आइये ‘सरकार’ को हम बाँट लें
हम लोगो की खूबी है कि हम. मुद्दों को ,लोगों को ,सिद्धांतों को,सुविधाओं को जाति-धर्म,भाषा, समाज.या लोकतंत्र को अपनी सुविधानुसार, आपस में आपस में बाँट लेते हैं |
बिना बांटे हमें शर्म सी आती है
‘कोई क्या कहेगा’, वाली सोच से घिर जाते हैं |
नहीं बाटने वाली चीजे भी ‘भगवान-दास’ ने बनाई है वो है ‘उपर की आमदनी’|इस अदृश्य आमदनी को लोग सीधे –सीधे देख तो नहीं पाते,केवल अनुमान लगाते रहते हैं |रहन-सहन में एकाएक बदलाव ,हाव-भाव में रईसी झलक ,आस-पास के लोगो को चौकन्ना करने के लिए काफी होता है | लोग इन्हें देख के बडबडाते रहते हैं , देखो अकेले-अकेले कैसे खा रहा है ,डकार ;लेने का नाम भी नही लेता है |क्या ज़माना है ?
बैसे ,हम खाने पीने के मामले में हेल्दी सीजन का इंतिजार करते हैं |इस मामले में’बसंत-बहार’ से बेहरत ऋतु हमें कोई दूसरा पसंद नहीं |
‘बहार’ हमारे तरफ जनवरी से दस्तक दे डालती है |हमने ‘बहार’ को बाँट लिया है |एक सप्ताह पिकनिक सैर सपाटे का ,अगले सप्ताह डागी-वागी शो ,फिर फूलो की प्रदर्शिनी बगैरह |आम जन के लिए बहार यहीं तक बहार-इफेक्ट देती है |
आफिस में ‘बहार’ के फुल फ्लेज्ड दिन, मार्च के अंतिम सप्ताह में आते हैं,| पर्चेसिंग का मनमाना बुखार चढा रहता है |पर्चेसिंग का आफिसियल स्टाइल सब जगह प्राय: एक सा ही होता है |
प्राय:एक ही आदमी से तीन-तीन कोटेशन्स मंगवा कर, चाहे वो व्यवसायी गुड –तेल मूगफली बेचता हो, ,फ्रिज ,केलकुलेटर कागज ,पेसिल,फाईल कव्हर ,कंप्यूटर,फेक्स,फोटोकापी मशीन सब के आर्डर दे दिए जाते हैं |
खरीदी बाद आने वाले आडिट वालो की आखों के लिए, सुरमे का बंदोबस्त, फाईलो के चप्पे-चप्पे में किया जाता है |
बड़ा बाबू मातहत से पूछ लेता है ,फंस तो नहीं रहे ना ?कर दें दस्तखत ?
यही सवाल, अधिकारी, बड़े बाबू से औपचारिकतावश पूछ लेता है ?फंस तो नहीं रहे कहीं ?
कर दें आर्डर पास?
सबको ‘बहार’ आने का, और शुभ-शुभ बिदा हो जाने की बिदाई पार्टी, आर्डर पाने वाला , ‘मान –मनव्वल रेट’ तय हो जाने के बाद गदगद हो के देता है |
इस साल ‘बहार’ आने का जश्न फीका सा रहा |
सबके चहरे लटके हुए से थे |
आचार-संहिता के चलते बड़े-बड़े प्रोजेक्ट और पर्चेस-सेल के डिसीजन पेंडिंग रहे |
चलो कोई बात नहीं...... अब की बार जून-जुलाई की बरसात में ‘आनंदोत्सव’ मनेगा |कोई देखने वाला भी नही रहेगा ,सब नई-नई सरकार बनने –बनाने के फेर में लगे रहेंगे ?
वैसे बताए हुए , ‘बहार’ को बांटने का तजुर्बा हमारा कुछ ज्यादा हो गया है |मजा नही आता |या यूँ कहे बहार वाले खेल में अब दम नहीं रहा,सा लगता है |
वही टुटपूंजियागिरी अठ्ठनी लो, चव्वनी आगे खिसका दो |कुछ बड़ा खेला हो जावे तो मजा भी आवे |
हमने ठेके में पुल, सड़क,बाँध बिल्डिंग्स ,सब तो बनाए हैं |सरकार ने कहा तो ,आदिवासियों से ,महीने भर में फटाफट तेंदूपत्ते बिनवा दिये |जंगल में जब जैसा कहा गया,वैसी साफ –सफाई में लगे रहे |खदानों में से सारा माल निकाल के रख दिया |
यहाँ भी बात वही,.... अठन्नी वाली .......|यानी चवन्नी रखो चवन्नी फेको |
सामने वाला, चवन्नी ले के जो आखे ततेरता है, उससे बडी कोफ्त होती है जनाब |
इनको साइड-लाइन करना हमें लगता है ,’टपोरी दुनिया के लोकतंत्र’ के लिए बेहद जरूरी है | समय-समय पे सब को उनकी औकात दिखाते रहने से लेंन-देंन वाली दुनिया के पहिये घूमते रहते हैं वरना .......?
हमें इंतिजार है कि कब वोटिग मशीन्स में बंद परिणाम खुले?
दो-चार लोग जो हमारे पे-रोल में हैं अगर जीत गए तो हम सरकार बनने –बनाने में, पर्दे के पीछे वाला रोल निभा सकते हैं |
आप सब को मालुम है ,कटपुतली सी एम, आजकल जगह-जगह पाए जाते हैं |
एक, अपने इधर भी बनते ,चलते-फिरते, देखने की बरसो की ख्वाहिश है |
इसी ख्वाहिश के चलते हमने पैसा पानी की तरह, अपने’घोडो-गदहों’ पे लगाया-बहाया है |
चुनाव जीते हुए लोग तो, नर-नारायण केटीगरी के हो जाते हैं|हाथ लगाने नही देते |
उनका भाव आसमान छूता है |उनके खरीदे-बेचे जाने तक तो, कोई शपथ ले के राजभवन से वापिस आते मिलता है |
अपनी योजना है कि, कठपुतली सी एम् के भरोसे हम ठेके की दुनिया के बेताज बादशाह हो जायें |
यहा का गणित ही दूसरा है |समझो ,ग्यारह कमाओ ,एक रखो दस पास आन करो |
इस गणित में भी अलग, अपना मजा है|लेने वाले के ‘दस’ में चूना लगाने की गुंजाइश बनी रहती है ,क्यों कि उनको हजार हाथो का परसा खाने को मिलता है |वो परवाह नहीं करते किसने कितना दिया,....?कितना कम दिया ?
मुझे लगता है अच्छे दिन आने वाले हैं |
इस स्टेज में अगर सरकार एक की बन गई तो खूब मनमानी होगी|यहाँ दो ‘कमिया’ लगाओ |सरकार को बाटो,यही राजनीति है |
अपने गनपत राव या रामखिलावन दोनों में से किसी एक को, सी एम, दूसरे को डेपुटी सी एम बना देगे| काम चल जाएगा .......?
***
ये क्या......?
लोग मेरी कालर पकड़ कर जुतिया रहे हैं ,लात –घूसो से बचने के लिए मैने हाथ –पैर जो मारे तो पत्नी की पीठ में धमा-धम पड़ा गया |वो हडबडा के उठ बैठी ,मुझे झिझोड के जगाया |
बोली; आपको ये आजकल क्या हो गया है |दिन-रात ,सोते –जागते पालिटिक्स,,,,?
ज्यादा टी.वी तो मत देखा करो .......|
मैंने चादर खीच के मुह ढक लिया ...|
मेरे देखे सपने का ज्योतिषफल,आप में से अगर कोई बता सके तो मेहरबानी होगी |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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मन तडपत .....हरी दर्शन को ....
जब भी मै अपनी आस्था के दिए में,जी भर के तेल –घी डाल के बस जलाने ही वाला होता हूँ कि कहीं न कहीं बवाल हो जाता है |
स्वनाम धन्य महाराज,अघोरी, एकटक बाबा ,पेट्रोल वाले बाबा,बुलेट बाबा,पायलट बाबा और ऐसे ही स्वयं घोषित बाबाओं -भगवानो को मै, अपनी श्रधा-सुमन पेश करने की नीयत से तैयार करता हूँ या ज्यादातर कहूँ कि अर्धागनी द्वारा एक्सपेल किया जाता हूँ कि “मानो .....नहीं मानोगे तो सद्गगति नहीं मिलती” ,तो यकायक कोई न कोई चमत्कार हो जाता है और मै ढोगी लोगो के चक्कर में आते-आते रह जाता हूँ |
पत्नी द्वारा मुझे, सदगति को समझाते-समझाते तकरीबन पच्चीस साल हो गए |इतना लंबा प्रवचन अनास्था को आस्था में बदलने का अपने आप में मिसाल है |शायद कहीं न मिले |
जितनी जीवटता से उनने अपने प्रयास किये हैं उतनी शिद्दत से मै भी अपनी अकड में कायम रहा हूँ |नइ मुझे इन ढकोसलेबाज साधू-महात्माओं के बीच मत घसीटो |मै किसी दिन उनसे उलझ पडुंगा |ये लोग अजवाइन,मुग- मुलेठी,हरड,बहर,त्रिफला और किचन में शामिल चीजों के उपयोग और फायदे बता-बता के अपना प्रवचन टी आर पी बनाए रखते हैं |बीमारी के कारण और निदान के लिए क्या खाना है,-केला,करेला नीबू आंवला की जानकारी प्रवचन , बीच-बीच में देते रहते हैं |इनका मकसद होता है ज्यादा से ज्यादा लोगे घेरे में आयें |चढावा मिलता रहे |
अमेरिका में ये क्या चल पायेंगे ?वहाँ वैज्ञानिक प्रमाण के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता |इन बाबाओ की दाल पच्चास सीटी भी दे दो तो उधर के कुकर में नहीं गलेगी |
हमने साइंस पढ़ा है |साइंस में ऐसी कोई चमत्कारिक चीज नहीं जिसके तह में उसके होने या न होने का कारण न छुपा हो |ये बाबा लोग सिर्फ और सिर्फ कुछ प्रयोग ,कुछ हाथ की सफाई ,नजरो का धोखा और सम्मोहन के उथले जानकार होते हैं |सिद्धियाँ किसी को नहीं मिली होती |
हस्त रेखा बाबाओं को किसी मुर्दे के हाथ की छाप दिखा के देखो |उसके लंबी जीवन की गाथा पढ़ देंगे |इलेक्शन जीता देने की ग्यारंटी दे देंगे,राजयोग के हकदार बता देगे |किसी बीमार मरणासन्न की कुंडली में, उनको बच्चे के यशस्वी होने का पूरा भविष्य दिख जाएगा,बता देगे बहनजी ये एक दिन ऐसा सिक्सर लगाएगा कि दुनिया देखती रह जायेगी ! बशर्ते कुंडली बिच्ररवाने, किसी कुलीन घर की धनी महिला पहुची हो |
मेरे तर्को को खारिज करना,और किसी बहाने मुझको देव दर्शन के लिए प्रति माह-दो माह में राजी कर लेना पत्नी का हक बनता है इससे मुझे आज भी इनकार नहीं है |
सबकुछ ,जानकार ,मै चुपचाप बिना बहस के उनके द्वारा ले जाए जाने वाले हर जगह, हर तीर्थ में सर नवा लेता हूँ |वैवाहिक जीवन की नय्या को पार लगाने के लिए ,इतनी आस्था की वो हकदार भी है ?
अपने तर्कों से, उनकी भक्ति भाव को क्षीण करने में मेरी उक्तियाँ , भले कोई असर न छोडी हो मगर बाबाओं के प्रपंच से उनको सचेत जरुर कर रखा है |
पहले, ‘बाबा दर्शन मात्र’ से पुलकित हो उठाती थी |चेहरा दमकने लगता था |ये भी लगता था कि, किसी जन्म के पुन्य थे, जो बाबा घर पधारे |
बाबाओं का सत्कार करने, उनको ड्राइंग रूम में बिठाके मेवा-मिष्ठान का अंबार लगा देने ,छप्पन भोज परोसने में वो ये जतलाती थी कि मोहल्ले के किसी घर में है इतना दम ? ,दान-दक्षिणा में, सोने-चांदी,कपडे पैसे, यथा बाबा तथा चढावा का जी खोल अनुशरण करती |
अब ,मेरे समझाइश को तव्वजो दे के , फक्त, पांच सौ से नीचे की राशि ही, इस मद में किसी –किसी बाबा को आवंटित कर पाती है |
मैंने काश्मीर से कन्या-कुमारी तक के भक्ति-मार्ग,भक्तों और देवगणों की व्याख्या अपने त्त्रीके से की है |
उनके भगवान से पूछा है, जब इतने सारे भक्त-गण काल-कलवित हुए केदारनाथ में घटी त्रासदी में भगवान कहाँ गए थे ?मोक्ष को पाने का यही सुगम रास्ता है तो हर साल ये सुनामी क्यों नहीं आती ?
