ सुथरा लिपा पुता घर होता था |उसकी ड्यूटी, सन साठ के दशक में, जब इस शहर में बिजली की लाइन नहीं खिची थी ,जगह- जगह, सात-आठ फीट के लेम्प-पोस्ट पर, लेम्प को जला कर रखने की होती थी |
इस काम में मगर,  उसे  दोपहर से मशगूल हो जाना पड़ता  था |उसके जिम्मे पच्चीस लेम्प पोस्ट होते थे ,हम लोगो  की उम्र सात-आठ साल की रही होगी, हमें उसे काम करते देखें में आनन्द आता था |स्कूल से छूटते ही हम कुछ बच्चे उसके घर पहुच जाते |उसे बीती रात ,लेम्प के काच में लगे कालिख को बड़े सावधानी से साफ करते देखते |वे इस नफासत से एक-एक दाग धब्बों को रगड़ कर साफ करते कि, लेम्प जलाने के बाद, काच लग जाए तो रोशनी दस-गुनी अधिक लगती थी |वे बार- बार हम लोगो को लेम्प के कांच, और मिटटी तेल की कुप्पी से दूर रहने की हिदायत देते रहते |
वो हममे से किसी एक  को ,  एक लेम्प के जल जाने के बाद,बहुत हिदायत से ,दो फीट की   लकड़ी के डंडे के एक सिरे में, मिटटी तेल में भिगोये कपड़े को जलाकर छोटा मशाल  पकड़ा देते |हमे  बारी-बारी से  सभी लेम्प्स को जलाने की कहते |
इस श्रेय को लेने की, हम सब बच्चो में होड़ रहती |वे दर्याफ्त कर लेते, कि कल किसने ,परसों किसने जलाया था ,फिर अगले  नये को मौक़ा देते |
उस जमाने में, पन्द्रह-वाट के बल्ब जितनी रौशनी के  लेम्प का  , बीस-पच्चीस के समूह में एक साथ देखना,नजारा ही  कुछ और होता था..... और  अपना मजा अलग ही देता था |
शाम के छ या गरमी के दिनों में सात बजे तक उनको हरेक लेम्प पोस्ट में लेम्प रखना होता था |
वे एक कंधे में छोटी हलकी  सीढ़ी, और दूसरे कंधे में कांवर जिसके दोनों पासंग,  बांस की बनी बड़े परातनुमा टोकरी होती थी,जगमगाते लेम्प को लिए चलते देखना तो मानो लोगों को अचंभित कर देता था |आने-जाने वाले रूककर या कहे कि उस ख़ास नजारे को देखने की कवायद में गली-गली  जमा हुए रहते थे |हम बच्चों का भी शगल था, कि उसके  पांच-दस लेम्प पोस्ट तक उनका साथ दें |
हम लोग चलते-चलते तरह-तरह के सवाल करते, मसलन कि ये कब तक जलता है ?सुबह बुझाने कौन आता है ?इसे इकठ्ठा कौन वापस ले कर जाता है ?
वो किस्से-कहानी मिलाकर, हम लोगों को बताता कि,  कैसे पिछली रात उस नुक्कड़ पर भूत- प्रेत से पाला पड गया था |बमुश्किल जान बचा कर भागा |एक लेम्प का कांच तभी टूट पड़ी |प्रमाण में वो टूटा कांच दिखा देता |हम लोगों की अन्धेरा घिरते देख  हिम्मत नहीं होती कि उसके पूरे लेम्प – पोस्ट में लेम्प रखने में आगे साथ दें | हम झुण्ड में घरों की तरफ दौड़ लगा के, भाग निकलते|
परीक्षा के दिनों में, हमने अपने बड़े भाइयों को इन्ही लेम्प पोस्ट से लेम्प को उतारकर फट्टी बिछा के पढ़ते देखा है |या कहे कि ‘मगली दादा’ की सद्भावना के चलते बड़े भाइयों ने मेट्रिक बड़े आराम से निकाल लिया |वे पढने वाले लड़कों को कुछ न कह के एक तरह से अपनी ‘सहमति’ के सर हिलाये रहते |
बैसाखू ! मेरी बातों को किस्से-कहानी की तरह मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था |मंगली दादा के इस गुण का बखान उसने आज से पहिले कभी से नहीं सूना था, कारण कि बैसाखू ने पाचवी से आगे की पढ़ाई की नहीं थी,और न ही उसे लेम्प-पोस्ट से लेम्प उतारने की जरूरत पड़ी थी |
श्मशान पहुचते ही, रास्ते में ली हुई माला और पीताम्बरी जमीन में रखी उसकी अर्थी पर श्रद्धा से अर्पित किया |
परिवार जन, मोहल्ले के जमा लोग मुझे हैरत से देख रहे थे| श्मशान के एक कोने में, उसकी वर्दी, वही खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट फिकी पड़ी थी | लाश को चिता पर रख दिया गया था |
उसका कोई नजदीकी, आग को हाथ में लिए परिक्रमा कर रहा था तभी न जाने मुझे क्यों लगा ‘मंगली दादा’ मुझसे कह रहे हो, अनिल ,आज तेरी बारी है चल झटपट सब लेम्प को मशाल ले के जला तो दे......?
मै फूट-फूट कर रो पडा .....                                     सुशील यादव  २५/९/१५












