Monday, 20 February 2017



मैं सपनों का ताना बाना, यूँ अकेले बुना करता हूँ
मंदिर का करता सजदा, मस्जिद भी पूजा करता हूँ

मिलती फुरसत, मुझको जिस दिन, दुनिया के कोलाहल से
राम रहीम की बस्ती, अलगू जुम्मन ढूँढा करता हूँ

जब-जब बादल और धुएँ, बारूदी ख़ुशबू मिल जाती
उस दिन घर आँगन, छुप-छुप पहरों मैं रोया करता हूँ

मज़हब-धर्म के रखवाले, इतने गहरे उतर न पाते
जिस सुलह की गहराई से, मैं मोती साफ़ चुना करता हूँ

हम सब ले कर चलते, तर्कों के अपने-अपने मुखड़े
मेरी शक़्ल से तुम हो वाक़िफ़ किस दिन मैं छुपा करता हूँ

सहूलियत की खबर.....

तेरी उचाई देख के, कांपने लगे हम
अपना कद फिर से, नापने लगे हम

हम थे बेबस यही, हमको रहा मलाल
आइने को बेवजह, ढांपने लगे हम

बाजार है तो बिकेगा ,ईमान हो या वजूद
सहूलियत की खबर ,छापने लगे हम

दे कोई किसी को,मंजिल का क्यूँ पता
थोडा सा अलाव वही , तापने लगे हम

वो अच्छे दिनों की ,माला सा जपा करता
आसन्न खतरों को ,भांपने लगे हम
sushil yadav

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