पत्नी से अब ,जब आग्रह करता हूँ कि इस बार केदार बाबा के पास चलें, वो बहाने से टाल देती है,मंजू अभी पेट से है उसकी देखभाल जरूरी है ?
कभी गंगा –हरिद्वार जाने की सोचा तो, मीडिया वालों ने इतना हल्ला मचाया कि गंगा मैली हो गई है?
सरकारी सफाई अभियान में अनुमानित है ,अस्सी करोड लगेगे|
हमने सोचा लगा लो भाई , अस्सी करोड, तब चले जायेगे,कौन जल्दी है ?
कम से कम बदली हुई गंगा को , देख के ये तसली हो सकेगी कि भगीरथ ने जिस गंगा के लिए इतना तप किया उस गंगा को हम सवा करोड लोग, क्या कारण थे कि अस्सी करोड वाली भेट नहीं दे सके थे आजतक ?
गंगा दर्शन बाद, फक्र से मैय्या से कहेंगे माँ गंगे हमने अस्सी करोड आपमें समर्पित किये हैं |अब तो अपने चाहने वालो का उद्धार करो माँ |
’माते’ हमारे कहे, इस आंकड़े में फेर हो तो, हमें क्षमा करना|
इनमे से कुछ करोड अगर , भारत की भूखी जनता ,नेता .ठेकेदार ,इंजीनीयर के उदर में समा गए हो तो हमारे आकडे को माँ आप स्वयं सुधार लेना |माँ सब आपके बेटे हैं ,इनके अपराध क्षमा करना |कल वे सब ‘अस्थिया’ बन के आप के पास आयेंगे |तब के लिए ,आप अपना ‘सलूक’ इन गैर-इरादतन भ्रष्टाचारियों के प्रति अभी से सुरक्षित रख लें माँ |
अगले पडाव में हम साईं को रखे हुए थे |अब कुछ संत लोग ये समझाइश दिए जा रहे हैं कि साईं जी को भगवान की श्रेणी में, लोगों ने, पैसा कमाने की नीयत से रख दिया था |वे कभी अपने आप को भगवान बोले ही नहीं ?
तस्सल्ली है तो इस बात की कि इस मामले में कोई जांच आयोग बैठेगा नहीं|कोई सी बी आई, पुलिस वाले किसी को हडकायेगे नहीं कि बताओ किसके कहने पे ये भगवान का दर्जा दिया ?बेचारा फकीर तुझसे बोलने तो नहीं आया था कि मुझे सम्मान दो ?बेकार दूसरो के कटोरे की आमदनी खराब कर दी ?
लोग आस्था रखते हैं नेक आचरण पर ?
अपने को भगवान कहलाये जाने वाले एक संत ने अमेरिका में जाके प्रवचन दिया |
जिस किसी ने उन प्रवचनों में अपने आप को बहा लिया वे उन सब के लिए भगवान हो गए |
बिल्कुल ऐसे ही ,लोगो ने अपना अभीष्ट साईं में देखा ,साईं उनके भगवान हो गए |
किसी के हाथ –पैर तो बाँधना नहीं है कि नहीं .....इन्हें मत मानो .....
जहाँ हम अपने तर्क को घुसेड देते हैं, भगवान वहाँ से प्राय: लुप्त हो जाते हैं |
या यूँ कहे, भगवान वहीं निवास करते हैं जो बिना राग-द्वेष-इर्ष्या-लालच के उनमे लींन हो जाए |फायदे की कोई बात न हो |सब प्रभु की इच्छा है ,यही सोच उत्तम रखे |
अगर कहीं सचमुच प्रभु हैं, तो ‘प्रभु दर्शन की अवहेलना’ का पाप, मुझको कदम-कदम लगते जा रहा है ?
इस ‘सहारे’ को ‘बुढापे की लाठी’ लोग यूँ ही नहीं कहते ?
किसी दिन पूरी अनास्था छोड़ के, मैं अगर माथा टेके किसी दर पे मिल जाऊ, तो कतई आश्चर्य मत कीजियेगा |
इतना जरुर है ,भगोड़े बाबाओं को, अगर वे मुझे ‘पारस’ देने का भी लालच दें, तो उनको अपनी गाँठ की चवन्नी भी न दूँ |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग {छ.ग.}
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ...........
गनपत शाम को आया |आज उसकी खोजी निगाहें शांत थी |वो ड्राईग रूम में इधर-उधर कुछ नहीं देख रहा था |इलेकशन निपटाए हुए नेता की माफिक शांत चेहरा था |परिणाम आने में हप्ते भर का समय हो और काटे न कटे जैसा भाव दिख रहे थे |उसकी बैचैनी को ताड़ के हमने पूछा क्या बात है गनपत ,कुछ उखड़े हुए से हो ...?
उसने अगल –बगल निगाह फेरी ,मै समझ गया कोई राज-नुमा बात है जिसके खुलासे से पहले वो इत्मीनान चाहता है |मैंने ग्यारंटी देते हुए कहा ,भाई खुल के बताओ |अपनों से क्या पर्दा ?
वो झिझकते हुए खुलने को राजी हुआ |सुशील भाई वो आपकी भाभी है न .....?
हाँ ..हाँ ...अपनी बेगम ....यानी आपकी अर्धांगनी ....?खैरियत तो है ....?
-अरे ऐसी खैरियत-वैरियत वाला मामला नहीं है वो एकदम तंदरुस्त हैं |मगर मामला उन्ही से जुडा है.....|
मैंने कहा भाई गनपत ,साफ-साफ कहो ,पहेलियाँ मत बुझाओ |वैसे पिछले महीने भर से इलेक्शन वाली पहेलियाँ बुझा-बुझा के, आपने हमारा दिमाग खाली कर लिया है |सीधे-सीधे बताओ तो सही बात क्या है जिसमे आप हमारी दखल चाहते हैं ?झगडा फसाद हुआ क्या ,ये तो प्राय: मिया-बीबी के बीच रोज का मामला है, |घर-घर होते रहता है| ये बिना किसी बाहरी दखल के दो-चार दिनों में अपने-आप शांत हो जाता है |
अगर गायनिक मसला है तो हमारी श्रीमती चली जायेगी साथ| किसी डाक्टर को दिखा लाएगी ...|
सुशील भाई आप तो समझ नहीं रहे हो ....ये सब बात नहीं है ....?
मैंने कहा तुम समझाते भी नहीं.... और चाहते हो मै समझ जाऊ..?.मै कोई उपर वाला हूँ क्या ...?अगर शर्म-लाज से लिपटी हुई बात है तो ये समझ लो डाक्टर के पास मर्ज जितना खुल के कहोगे ईलाज उतना बेहतर मिलेगा ...समझे ....?
वो बिना रुके ,एक सांस में बेझिझक कह गया ,तुम्हारी भाभी “मुझसे पहली सी मुहब्बत मागती है” |
मेरे होठो में जोर की हसी आई |हसी दबाते हुए मैं, गनपत के गंभीर टाइप ‘मनोवैज्ञानिक वाकिये’ से पल भर में अपडेट हो गया |
अब गनपत को छेडने और खीचने की गरज से कहा ,तो पहली सी मुहब्बत देने में कोई हर्ज है क्या .....?घी –दूध बादाम –शादाम खाओ तंदरुस्ती बनी रहेगी |चव्यनप्राश तो आजकल आम बात है ,उमर के साथ शर्माने वाली बात ही नहीं है |लोग कहते हैं,तीतर,बटेर,मुर्गे ,अंडे में अच्छा दम रहता है |भाई गनपत वो क्या कहते हैं शिलाजीत -वियाग्रा वगैरा जिसका एड जहां –तहां आते रहता है ,कभी ले के देखो,वैसे हम इस की सलाह नहीं देते |हमने बिना सांस खीचे मिनटों में ‘पहली सी मुहब्बत’ का ट्रेलर फेक दिया |
इस ट्रेलर का असर गनपत के सोच की टिकट खिड़की पर औंधे मुह ऐसे गिर गया जैसे करोडो खर्च करके फ़िल्म प्रोड्यूस की हो, और पहले दिन हाल खाली मिले |
-उसने कहा, सुशील भाई ,हम उनको मुहब्बत के नाम पे, चार-चार ‘इशु’ टाइम-टाइम पे पहले पकड़ा चुके हैं| ....वे सब भी अब खुद काबिल ,बड़े, और समझदार हो गए हैं |उन सब के बच्चे ,यानी नाती –पोते घर में धमा-चौकडी मचाये रहते हैं |अब इन सबों के बीच ये सब शोभा देता है भला ?
अब ऐसे में, उनकी ‘पहले सी मुहब्बत’ वाली मिन्नत पल्ले नहीं पडती |
और आपको बता दें, हम झंडू च्वयनप्राश वाले नहीं हैं. कभी इस्तेमाल ही नहीं किया|वियाग्रा –शिलाजीत वालों से कोसो दूर भागते हैं |हमारे बाप – दादों ने जो नहीं किया वो करके क्या नरक के दरवाजे में कपडे फाड़ेंगे ....?
रोटी –दाल,खिचडी में निपट रहे हैं|
देखो तो ससुरी ,अब जाके अपना और हमारा मुह ......अब क्या कहें .?
फजीहत कराने में तुली हैं .....खैर ...जाने भी दो ....?
मैंने गनपत से कहा गनपत भाई अगर मामला ‘इधर’ का नहीं है तो सचमुच ,तुम कहीं कन्फ्यूज्ड हो ...|
मुझे आराम से सोच लेने दो|
जरुर तुम, दूसरी-तीसरी गली में घुस गए हो ?
भाभी जी के भले संस्कार हैं |नित भजन –कीर्तन में जाते मैंने स्वयं देखा है |आपको गलत फहमी हो रही है ....?
यूँ करो आप मामला मुझे फ्रेम-बाई –फ्रेम आराम से पूरे संदर्भ के साथ बताओ |
किस तरह ,कब-कब उनने ये उलाहने दिए , “आप मुझसे पहली सी मुहब्बत नहीं करते’.....
-मेरा अंदाजा है, भाभी जी को ,किसी शापिंग माल में कोई चीज, यानी साडी या ज्वेलरी पसंद आ गई होगी |इसे खरीदने कि भूमिका बांधी जा रही होगी |या मायके से ‘काल’,मेसेज आया होगा|उधर से कोई आने को होगा ,जिसे स्टेशन लेने जाने,घुमाने –फिराने का मामला आपके जिम्मे गिरना है ....|
तुम जो सोच रहे हो,जवानी के दिनों जैसा, प्यार-मोहब्बत वाला मामला है, वैसा मै अपने तजुर्बे के साथ कहे देता हूँ ,कुछ नहीं है समझे ?
घर जाओ ,किसी शुभ मुहूर्त में उनसे प्रणय निवेदन करो ,देखो कैसे झिडक के छिटक जायेगी |छी आपको शर्म नहीं आती .....?
कल आके बतलाना जरूर ....जोर का झटका धीरे से लगा कि नहीं .......?
अगले सप्ताह भर गनपत नदारद रहा |
आठवे दिन शापिंग माल में फौज के साथ मिला |परिचय कराने लगा ये मेरे साले ,उनकी पत्नी,बच्चे सब छुट्टियाँ मनाने आये हैं |
पीछे उनकी पत्नी यानी भाभी हाथ जोड़ के नमस्ते कर रही थी |
उनके जुड़े हुए हाथों में, गनपत के प्रति मुझे, एक अनुनय, एक आग्रह,एक उलाहना दिख रहा था| इन सब के साथ ही एक जुमला भी ख्याल करके हंसी सी आ रही थी ,बमुशील रोक पा रहा था,मानो बड़े इशरार से गनपत से कह रही हो “आप मुझसे पहली सी मुहब्बत नहीं करते”
गनपत ,अपनी शर्मिदगी लिए बहुत से थैलों के झुरमुट में,मुझसे जल्दी बाय-बाय करने के मुड में दिख रहा था ......|
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग)
बदला ....राजनीति में ....