नन्द लाल छेड़ गयो रे

नन्द लाल छेड़ गयो रे

उस जमाने में नंदलालों को छेड़ने के सिवा कोई काम नहीं था |सरकारी दफ्तर ही नहीं होते थे, जहाँ बेगारी कर ली जाए |अगर ये दफ्तर भी होते तो चैन की बंसी बजईय्या टाईप लोग, कुछ देर काम करते और ‘एक नम्बर’ के बहाने साहब को अर्जेंसी का वास्ता देकर, तालाब पोखर की तरफ खिसक लेते |उस ‘खुले शौच’ के जमाने में इतनी छूट तो मिल ही जाती थी |वे पनघट-ब्रांड लड़कियों को इशारे-विशारे करना खूब जानते थे | उन दिनों इत्मीनान इस बात का होता कि; किसी प्रकार के एक्ट का चलन नहीं था; सो खतरा भी बिलकुल नहीं होता था |एफ आई आर,, नाम की कोई चिड़िया खुले आकाश में दूर-दूर तक उड़ा नहीं करती थी |खाखी,-खद्दर वाले लोग भी किसी बात को ‘इशु’ बनानें के नाम पर ,गली-गली ‘मुद्दे’ सुघियाते नहीं फिरते थे| क्या मजे का जमाना था ......?
बाद के दिनों में ,खाखी, खद्दर, टोपी, झंडे ने देश की ‘वाट’ लगा दी....!
आपने इस ‘वाट’ को ‘जेम्स वाट’ की तरह, दिमागी रेल इंजन दौडाने के फिराक में, अब पकड़ ही लिया, तो तफसील भी जानिये |
ये आपका बुनियादी ,प्रजातंत्रीय हक़ भी है, कि जिसने ‘वाट’ कहा है उसे वह एक्सप्लेन भी करे|
‘वाट’ को इधर मै छोटे-मोटे उठाईगिरी टाईप के लफड़ों में इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो राजनीति के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा बन गया है मसलन ,|नेता वादा करके वादाखिलाफी न करे ,’खाखी’ अगर माँ बहनों वाली डिक्शनरी न खोले ,’टोपी’ अगर झांसा न दे ,’झंडे’ को कोई लाठी के बतौर, उसे उठाने वाला, चलाना न जाने तो आजकल प्रजातंत्र के पाए डगमगाए से लगते हैं |’बड़े वाट’ पर बात करने का जमाना ,दिन-बादर हैं नहीं |मुफ्लिसिये पर दस करोड़ की मानहानि वाली बिजली गिर गई तो, अपना कुनबा ही साफ हो जाएगा... ?
नब्बू एक दिन मायूस सा आया |भइय्या जी मजा नहीं आ रहा है .....|उसके इस कथन के पीछे मुझे किसी नए किस्म की खुराफात के पर्दाफाश होने का आभास, छटी इन्द्रिय के मार्फत , तुरन्त हुआ सा लगा |मैंने खीचने के अंदाज में कहा, जिन्दगी के ‘तिरसठ -पूस’ ठंडाये रहे, तुम्हे भुर्री तापते कभी न देखा आज कौन सी आफत आ गई जो कंडा सकेलने निकल गए .... बोलो .....?
भइय्या जी, बात ये है कि आजकल की राजनीति में दम नहीं है | हम रोज अखबार पढ़ते हैं ,आप भी देखे होंगे ....न छीन झपट,न जूतम पैजार .... न किसी के अन्गदिया पैर उखाड़े जाते ,न एक दूसरों की सरे आम वस्त्र उतारने की बात होती |सब सन्नाटे में बीत जाता है |अपने मुनिस्पेलटी इलेक्शन में ही देखो लोग खड़े हुए, न झगड़े न सर-गला कटा|कोई पेटी उठाने का दम भरते नहीं दिख पाता |किसी जमाने का वो सीन भी याद है जब मवाली, कोठे में नोट लुटाने की तर्ज और स्टाइल में, बेलेट को धडाधड छापता और कह देता, बता देना ‘छेनू’ आया था|छेनू नाम का सिक्का चला के जीत-हार हो जाती थी |मतदाता को दस-बीस जो मिल जाता ,उसे वह पाच सालाना बोनस बतौर स्वीकार कर लेता |कोई शिकायत या उलाहना देने की नौबत कब आती थी ? वैसे भी उन दिनों पानी लोग कम इस्तेमाल करते थे ,शौच-नहाना-धोना तालाब किनारे हो जाता था इस वजह घरों में पानी बहने बहाने या नाली की समस्या न थी |बच्चों को स्कूल में इतना पढ़ा दिया जाता कि रात को उनको सबक-होमवर्क करने की जरुरत न पड़ती थी, इसलिए बिजली की भी दरकार नहीं थी| नेता की चरण-पूजाई का स्कोप कम या नहीं के लगभग था |उन्हें कोई हारे या जीते से सारोकार नहीं होता था |
नब्बू ने आगे बताया ,भइय्या खबर है, अपने धासु बेनर्जी जो बड़े डाइरेक्टरों में गिना जाता है, अपने मिस्टर आजीवन कुआरे कन्हईया को लेकर पुरानी और नई तहजीब पर फ़िल्म बना रहे हैं |पांच हजार साल पहले की याददाश्त अपने हीरो को दिला बैठे हैं |उसका दिल नदी नालों पोखरों के आसपास मंडराते रहता है|हर नदी में फ्लेश्बेक है|रईस बाप हर कीमत पर अपने बेटे को इस फ्लेश्बेकिया बीमारी से निजात दिलाने के लिए उसके मुरादों वाली सीन एक्ट्रेस लंगोटिया कामेडियन सेट बनवा के रखता है, किसी ने उसे सुझाया यूँ तो आप पैसा पानी की तरह बहा ही रहे हैं तो क्यों न इसे शूट करके साउथ डब वाली फ़िल्म की शकल दे दी जाए |रईस को सुझाव उम्दा लगा सो पहले उसके बीमार लड़के के शौक का रिह्ल्सल होता है फिर उसी सेट में आजीवन कुआरा फिट हो जाते |
“कंकरिया मार के जगाया’ इस गाने के बोल फिल्माने के लिए बुलडोजर से कई किलोमीटर कांक्रीट रास्ते को उखाड़ कर, बजरी-पत्थर-कंकर डाले गए|हीरो ने एक कंकर उठा के मटकी फोडी सब निशाने की वाह-वाह में लग गए |हिरोइन इसी पलो की याद में, फूटे-मटके पर सर रख के अपने सोये(प्रेम में अज्ञानी) होने का प्रलाप कर रही है |
इंटर तक, पाच हजार पुराने मटका फोडू को तत्व-ज्ञान मिल जाता है |अक्सर ये अचानक बिना साइंटिफिक रीजन के तत्व-ज्ञान मिलाने वाला अक्षम्य-अपराध अनेकों फिल्मी-स्क्रिप्ट की जान है और बाक्स आफिस में हजार करोड़ कमाने का नुस्खा भी है अत: किसी के पापी पेट को लात न मारते हुए आगे बढ़ते हैं|
मटका फोडू हीरो, पहले मटका-किंग फिर बाद में, बाप की अंडर वर्ड वाली रियासत को सम्हालता है | उसे घेरे रहने वाले उसे किग-मेकर बा जाने की सलाह दे डालते हैं, जिसे पूरी तन्मयता के साथ वो निभाता है |डाइरेक्टर उसे ग़रीबों के साथ हंसना-खेलना सिखलाने के लिए विदेश ले जाता है |किसी के घर मातम में कौन सा मुखौटा होना चाहिये, इसकी बाकायदा तालीम दिलवाता है |भाषण के बीच लोगों से प्रश्न क्या पूछे कि, जवाब ‘हाँ’ में निकले,कब बाह चढा कर भाषण में अपनी भुजा दिखाना है, इन छोटी-छोटी हरकतों पर गौर करने को कहता है |
‘नन्दलाल’ जिसे आधुनिक हीरो बनाया अपनी पुरानी यादों को अचानक संसद में ताजी कर लेता है |बड़े-बड़े सांसदों मंत्री-मंत्राणी, किसी को नहीं छोड़ता |सबकी मटकी में उसे माखन होने का संदेह रहता है |मलाई खाते हुए वे लोग जो अब तालाब पोखर की ओर आना भूल गए उनके लिए वो खुद इन्साफ का कंकर लिए छेदने-छेड़ने के लिए तैयार दिखता है |
इति फ़िल्म पटकथा समाप्त |डाइरेक्टर, राइटर, हीरो हजार करोड़ की उम्मीद में |कुछ अति उत्साही आस्कर में ले जाने के लिए फार्म भी खरीदे लाये है |भगवान जाने आगे क्या हो ....?
नब्बू की बेसिरपैर की कथा का विस्तार, अगले एपीसोड में फिर कभी ...तब तक आप सेफ रहें ......
सुशील यादव









अपोजीशन की होली ....

