Thursday, 23 February 2017

पीठ के पीछे की सुनो .....

आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते |ढेर सारी चिकनी –चुपडी सुना के जाते हैं |क्या जी आपने तो खूब मेहनत की | लोग आप को समझ नहीं पाए जी |पिछली बार अच्छे से समझे थे  |पता नहीं इस बार क्या कारण रहा ? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला  ....?
प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं |
परोक्ष में ,यानी पीठ के ठीक पीछे,....... कहते फिरते हैं ,खूब ताव आ गया था....... स्साले में ,आदमी को आदमी नहीं समझता था |
कुत्तों ,गुलामो की तरह बिहेव करता था |
हारना ही था |
अब भुगतो पांच साल को |
और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले |
गए..... |
उधर प्रकट में ,नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी ...?
फिर हुई तो हुई कैसे ....?
हार के कारणों के  विश्लेषण के लिए अपने चमचो की कमेटी को काम सौपते हैं |
देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूँ  नहीं ,मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं |
तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो |देखे क्या निकलता है |
चमचे नेता जी से राशन-पानी,डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है|
आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं |
महराज ,मै किशनपुरा इलाके में  गया था,वहाँ से आप बीस हजार से पिछड़े थे |
जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था ,दरअसल ,लोग उसके सख्त खिलाफ थे |वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था |अनाज,कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता  मगर सबके दाम आसमान में चढाये  रखता था,जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए |सामान वापस करने जाओ तो,दैय्या-मैया करके  भगा देता था |किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे |अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना  प्रचार करवाने निकलोगे  तो जीतने की गुजाइश कहीं  बचती है क्या  ?
भैय्याजी ,हम उसी के बगल वाले गाँव की रिपोर्ट लाये हैं |वहाँ ये हुआ है कि,मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे  के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए |अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा  और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते |लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची |
   भय्या जी आपके लठैत के रंग –ढंग अच्छे नहीं थे |
-काय  बिलवा,खुल के बता न ...?अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे ....?
भईया जी,हमने पहले कही थी,लठैतों को शुरु से मत उतारो|आप मानते कहा हो ...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे|गाँव में लौंडिया छेडते रहे|आपकी, वो क्या कहते हैं ,साफ सुथरी इमेज को ‘सर्फ’ से धोने लायक भी न रख छोड़ा|
जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों  के गाव से  अकेले पच्चीस – तीस  की लीड करते|
महाराज,जिसे आपने अपने पक्ष में ,पांच पेटी  दे के बिठाया , वो मनराखन साहू ,बहुत कपटी आदमी निकला |विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने ..... |वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया|दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर |आप भी कहाँ –कहाँ फंस जाते हो ,समझ नहीं आता | वो पिल्ला बोलता है ,इलेक्शन के खम्भे हर साल  क्यों  नहीं गडाए जाते ...?मूतने में सहूलियत होती |
महराज ,आपने एक बात,पटरी पार वाले गाव की नोट की ?
आपने उधर शहर को जोडने वाले पुल बनवाए | रोड को मजबूती दी , सीमेंटीकरण करवाए,बुजुर्गो के लिए उद्यान,कन्याओं के लिए गल्स कालेज खुलवाए |उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं |आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं |केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के  लहराया है भाई जी |
काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते ...?आपकी जीत निश्चित होती |
सुशील यादव
पूर्वजो की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ |अब ज्यादा फेकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों  को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे |
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानो  उनमे कुछ बनने की, अपने –आप में काबलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नही चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथो हुआ करता था |
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं |
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना  है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गो के लिए फक्र का मसला हुआ करता था |
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू |
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है |
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच  हो जाया करते  थे |
 सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी   के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी |
किसी पडौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... |मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड |
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर,  कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था|वे जंगलो में शिकार के वास्ते  दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों  के लिए चल देते थे |
 हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोस्त उनका लंच –डिनर होता था |
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती  रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न  मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है |
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया |वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल  ,बच्चो को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे |
इस  कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक  निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडौस के सहदेव जी,खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नही,पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा |
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान  में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी  आर्डर ही  नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई |पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन |
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है |बेटा अपनी पोस्ट और  पैसे पर इतराता था |चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सडक को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है |उसे सरकार छोडती ही नहीं |बड़े-बड़े  प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है |
अभी ब्रिज का काम मिला है |वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं |सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई  पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि  ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून,  बाटन में  पल्टी मार के कहता है|मेरी बात सुने  नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी |कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त |
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने  के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई |
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए  लोग खानदान का अता-पता क्यों  लेते रहते हैं |उसके पीछे का मकसद ,शायद  ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा |
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम  अगर सब   इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापो के  अफलातून बेटों  को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती |इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुह से बोल, फूलो की  माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज  का फरमान जारी |
मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून  बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश |यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन  जरूरत होती है |वे मजे से बता  सकते हैं कि प्याज,  डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है |
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?

सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)

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