राजनीति में पार्टी या पारी बदलने के साथ, ‘बदला’ लेने की परंपरा शुरु से रही है |
इस परम्परा को न मानने वाले, ‘धुरंधर खिलाड़ी’ की श्रेणी से बहिस्कृत कर दिये जाते है|
यहाँ बदला लेने वाले का अंत;करण ‘अर्जुन-कृष्ण संवाद’ को ध्वनित करते हुए उसे ‘मैदान’ में आने के लिए उत्साहित करते रहता है ;यथा ;
-‘हे पार्थ , अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-स्वरूप, इस प्रकार के ‘युद्ध’ को भाग्यवान लोग की पाते हैं |’
-‘यदि तू इस धर्मयुद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ती को खोकर पाप को प्राप्त करेगा |’
-‘सब लोग तेरी भूत-काल की अपकीर्ती का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ती मरण के सामान है |’
-‘जिनकी dristhiदृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित रहा ,वे महारथी तुझे ‘भय’ के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे |’
राजनीति में ‘खदेड़े’ हुए लोग बड़े धुरंधर ,काबिल और माहिर होते हैं |
इनसे पंगा लेने का मतलब है, आ बैल मुझे मार, यानी सोये हुए शेर को पत्थर मार के जगाना |
एक तो इन्हें निकालना नहीं चाहिए, दुसरे अगर अकेले मलाई चट करने के लिहाज से, इनसे किनारा करना, निहायत जरुरी किसम की, आवश्यकता है, तो ‘चाणक्य- नीति’ के, गुटके टाइप इतिहास का, घोर,-घनघोर अध्धयन किया होना बेहद जरुरी है |
ये युद्ध के लिए लालाईत लोग होते हैं |पीछे हटते नहीं |
अमूमन देखने में आया है, कि किसी ने अपनी पार्टी में बढ़ते प्रभाव के चलते,एक-दो टिकट ज्यादा मांग लिए ,पेट्रोल पम्प में अपने लोग काबिज कराने अपने केंडीडेट डाल दिए,किसी टेंडर- ठेके में अपनी टांग घुसेड दी ,नजूल जमीन की सरकारी बन्दरबांट में अपनी चला दी ,यही सब,लोकतंत्रीय व्यवस्था के व्यवधान, उभरते किस्म के लोगो को, पार्टी से धकियाने के कारण बनते आये हैं |
इसमें कुछ अहम महत्वपूर्ण कारणों का उल्लेख लेख की मर्यादा कायम रखने की बदौलत नहीं लिखे जा पा रहे हैं जिसका खेद है ,मसलन मिनिस्ट्री में मलाईदार जगह,संगठन में ठोस निर्णय की सर्वकालिक जानकारी यथा ‘बिना उनके पत्ता न हिले’ वाली सोच........ ,उनके पुराने कारनामे में ‘पर्दा –प्रथा’ जारी रहे की मांग....... या हो सके तो उनके विरुद्ध सभी ‘न्यायालयीन’ मुद्दों की सभी प्रकार के क्रियाकलापों की अंत्येष्ठी.......
पार्टी की कुछ मजबूरियां होती है,वरना कोई बेवफा नहीं होता |
उथले इल्जाम भी संगीन तरीके से लगाने की नौबत आ जाती है |
यानी कि आप, पार्टी के बड़े ओहदेदार के खिलाफ, मीडिया में क्या खाकर चले गए ?
संगठन वाले अपना दफ्तर सुबह आठ से लगाए फिरते हैं और आप हैं कि उधर का रुख नहीं करते ?
आपका ‘इगो’, उधर का ‘गो’ करने नहीं देता,?
आपकी सोच होती है ,छोटन से क्या मुह लगे....? ‘बड़े’ के पास फटकार की डर से आपका जाना नहीं होता|
जो कहना है मीडिया वालो से कह डालो ,जरूरत पड़े तो यू- टर्न फार्मूला हाजिर है |बात, बनी तो बनी, नहीं तो सब्जी बेचे अब्दुल गनी .......?
चार-आठ दिन तो खलबली सी मची रहती है |भइय्या ,अब तो ये गए .वाली ....|
पार्र्टी मामला ठंडा करने ,लीपा-पोती के तात्कालिक प्रयास में प्रेस वालो का पंचायत- कांफ्रेस करवा देती है |
कारण गिनवाए जाते हैं,नमक-मिर्च ,इंट –रोड़ा-पत्थर जिसे जो मिला इनके माथे जड़ दिया जाता है ,
‘और आगे नहीं-निभने’ की घोषणा के साथ दरकिनार का एलान हो जाता है |
मीडिया वाले तुरंत, माइक का मुह ‘बहिष्कृत’ की तरफ मोड़ देते हैं “दीपक ,बताओ उन को कैसा लग रहा है ?
दीपक का फायर राउंड चालु हो जाता है ,आपने इतने साल पार्टी की सेवा की ,आज आप निकाले गए ......कैसा लग रहा है .....?
-देखिये ,हम बहुत खुश हैं (पता नहीं ये क्यों खुश हैं ?, शायद हर बात में थैंक यू कहने की आदत के चलते रिवाजी जूमला हो इनका ) |
-हमने पार्टी को अपने कन्धों पर पच्चीस सालो तक खीचा ,केबिनेट में रहे ,बड़े –बड़े निर्णय में हमारी अहम् भूमिका रही ....हमसे सब अच्छी तरह से घुले-मिले थे यही हमारा अपराध था .....?
-सर ,इसमें अपराध जैसा कहाँ है .....?
-नहीं आप समझे नहीं ....|
-सर्वे-सर्वा को हमसे खतरा दिख रहा था ,अब ज्यादा क्यों मुह खुलवाते हो .....अभी पूरा निर्णय कहाँ हुआ है ?शो-काज आने दीजिये ,फिर देखेंगे ?
-इसके अलावा कोई दूसरा पहलु भी है ....आपकी नाराजगी का .....?
-हाँ ,है तो सही ,मगर आप मीडिया वाले दिन-दिन भर हाई-लाईट के नाम पर वही-वही दिखाते हो .....सुनिए ! हमें अपनी बेइज्जती ‘कल के छोकरों’ से बर्दाश्त नहीं होती ....बस ,इशारा समझिये ....चलाइये अपना चेनल ......
वे चलते बने .......
-सर,जाते –जाते ये तो बता जाइए आपका अगला कदम क्या होगा .....?
-अगला कदम , ....? आपको जल्दी पता चल जाएगा ...हम एक किताब लिखने की सोच रहे हैं |बखिया सबकी उधेडी जायेगी ....किसी को नहीं बख्शेंगे ....|समझ लीजिये .....
इन संवादों के ‘साइड- इफेक्ट्स’ में यूँ लगा, कुछ देर के लिए मुझे राजा विक्रम की छद्म भूमिका मिल गई है ?
बेताल घुडकते हुए कह रहा है ,बता राजन ,एक पुँराने निष्ठावान की निकासी यूँ संभव है ?
क्या निष्ठावान, ‘निकासी के फायदे’, स्वरूप अपनी पुस्तक के प्रचार में अभी से लग गया ?
क्या पार्टी के बेलेंस में कोई झटका लगेगा ?
बेताल की धमकी कि, इन प्रश्नों के उत्तर अगर जानते हुए भी न दिए गए तो सर के तुकडे-तुकडे कर दिए जायेंगे ;सकुचाते हुए ,मेरे भीतर का राजन उवाच-
बेताल ! यूँ तो आपने बहुत सारे सवाल उछाल दिए हैं ,अपनी हैसियत मुताबिक़ मै इंनके उत्तर देने की कोशिश करता हूँ
जहाँ तक पुराने निष्ठावान होने का प्रश्न है सिर्फ निष्ठावान होने भर से, किसी को अमर्यादित बयान देने की छूट नहीं मिल जाती|
उन्हें, नीति कहती है, मर्यादा में रहना चाहिए |अपनी बात, संगठन के मंच पर कहना सर्वदा उचित होता है |
-दूसरे प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहना है कि ,निष्ठावान, अपनी ‘पोल-खोलू किताब’ की बिक्री योजना का कोई मंसूबा नहीं पाले हुए है |
उसे सालों से अच्छी मिनिस्ट्री मिलते आई है ,अथाह कमाई के बाद रायल्टी वाला आइडिया निष्ठावान के केरेक्टर से मेल नहीं खाता |
मेरी राय में ,रायल्टी तो टूटपुंजिया साहित्यिक-लेखको की बस रोजी-रोटी हल करती है |इनकी किताबे लिखी तो जाती हैं ,प्रकाशित होती हैं मगर खरीदने वाला सरकारी विभाग की लाइब्रेरी के अलावा कोई,कहीं नहीं होता|
पब्लिसिटी के अभाव में,प्रकाशित होने के पहले हप्ते ही किताब बिक्री का दम तोड़ देती हैं |यहाँ फिल्मो जैसा व्यापार नियम नहीं है ,नंगे हो जाओ ट्राजिस्टर से आगे अंग ढको ,पीछे जैसे कोई देखने वाला नहीं फिर टिकट खिडकी में सौ-दो सौ करोड़ पीट लो ...|
निष्ठावान टाइप लोगों की पुस्तके ‘एक पंच लाइन के दम पर’ बिक्री का आसमान छू लेती हैं |
बेताल ये विडंबना मै खुद लेखक होने की वजह से भुक्तभोगी जीव बन के कह रहा हूँ |
रही बात पार्टी के बेलेंस की ,वो तो सम्हल जायेगी |
एक के गए से , बाजार नहीं भरेगा, ये आज तक कभी हुआ है ?
बाजार की रौनक आज –नहीं तो कल अपने पूरे शबाब ,दम-ख़म से लौट आयेगी |
बेताल ये कहते हुए, पेड़ पे जा लटका ,राजन ,तुमने मेरे प्रश्नों के सब सही जवाब दिए .....
स्वगत मैंने जोड़ लिया; ‘आपकी जीती हुई ‘करोड़’ की राशि किस स्विस अकाउंट में जमा कराऊ,.......है कोई स्विस खाता तुम्हारे पास ......?’
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
सब कुछ सीखा हमने ......
होशियारी कहाँ सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला ?
यूँ तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं |
हमारे फेके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए |बिसात धरी की धरी रह गई |
हमारे चारों तरफ हुजूम होता था |आठ –दस माइक से मुह ढका रहता था |एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेंन लिए, हमारे कारवाँ के पीछे सुबहो-शाम भागते थे |
सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था |
हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बाँट रखा था |सुबह भजन कीर्तन,मंदिर –मस्जिद वालों से मुलाक़ात,फिर उदघाटन,फीता कटाई के आग्रहकर्ताओ से भेट ....|लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई,यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन ...| उसके बाद टेन्डर,ठेका लेने वालो से बातचीत, हिसाब-किताब |
नाली, चबूतरा,रोड,पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी जाती थी |
आप सोच सकते हैं ,हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में ,घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी,कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया |
आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़,कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ?
जो हमारे दरबार चढा ,सब को सब कुछ, जी चाहा दिया|किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नही की |उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के तो यूँ लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं |इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो |ना नहीं करेगे .....|
हम इलेक्शन में खड़े हुए |इन्ही लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट ,फकत अपने पक्ष में माँग बैठे |वे हमें न दिए | जाने कहाँ डाल आये |हमारी सुध न ली |जमानत तक नहीं बचा सके हम ....?
तीस –पैतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमे कम नहीं लगा |
इस वक्त हम अकेले आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं |साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी ,शुभचिंतक ,जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है |
चाय वाला मक्खियाँ मारने से बेहतर,कहीं और चला गया है |
हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी ....?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
समीक्षा के बहाने .....
मुझे लिखते हुए बरसों हो गए |मैंने दरबार नहीं लगाए |
जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करंते नहीं बनेगी |आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता |बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मै ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए |
बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है |
मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ?
फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है |ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं |साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है |
हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं|मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं |इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है |श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है|परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ?
व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं |डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं “किसी की भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है |
जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी |यही तो इसकी जान है |आजकल इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता |वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है |गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ?
लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है |ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो |लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ?
मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ?
हमारे एक मित्र ने,कहीं लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा |
हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी सब समा जाए |सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ?
लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा |
‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं |भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक, |अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहाँ तक है ?
सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया |
समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग)
नैतिक जिम्मेदारी के सवाल .....
हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है |इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आयोजन या कार्यक्रम का फेल हो जाना जरूरी तत्व होता है |हमारे तरफ इसे बहुत ही संजीदगी से लेते हुए अंजाम दिया जाता है |
किसी मिशन,आयोजन या कार्यक्रम के फेल होने का ठीकरा एक-एक कर किस-किस पर फोडते रहेंगे ये अहम प्रश्न असफलताओं के बाद तुरंत पैदा हो जाता है ?इसके लिए समझदार लोग या पार्टी पहले से पूरी तैय्यारी किए होते हैं | एक आदमी सामने आता है या लाया जाता है, जो पूरी इमानदारी के साथ अपने आप को, ‘हुई गलती’ के लिए ‘मेन दोषी आदमी’ बतलाता है |लोग उस पर विश्वास करके, आने वाले दिनों में भूल जाने का वादा कर लेते हैं |ये बिलकुल उसी तरह की सादगी लिए होता है जैसे एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद एक छोटे से गेगमेन को जिम्मेदार ठहरा कर सस्पेंड कर दिया जावे या शहर में कत्लेआम ,कर्फ्यू के बाद एक थानेदार को लाइन अटेच कर लिया जावे |माननीय मंत्री,सांसदों के किसी लफड़े-घोटाले में इन्वाल्व होने पर एक जांच आयोग बिठा देने का प्रचलन है |यहाँ जिम्मेदारी फौरी तौर पर कबूल नहीं की,या करवाई जाती |
‘नैतिक जिम्मेदारी’ की रस्म-अदायगी सर्व-व्यापी है | दुनिया के हर काम में हर फील्ड में ये व्याप्त है| |आप खेल में है,तो खिलाड़ी, खिलाने वाले कोच ,क्यूरेटर,नाइ,धोबी सब इसके दायरे में आ जाते हैं |बस ‘हार’ होनी चाहिए, कोई न कोई खड़ा होके कह देगा ये मेरी वजह से हुआ |
हमारी नजर में ‘वो’ ऊपर उठ जाता है|ऊपर उठने का अंदाजा यूँ लगा सकते हैं कि अगले मैच में, अगला दिखता नहीं |वो अलग सटोरियों की जमात में शामिल होकर पैसा बानाने की जुगत में चला जाता है |नाटकों में इसे नेपथ्य कहा करते हैं |
अरबों –खरबो के, सेटेलाईट भेजने के अभियान में, कभी-कभी कोई चूक हो जाती है ,ऊपर जाने की बजाय सेटेलाईट धरती में लोट जाता है|हम अमेरिका ,जापान,चीन.या पडौसी देश को दोष देने के लिए खंगालते हैं |भाई आओ ,जिम्मेदारी लो हम अपने अभियान में असफल रहे ,बता दो ये सब तुम लोगों की चाल थी |घटिया माल भेजे,वरना हमारी सेटेलाईट आसमान में बातें करती |अब की बार हमारी लाज बचा लो हम कल आपके काम आयेंगे |
वो सेटेलाईट, जो पुराने फटाको की तरह फुस्स हो के या जो अनारदाना जलने की बजाय फट जाए वाली की नौबत में समा जाती है |इस मौके को मीडिया वाले हाथ से जाने नहीं देते |वो घेरते हैं ,क्या कारण थे कि सेटेलाईट ‘कक्षा’ में नहीं भेजे जा सके?
वैज्ञानिकों को अगर कारण पता होता तो भला सेटेलाईट फुस्स ही क्यों होता ?
वे अपने राजनैतिक मुखौटे में पहले से तैय्यार जवाब पेश कर देते हैं |
इस अभियान में दरअसल बरसों की मेहनत लगी है|हमारे वैज्ञानिक दुनिया में बेजोड हैं |जो चूक हुई है उसका विश्लेष्ण किया जाएगा |हम मिशन को फेल नहीं होने देंगे |हम छह महीनों के भीतर दुनिया को दिखा देंगे कि हम भी अंतरिक्ष के मामले में किसी से कम नहीं हैं |इस फेल हुए मिशन की नैतिक जिम्मेदारी समय पर वैज्ञानिकों को वेतन न देने वाले बाबुओ की है |आगे क्या कहें ?
अगले दिन पेपर की हेडलाइन बनती है सेटेलाईट मिशन फेल |संपादकीय में खेद के साथ सरकार को समझाइश दी जाती है कि अगर मिशन की सफलता चाहिए तो वैज्ञानिकों को उचित समय पर पारिश्रमिक दिया जावे |ये मनरेगा मिशन नहीं है जिसमे ठेकेदार अपना कमीशन बाधे.... ?
हमारे देश में नहर ,बाँध ,डेम,पुल ,इमारतें ,रोड सब ठेके पर बनवाए जाते हैं |ठेके पर इन्हें देने –लेने की परंपरा कब और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है |प्रमाणिक चीज तो ये है कि आजादी के बाद बनने वाले नहर ,पुल इमारत ,सड़क-रोड का टिकाऊ होना जरूरी नहीं है| |इस बारे में ,ठेकेदारों का ये मानना है कि, घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?इस मुद्दे पर सब ठेकेदार एकमत हैं| वे इतना कमजोर प्रोडक्ट देते हैं कि एक खास मुकाम तक खिच भर जाए बस की सोच रहती है |
किसी अभागे का, बनते ही टूट- गिर जाता है तो उनको तत्काल, नैतिक जिम्मेदारी वाला रोल निभाना जरूरी हो जाता है |
वो बकायदा ,कभी घटिया सीमेंट या कारीगरों की एक रुपिया किलो अनाज मिलने से, काम के प्रति लापरवाही का बम फोड देते हैं |उल्टे सरकार को दोष दे देते हैं कि मजदूरों को इतनी सुविधाएँ दी गई तो वो दिन दूर नहीं जब वे काम के प्रति उदासीन हो जायेंगे |सरकार नैतिक जिम्मेदारी समझे...... | कुछ कदम उठाये ....?
अगला ठेका ,इस रस्म अदायगी के निचोड़ से खुश होकर सरकार उनको दे देती है कि एक रुपिया वाला प्रचार,गरोबो की हितैषी ,गरीब रक्षक सरकार का, अच्छी तरह से हुआ |
मुझे मेट्रिक में तीन विषयों में सप्लीमेंट्री आई |तब मै समझता था, कि मेरी उम्र नैतिक जिम्मेदारियों को समझने-साधने की नहीं हुई है |घर वालों ने दबाव बनाया ,मुझ पर लापरवाही के दोष मढ़े गए|इतनी लापरवाही आखिर हुई कैसे ....?क्या दिन-रात खेलकूद में मगन रहे ..?हम सब तो फस्ट,सेकंड डिवीजन की त्तरफ देख रहे थे,हमे क्या पता था जनाब सप्लीमेंट्री वाला गुल खिला रहे हैं |मेरी गर्दन तब झुकी रह गई थी |थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ ,निगेटिव विचार कुआ- बावड़ी,सीलिग़ फेन वाले भी क्षण मात्र को आये ,जिसे झटक दिया |ऐसे समय इन विचारों का झटक देना किसी महाअवतारी ही कर सकता है मुकाबला, आरोप लगाने वालो की तरफ धकेल दिया | सीधे-सीधे नाकामयाबी का सेहरा कैसे पहन लेता ...? मैंने प्रतिप्रश्न किया, मालुम है सब दोस्त लोग ट्यूशन-कोचिग पढते हैं तब जाके पास होते हैं |आप लोग तो कभी बच्चो पर ध्यान देते नहीं ....?वे लोग जवाब-शुन्य थे, मेरी आफत टल गई थी |
आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है |
जिस किसी को किसी भी मौके पर,किसी भी किस्म की जिम्मेदारी लेनी हो या मुह फेरना हो उसे अध्ययन –मनन के फेर में पडने की बजाय रटा-रटाया,बना-बनाया हल मिल जाए तो इससे बेहतर चीज भला दूसरी क्या हो ....?
आजकल राजनीति में औंधे मुह गिरने की गुंजाइश जोरो से हो गई है |
संभावित हार के नतीजे ,इधर मीडिया ने एक्जिट पोल में दिखाया नही, उधर नैतिक जिम्मेदारी वाला भाषण स्क्रिप्ट तैयार करवा लेनी चाहिए |इससे व्यर्थ तनाव ,अवसाद जैसे घातक रोगों से निजात मिल जाती है |
यूँ तो नैतिक जिम्मेदारी वाली ,सभी स्क्रिप्ट लगभग एक सी होगी|आप अपनी सुविधा के लिए सेफोलाजिस्ट से मिले आंकड़े, भर के, थोड़ी राहत की गुजाइश अपने लिए देख सकते हैं |
बता सकते हैं कि पिछले चुनाव से ज्यादा व्होट अब की बार मिले हैं |व्होट प्रतिशत में इजाफा होने के बावजूद ये सीट में तब्दील नहीं हुए ये हमारा,हमारी पार्टी का दुर्भाग्य है |
हमारी हार की वजह पिछडों का मतदान करने न आना ,एक खास जाति के मतदाताओं का झुकाव एक खास पार्टी के पक्ष में हो जाना रहा|हमारी पार्टी ने रहीम को साधा, राम को दरकिनार किया |रोड शो में हमने किराए के लोग नहीं लगवाए |मीडिया को चटकदार जुमले नहीं परोसे, जिसे लेकर दिन-रात वो बहस करवाते रहें | हमने गलत पार्टी से गठबन्धन किया ,जिसका खमियाजा हमें भुगतना पड़ा|हमने टिकट वितरण में गलती की ,जीत सकने वाले लोगों को टिकट नहीं दे सके |अमीर लोगो को टिकट दे दिए ,वे पैसे एजेंटों को दे के, सो गये |बूथ तक झांकने नहीं आये |एजेंट पैसे मतदाताओं को देने की बजाय ,खुद दबा गए |खेल यहाँ हो गया .....|वैसे इन सब के बावजूद हार की सारी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मै अपने पद से स्तीफा देता हूँ .....|
मै इस स्क्रिप्ट की कापी राईट का लफडा नही रखते हुए, इसे सार्वजनिक प्रापर्टी बतौर एलान करता हूँ |इन शब्दों का इस्तेमाल जिसे जब मौक़ा मिले, पूरी, अधूरी या कोई एक भाग , अपने भाषण में कर लें......|मुझे तमाम असफल लोगों के साथ सहानुभूति है ....|आगामी समय उनका हो .....आमीन ....
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पिछवाड़े बुढ्ढा खांसता
बुढ्ढे को जिंदगी भर कभी बीमार नहीं देखा |हट्टा-कट्टा,चलता-फिरता ,दौडता-भागता मस्त तंदरुस्त रहा |कभी छीक ,सर्दी-जुकाम, निमोनिया-खासी का मरीज नहीं रहा|
अभी भी वो सत्तरवे बसंत की ओर पैदल चल रहा है |उसकी सेहत का राज है कि वो , घर की सुखी दाल-रोटी में मगन रहता है |दो बच्चे थे ,शादियाँ हो गई |इस शादी के बाद पत्नी की सीख पर कि बहु–बेटियों का घर है ,समधन पसरी रहती हैं ,आते –जाते खांस तो लिया करो |
इस प्रायोजित खांसी की प्रेक्टिस करते –करते उन्हें लगा कि ‘ग्लाइकोडीन’ का ब्रांड एम्बेसडर बनना ज्यादा आसान था, कारण कि टू बी..एच. के. वाले मकान में जहाँ पिचावाडा ही नहीं होता ,आदमी कहाँ जा के खासे ?