अपोजीशन की होली ....

नत्थू,! इस देश में गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले चुनाव के बाद गहन सन्नाटा पसर गया है। होली जैसे हुडदंग वाले त्यौहार में रंग-भेद ,मन-भेद ,मतभेद की काली छाया कैसे आ गई? ज़रा विस्तार से बता।
सेक्युलर इंडिया के ढोल-नगाड़े किधर बिलम गए ?
घनश्याम ,ब्रज ,गोपी ,गोरियां जो होली के हप्ते भर पहले से रंग-अबीर से सराबोर हुआ करती थी,उनका क्या हुआ ?
अद्धी ,पव्वा,भंग की गोलियां ,भांग घोटने वाले सिद्ध पुरुष कहाँ लुढ़क गए ज़रा खोज खबर तो ले।
नत्थू उवाच ......।
महराज ,कलियुग आई गवा है ?का बताई ....?
जउन इलेक्शन की आप कही रहे हो ,हम इशारा समझत हैं ......।
तनिक लड़ियाने के बाद नत्थू ने हुलियारा-स्वांग को छोड़ कर सीधे-सीधे कहना यूँ आरंभ किया ;
इसी पिछले दो-तीन इलेक्शन ने गुड गोबर किया है।जनता ने गद्दी वालों को अपोजीशन और अपोजीशन वालो को गद्दी दे के कह दिया है , लो इस होली में पकवान की जगा गुड खाओ ,गोबर लगाव-लीपो बहुत कर लिए राज-काज ।
इनकी पार्टी आजादी के बाद से जो दुर्गति न कराई थी, सो हो गई।
हस्तिनापुर-कुरुक्षेत्र के पराजित योद्धा, मुह लटकाए खेमे में लौट गए हैं।
कहाँ तो वे लकदक लाव-लस्कर के साथ चलते थे ,सफेद वस्त्रों पर सिवाय होली के दिन के, कभी दाग न लगते थे।
इनकी पार्टी के कुछ लोग, वेलेंटाइन,न्यू इयर के दिन के,शुरू से दाग-दाग कपड़ों में धूमते नजर आने के आदी होते गए।
कुछ के कपड़ों में, दाग कहीं मलाई चाट के हाथ पोछने के थे ,कहीं वेळ इन टाइम काम करने के चक्कर में, किसी की पंचर हुई गाड़ी को धक्के लगाने के थे।
किसी-किसी के दामन ,इक्जाम पास कराने में, स्याही के बाटल खुद पर लुढकाऐ दिखे।सब अपने-अपने स्टाइल की होली साल भर अपनी मस्ती में मनाते रहे।
महाराज !सच्ची कहूँ ! जनता बड़ी चालाक हो गई है ,वे किसे कब कहाँ निपटाना है,लुढकाना है ,लतियाना है, बिलकुल उस ऊपर वाले की तरह जानती है ,जो हर किसी के सांस की डोरी या नथ अपने हाथ में लिए रहता है।
महराज ,हम जानते हैं आप उन दिनों की याद को मरते दम तक बिसरा नहीं पायेंगे, जब आप होली के हो-हुड़दंग से पहले,गाँव के बड़े-बुजुर्गों के पाँव छूने ,चंदन-अबीर का टीका लगाने निकल पड़ते थे।
हर घर से तर घी के मालपुए ,पुरी-कचौरीकी खुशबू उड़ा करती थी। बड़े मनुहार से परोसे-खिलाए जाते थे।
फिर दोस्तों के संग, भांग छानना-पीना,मस्ती की उमंगों में बहक-बहक जाना अलग मजा देता था। नगाड़े पीट-पीट कर जो फाग की स्वर लहरियां गुजती थी जो राह चलती कन्याओं पर फब्तियां की जाती थी .....”.पहिरे हरा रंग के सारी, वो लोटा वाली दोनों बहनी” सरा रा रा ररर .......
काय महाराज ! जवानी की छोटी लाइन वाली ट्रेन पकड़ लिए का ......?सुन रहे हैं ......?
नहीं नाथू ,तुम सुनाव अच्छा लग रहा है। ऐसा लग रहा है हम मनी-मन होलिका की लकडिया लूटने के लिए निकल पड़े हों।
नत्थू याद है, कैसे पंचू भाऊ को तंगाए थे, .होली चंदा देने में जो आना- कानी की थी ....। बेचारा अधबने मकान के सेंट्रिंग की लकड़ी की रखवाली में खाट लगाए सोया था,हम लोगो ने , खाट सहित उसे उठा लिया। ‘राम नाम सत’ बोलते जो उसे होलिका तक उठा लाए, बेचारा हडबडा के गिडगिडाते हुए दौड़ लगा दिया था।
महाराज जी! पंचू भाऊ की आत्मा को शान्ति मिले।
अब के बच्चे, ये जो स्कूलों में ‘मिड-डे मील’ खाने वाले हैं ,ऐसे हुडदंग करने करने की सोच भी नहीं सकते ?ऐसा ‘किक’ थ्रिल जो ‘होली’ बिना मांगे दे जाता था वो आज के किसी तीन-चार सौ करोड़ कमाने वाली मूवी न दे सकेगी।
हाँ नत्थू , ये अपोजीशन वाले होली-सोली मान मना रहे हैं या ठंडे पड गए,?पहले , इनके मोहल्ले से निकल भर जाओ रंग की हौदी-टंकी में डुबो कर हालत खराब कर देते थे। नाच गानों में, हिजड़े अपना रंग अलग जामाए रहते। सिर्फ इकलौते, अपने नेता जी बैंड-बाक्स ड्राईक्लीनर्स से धुली कलफ-दार झकास सफेद पैजाम-कुरता पहने टीका लगवा के पैर छूने वाले वोट बेंको को मजे से निहारा करते थे। किसी में हिम्मत न होती थी की सिवाय माथे के किसी और बाजू रंग-गुलाल लीपे-पोते।
महाराज,अपने तरफ की कहावत माफिक कि “तइहा के दिन बईहा लेगे’ (यानी पुराने अतीत को कोई पागल ले के चला गया) नेता जी के यहाँ, इस साल न तंबू गडा है,न डी जे वालो को कोई आर्डर गया है और न ही लंच डिनर मीठाई बनाने वाले बुलवाए गए हैं। उनके घर की कामवाली बाई कह रही थी,भूले-भटके मिलने-जुलने के नाम. आने वालों के लिए आधा किलो अबीर और दो तीन किली मिठाई मंगवा ली गई है बस।
और महाराज जी, ये भी खबर उड़ के आई है की नेता जी होली पर यहाँ रहे ही नहीं ,बहुत दिनों से काम से छुट्टी न मिली सो वे कहीं बाहर छुट्टियाँ बिता कर त्यौहार बाद लौटें ?
आप बताएं. होली शुभकामना वाले कार्ड पोस्ट कर दें या उनके वापस आने पर आप खुद मिलने जायंगे ?
सुशील यादव



