वे पीट रहे हैं ......
ये पढ़ के आपको लगा होगा कि वे कहीं मास्टर जी होंगे ,बच्चो से नाराजगी निकाल रहे होंगे|
दूसरा ख्याल गुंडा-मवाली को लेकर आया होगा ,हो न हो , हप्ता वसूली के विवाद में पिटने –पिटाने वाला खेल खेल रहे होंगे |
आपने ये भी सोच लिया होगा कि सांप निकल जाने पर कोई लकीर पीट रहा होगा |
ना भाई ना आप, कदाचित सर्वथा गलत हैं|
वे जम के पीट रहे हैं, बोलते ही आप समझ जाएगे, कि उनकी नम्बर दो की कमाई जम के हो रही है |
रिश्वत के छोटे –मोटे संस्करणों की जानकारी मुझे बचपन से थी |
पडौसी रामदीन ,जो नजूल दफ्तर में चपरासी था ,के घर से चिकन बिरयानी ,बासमती चावल की आए दिन खुशबू आया करती थी |अम्मा –बापू बतियाते थे ,अच्छी कमाई कर रहा है |
बापू को अम्मा कोसते हुए कहती ,ये मास्टरी वगैरह छोडो ,ढंग की कोई नौकरी कर लो |
बापू बस में कुछ और करने का रहा क्या था सो करते ?बस कुछ और बच्चे ट्यूशन पढाने बटोर लाते | अम्मा चांदी के गहनों में इजाफा कर लेती और खुश हो जाती |
लखन मास्टर के बेटे ने ओव्ह्र्सीयर बन के खूब कमाई की|दुमंजिला बनाते तक तो वो ठीक-ठाक रहा |फिर बाद में अक्सर झूमते –झुमाते घर आने लगा |
रिश्वत की ‘खुशबू’ के बाद रिश्वत का ‘झूमना’ देखा |
शादी –ब्याह की पार्टी में मिश्राइन भाभी का ‘ज्वेलरी- शो ‘,शर्माइन का साडी कलेक्शन पर व्याख्यान, सब को अपनी ओर खिचे रहता था |क्या ठाठ थे उनके |
वे अपने-अपने पति के मेहनत(रिश्वतखोरी) का गुणगान करते नहीं अघाती थी |चन्नू के पापा , जब भी कोई नया टेंडर खुलता है ,मुझसे पूछ जाते हैं,कोई सेट चाहिए क्या?
हमारे शर्मा जी दौरे से लौटते हुए कुछ न कुछ उठा लाते हैं |मै इंनपे बिगडती हूँ ,ये क्या वही-वही फिरोजी कलर ,मै तो उकता गई हूँ |
वो पार्टी में मजे से रस-झोल गिराते –गिराते खाती ,दुबारा वो साडी या तो काम वाली बाई के हत्थे चढती या उनके बदले कटोरी –गिलास-बाल्टी खरीद लेती |
सुबह-सुबह ,मार्निग वाक् में हम लोग पिछले चौबीस घंटों की घटनाओं का जिक्र कर ही लेते थे |रविवार की सुबह तो सविस्तार बहस हो जाती थी |रिपीट टेलीकास्ट की नौबत बन जाती थी |
हाँ तो बद्रीधर जी ,जो आप क्या –क्या कह रहे थे परसों ,कि हमने शहर के चमचमाते नेमप्लेट ,कुत्तों से सावधान वाले घरों को देख के कभी सफेद -काली कमाई का आकलन किया है ?
ये तो वाकई सोचने वाली बात है ,कि जिस घर के सामने कलफदार कपड़ों में दरबान हो ,खुशबूदार फूल ,कारीने से कटे पौधे , हरे-भरे लान हो , ये सब सेठ –मारवाड़ियों के ठाठ नहीं होते|
वे अपनी कमाई की नुमाइश लगाने की बजाय शाप या फेक्ट्री में खपा देते हैं |
ये ठाठ तो यकीनन अफसर या मंत्री के होते हैं |
दीवाली –होली तो ये लोग ही खूब मनाते हैं |
रात में नियत समय बाद पटाखे छुटाने की मनाही के बावजूद दो-तीन बजे तक धमाल किए रहते हैं |पता नहीं इनके कौन से आका-काका पटाखों का जखीरा छोड़ गए होते हैं ?
