Thursday 23 February 2017

बदला ....राजनीति में ....




राजनीति में पार्टी या पारी  बदलने के साथ, ‘बदला’ लेने की परंपरा शुरु से रही है |
इस परम्परा को न  मानने वाले, ‘धुरंधर खिलाड़ी’ की श्रेणी से बहिस्कृत कर दिये जाते है|
यहाँ बदला लेने वाले का  अंत;करण ‘अर्जुन-कृष्ण संवाद’  को  ध्वनित करते हुए उसे ‘मैदान’ में आने के लिए उत्साहित करते रहता  है ;यथा ;
-‘हे पार्थ , अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-स्वरूप, इस प्रकार के ‘युद्ध’ को भाग्यवान लोग की पाते हैं |’
-‘यदि तू इस धर्मयुद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ती को खोकर पाप को प्राप्त करेगा |’
-‘सब लोग तेरी भूत-काल की  अपकीर्ती का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ती मरण के सामान है |’
-‘जिनकी dristhiदृष्टि में तू पहले बहुत  सम्मानित रहा ,वे महारथी तुझे ‘भय’  के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे |’
राजनीति में ‘खदेड़े’ हुए लोग बड़े धुरंधर ,काबिल और माहिर होते हैं |
इनसे पंगा लेने का मतलब है, आ बैल मुझे मार, यानी सोये हुए शेर को पत्थर मार के जगाना |
एक तो इन्हें निकालना नहीं चाहिए, दुसरे अगर अकेले मलाई चट करने  के लिहाज से, इनसे किनारा करना, निहायत जरुरी किसम की, आवश्यकता है, तो ‘चाणक्य- नीति’ के, गुटके टाइप इतिहास का, घोर,-घनघोर अध्धयन किया होना बेहद जरुरी है |
ये  युद्ध के लिए लालाईत लोग होते हैं |पीछे हटते नहीं |
अमूमन देखने में आया है, कि किसी ने अपनी पार्टी में बढ़ते प्रभाव के चलते,एक-दो टिकट ज्यादा मांग लिए ,पेट्रोल पम्प में अपने लोग काबिज कराने अपने केंडीडेट डाल दिए,किसी टेंडर- ठेके में अपनी टांग घुसेड दी ,नजूल जमीन की सरकारी बन्दरबांट में अपनी चला दी ,यही सब,लोकतंत्रीय व्यवस्था के व्यवधान, उभरते किस्म के लोगो को, पार्टी से धकियाने के कारण बनते आये हैं |
इसमें कुछ अहम महत्वपूर्ण  कारणों का उल्लेख लेख की मर्यादा कायम रखने की बदौलत नहीं लिखे जा पा रहे हैं जिसका खेद है ,मसलन  मिनिस्ट्री में मलाईदार जगह,संगठन में ठोस निर्णय की सर्वकालिक जानकारी यथा ‘बिना उनके पत्ता न हिले’ वाली सोच........ ,उनके पुराने कारनामे में ‘पर्दा –प्रथा’  जारी रहे की मांग....... या हो सके तो उनके विरुद्ध सभी ‘न्यायालयीन’ मुद्दों की सभी  प्रकार के   क्रियाकलापों की अंत्येष्ठी.......
पार्टी की कुछ मजबूरियां होती है,वरना कोई बेवफा नहीं होता |
उथले इल्जाम भी संगीन तरीके से लगाने की नौबत आ जाती है |
यानी कि आप, पार्टी के बड़े ओहदेदार के खिलाफ, मीडिया में क्या खाकर चले गए ?
संगठन वाले अपना दफ्तर सुबह आठ से  लगाए फिरते हैं और आप हैं कि उधर का रुख नहीं करते ?
आपका ‘इगो’, उधर का  ‘गो’ करने नहीं देता,?
आपकी सोच होती है ,छोटन से क्या मुह लगे....? ‘बड़े’ के पास फटकार की डर से आपका जाना नहीं होता|
जो कहना है मीडिया वालो से कह डालो  ,जरूरत पड़े तो यू- टर्न फार्मूला हाजिर है |बात, बनी तो बनी, नहीं तो सब्जी बेचे अब्दुल गनी .......?
चार-आठ दिन तो खलबली सी मची रहती है |भइय्या ,अब तो ये गए .वाली ....|
पार्र्टी मामला ठंडा करने ,लीपा-पोती के तात्कालिक प्रयास में प्रेस वालो का पंचायत- कांफ्रेस करवा देती है |
कारण गिनवाए जाते हैं,नमक-मिर्च ,इंट –रोड़ा-पत्थर जिसे जो मिला इनके माथे जड़ दिया जाता है ,
‘और आगे नहीं-निभने’ की घोषणा के साथ दरकिनार का एलान हो जाता है |
मीडिया वाले तुरंत, माइक का मुह ‘बहिष्कृत’ की तरफ मोड़ देते हैं “दीपक ,बताओ उन को कैसा लग रहा है ?
दीपक का फायर राउंड चालु हो जाता है ,आपने इतने साल पार्टी की सेवा की ,आज आप निकाले गए ......कैसा लग रहा है .....?