पुरूस्कार व्यथा


पुरूस्कार व्यथा

धिक्कार है सुशील ! ,लेखक जमात, अपने -अपने पुरूस्कार लौटा रहे है तेरे पास लौटाने के लिए कुछ भी नहीं है ....?
तुमने क्या ख़ाक लिखा..... जो साहित्य-बिरादरी में स्थापित नहीं हुए ?
तेरे लिखे पर पुरुस्स्कार देने वालो की नजर ही नहीं गई ...?कम से कम ,एक अदद छोटे-मोटे पुरूस्कार मिलने की गुंजाइश तो पैदा हुई होती ......?साहित्य-बिरादरी के, घुंघराले-बालों में ‘जूं’ तक नहीं रेंगी ...?लगता है, मिडिल-क्लास वाली वेशभूषा ,रहन-सहन, ने तेरी गति, झोला लटकाए, टपोरी-राइटर से आगे बढ़ने न दिया, वरना ‘तोड़ती-पत्थर’ के टक्कर का साहित्य तू ने भी, मंनरेगा में काम करने वाली अधेड़ औरत पर लिखा था। ’कुकुरमुत्ता’ के काव्य सौन्दर्य बोध ने, तेरे लिखे में भी अपना घर बनाया था। कालिदास माफिक, मेघों को तूने जेठ-बैसाख की तपती दोपहरिया में लाकर, मोहल्ले-पडौस की, सुगढ़-कन्याओं को अपने बारे में सोचने पर मजबूर किया था। पंच-परमेश्वर जैसी धांसू न्याय-प्रियता, तेरे साहित्य के इर्द-गिर्द हुआ करती थी। आलोचक को, कुछ कहते नहीं बनता था। तुमने ‘गोरे लाल आवारा’ के छद्म नाम से सडक -छाप साहित्य लिखने में अपनी जवानी के कुछ साल नहीं बिताये होते तो साहित्य के आकाशदीप बन के छा गए होते। तुझे ऍन गरीबी की मार उस वक्त झेलनी पड़ी जब तेरी कलम से आग उगलने का समय था। तुमने नई-कविता ,नई-कहानी को, पचास सौ बरस पहले लिख कर मानो कूड़े-करकट के बीच फेक दिया ,लोगो की तब, नई-चीजों को समझने की समझ ही पैदा नहीं हुई थी।
पुरूस्कार देने वालों की ‘पलटन’ भी बेचारे बेबस थे। वे तुझे टंच करते और एक कोने, जिसे साहित्य में ‘हाशिया’ कहते हैं डाल देते।
तुझे गर पुरूस्कार मिला होता तो,यही आज आड़े वक्त में सम्मान पाने का एक और मौक़ा दे जाता है.... तू उससे खासा वंचित है ,शर्म कर....।
मुझे अपने आप को धिक्कारने का, ज्यादा मौक़ा नहीं मिला ,नत्थू सामने आ बैठा। मैं बिना वजह खुद को, अखबार समेटते हुए, दिखाने की चेष्टा में ,अखबार सेंटर-टेबल में रखते हुए उसे बैठने का इशारा किया।
नत्थू के आने के बाद, अखबार पढने की जरूरत, वैसे भी नहीं रहती।
वो ‘कालम बाई कालम’,तीन-चार अखबारों का निचोड़ , जिसे नुक्कड़ के ग्रामीण ‘चा- समोसा’ सेंटर में, आधी-चाय की कीमत चुका कर पढ़ा होता है ,मुझे हुबहू , पूरा, किस्से -कहानियों की तरह सुना डालता है।
अगर चश्मे को ‘रिचार्जे’ करवाने की कोई बात रहती, तो नत्थू बदौलत, मेरे काफी पैसे जो अखबार पढने में जाया होते, बचा करते।
नत्थू का खबर वाचन ,स्वत: की त्वरित टिप्पणियों पर, मेरी सविस्तार व्याख्या की अपेक्षा में सदैव रहता।
कभी वो कालिख-कांड में कालिख पोतने वाले ‘कुपात्रजन’ की, व्याख्या करने लेने के बाद ,कालिख पुतने वाले के प्रति, सहानुभूति का प्रदर्शन करने लगाता तो कभी दिल्ली बिहार की सैर बेटिकट घर बैठे करवा देता।
वो पहले कालिख-पोतने की घटना को शर्मनाक,प्रजातंत्र पर प्रहार ,अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात आदि-आदि बोल के, मेरी ओर यूँ देखता, जैसे रंग का डिब्बा मै हाथ में लिए खड़ा हूँ .....। फिर अपनी बात में बेलेंस बनाने के लिए दूसरे पक्ष की ओर मुड़ जाता।
इंन दिनों नत्थू को प्राय: असमंजस की स्थिति में देखता हूँ। उसने कहा ,गुरुजी ये पडौसी मुल्क वाले भी गजब करते हैं ,मूली अपने मुल्क में उगा कर, बेचने इधर आ जाते हैं ,हवा खराब हो जाती है।
उधर हमारे जवान को बन्दूक की नोक में रखते हैं इधर लेखक-गवयै भेज कर सांस्कृतिक -चोचले की मरहम-पट्टी की बात करते हैं। अपना मुल्क ये सब सहेगा भला .....?
बिहार-चुनाव ,में क्या हो रहा है जानिये .....!जिनने महागठ्बन्धन का ठेका लिया था वो सीट बटवारे के फले दौर से ही उखड गया। वहां केम्पेन के दौरान चारा-किंग ,आरक्षण ,नरभक्षी ,विकास, बीमारू-राज,सरकारी-अनुदान, महादान ,जैसे जुमलों के बीच अचानक ‘धार्मिक पवित्र नानवेज’ जैसे मुद्दे उछल गए।
अपने तरफ एक लोकोक्ति है
“बाम्हन बाम्हन जात के, कुकरी पूजे रात के
कुकरी सिरा गे ,बाम्हन रसा गे “
ये नानवेज का मामला बस ऐसे ही दिखता है ,बाम्हन जो रात को मुर्गे को पका लेता है और किसी कारण उसे खाने से वंचित होना पड़ता है तो बाम्हन के ‘रिसा’ जाने से कोई नहीं रोक सकता।
अपना लोकतंत्र बाम्हन है। कब किस बात से रूठ जाए कह नहीं सकते। एक चिंगारी अगर जोरों से सुलग गई तो खतरा परमाणु विस्फोट के बराबर का होगा।
कुछ ने इस ‘नानवेज’ मसले पर बढ़-चढ़ के बोला तो किसी ने एकदम दम-साध लिया, कि अपन को बोलना ही नहीं है। उनके न बोलने के कई मतलब थे ,बड़ा मतलब सामने चुनाव से ताल्लुक रखे था।
जनता कहती है ,वे बड़-बोले हैं मगर लगाम कहाँ लगाना है, बखूबी जानते हैं।
नत्थू,देशव्यापी चर्चा को आगे बढाने के मूड में दिख रहा था।
मुझे बातों का गेयर बदलना अच्छे से आता है सो मैंने कहा ,नत्थू मैं लेखकों के सम्मान बाबत सोच रहा था। आये दिन पढ़ रहे हैं आज इस साहित्यकार ने अपना पुरूस्कार लौटाया कल उसने ...सिलसिला थम नहीं रहा है ?
राजनीतिग्य तबके में इसे आडंबर ,उथली वाह-वाही पाने का नाटक करार दिया जा रहा है। मैं सोचता हूँ उनके साथ नाइंसाफी है। वे किस विरोध में हैं पहले वो तो जानो .....?
सत्ता काबिजों को लगता है कि पिछली सरकार के ये ‘ढिंढोरची’ हैं। मगर एक पहलू ये है कि लेखक कितनी मेहनत के बाद ये सम्मान का हक़ पाता है उसे उसके सिवा कोई नहीं जानता। वह किसी उथले कारणों से अपने सम्मान को त्याग नहीं देगा ....?समझो वे अपनी जीवन भर की पूंजी को तज रहा है। सत्ता काबिजों को ये महज मखौल लगता है। तरह-तरह के तंज किये जा रहे हैं ,मशवरे दिए जा रहे हैं। उनका मानना है ,पानी सर से ऊपर अभी नहीं हुआ जा रहा है ......?
नत्थू ! आज बड़ी इच्छा हो रही है ,मै भी अपना सम्मान-पुरस्कार लौटा दूँ। इस अदने लेखक को, लिखने के शुरुआती दिनों में , किसी गाव के ‘सरपंच’ ने ,उसकी चाटुकारिता में लिखे चार-लाइन की बदौलत शाल-श्रीफल और एक सिक्के से नवाजा था।
नत्थू अब वो बुजुर्ग तो इस जहाँ से कूच कर गए हो .....?,पंचायत में ये जमा करवा देना और हाँ, अपने ‘हरिभूमि’ वाले पत्रकार बाबू को ये खबर जरुर कर देना।