ताश की तीन-पत्ती में इनको ‘ब्लाईंड’ खेलते देख के तो यूं लगता है कि इनका बस चले तो , पूरे देश का बजट यहीं झोंक दें|
होली में इनको पक्का रंग मिलता है |इनके यहाँ रंगे जाने का मतलब हप्ते –दस दिन के लिए कलरफुल बने रहना |
सब ओर ‘ड्राई’ रहते हुए, इनके तरफ बाल्टियाँ भरी होती हैं |इनके इन्तिजाम मास्टर अचूक होते हैं |इनको कहीं से कोई आदेश नहीं होता, स्वस्फूर्त संचालित हुए से रहते हैं |
जो पीट रहे होते हैं ,उनसे ‘पिटने-वाले’ बकायदा बहुत खुश रहते हैं |
ऐसा अजूबा, ऐसे सम्बन्ध, बाप-बेटे ,मजदूर –मालिक या दुनिया के किसी रिश्ते में नहीं मिलता |
ये दो-धारी तलवार, जहाँ धार के एक ओर ‘नोक से लेकर पकड’ तक -चपरासी ,बाबू ,क्लर्क ,मुंसिफ ,दरोगा ,डाक्टर,इंजिनीयर ,संतरी-मंत्री हैं ,वहीं दूसरी ओर इनसे फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और ले-दे कर काम करवाने वाले लोग होते हैं |
इन दोनों ‘धार’ की मार आखिर में येंन-केन प्रकारेण जनता झेलती है |
किसी शहर के सुपर सिविल लाइंस के किसी भी घर का इतिहास झाँक लो , जो आज् दस-बीस-पचास –सौ ,हजार करोड के मालिक हैं ,कल तक वे टूटे स्कूटर में घूमते पाए जाते थे |
पंचर बनाने के जिनके पास पैसे न थे वे आज चार –छ: गाडियां लिए फिरते हैं |
इन्होंने ,जंगल बेच दिए ,जमीन बेच दी, खदान लुटा दिए,टेंडर में घपला किए ,खरीद में, दलाली में हर लेन-देन में गफलत, कमीशन |
चाल-चरित्र और चेहरे में मासूमियत लिए, हर पांच साल बाद आ फटकने वाले लोग कब देश बेच खाएं कुछ कहा नहीं जा सकता ? **सुशील यादव ,श्रिम सृष्टि, अटलादरा,सन फार्मा रोड ,वडोदरा (गुज)
समान विचार-धारा के कुत्ते
शुरू शुरू में जब इस कालोनी में रहने आया तो बहुत तकलीफ हुई |सीसेन(शेरू) को भी नया माहौल अटपटा लगा |
अपने देहात में, जो ‘आजादी’ कुत्ते और आदमी को है, वो काबिले तारीफ है |
कुत्तों को खम्बे हैं आदमी को झाड –झंखार ,खेत-मेड,तालाब, गढ्ढे हैं |पूरी मस्ती से, जहाँ जो चाहे करो |
आदमी को,देहात में समान विचार-वाले लोग, गली-गली मिलते रहते हैं |जय -जोहार और खेती –किसानी के अतिरिक्त विचारों का आदान –प्रदान कम होता है |
गाँव के आदमी और कुत्ते में ,वैचारिक-खिचाव लगभग नही के बराबर होता है, कारण कि अगर वे आदमी हैं तो बारिश होने, न होने ,कम होने की चिंता से वे ग्रसित रहते हैं| अगर कुत्ते हैं तो पिछले बरस महाजन के यहाँ शादी में खाए हुए दोने पत्तलों के चटकारे लेने में मशगूल रहते हैं |वे इसी को बहस के मुद्दों को लंबे –लंबे खीचते रहते हैं |अब भला इन बातों से, टकराव का वायरस कहाँ तक पनपे ?और टकराव हो भी जाए तो, वो तो बारिश है उसे एक ही के खेत में कब गिरना है ,वो अपनी मर्जी से ,अपने हिसाब से ,अपने तरीके से भरपूर गिरेगा |जिसे जो चाहे करना हो कर ले |