हमारे पडौस में दो दमे के बुजुर्ग मरीज रहते हैं ,उनके परिवार वाले बाकायदा उनको पिछवाड़ा अलाट कर रखे हैं जब चाहो इत्मीनान से रात भर खांसते रहो |
एक हमारे चिलमची दादा भी हुआ करते थे ,एक दिन इतनी नानस्टाप, दमदार,खासने की प्रैक्टिस की कि पांच-दस ओव्हर पहले खांसते-खासते ,उनकी पारी सिमट गई ,वे अस्सी पार न कर सके |
आजकल हमारे चेलारामानी को पालिटिकली खांसने का शौक चर्राया है |
वे लोग लोकल पालिटिकल फील्ड में हंगामेदार माने जाते हैं ,जो समय पे ‘खासने’ का तजुर्बा रखते हैं मसलन ,सामने वाले ने प्रस्ताव रखा महापौर को घेरने का सही वक्त यही है वे कहेंगे नहीं अभी थोड़ी गलती और कर लेने दो ,वे खांस कर वीटो कर देते हैं उनकी उस समय,मन मार के , सुन ली जाती है |
आप कैसा भी प्रस्ताव, कहीं भी, चार लोगों की बैठक में ले आओ वे विरोध किए बिना रह ही नहीं सकते |
लोग अगर कह रहे हैं कि देखिये ,हम लोग मोहल्ले में पानी की कमी के बाबत मेयर से मिल के समस्या से अवगत करावे |वे खांस दिए मतलब उन्हें इस विषय में कहना है |जोर से खांसी हुई तो मतलब उनकी बात तत्काल सुनी जावे |वे सुझाव देने वाले पर पलटवार करके पूछते हैं |आपके घर में पानी कब से नहीं आ रहा ?घर के कितने लोग हैं , हमारे घर में चौदह लोग रहते हैं .सफिसियेंट पानी आता है |इतना आता है कि नालियां ओव्हर फ्लो हो रहती हैं |मेयेर से हमारी तरफ नाली बनवाने का रिक्वेस्ट किया जावे |अभी गरमी आने में तो काफी वक्त है आपकी समस्या तब देख ली जावेगी |मीटिंग उनके एक लगातार खासने से, अपने अंत की तरफ चली जाती है ,न पानी और न ही नाली की बात, मेयर तक पहुच पाती है |
हम मोहल्ले वाले चेलारमानी के ‘न्यूसेंस-वेल्यु’ को भुनाने के चक्कर में उनको एक बार मोहल्ला सुधार समिति का अध्यक्ष बना दिए |उनने साल भर का एजेंडा यूँ बनाया |भादों में सार्वजनिक गणेश उत्सव ,कलोनी वालों से चन्दा ,फिर नवरात्रि में कविसम्मेलन का भव्य आयोजन , चंदा |मोहल्ला सुधार समिति की तरफ से विधायक –मन्त्री का स्वागत ,जिसमे मोहल्ले के विकास के लिए राशि की मांग ,सड़क –नाली सुधार पर ध्यानाकर्षण |हरेक माह समिति के सदस्यों की बैठक |
वे बैठक में एकमेव वक्ता होते ,आए दिन ,चंदा उगाही में, मुस्तैदी के चलते मोहल्ले वाले तंग आ गए |किसी भी दरवाजे पर खटखटाने की बजाय वे केवल खास दिया करते तो लोग समझ जाते चेलारमानी आ गए |एक सौ, चंदे की चपत लग गई समझो |आदमी सौ तो बर्दास्त कर लेता, मगर बिना चाय के न टलने की आदत को बर्दाश्त न कर पाते |
जिस गरमी से उसे चुना गया था उसी मुस्तैदी से उसे हटाने का अभियान चलाना पड़ा |लोग चंदा दे-दे के हलाकान हो गए थे |
चेलारमानी के सब्सीट्युट , ताकतवर खासने वाले की तलाश मोहल्ले में जारी है |
अगर आपके पिछवाड़े में कोई बुढ्ढा खांसता हुआ मिले तो इस मुहल्ले में भिजवा दे |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पीठ के पीछे की सुनो .....
आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते |ढेर सारी चिकनी –चुपडी सुना के जाते हैं |क्या जी आपने तो खूब मेहनत की | लोग आप को समझ नहीं पाए जी |पिछली बार अच्छे से समझे थे |पता नहीं इस बार क्या कारण रहा ? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला ....?
प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं |
परोक्ष में ,यानी पीठ के ठीक पीछे,....... कहते फिरते हैं ,खूब ताव आ गया था....... स्साले में ,आदमी को आदमी नहीं समझता था |
कुत्तों ,गुलामो की तरह बिहेव करता था |
हारना ही था |
अब भुगतो पांच साल को |
और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले |
गए..... |
उधर प्रकट में ,नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी ...?
फिर हुई तो हुई कैसे ....?
हार के कारणों के विश्लेषण के लिए अपने चमचो की कमेटी को काम सौपते हैं |
देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूँ नहीं ,मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं |
तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो |देखे क्या निकलता है |
चमचे नेता जी से राशन-पानी,डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है|
आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं |
महराज ,मै किशनपुरा इलाके में गया था,वहाँ से आप बीस हजार से पिछड़े थे |
जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था ,दरअसल ,लोग उसके सख्त खिलाफ थे |वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था |अनाज,कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता मगर सबके दाम आसमान में चढाये रखता था,जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए |सामान वापस करने जाओ तो,दैय्या-मैया करके भगा देता था |किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे |अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना प्रचार करवाने निकलोगे तो जीतने की गुजाइश कहीं बचती है क्या ?
भैय्याजी ,हम उसी के बगल वाले गाँव की रिपोर्ट लाये हैं |वहाँ ये हुआ है कि,मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए |अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते |लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची |
भय्या जी आपके लठैत के रंग –ढंग अच्छे नहीं थे |
-काय बिलवा,खुल के बता न ...?अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे ....?
भईया जी,हमने पहले कही थी,लठैतों को शुरु से मत उतारो|आप मानते कहा हो ...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे|गाँव में लौंडिया छेडते रहे|आपकी, वो क्या कहते हैं ,साफ सुथरी इमेज को ‘सर्फ’ से धोने लायक भी न रख छोड़ा|
जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों के गाव से अकेले पच्चीस – तीस की लीड करते|
महाराज,जिसे आपने अपने पक्ष में ,पांच पेटी दे के बिठाया , वो मनराखन साहू ,बहुत कपटी आदमी निकला |विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने ..... |वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया|दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर |आप भी कहाँ –कहाँ फंस जाते हो ,समझ नहीं आता | वो पिल्ला बोलता है ,इलेक्शन के खम्भे हर साल क्यों नहीं गडाए जाते ...?मूतने में सहूलियत होती |
महराज ,आपने एक बात,पटरी पार वाले गाव की नोट की ?
आपने उधर शहर को जोडने वाले पुल बनवाए | रोड को मजबूती दी , सीमेंटीकरण करवाए,बुजुर्गो के लिए उद्यान,कन्याओं के लिए गल्स कालेज खुलवाए |उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं |आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं |केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के लहराया है भाई जी |
काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते ...?आपकी जीत निश्चित होती |
सुशील यादव
पूर्वजो की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ |अब ज्यादा फेकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे |
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानो उनमे कुछ बनने की, अपने –आप में काबलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नही चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथो हुआ करता था |
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं |
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गो के लिए फक्र का मसला हुआ करता था |
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू |
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है |
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच हो जाया करते थे |
सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी |
किसी पडौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... |मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड |
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर, कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था|वे जंगलो में शिकार के वास्ते दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों के लिए चल देते थे |
हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोस्त उनका लंच –डिनर होता था |
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है |
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया |वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल ,बच्चो को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे |
इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडौस के सहदेव जी,खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नही,पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा |
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी आर्डर ही नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई |पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन |
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है |बेटा अपनी पोस्ट और पैसे पर इतराता था |चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सडक को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है |उसे सरकार छोडती ही नहीं |बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है |
अभी ब्रिज का काम मिला है |वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं |सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून, बाटन में पल्टी मार के कहता है|मेरी बात सुने नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी |कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त |
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई |
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों लेते रहते हैं |उसके पीछे का मकसद ,शायद ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा |
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम अगर सब इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापो के अफलातून बेटों को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती |इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुह से बोल, फूलो की माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज का फरमान जारी |
मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश |यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन जरूरत होती है |वे मजे से बता सकते हैं कि प्याज, डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है |
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
सब कुछ सीखा हमने ......
होशियारी कहाँ सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला ? यूँ तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं |
हमारे फेके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए |बिसात धरी की धरी रह गई |
हमारे चारों तरफ हुजूम होता था |आठ –दस माइक से मुह ढका रहता था |एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेंन लिए, हमारे कारवाँ के पीछे सुबहो-शाम भागते थे |
सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था |
हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बाँट रखा था |सुबह भजन कीर्तन,मंदिर –मस्जिद वालों से मुलाक़ात,फिर उदघाटन,फीता कटाई के आग्रहकर्ताओ से भेट ....|लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई,यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन ...| उसके बाद टेन्डर,ठेका लेने वालो से बातचीत, हिसाब-किताब |
नाली, चबूतरा,रोड,पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी जाती थी | आप सोच सकते हैं ,हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में ,घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी,कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया |
आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़,कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ?
जो हमारे दरबार चढा ,सब को सब कुछ, जी चाहा दिया|किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नही की |उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के तो यूँ लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं |इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो |ना नहीं करेगे .....|
हम इलेक्शन में खड़े हुए |इन्ही लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट ,फकत अपने पक्ष में माँग बैठे |वे हमें न दिए | जाने कहाँ डाल आये |हमारी सुध न ली |जमानत तक नहीं बचा सके हम ....?
तीस –पैतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमे कम नहीं लगा |
इस वक्त हम अकेले आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं |साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी ,शुभचिंतक ,जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है |
चाय वाला मक्खियाँ मारने से बेहतर,कहीं और चला गया है |
हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी ....? सुशील यादव,.
समीक्षा के बहाने .....
मुझे लिखते हुए बरसों हो गए |मैंने दरबार नहीं लगाए |
जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करंते नहीं बनेगी |आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता |बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मै ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए |
बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है |
मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ?
फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है |ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं |साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है |
हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं|मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं |इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है |श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है|परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ?
व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं |डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं “किसी की भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है |
जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी |यही तो इसकी जान है |आजकल इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता |वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है |गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ?
लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है |ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो |लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ?
मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ?
हमारे एक मित्र ने,कहीं लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा |
हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी सब समा जाए |सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ?
लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा |
‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं |भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक, |अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहाँ तक है ?
सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया |
समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग)
नैतिक जिम्मेदारी के सवाल .....
हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है |इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आयोजन या कार्यक्रम का फेल हो जाना जरूरी तत्व होता है |हमारे तरफ इसे बहुत ही संजीदगी से लेते हुए अंजाम दिया जाता है |
किसी मिशन,आयोजन या कार्यक्रम के फेल होने का ठीकरा एक-एक कर किस-किस पर फोडते रहेंगे ये अहम प्रश्न असफलताओं के बाद तुरंत पैदा हो जाता है ?इसके लिए समझदार लोग या पार्टी पहले से पूरी तैय्यारी किए होते हैं | एक आदमी सामने आता है या लाया जाता है, जो पूरी इमानदारी के साथ अपने आप को, ‘हुई गलती’ के लिए ‘मेन दोषी आदमी’ बतलाता है |लोग उस पर विश्वास करके, आने वाले दिनों में भूल जाने का वादा कर लेते हैं |ये बिलकुल उसी तरह की सादगी लिए होता है जैसे एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद एक छोटे से गेगमेन को जिम्मेदार ठहरा कर सस्पेंड कर दिया जावे या शहर में कत्लेआम ,कर्फ्यू के बाद एक थानेदार को लाइन अटेच कर लिया जावे |माननीय मंत्री,सांसदों के किसी लफड़े-घोटाले में इन्वाल्व होने पर एक जांच आयोग बिठा देने का प्रचलन है |यहाँ जिम्मेदारी फौरी तौर पर कबूल नहीं की,या करवाई जाती |
‘नैतिक जिम्मेदारी’ की रस्म-अदायगी सर्व-व्यापी है | दुनिया के हर काम में हर फील्ड में ये व्याप्त है| |आप खेल में है,तो खिलाड़ी, खिलाने वाले कोच ,क्यूरेटर,नाइ,धोबी सब इसके दायरे में आ जाते हैं |बस ‘हार’ होनी चाहिए, कोई न कोई खड़ा होके कह देगा ये मेरी वजह से हुआ |
हमारी नजर में ‘वो’ ऊपर उठ जाता है|ऊपर उठने का अंदाजा यूँ लगा सकते हैं कि अगले मैच में, अगला दिखता नहीं |वो अलग सटोरियों की जमात में शामिल होकर पैसा बानाने की जुगत में चला जाता है |नाटकों में इसे नेपथ्य कहा करते हैं |
अरबों –खरबो के, सेटेलाईट भेजने के अभियान में, कभी-कभी कोई चूक हो जाती है ,ऊपर जाने की बजाय सेटेलाईट धरती में लोट जाता है|हम अमेरिका ,जापान,चीन.या पडौसी देश को दोष देने के लिए खंगालते हैं |भाई आओ ,जिम्मेदारी लो हम अपने अभियान में असफल रहे ,बता दो ये सब तुम लोगों की चाल थी |घटिया माल भेजे,वरना हमारी सेटेलाईट आसमान में बातें करती |अब की बार हमारी लाज बचा लो हम कल आपके काम आयेंगे |
वो सेटेलाईट, जो पुराने फटाको की तरह फुस्स हो के या जो अनारदाना जलने की बजाय फट जाए वाली की नौबत में समा जाती है |इस मौके को मीडिया वाले हाथ से जाने नहीं देते |वो घेरते हैं ,क्या कारण थे कि सेटेलाईट ‘कक्षा’ में नहीं भेजे जा सके?
वैज्ञानिकों को अगर कारण पता होता तो भला सेटेलाईट फुस्स ही क्यों होता ?
वे अपने राजनैतिक मुखौटे में पहले से तैय्यार जवाब पेश कर देते हैं |
इस अभियान में दरअसल बरसों की मेहनत लगी है|हमारे वैज्ञानिक दुनिया में बेजोड हैं |जो चूक हुई है उसका विश्लेष्ण किया जाएगा |हम मिशन को फेल नहीं होने देंगे |हम छह महीनों के भीतर दुनिया को दिखा देंगे कि हम भी अंतरिक्ष के मामले में किसी से कम नहीं हैं |इस फेल हुए मिशन की नैतिक जिम्मेदारी समय पर वैज्ञानिकों को वेतन न देने वाले बाबुओ की है |आगे क्या कहें ?
अगले दिन पेपर की हेडलाइन बनती है सेटेलाईट मिशन फेल |संपादकीय में खेद के साथ सरकार को समझाइश दी जाती है कि अगर मिशन की सफलता चाहिए तो वैज्ञानिकों को उचित समय पर पारिश्रमिक दिया जावे |ये मनरेगा मिशन नहीं है जिसमे ठेकेदार अपना कमीशन बाधे.... ?
हमारे देश में नहर ,बाँध ,डेम,पुल ,इमारतें ,रोड सब ठेके पर बनवाए जाते हैं |ठेके पर इन्हें देने –लेने की परंपरा कब और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है |प्रमाणिक चीज तो ये है कि आजादी के बाद बनने वाले नहर ,पुल इमारत ,सड़क-रोड का टिकाऊ होना जरूरी नहीं है| |इस बारे में ,ठेकेदारों का ये मानना है कि, घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?इस मुद्दे पर सब ठेकेदार एकमत हैं| वे इतना कमजोर प्रोडक्ट देते हैं कि एक खास मुकाम तक खिच भर जाए बस की सोच रहती है |
किसी अभागे का, बनते ही टूट- गिर जाता है तो उनको तत्काल, नैतिक जिम्मेदारी वाला रोल निभाना जरूरी हो जाता है |
वो बकायदा ,कभी घटिया सीमेंट या कारीगरों की एक रुपिया किलो अनाज मिलने से, काम के प्रति लापरवाही का बम फोड देते हैं |उल्टे सरकार को दोष दे देते हैं कि मजदूरों को इतनी सुविधाएँ दी गई तो वो दिन दूर नहीं जब वे काम के प्रति उदासीन हो जायेंगे |सरकार नैतिक जिम्मेदारी समझे...... | कुछ कदम उठाये ....?
अगला ठेका ,इस रस्म अदायगी के निचोड़ से खुश होकर सरकार उनको दे देती है कि एक रुपिया वाला प्रचार,गरोबो की हितैषी ,गरीब रक्षक सरकार का, अच्छी तरह से हुआ |
मुझे मेट्रिक में तीन विषयों में सप्लीमेंट्री आई |तब मै समझता था, कि मेरी उम्र नैतिक जिम्मेदारियों को समझने-साधने की नहीं हुई है |घर वालों ने दबाव बनाया ,मुझ पर लापरवाही के दोष मढ़े गए|इतनी लापरवाही आखिर हुई कैसे ....?क्या दिन-रात खेलकूद में मगन रहे ..?हम सब तो फस्ट,सेकंड डिवीजन की त्तरफ देख रहे थे,हमे क्या पता था जनाब सप्लीमेंट्री वाला गुल खिला रहे हैं |मेरी गर्दन तब झुकी रह गई थी |थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ ,निगेटिव विचार कुआ- बावड़ी,सीलिग़ फेन वाले भी क्षण मात्र को आये ,जिसे झटक दिया |ऐसे समय इन विचारों का झटक देना किसी महाअवतारी ही कर सकता है मुकाबला, आरोप लगाने वालो की तरफ धकेल दिया | सीधे-सीधे नाकामयाबी का सेहरा कैसे पहन लेता ...? मैंने प्रतिप्रश्न किया, मालुम है सब दोस्त लोग ट्यूशन-कोचिग पढते हैं तब जाके पास होते हैं |आप लोग तो कभी बच्चो पर ध्यान देते नहीं ....?वे लोग जवाब-शुन्य थे, मेरी आफत टल गई थी |
आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है |
जिस किसी को किसी भी मौके पर,किसी भी किस्म की जिम्मेदारी लेनी हो या मुह फेरना हो उसे अध्ययन –मनन के फेर में पडने की बजाय रटा-रटाया,बना-बनाया हल मिल जाए तो इससे बेहतर चीज भला दूसरी क्या हो ....?
आजकल राजनीति में औंधे मुह गिरने की गुंजाइश जोरो से हो गई है |
संभावित हार के नतीजे ,इधर मीडिया ने एक्जिट पोल में दिखाया नही, उधर नैतिक जिम्मेदारी वाला भाषण स्क्रिप्ट तैयार करवा लेनी चाहिए |इससे व्यर्थ तनाव ,अवसाद जैसे घातक रोगों से निजात मिल जाती है |
यूँ तो नैतिक जिम्मेदारी वाली ,सभी स्क्रिप्ट लगभग एक सी होगी|आप अपनी सुविधा के लिए सेफोलाजिस्ट से मिले आंकड़े, भर के, थोड़ी राहत की गुजाइश अपने लिए देख सकते हैं |
बता सकते हैं कि पिछले चुनाव से ज्यादा व्होट अब की बार मिले हैं |व्होट प्रतिशत में इजाफा होने के बावजूद ये सीट में तब्दील नहीं हुए ये हमारा,हमारी पार्टी का दुर्भाग्य है |
हमारी हार की वजह पिछडों का मतदान करने न आना ,एक खास जाति के मतदाताओं का झुकाव एक खास पार्टी के पक्ष में हो जाना रहा|हमारी पार्टी ने रहीम को साधा, राम को दरकिनार किया |रोड शो में हमने किराए के लोग नहीं लगवाए |मीडिया को चटकदार जुमले नहीं परोसे, जिसे लेकर दिन-रात वो बहस करवाते रहें | हमने गलत पार्टी से गठबन्धन किया ,जिसका खमियाजा हमें भुगतना पड़ा|हमने टिकट वितरण में गलती की ,जीत सकने वाले लोगों को टिकट नहीं दे सके |अमीर लोगो को टिकट दे दिए ,वे पैसे एजेंटों को दे के, सो गये |बूथ तक झांकने नहीं आये |एजेंट पैसे मतदाताओं को देने की बजाय ,खुद दबा गए |खेल यहाँ हो गया .....|वैसे इन सब के बावजूद हार की सारी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मै अपने पद से स्तीफा देता हूँ .....|
मै इस स्क्रिप्ट की कापी राईट का लफडा नही रखते हुए, इसे सार्वजनिक प्रापर्टी बतौर एलान करता हूँ |इन शब्दों का इस्तेमाल जिसे जब मौक़ा मिले, पूरी, अधूरी या कोई एक भाग , अपने भाषण में कर लें......|मुझे तमाम असफल लोगों के साथ सहानुभूति है ....|आगामी समय उनका हो .....आमीन ....
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पिछवाड़े बुढ्ढा खांसता
बुढ्ढे को जिंदगी भर कभी बीमार नहीं देखा |हट्टा-कट्टा,चलता-फिरता ,दौडता-भागता मस्त तंदरुस्त रहा |कभी छीक ,सर्दी-जुकाम, निमोनिया-खासी का मरीज नहीं रहा|
अभी भी वो सत्तरवे बसंत की ओर पैदल चल रहा है |उसकी सेहत का राज है कि वो , घर की सुखी दाल-रोटी में मगन रहता है |दो बच्चे थे ,शादियाँ हो गई |इस शादी के बाद पत्नी की सीख पर कि बहु–बेटियों का घर है ,समधन पसरी रहती हैं ,आते –जाते खांस तो लिया करो |
इस प्रायोजित खांसी की प्रेक्टिस करते –करते उन्हें लगा कि ‘ग्लाइकोडीन’ का ब्रांड एम्बेसडर बनना ज्यादा आसान था, कारण कि टू बी..एच. के. वाले मकान में जहाँ पिचावाडा ही नहीं होता ,आदमी कहाँ जा के खासे ?
हमारे पडौस में दो दमे के बुजुर्ग मरीज रहते हैं ,उनके परिवार वाले बाकायदा उनको पिछवाड़ा अलाट कर रखे हैं जब चाहो इत्मीनान से रात भर खांसते रहो |
एक हमारे चिलमची दादा भी हुआ करते थे ,एक दिन इतनी नानस्टाप, दमदार,खासने की प्रैक्टिस की कि पांच-दस ओव्हर पहले खांसते-खासते ,उनकी पारी सिमट गई ,वे अस्सी पार न कर सके |
आजकल हमारे चेलारामानी को पालिटिकली खांसने का शौक चर्राया है |
वे लोग लोकल पालिटिकल फील्ड में हंगामेदार माने जाते हैं ,जो समय पे ‘खासने’ का तजुर्बा रखते हैं मसलन ,सामने वाले ने प्रस्ताव रखा महापौर को घेरने का सही वक्त यही है वे कहेंगे नहीं अभी थोड़ी गलती और कर लेने दो ,वे खांस कर वीटो कर देते हैं उनकी उस समय,मन मार के , सुन ली जाती है |
आप कैसा भी प्रस्ताव, कहीं भी, चार लोगों की बैठक में ले आओ वे विरोध किए बिना रह ही नहीं सकते |
लोग अगर कह रहे हैं कि देखिये ,हम लोग मोहल्ले में पानी की कमी के बाबत मेयर से मिल के समस्या से अवगत करावे |वे खांस दिए मतलब उन्हें इस विषय में कहना है |जोर से खांसी हुई तो मतलब उनकी बात तत्काल सुनी जावे |वे सुझाव देने वाले पर पलटवार करके पूछते हैं |आपके घर में पानी कब से नहीं आ रहा ?घर के कितने लोग हैं , हमारे घर में चौदह लोग रहते हैं .सफिसियेंट पानी आता है |इतना आता है कि नालियां ओव्हर फ्लो हो रहती हैं |मेयेर से हमारी तरफ नाली बनवाने का रिक्वेस्ट किया जावे |अभी गरमी आने में तो काफी वक्त है आपकी समस्या तब देख ली जावेगी |मीटिंग उनके एक लगातार खासने से, अपने अंत की तरफ चली जाती है ,न पानी और न ही नाली की बात, मेयर तक पहुच पाती है |
हम मोहल्ले वाले चेलारमानी के ‘न्यूसेंस-वेल्यु’ को भुनाने के चक्कर में उनको एक बार मोहल्ला सुधार समिति का अध्यक्ष बना दिए |उनने साल भर का एजेंडा यूँ बनाया |भादों में सार्वजनिक गणेश उत्सव ,कलोनी वालों से चन्दा ,फिर नवरात्रि में कविसम्मेलन का भव्य आयोजन , चंदा |मोहल्ला सुधार समिति की तरफ से विधायक –मन्त्री का स्वागत ,जिसमे मोहल्ले के विकास के लिए राशि की मांग ,सड़क –नाली सुधार पर ध्यानाकर्षण |हरेक माह समिति के सदस्यों की बैठक |
वे बैठक में एकमेव वक्ता होते ,आए दिन ,चंदा उगाही में, मुस्तैदी के चलते मोहल्ले वाले तंग आ गए |किसी भी दरवाजे पर खटखटाने की बजाय वे केवल खास दिया करते तो लोग समझ जाते चेलारमानी आ गए |एक सौ, चंदे की चपत लग गई समझो |आदमी सौ तो बर्दास्त कर लेता, मगर बिना चाय के न टलने की आदत को बर्दाश्त न कर पाते |
जिस गरमी से उसे चुना गया था उसी मुस्तैदी से उसे हटाने का अभियान चलाना पड़ा |लोग चंदा दे-दे के हलाकान हो गए थे |
चेलारमानी के सब्सीट्युट , ताकतवर खासने वाले की तलाश मोहल्ले में जारी है |
अगर आपके पिछवाड़े में कोई बुढ्ढा खांसता हुआ मिले तो इस मुहल्ले में भिजवा दे |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पीठ के पीछे की सुनो .....
आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते |ढेर सारी चिकनी –चुपडी सुना के जाते हैं |क्या जी आपने तो खूब मेहनत की | लोग आप को समझ नहीं पाए जी |पिछली बार अच्छे से समझे थे |पता नहीं इस बार क्या कारण रहा ? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला ....?
प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं |
परोक्ष में ,यानी पीठ के ठीक पीछे,....... कहते फिरते हैं ,खूब ताव आ गया था....... स्साले में ,आदमी को आदमी नहीं समझता था |
कुत्तों ,गुलामो की तरह बिहेव करता था |
हारना ही था |
अब भुगतो पांच साल को |
और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले |
गए..... |
उधर प्रकट में ,नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी ...?
फिर हुई तो हुई कैसे ....?
हार के कारणों के विश्लेषण के लिए अपने चमचो की कमेटी को काम सौपते हैं |
देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूँ नहीं ,मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं |
तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो |देखे क्या निकलता है |
चमचे नेता जी से राशन-पानी,डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है|
आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं |
महराज ,मै किशनपुरा इलाके में गया था,वहाँ से आप बीस हजार से पिछड़े थे |
जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था ,दरअसल ,लोग उसके सख्त खिलाफ थे |वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था |अनाज,कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता मगर सबके दाम आसमान में चढाये रखता था,जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए |सामान वापस करने जाओ तो,दैय्या-मैया करके भगा देता था |किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे |अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना प्रचार करवाने निकलोगे तो जीतने की गुजाइश कहीं बचती है क्या ?
भैय्याजी ,हम उसी के बगल वाले गाँव की रिपोर्ट लाये हैं |वहाँ ये हुआ है कि,मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए |अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते |लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची |
भय्या जी आपके लठैत के रंग –ढंग अच्छे नहीं थे |
-काय बिलवा,खुल के बता न ...?अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे ....?
भईया जी,हमने पहले कही थी,लठैतों को शुरु से मत उतारो|आप मानते कहा हो ...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे|गाँव में लौंडिया छेडते रहे|आपकी, वो क्या कहते हैं ,साफ सुथरी इमेज को ‘सर्फ’ से धोने लायक भी न रख छोड़ा|
जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों के गाव से अकेले पच्चीस – तीस की लीड करते|
महाराज,जिसे आपने अपने पक्ष में ,पांच पेटी दे के बिठाया , वो मनराखन साहू ,बहुत कपटी आदमी निकला |विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने ..... |वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया|दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर |आप भी कहाँ –कहाँ फंस जाते हो ,समझ नहीं आता | वो पिल्ला बोलता है ,इलेक्शन के खम्भे हर साल क्यों नहीं गडाए जाते ...?मूतने में सहूलियत होती |
महराज ,आपने एक बात,पटरी पार वाले गाव की नोट की ?
आपने उधर शहर को जोडने वाले पुल बनवाए | रोड को मजबूती दी , सीमेंटीकरण करवाए,बुजुर्गो के लिए उद्यान,कन्याओं के लिए गल्स कालेज खुलवाए |उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं |आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं |केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के लहराया है भाई जी |
काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते ...?आपकी जीत निश्चित होती |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
पूर्वजो की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ |अब ज्यादा फेकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे |
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानो उनमे कुछ बनने की, अपने –आप में काबलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नही चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथो हुआ करता था |
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं |
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गो के लिए फक्र का मसला हुआ करता था |
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू |
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है |
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच हो जाया करते थे |
सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी |
किसी पडौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... |मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड |
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर, कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था|वे जंगलो में शिकार के वास्ते दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों के लिए चल देते थे |
हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोस्त उनका लंच –डिनर होता था |
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है |
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया |वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल ,बच्चो को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे |
इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडौस के सहदेव जी,खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नही,पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा |
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी आर्डर ही नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई |पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन |
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है |बेटा अपनी पोस्ट और पैसे पर इतराता था |चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सडक को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है |उसे सरकार छोडती ही नहीं |बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है |
अभी ब्रिज का काम मिला है |वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं |सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून, बाटन में पल्टी मार के कहता है|मेरी बात सुने नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी |कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त |
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई |
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों लेते रहते हैं |उसके पीछे का मकसद ,शायद ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा |
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम अगर सब इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापो के अफलातून बेटों को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती |इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुह से बोल, फूलो की माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज का फरमान जारी |
मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश |यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन जरूरत होती है |वे मजे से बता सकते हैं कि प्याज, डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है |
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
दाहिने हाथ का जुल्म .....
बचपन से आज तक हिंदू देवी-देवताओं के अनेक फोटो के दर्शन किए |
सीधा-सादा एक नहीं मिला |
दस हाथों वाली देवी ,हरेक हाथ में कुछ न कुछ ,कोई हाथ खाली नहीं |
तीन सर वाला त्रिदेव ,ब्रम्हा ,विष्णु महेश…….
पांच सर के पंचमुखी हनुमान………. ,
दस सिरों वाला रावण ………|
कहीं मत्स्य ,कहीं गजराज ,तो कहीं सिंह अवतार वाले अनेको ‘पावरफुल’ प्रभु .....|
सब की अपनी–अपनी स्टाइलिस्ट सवारी ....मूषक से शेर तक ..... |
प्रभु की शक्ति के आगे हजारों हार्स –पावर वाले भीमकाय राक्षस बौने |उनकी जादुई शक्ति के सामने प्रकृति ,आग , पानी और हवा, अपना रुख कभी भी, कैसे भी बदल लेने तैय्यार रहती थी |
तब के ‘सहस्त्रब्बाहू’ की अलौकिक लीला के किस्सो को सुन कर, यूँ लगता है कि साऊथ-इंडियन फिल्मकारों ने ‘रौउडी’ टाईप फिल्मी संस्करण में ‘हीरो’ के रोल में उन्ही प्रभुओं को कापी कर लिया है |
फिल्मो का समाज पर जो बुरा प्रभाव पडना था वो इन्ही ‘राउडी-हीरो’ की बदौलत , आज के ‘बाहुबलियों’ के व्यवहार में स्पष्ट दिख जाता है |
ये स्वनामधन्य पप्पू, मुन्ना,मिर्ची ,डफर, सलीम कुर्ला मजहर सायन ,जैसे बाहूबली, बिना किसी क्लैप किए एक्शन को उतावले हुए ,सर्व-व्यापी तैयार होते हैं|
फर्क इतना कि ‘प्रभु’ संस्कार वाले होते हैं ,ये भक्त के बुलाए जाने पर ,या अगर मर्जी हुई तो स्वयं कृपा बरसाने के लिए, तीज-त्योहारों में भक्त के बीच, आस्था वाले चेनल के माध्यम से घुस आते हैं |
मगर बाहुबली, बिना बुलाए केवल वहीं पहुचते हैं जहाँ उनको, उनका ‘हित’ दिखता है |बगैर अपना ‘हित’ देखे वे तिनका भी उठाने को तैय्यार नहीं होते |
किसी टेंडर के खुलने-खुलाने का दिन हो तो वे ‘बैंड-बाक्स ड्राईक्लीनर्स’ से धुले हुए झक साफ कपडे पहन कर मोटी सी सोने के चैन और हाथ में रजनीगन्धा डिब्बा लिए कतार में पहले मिल जाते हैं |इनके कपड़ों के मिजाज को देखकर कभी ये नहीं लगता कि ये धुल-कीचड में लोटने वाले ‘दाग अच्छे हैं’ लोग होंगे|
इनके हाथों में ट्रांसपोर्ट-परमिट निकलवाने का जादुई करिश्मा ,रोड, सड़क,नाली ठेका पाने का जन्म सिद्ध अधिकार वाला हक या जंगल ,पानी, आग, हवा,बिजली,जैसे विभागों में दखल रखने –रखाने का झकास बंदोबस्त होता है|
इनका ‘दाहिना हाथ’ एक-बारगी सक्रिय हो जाता है |वो पूछता है भाई जी बताओ तो सही कहाँ फोडना है ?
अगर किसी टेंडर के कालम में एक्सपीरियंस की दरकार हुई, तो ये केवल इतना पूछते हैं ,क्या ,कहाँ, कितने दिन, किस कंपनी का ?
वे ला कर हाजिर कर देते हैं |या तो उनके पास ब्लेंक फार्म का जुगाड रहता है, जिसमे जैसा चाहे भर लें या तुरन्त एक और दाहिना हाथ टाइप, बन्दा वहीं पहुच कर बस इतना कहता है भाई ने एक्सपीरियंस की लिए कहा है|
बिना सेकंडों देर हुए ,साफ सुथरे प्रिंटेड लेटर हेड में अधिकारी द्वारा ,सर्टिफिकेट हाजिर |
बाहुबलियों के,अतिरिक्त‘दाहिना-हाथ-नुमा आदमी’,या आदमियों की फौज कह लो, कमांडो स्टाईल में फुर्तीला और सक्रिय होता है |
उनके ‘दाये-हाथ वाले लोग’ मरने-मारने में उस्ताद होते हैं| उनके पास रामपुरी से ए.के .५६ सब कुछ मौके के हिसाब से मिल जाते हैं |
वीभत्स चहरे वाले ये लोग जहाँ भी जाते हैं, माहौल में सन्नाटा पसर जाता है |ये कभी खाली हाथ वापस आने वालों में से नहीं होते |
जितना कहा गया है उतना तो वे करते ही हैं ,कही-कभी अपना विवेक लगा दिए, तो कुछ ज्यादा भी कर जाते हैं |
मसलन बॉस ने कहा कल शहर बंद करवाना है ,स्साले मुच्छड़ की बोलती बंद करनी है ,बहुत पिटपिटाए जा रहा है |दाहिने-हाथो ने, शहर तो बंद करवाया ही ,दो-चार बस भी फूक दिए ,दो-तीन को टपका आए सो अलग |
सहस्त्रबाहू, शहर-बंद से वापस आए अपने ‘दाहिने-हाथो’, के कंन्धों पर हाथ रख कर मजाक से कहते हैं ‘अबे चमचो ,जितना कहा जाए उतना ही किया करो’!
अपने थानेदार को ऊपर जवाब देते नहीं बनता !