हम आपके ‘डील’ में रहते हैं....


हम आपके ‘डील’ में रहते हैं....

सूर्य-पुत्र कर्ण के बाद, आपने दूसरा दानी देखा है ....?
वे एक लाख पच्चीस हजार करोड़ ,दान में दे आये ....|
बिना योजना के, बिना प्लानिग के, बिना आगा पीछा देखे, दान देने वाले बहुत कम लोग इस धरती पर अवतार लेते हैं |
एक गरीब राज्य की भूमिका बांधी गई, और उस भूमिका में, देने वाले को बहाना मिल गया |
हम लोग स्टेशन में किसी भिखारी को आते देख मुह फिरा लेते हैं| कहीं कुछ देना न पड जाए के भाव हमारे दिल में बरबस उतर आता है, और वे हैं कि, बुला के देते हैं ,बोलो कितना चाहिए ,दस ,बीस ,पचास ,सौ ....फिर  नोट की पूरी गडडी पकड़ा देते हैं ....|लेने वाला एक बार भौचक्क हो के मुह निहारता है .कहीं पगला तो नही गया .....?
अरे भाई  वे पगलाए नहीं हैं, बस खुश हैं .....|बीबी के अनिश्चित काल के लिए मायके जाने को सेलीब्रेट कर रहे हैं |ये उनके खुश होने का स्टाइल है..... भला आप क्या कर लेंगे ....?
किसी को अगर एक सौ पच्चीस लाख करोड़ को डीजीटली लिखने को कहा जाए तो बन्दा  फेल हो जाएगा ,अंदाजन ये रकम १२५,०००,०००००००००० जितनी होगी ....आकडे गलत हो तो पाठक सुधार के पढ़ लें, काहे कि इतनी बड़ी रकम अपनी  नजर से  कभी गुजरी नहीं और न ही कभी गुजरेगी ?
दुबारा इतनी रकम के नहीं दिखने की वजह पूछो तो बताये ......?
वो ये है कि वहां उनके पुराने प्रतिद्वंदी खेमे का राज है जिन्होंने पांच करोड़ के दान को लौटा दिया था |उनके जी में आया ,पांच ठुकराने वाले ,ले एक सौ  पच्चीस लाख करोड़ ले .....?जी भर के कुलाचे मार .....फिर न कहना कि देने वाले ने कजुसी की ...
इस रकम को  आप दिल्ली से बिहार तक  हाथ ठेले से, चुनावी रैली की शक्ल में भिजवायें तो ,इलेक्शन के खत्म होते तक का समय, जरुर लगेगा |याद रहे, यहाँ स्कुल में पढाये जाने वाले काम ,घंटा, समय, मजदूरी को केल्कुलेट करने के लिए इकानामिस्टों और गणितज्ञो की सलाह लेनी पड़ेगी|सेक्युरिटी का जबरदस्त बन्दोबस्त, बिहार होने के नाते करना पड़ेगा | खाली, इस रकम को भिजवाने में ही गरीबों,इकानामिस्टों,गणित ज्ञाताओ,सिक्युरिटी जवानो और चेनल के रिपोर्टर को अच्छा खासा ‘मंनरेगा जाब’ मुहय्या हो जाएगा |
एक अच्छे शासक की तूती, इतने जोरो से बोलेगी कि पार्टी फंड से,इलेक्शन जीतने के बाबत  एक पैसा खर्च करने की नौबत ही न आये|
अपोजीशन को यह एक सीख है, देखो तुम खजाना लुटाना नहीं जानते |सात पुस्तों तक बैठे-बैठे खाएं, इस हिसाब से जोड़े रहते हो, कौन आके खायेगा ....?
इस्तेमाल करो ....का वर्षा जब कृषि सुखानी ......?
उधर मुझे रकम पाने वालो की भी फिक्र है|वे इतनी बड़ी रकम रखेंगे कहाँ ....?
देने वाला एक दिन  हिसाब लेने आयेगा ....बताओ क्या किये ....?
तुम हमे वो  पुल दिखाओगे ,ब्रिज दिखाओगे ,सरकारी इमारत दिखाओ जिसे कहते हो कि भेजे  हुए पैसो से नया बनवाया है......?आप जोड़ घटा के भी खर्च न कर पाए....?रकम ज्यो की त्यों ९० परसेंट बची है ....?
 तुम जनता में बुला बुला के सायकल ,लेपटाप ,लालटेन ,साडी ,घड़ी ,फ्री मोबाइल ,रिचार्ज ,फ्री वाईफाई बाटने का दावा करोगे .....?रकम फिर भी ८० परसेंट बची है .....|इतना किया तो भी ठीक ....जनता का पैसा ,जनता की जेब में गिरे,हमें कोई तकलीफ नहीं ....|
