Thursday 23 February 2017

सब कुछ सीखा हमने ......

होशियारी कहाँ सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला ? यूँ तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं  |
हमारे फेके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते  थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए |बिसात धरी की धरी रह गई |
 हमारे चारों तरफ हुजूम होता था |आठ –दस माइक से मुह ढका रहता था |एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेंन  लिए, हमारे कारवाँ के पीछे सुबहो-शाम भागते थे |
सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था |
हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बाँट रखा था |सुबह भजन कीर्तन,मंदिर –मस्जिद वालों से मुलाक़ात,फिर उदघाटन,फीता कटाई के आग्रहकर्ताओ से भेट ....|लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई,यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन ...| उसके बाद टेन्डर,ठेका लेने वालो से बातचीत, हिसाब-किताब |
नाली, चबूतरा,रोड,पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी  जाती थी |   आप सोच सकते हैं ,हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में ,घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी,कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया |
आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़,कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ?
जो हमारे दरबार चढा ,सब को सब कुछ, जी चाहा दिया|किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नही की |उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के  तो यूँ लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं |इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो |ना नहीं करेगे .....|
हम इलेक्शन में खड़े हुए |इन्ही लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट ,फकत अपने पक्ष में माँग बैठे |वे हमें न दिए | जाने कहाँ डाल आये |हमारी सुध न ली |जमानत तक नहीं बचा सके हम ....?
तीस –पैतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमे कम नहीं लगा |
इस वक्त हम अकेले  आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं |साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी ,शुभचिंतक ,जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है |
चाय वाला मक्खियाँ मारने से बेहतर,कहीं और चला गया है |
हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी ....?  सुशील यादव,.
समीक्षा के बहाने .....
मुझे लिखते हुए बरसों हो गए |मैंने दरबार नहीं लगाए |
जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने  का आग्रह लेकर  आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया  ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करंते नहीं बनेगी |आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता |बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मै ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए |
बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है |
मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ?
फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है |ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं |साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर  चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने  के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है |
हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं|मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं |इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है |श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है|परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ?
व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं |डिस्क्लेमर पहले  से लगा के चलते हैं “किसी की  भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है |
जब तक आप किसी की भावना  को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से  ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी |यही तो इसकी जान है |आजकल  इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता |वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है |गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ?
लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है |ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो |लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ?
मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ?
हमारे एक मित्र ने,कहीं  लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक  मुगले आजम की छाप  नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है,  कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा  |
हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी  सब समा जाए |सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ?
लेखक जब सिद्ध-हस्तों को  पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना  सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा |
‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं |भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक, |अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में  लेखक की पहुच कहाँ तक है ?
सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया |
समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग)









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