-देखिये ,हम बहुत खुश हैं (पता नहीं ये क्यों खुश हैं ?, शायद हर बात में थैंक यू कहने की आदत के चलते रिवाजी जूमला हो इनका ) |
-हमने पार्टी को अपने कन्धों पर पच्चीस सालो तक खीचा ,केबिनेट में रहे ,बड़े –बड़े निर्णय में हमारी अहम् भूमिका रही ....हमसे सब अच्छी तरह से घुले-मिले थे यही हमारा अपराध था .....?
-सर ,इसमें अपराध जैसा कहाँ है .....?
-नहीं आप समझे नहीं ....|
-सर्वे-सर्वा को हमसे खतरा दिख रहा था ,अब ज्यादा क्यों मुह खुलवाते हो .....अभी पूरा निर्णय कहाँ हुआ है ?शो-काज आने दीजिये ,फिर देखेंगे ?
-इसके अलावा कोई दूसरा पहलु भी है ....आपकी नाराजगी का .....?
-हाँ ,है तो सही ,मगर आप मीडिया वाले दिन-दिन भर हाई-लाईट के नाम पर वही-वही दिखाते हो .....सुनिए ! हमें अपनी बेइज्जती ‘कल के छोकरों’ से बर्दाश्त नहीं होती ....बस ,इशारा समझिये ....चलाइये अपना चेनल ......
वे चलते बने .......
-सर,जाते –जाते ये तो बता जाइए आपका अगला कदम क्या होगा .....?
-अगला कदम , ....? आपको जल्दी पता चल जाएगा ...हम एक किताब लिखने की सोच रहे हैं |बखिया सबकी उधेडी जायेगी ....किसी को नहीं बख्शेंगे ....|समझ लीजिये .....
इन संवादों के ‘साइड- इफेक्ट्स’ में यूँ  लगा,  कुछ देर के लिए मुझे  राजा विक्रम की छद्म भूमिका मिल गई है ?
बेताल घुडकते हुए कह रहा है ,बता राजन ,एक पुँराने निष्ठावान की निकासी यूँ संभव है ?
क्या निष्ठावान, ‘निकासी के फायदे’, स्वरूप अपनी पुस्तक के प्रचार में अभी से लग गया ?
 क्या पार्टी के बेलेंस में कोई झटका लगेगा ?
बेताल की धमकी कि, इन प्रश्नों के उत्तर अगर जानते हुए भी न दिए गए तो सर के तुकडे-तुकडे कर दिए जायेंगे ;सकुचाते हुए ,मेरे भीतर का राजन उवाच-
बेताल ! यूँ तो आपने बहुत सारे सवाल उछाल दिए  हैं ,अपनी हैसियत मुताबिक़ मै इंनके उत्तर देने की कोशिश करता हूँ
जहाँ तक पुराने निष्ठावान होने का प्रश्न है सिर्फ निष्ठावान होने भर से, किसी को अमर्यादित बयान देने की छूट नहीं मिल जाती|
उन्हें, नीति कहती है, मर्यादा में रहना चाहिए |अपनी बात, संगठन के मंच पर कहना सर्वदा उचित होता है |
-दूसरे प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहना है कि ,निष्ठावान, अपनी ‘पोल-खोलू किताब’ की बिक्री योजना का कोई मंसूबा नहीं पाले हुए है |
उसे सालों से अच्छी मिनिस्ट्री मिलते आई है ,अथाह  कमाई के बाद रायल्टी  वाला आइडिया निष्ठावान के केरेक्टर से मेल नहीं खाता |
मेरी राय में ,रायल्टी तो टूटपुंजिया साहित्यिक-लेखको की बस रोजी-रोटी हल करती है |इनकी किताबे लिखी तो जाती हैं ,प्रकाशित होती हैं मगर खरीदने वाला सरकारी विभाग की  लाइब्रेरी के अलावा कोई,कहीं  नहीं होता|
पब्लिसिटी के अभाव में,प्रकाशित होने के  पहले हप्ते ही किताब बिक्री का  दम तोड़ देती हैं |यहाँ फिल्मो जैसा व्यापार नियम नहीं है ,नंगे हो जाओ ट्राजिस्टर से आगे अंग ढको ,पीछे जैसे कोई देखने वाला नहीं फिर टिकट खिडकी में सौ-दो सौ करोड़ पीट लो  ...|
   निष्ठावान टाइप लोगों  की पुस्तके ‘एक पंच लाइन के दम पर’ बिक्री का आसमान छू लेती हैं |
बेताल ये विडंबना मै खुद लेखक होने की वजह से भुक्तभोगी जीव बन के कह  रहा हूँ |
रही बात पार्टी के बेलेंस  की ,वो तो सम्हल जायेगी |
एक के गए से , बाजार नहीं भरेगा, ये आज तक कभी हुआ है ?
बाजार की रौनक आज –नहीं तो कल अपने पूरे शबाब ,दम-ख़म से लौट आयेगी |
बेताल ये कहते हुए, पेड़ पे जा लटका ,राजन ,तुमने मेरे प्रश्नों के सब सही जवाब दिए .....
स्वगत मैंने जोड़ लिया; ‘आपकी जीती हुई ‘करोड़’ की राशि किस स्विस अकाउंट में जमा कराऊ,.......है कोई स्विस खाता तुम्हारे पास ......?’
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)



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