बाकी बचे  पैसों के लिए, अभी मारकाट मचेगी|
हम आपके ‘डील’ में रहते हैं, के दावा करने वाले, सीधे दलाल स्ट्रीट से बोरिया बिस्तर समेट कर, बंटती हुई रेवड़ी हथियाने के चक्कर में दौड़ लगायेंगे |
यूँ लगता है ,वहां के लोग तो रेलवे रिजेवेशंन काउंटर की लाइन में, अब तक लग के धक्का मुक्की कर रहे होगे ?क्या दिल्ली ,क्या मुंबई, चेन्नई कलकात्ता ...सब जगह के बिहारी बन्धु जो  खाने कमाने निकले रहे  वापस बिहार  लौटने की तैयारी में होंगे|
अच्छे दिन बाले भइय्या ने अच्छे दिन की शुरुआत बिहार से कर दी है,ये डुगडुगी ज़रा जोर से पिटवाओ |मगर इस बात की ताकीद जरुर कर लो कि रकम का भुगतान अवश्य होवे, वरना किसी ‘जुमले’ का बहाना लेकर, देने वाले की नीयत देर सबेर कब बदल  जाए कह नहीं सकते |
इस रकम पर माफिया सरगनाओं की नजर भी टिकी रहेगी |
एक सौ पच्चीस करोड़ में पाए जाने वाले आर्यभट्टिय-जीरो को, जब तक वे, पीछे की तरफ से कुतर  न लेवे, उनकी भूख शांत नहीं होने की ..... |
उनके बिजनेस में बहुत मंदी आ गई थी|जिसे किडनेप करो, एक रोना रोता था....... भाई बाप  .सारा नम्बर दो का पैसा तो विदेशों में पडा है, लाने को मिल नहीं रहा तुम्हे क्या दें ...?हाँ ये एकाउंट नम्बर है ,वहां जा के सेफली, कुछ ला सको तो अपनी फिरौती काट  के बाकी नगद हमें पकड़ा दो आपका एहसान रहेगा |उस डूबे पैसों से भागते भूत को लंगोटी और हमें पजामा जैसा , कुछ तो मिलेगा |
माफिया सरगना लोग केवल किडनेपिंग-फिरौती के बल ज़िंदा नहीं रहते |इसके  अलावा, उनके दीगर ब्रांच, मसलन सरकारी ठेका उठाने  या ठेका पाए ठेकेदारों  को उठाने धमकाने का भी होता है |अब इतनी बड़ी रकम आ रही है तो काम के बड़े-बड़े दरवाजे खुलेंगे |छोटी-मोटी खिडकियों की धूल साफ करने के दिन बिदा होते दिख रहे हैं |
बिहार के कुत्ते भी उचक-उचक के एक दूसरे की बधाईयाँ दे रहे हैं|एक ने पूछा आदमी खुश हो रहे हैं ये तो समझ में आता है भाई ,तुम लोग क्यों जश्न मना रहे हो.....?एक मरियल सा कुत्ता, पूछने वाले की नादानी पर कहता है ,साफ है ,बिहार में बिजली की कमी थी ,नए प्रोजेक्ट में बिजली के तार खिचे जायेंगे ,तार खीचने के लिए खंभे गड़ेंगे ...और खंभों से हमारी एक नम्बर वाली सुलभ शौचालय की समस्या  दूर होगी कि नहीं...... ?
सबने अपने-अपने जुगाड़ ढूढने शुरू कर दिए |चलो थोड़ा आम-आदमी से भी  पूछ लें ....
क्यों भाई आम आदमी ......भाषण-वाषण सुने बा .....?
आम-आदमी में आजकल सियासी-खुजली भी पाई जाने लगी  है |छूटते ही कह देता है ,ये सब चुनावी चोचले हैं ....साहब .|अपने दुश्मन नंबर एक को पटखनी देने के सियासी दावपेंच खेले जा रहे हैं बिहार को बीमारू कह-कह के वे चारागर बने फिरते हैं, नब्ज टटोल रहे हैं .......ये हम सब नइ जानते का  .....?वे लाठी इतनी जोर से भांजना सीख गए हैं कि अगले की कमर ही तोड़ के रख दो ,जिन्दगी भर उठने न पाए.....|ये  जनता को बिकाऊ समझने वाले लोग  ,प्रलोभन का मायाजाल बिछा के,हमारा  रेड कारपेट वेलकम करने की, तकनीक विदेशों से सीख-सीख आये हैं |
देक्खते हैं... कब मिलता है...कितना मिलता है ,.कहाँ और कैसे जाता है, इतना पैसा ......?            
     