गाव के शांत माहौल को ‘बाहरी-हवा’ से निपटने में दम फूल सा जाता है| एक बाहिरी ‘हवा’ है , जो गाव के शांत माहौल को कभी –कभार बिगाड़ के रख देती है |चुनाव आते ही गाव दो खेमो में बट जाता है |
’बाहरी-हवा’ ,ज्ञान का पाम्पलेट, जहां –जहाँ बाँट के चल देती है,लोग मौसम को भूल जाते हैं |कुत्ते पोस्टरों में टाग उठाने की कोशिश करते हैं मगर उस तक पहुच नहीं पाते |
सामान विचारों वाले देहात में खलल पैदा हो जाती है |
बाहरी हवा के कारनामे,गाँव के कुत्ते भी बखूबी समझते हैं|माहौल बिगडते देख ,वे इतने जोर -जोर से भौकने लग जाते हैं कि पडौस के गाव भी झांकने आ जायें |
‘बाहरी-हवा’ ने गांव में एक दिन कुहराम मचा दिया ,सर –फुटौव्वल का माहौल बना दिया |
वे अपने नेता को ‘सेकुलर’बताने के चक्कर में हरेक कौम के लोग इक्कठा करने लगे |
लठैत के सहारे उनके नेता सेकुलर हो गए |भाषण पर तालियाँ पिटी,टी.व्ही कवरेज मिला ,माहौल पर सेकुलर की हवा मानो छा सी गई |
देहातियों को बहस का नया शब्द ‘सेकुलर’ मिल गया |
वे आए दिन बहस करने लगे |
सेकुलर दिखाने के लिए ,आपस में टोपियां बदलने लगे |
वे टोपी बदलते-बदलते, कब सर के बाल नोचने लगे ,कब सर को धडाम से वजनदार लोहे की टोपी पहनाने लगे ?
पता ही नहीं चला |
गाव में सामान-विचारों के मुद्दे पर लोग बटने लगे,विचारों का पोस्टमार्टम होने लगा ,तर्क हाशिए पर जाने लगा ,कुतर्क वालो के पास भीड़ जुटाने लगी |बातो की इतनी छीछालेदर गाँव ने कभी देखी न थी |
कुत्ते हरेक को कुतर्की समझ ,दूर –दूर तक भौकते -पछियाने लगे |गाव अब रहने लायक रह नहीं गया |
माहौल इतना बिगडते चला कि, मुझ जैसे समझदार लोग गाव छोड़ देने में समझदारी देखने लगे |
सो गाँव से शहर के सभ्रांत कालोनी में आ बसा हूँ |
कुत्ता साथ में लाना पड़ा,वहाँ किसके भरोसे छोड़ता ?
मगर सीसेन जब से आया है ,खुले में घूमने की उसकी आजादी छिन गई है |
उसके भौकने पर कालोनी की सभ्रान्तता को देखते हुए लगाम लगाए रखना पडता है |वरना लोग हमें असभ्य –देहाती न समझें |
दिशा-मैदान के लिए उसे घर वालों का मुह ताकना पडता है |
हमारी पूरी कोशिश होती है कि उसे बुरा न लगे उअसका फील –गुड हिट न हो|
हमारी तरफ से ,घर के एक अशक्त को जो सेवा दी जा सकती है, वही ‘सिसेन’(शेरू) इन दिनों, पा रहा है|बावजूद इसके ,वो बहुत दुखी है |
उसे इस नए माहौल में अपने सामान –विचार धारा वाले दोस्त की तलाश है |
सुशील यादव
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