सुशील यादव






अधर्मी लोगों का धर्म-संकट

अधर्मी लोगों का धर्म-संकट    

                                    व्यंग,.......   सुशील यादव ......
  धर्म-संकट की घड़ी बहुत ही सात्विक, धार्मिक,अहिसावादी और कभी-कभी समाजवादी लोगों को आये-दिन आते रहती है |धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है |
यूँ तो मैंने अपने घर में केवल बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ |’
बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ,ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई |  अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के करीब ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती |
मेरे जानकार लोग आ कर राय-मशवरा कर लेते हैं |
शर्मा जी ने कुत्ता पाला ,प्यार से उस दबंग का नाम ‘सल्लू’ रखा |दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि सलमान से भी तुलना किये जाने के काबिल था तो शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते |
  रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते |उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के स्वत: हो गया था ,इस मजबूरी के चलते किसी ने उसे सलाह डी कि एरे गैरों पर लुटाने में बाद में वे लोग ज्यादा की इच्छा रखते हैं और खून –मर्डर तक करने से नहीं चूकते |बेहतर हो कि आप कोई मूक बेजुबान मगर गुराने भौकने वाल जीव कुत्ता पाल लो |इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज पाए जाते हैं |बी पी टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी होते हैं यी दावा विदेशों के खोजकर्ताओं  ने अपनी रिपूर्त में दिए हैं |इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से सल्लू को खरीद लाये |कुत्ता ,डागी फिर सल्लू बनते बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर सेवारत है |
एक वे बाम्हन उपर से सल्लू की डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?
ये तो इस संकट की महज शुरुआत थी,उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज डबल मार करता था |
शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा अपने आँगन और लान तक सीमित रहेगा | मगर दागी कह देने मात्र से  कुत्ते-लोग नस्ल विरासत को त्यागते  नहीं| सूघने के माहिर होते हैं| उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो  पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता |शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले महराज ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही छापा दल की कार्यवाही होगी| वे सल्लू की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे |वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिद्काने का भाव जागृत करता,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद या ज्वेलरी को बिना देरी किये   हटा लेते |शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सल्लू की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते |महाराज के बताये तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता |पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते| वे अपने क्लाइंट को महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात करने और लेन-देन  का आग्रह करते|
शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है |शर्मा जी  नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत सल्लू को भेजते |नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर श्रीवास्तव जी की लाइन में सल्लू को, सड़क किनारे निपटवा देते|श्रीवास्तव जी बहुत  कोफ्ताते ,वे दबी जुबान नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते| वह मुहफट तपाक से कह देता कि सल्लू को गन्दी और केवल गंदी  जगह में निपटने की आदत है| इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं  नहीं है |सल्लू भी इस बात की हामी में गुर्रा देता |श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते |किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत बात, बॉस के कानो तक पहुचती तो वे आफिस में अलग गुर्राते |बाद में कंसोल भी करते कि,देखिये  श्रीवास्तव जी आप तो  जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते |श्रीवास्तव जी का ‘सल्लू’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था |
“सल्लू साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?
 सल्लू की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते |कहते कि सल्लू अकेले बोर हो जाएगा |
सबेरे के वाक् में सल्लू और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से  खीचते, नजर आती थी|
पता नहीं चलता था, कौन किसके कमाड में है ?
 जब किसी पर ‘सल्लू’  गुर्राता, तो लोगों को शर्मा जी बाकायदा आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है |
वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?
वे दुविधा यानी धर्म-संकट में दिखे. ..|बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जारहे थे | मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?
वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...|मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं |किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है| तुमको पांच साल पहले, कुर्सी सौप के सेवा से  निवृत हुए थे |
सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है |हमारा सल्लू १४-१५ साल का हो गया| सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था |हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है  |अब बीमार सा रहता है |कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता |पैर में फाजिल हो गया है चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है |शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा  आये |जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया |फ़ायदा नहीं दिखा |
मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे  ,किसी सगे को केंसर हो गया हो| बस दिन गिनने की देर है |उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया | सल्लू के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते |आजकल वो नानवेज छूता नहीं |उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे  नान वेज खाने लग गए थे| अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन  हप्तो से नहीं बना |
एक तरह से,वेज खाते-खाते  सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं |पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?मेरे सामने वफादारी का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था |
वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे| मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा  “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”
“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी  .....?
ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में मैंने कहा ,शर्मा जी ,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हो”, उनको सोच के, परमात्मा से ‘सल्लू’ के लिए बस दुआ ही  माग सकते हैं |
मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया | पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता  सामने रखने को कहा |नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से  आग्रह किया, कुछ खा लें | वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए |
महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये,  शर्मा  जी को सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था|वे फ्रोजन चिकन खरीद रहे थे| मुझे लगा वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सल्लू’ की तेरहीं भी कर डाली हो |
मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये,
 बाहर निकल आया |
सुशील यादव


साधू न ही सर्वत्र ....



साधू न ही सर्वत्र ....

जैसे हर पहाड़ में माणिक, हरेक गज के मस्तक मोती, हर जंगल में चन्दन का पेड़ नहीं मिलता, वैसे ही हर कहीं साधू मिल जाए, संभव नहीं है |
वे जो साधू होने का स्वांग रचते हैं, विशुद्ध बनिए या याचक के बीच के जीव होते हैं |साधू का अपना घर-बार नहीं होता|घर नहीं होता इसलिए वे कहीं भी, रमता-जोगी के रोल में पाए जाते हैं |’बार’ नहीं होता इसलिए वे पीने की, अपनी खुद की व्यवस्था पर डिपेंड रहते  हैं|
टुच्चे साधू, कभी-कभी ,जजमान की कन्याओं को ‘बार-बाला’ दृष्टि से देहने की हिमाकत कर लेते हैं |अपनी निगाह में उनको  चढाये-बिठाए रखने की  लोलुपता में नहीं करने लायक कृत्य कर बैठते हैं |
साधू का राजनीति-करण हो जाए, तो बल्ले-बल्ले हो जाता है | शराब-माफिया ,ठेका-परमिट के  खेल से पैसा पीटते इन्हें  देर नहीं लगती|रातों-रात आश्रम की जमीन में भव्य-महल खडा हो जाता है |लग्जरी-कारों का काफिला .नेशनल परमिट की बसे. आश्रम के पास की नजूल जमीनों में खड़ी होने लगती हैं |
देने-वाला जब भी देता, पूरा छप्पर फाड़ के देता, वाली कहावत का  पीटने वाला डंका इनके हत्थे  लग जाता है |
सर्वत्र नहीं मिलाने वाले, साधू की तलाश में मै बरसों से हूँ |
जंगलों में ,पहाड़ों पर ,गुफाओं में सैकड़ो लीटर पेट्रोल फुक कर ढूढ़ डाला |जबरदस्ती, कई साधुनुमा चेहरों के सामने हथेली रख कर भविष्य पढवाया| वे लोग आम तौर पर एक कामन वाक्य बोलते रहे, बच्चा तू सबका भला करता है मगर तेरा भला सोचने वाला कोई नहीं है|तेरे मन में ऊपर वाले के प्रति बहुत आस्था है |तू खाते पीते घर का चिराग है |मुझे लगता ,मेरे कपडे व गाडी को देख के वे सहज अनुमान में कह देते रहे होंगे | तेरे पार धन वैभव की कोई कमी नहीं तू हर किसी के मदद के लिए अपने आसपास की जगह में जाना जाता है |मै उनसे कहता ,बाबा मै एक सच्चे साधू की तलाश में भटक रहा हूँ मेरी कोई मदद करो .....?वे कहते अब तू हमारी शरण में आ गया तेरी तलाश पूरी हुई भक्त जन |
मुझे कभी लगता था कि एकाध साधू ,किसी दिन मुझे हातिमताई- नुमा आदमी समझ कर निर्देशित करेगा कि बच्चा यहाँ से हजारों मील दूर, सात समुन्दर पार, एक ‘मुल्क ऐ अदम’ है ,वहां हजारों साल से एक योगी ध्यान लगाए बैठा है जो भी उसके पास फटकता है वह अपनी तीसरी आँख से जान लेता है और या तो उसे भस्म कर देता है या उससे  रीझ कर, खुश हो कर, इस संसार के सभी एशो आराम से नवाज देता है...... |
इस अज्ञात साधू के वचन से एक साथ दो छवियाँ मेरे  सामने हटात  उभरती है ,एक ओसामा दूसरा बगदादी .....|दोनों पहुचे साधू जमात के बिरादरी वाले लगते हैं |इनकी ध्यान मुद्रा में खलल डालने का मतलब है खुद को भस्म हो जाने के लिए पेश कर देना |और इनके कृपापात्र बनने का, भगनान न करे कोई नौबत आये ....चाहे  लाख सुख आराम वाले घर मिले या , एयर-कंडीशन शौचालय में, कल्पना की उड़ान का अपशिष्ट, त्याग करने की व्यापक  सुविधा हो|
वैसे दोनों संत  समुंदर-पार हजारों मील दूर रहते हैं |
मै ‘कल्पना-बाबा’ से देशी-उपाय, बाबत आग्रह करता हूँ |कोई देशी- टाइप साधू जिसकी पहुच,आत्मा-परमात्मा तक भले न हो कम से कम परलोक सुधारने का नुस्खा या टिप ही दे दे |
‘कल्पना बाबा’ ने गूगल स्रोत पर विश्वास किया और आजमाया |बहुत खोज-ढूढ़ के बाद एक, त्रिगुण नाथ शास्त्री नामक गेरुआ वस्त्र धारी का संक्षिप्त परिचय मिला,
वे तीन गुणों के कारक कहे-समझे जाते थे पहला गुण वे निरामिष, निराहार ज्यूस पर टिके होने का दवा करते थे |दूसरा लगातार पांच इलेक्शन लाखों-मत के अंतर से जीतते रहे |वे अनेकों बार मंत्रिपद ठुकरा चुके थे |उनके पास आदमी को पढने की दिव्य शक्ति थी |
ऐसे दिव्य पुरुष के नजदीक फटकने  का कोई सीधा-सरल उपाय सूझते न देख, हमने पत्रकार वाला चोला पहना |इस देश में यही एक सुविधा है कि, जब चाहे आप अपनी सुविधा के अनुसार अपना डील-डौल ,हील-हवाले चुन -बदल सकते हो |
मै एक माइक लिए उनके सामने था |
शास्त्री जी ,आप गृहस्थ-साधू के रूप में जाने जाते हैं ,आपमें आदमी को पढने की दिव्य शक्ति है ,आप इलेक्सन कभी नहीं हारते .....इन सब का कारण क्या है .....?
देखिये श्रीमान ...! आपने बहुत सारे प्रश्नों को एक साथ रख दिया है ,मै एक-एक कर के उत्तर देने का प्रयास करूंगा  ...
जहाँ तक ‘आदमी को पढने’ की बात है, मै ज्यादा तो कुछ दावा नहीं करता बस मीडिया वाले यूँ ही उछाले बैठे हैं ,वैसे आपको सामने पा कर लगता है कि आप बहुत दिनों से किसी ‘ख़ास-आदमी’ की तलाश में भटक रहे हैं |मेरा मनोविज्ञान कहता है की आपको इस मोह-माया वाले संसार से कुछ लेने-देने का मोह भंग हो गया है |जिस व्यक्ति या वस्तु  की आप बरसों से तलाश कर रहे हैं, उसे विलुप्त हुए तो सदियाँ बीत गई |इस मायावी संसार में ,भगवान पर सच्ची आस्था रखने वालों की अचानक कमी हो गई है, बस मजीरा-घंटी पीटने-हिलाने वाले, कुछ लोग बच गए हैं |मेरा इशारा तुम समझ गए होगे .....?
मै चकित हुआ, चकराया ! एकबारगी लगा  क्या घाघ आदमी है, मगर दुसरे ही पल अपने गलत सिचार को विराम दे, उनके प्रति श्रधा के कई  सुमन अपने आप खिल आये |
वे आगे कहने लगे ,जहाँ तक इलेक्शन जीतने का सवाल है ,मै अपने इलेक्शन-सभाओं  में  विरोधियों की जमकर तारीफ करता हूँ ,इनकी एक -एक खूबियों को जनता को गिनवाता हूँ, उनसे आग्रह करता हूँ कि, मुझसे सक्षम उम्मीदवार, वे लोग ही हैं| कृपया आप उनको चुन-कर .जिता लाइए| वे आपका भला करंगे |अकारण सारे वोट मुझ पर आ गिरते हैं |
आज नाली-सडक बनवा देने मात्र से जनता खुश होने वाली नहीं उन्हें मानसिक सुकून की तलाश है, जो गुंडा-मवाली किस्म का कैंडिडेट नहीं दे सकता इसलिए उनका झुकाव मेरी तरफ आप ही आप  हो जाता है|
रही बात, मेरे गृहस्थ-साधु-रूपी छवि की, तो बतला दूं मै सेवागाम में पहले, अपने पिता जी के साथ सेवा-टहल में लगा रहता था |वहां के संस्कारों की अमित छवि है | आचार्य जी का, रहना, उठाना, बैठना पास से देखा है, सो वही दिलो दिमाग में काबिज है |
मुझे लगा मेरी तलाश लगभग ख़त्म हो चुकी है ,एक सच्चा साधू जरूरी नहीं कि वन-कंदराओं  में  भटकता फिरे ....उससे ,वो ज्यादा सच्चा है जो दुनियादारी में फंसकर भी बेदाग़ निष्कलंक रहे |
सुशील यादव