फिर जेब से ‘दुअन्नी’ उछाल के कहते हैं ,लो ऐश करो , माहौल गर्म है , दो-तीन हप्ते, ‘इते मति अइयो’ |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
फेकू किस्म के लोग
जब से ‘नमो’ को, दिग्गी काका ने फेकू कहा है तब से हमने अपने आस-पास के फेकुओं की खबर लेने की सोची |
आम बोलचाल की डिक्शनरी में फेकू का मतलब वह, जो बात –बेबात लंबी –लंबी डींगे मारता हो | फेकने का मतलब ये कि ‘हवाई –फायर’ टाइप कुछ कह दो,कहीं न लगे तो बहुत अच्छा ,वरना मिस-फायर का भी अपना एक धौंस होता है ?
मुझे किसी के फेके हुए किसी चीज में कभी दिलचस्पी नहीं रही |अगले के बेकाम का रहा होगा ,फेक दिया |उधर क्या देखना ?फिर उसके फेके का हमारे यहाँ क्या काम ?हम फेके को कभी उठाने की सोचते भी नहीं |
हमने एक बार एक महंत से,जिन्हें लोग सिद्ध –पुरुष माफिक मानते थे अचानक बिना सन्दर्भ के एक सवाल पूछ लिया ,बाबा आपकी नजर में, जो बिना बात के बात को बढा-चढा कर बताते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे ?
बाबा ने सोचा ,हमने जरुर कोई गम्भीर धार्मिक विषय को छेडा है,वे तनिक बाबानुमा हरकत में आए और अपना प्रवचन प्रारंभ किया ,बोले संसार में सभी प्राणियों को बोलने का हक है |जब से ये दुनिया बनी है तब से ही प्राणी सवाक-वाचाल हो गया है |केवल मनुष्य मात्र को ये वरदान है कि वो बोलकर अपनी भावना को दूसरों तक पहुचा सकता है |अगर तुम्हारे मन में अच्छे विचार हैं तो अच्छी बाते सामने आएगी |सच कहने वाला बडबोला नहीं होता |केवल कम शब्दों में काम निकल जाता है|
मगर जहाँ असत्य जैसा कुछ है तो उसे समप्रेषित करने के लिए तर्कों पर निर्भर होना पडता है |ये तो आप सब जानते ही हैं कि, जहाँ तर्को की गुन्जाइश आरंभ हो जाती है वहाँ आपको, बातों की बेल को चढाने के लिए एक से बढ़ के एक सहारे की जरूरत होती है |इस सहारे को आप बिना बात के बात बोल लेते हैं, ये अच्छी बात नइ है |
हमारी ये आदत है कि बाबाओं को जब तक वे निरुत्तर न हो जाए नहीं छोडते| उनको , उनकी ही बातों में लोचा देख के लपेट लेते हैं|
हमने पूछा ,बाबाजी मनुष्य को ये वरदान किस प्रभु ने दिया है, कि वो बोलकर अपनी बात दूसरों तक पहुचा सकता है?
बाबा निरूत्तर थे बोले ;वत्स अगले सत्संग में तुम्हारे प्रश्न को उठाएंगे |वे अपना बाक़ी चौमासा मौन-व्रत में निकाल दिए |
मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिले जैसा नहीं लगा |मैंने आपने प्रोफेसर मित्र से घटना का जिक्र किया |
वे अपनी राय तुरंत दे डाले |पांच –छह बार ‘फेकू’ शब्द को जानी लीवर,राजकुमार स्टाइल में दुहराते रहे |फेकू .....?फेकू ..... फेकू यानी .....
क्या बताया? लोकल मीनिग क्या बताया था ,जो बात –बेबात लंबी डींगे हाकता हो ?
नहीं यार मेरे विचार से ऐसा कुछ नहीं है |वे दाशर्निक मुद्रा में आ गए |प्रोफेसर मित्र की यही खासियत है वे प्रचलित चीज को जैसी वो है वैसे नहीं लेते |वे तुरंत दार्शनिकता की तरफ बढ़ लेते हैं ,इससे उनकी छाप सुनने वाले पर पड़ती है |
वे हट के काम करने में विशवास रखते हैं, ऐसा उनका मानना है |
मुझे असहज बिलकुल नहीं लगा जब वे ‘फेकू-प्रजाति’ के प्राणियों का वर्गीकरण अपने हिसाब से करने में उतारू हो गए |
उन्होंने कहा देखो भाई अगर कोई आदमी अमेरिका में रह के आवे और अमेरिका का गुण गाने लगे, उसकी अच्छाइयों का डिंडोरा पीटने लगे तो तुम्हे लगेगा वो फेक रहा है |
नहीं ,गलत |
सचाई का सपाट बयान जब फेकने जैसा महसूस होने लगे तो इसमे फेकने वाले से ज्यादा कसूर, उठाने से इनकार करने वाले पर है |
है कि नहीं बोलो ?
प्रोफेसर के नए तर्क ने हमारी बोलती भले बंद कर दी, मगर फेकुओं पर से नजरिया नहीं बदला |
हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं समझो |
हमें फेकुओ का विश्वास न करना विरासत में मिला है |
बजाय इसके कि फेकुओ की बातों में दस –पचास परसेंट घटा कर विश्वास कर लेते, हम समूचे बयान को झूठा समझ लेते हैं |
अखबारों में रोज बयान छपता है ,एक रुपये में ,पांच रुपये में ,बारह रुपये में खाना |
हम फ्लेश-बेक में चले जाते हैं |पचास-साठ का दशक, आपके पास एक रुपया हो तो तोडने वाला नहीं होता था|मजे से छकते तक खाओ, एक का नोट दिखाओ होटल मालिक विनम्रता से कह देता ,कल ले लेगे जी आप ही का होटल है |वो एक रुपय्या आपको होटल का मालिकाना हक भी दे जाता था |आज तो हजार का नोट एक हज्जाम-धोबी, अपनी दूकान में खड़े-खड़े तोड़ देता है |
सत्तर के दशक में पांच रूपए में दो लोग जीम लेते थे |अस्सी-पचासी तक बारह रूपए हुए तो चिकन-मुर्ग-मुस्सल्लम की तरफ देखा जा सकता था |होटल वाला आपकी हैसियत के माफिक अपना बिल एडजेस्ट कर लेता था | वो एक-आध बोटी भले कम कर ले, अपना ग्राहक नहीं छोड़ता था |
आज कोई भूले से कोई कह दे कि इतने पैसों में कोई खा सकता है तो उन अमीरों के जैसा बयान लगता है कि, खाने को जिन्हें रोटी नहीं वे ब्रेड क्यों नहीं खा लेते ??
हमारे-उनके दादाजी/दादीजी वाला किस्सा, हर दो-तीन फेमली मेंबर के मिलने पर चालु हो जाता है |
हमारे दादाजी अंग्रजों के जमानी में लोहे के चने चबा लिया करते थे| अरे ये तो कुछ नहीं, हमारे दादाजी जिसमे वे बंधे रहते थे पूरे सांकल ही चबा डालते थे |बोलने वाले को शायद दादा के खुरापाती इतिहास का पता नहीं होता, कि किस कारण उनको सांकल में बाँध के रखना पड़ता था ? वे तो बस एक हिस्से को आगे बढाते रहते हैं |
हमारी दादीजी बटुए में चवन्नी ले के जाती थी और बैल गाड़ियों में उस जमाने में सब्जी ले आती थी |
उस ज़माने का उनका फेमली फटोग्राफ मेरा देखा हुआ है| सब के सब मरियल टी.बी पेशेंट माफिक लगते हैं ,अगर सही पोषण होता तो चार- छह पैक वाले भी एक-आध तो दिखते ?
ये लोग सुनी –सुनाई बातों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी फेकते हुए कभी थकेंगे या नहीं ? पता नहीं ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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बोलती बंद है.......
हमारी ‘बोलती-बंद’ करने के अनेक प्रयास हुए,मगर जब हम भिड जाते हैं तो किसी की नहीं सुनते |
शुरू –शुरू में गाव के सरपंच जी ने ये प्रयास किया |हम नए –नए गुरुजी बने थे , गाव में पोस्टिंग हुई |मन में फिल्मी-स्टाइल सपना बाँध बैठे थे कि गाव के सब बच्चो को अच्छी शिक्षा दे कर अच्छे नागरिक बनाने का प्रयास करेंगे |हमारे प्रयास को सरकार सराहेगी |हमारे स्कूल को आदर्श मानकर माडल की तरह पूरे राज्य में अपनाने पर जोर देगी |
हमारे सपनों का शीश –महल ज़रा सा तब हिला जब हम गाव के दो कमरे वाले जर्जर स्कूल में पहुंचे |
छत टपक रही थी ,बच्चे नदारद ,बड़े गुरुजी पन्द्रह दिन बासी, पुराने अखबार को बीसवीं बार पढ़ रहे थे |
हमें देखते ही बड़े गुरु जी खुद खड़े हो गए ,दुआ सलाम की |शहर से गाव तक आने में हुई तकलीफ का सदभावना के साथ जायजा-बयान लिया |
ज्वाइनिंग रिपोर्ट को तीन –चार बार पढ़ के दबे स्वर में पूछा आर्डर तो गए हप्ते का है ,चार-पांच दिनों का नुकसान क्यों कर रहे हैं ,आप कहें तो पिछली तारीख में रिपोर्ट ले लेते हैं |उनके सुझाव पर मैंने कहा अगर आपको कोई विभागीय दिक्कत नहीं है तो मुझे कोई इंकार नही|
बड़े गुरुजी को लगा मै आसानी से पटाने वालों में से हूँ |पिछले डेट पर ज्वाइनिंग हो गई |मुझे भी सिगनल मिल गया कि चलो आजादी खूब रहेगी |
बड़े गुरु जी से, बच्चो के बारे में दरियाफ्त करने पर पता चला कि कुल जमा पाचवी कक्षा तक 90 बच्चे हैं |यहाँ बारिश के चलते आज तो कोई आया ही नहीं ,अमूनन बीस–पच्चीस बच्चे स्कुल आ पाते हैं |
सब के माँ-बाप बच्चो को खेत खलिहानों में ले जाना ज्यादा पसंद करते हैं |ये बीस –पच्चीस भी मिड डे मील लेने में, पढ़ाई से ज्यादा रूचि रखते हैं |अभी तक तो हम अकेले सम्हालते रहे अब आप आ गए हैं तो हमारा काम हल्का होगा |
मैंने बड़े गुरुजी से पूछा .इस छोटे से स्कूल में क्या बड़ा काम है ?
उन्होंने बताया कि स्कुल की देख-रेख पंचायत के जिम्मे है |हमारे सरपंच जी बड़े टेढ़े किसम के हैं |उन्होंने पहले ही कह रखा है कि नए गुरुजी के आने पर फौरन उनसे मिलने को कहा जावे |सो आपको पहले वहीं जा कर मिला लाता हूँ |
मैंने मन ही मन कहा देखे किस खेत की मूली हैं सरपंच जी ?
मै खेत और मूली देखने की गरज से बड़े गुरुजी के संग चल दिया |दस पन्द्रह बचे हुए बच्चो को हिदायत दी गई, कि जाते समय वे दरवाजे को भिडाते जाएँ |कहीं गाय-बछरू न समा जाए |
बच्चो ने एक स्वर में हल्ला किया ,मानो उन्हें छूट्टी मिल गई हो |
रस्ते में बड़े गुरुजी, सरपंच के लोकल (मेरे हिसाब से लो-अक्कल ) धमाको का बखान करते रहे| बीच –बीच में उनके खेत-खलिहान दिखाते रहे अंत में हम एक बाडे में घुसे |गोबर से लिपे हुए बड़े से बरामदे में जहां एक ओर अनाज के कट्टे-बोरी दूसरी ओर किसानी औजार ,ट्रेक्टर के पार्ट ,डीजल के केन रखे हुए थे |तीन तरफ लकडी के बेंच डले थे और सामने सरपंच जी का आसान था |
उनको खबर दी गई, वे आए, हमारा मुआयना किया ,बैठने के इशारे पर हम बैठ गए |
सरपंच जी ने कहा ,तो गुरुजी नए मास्टर को सब बता दिए कि नहीं ?
हमे हमारा ‘मास्टर’ नामकरण अजब सा लगा ,एकाएक लगा कि बहुत बुजुर्ग से हो गए हैं |
बहरहाल उनने जो कहा ,उसका सार ये कि ;
मास्टर जी आपको स्कूल के समय में से हमारे काम के लिए समय निकालना होगा |हमारी सरपंची की लिखा-पढ़ी करनी होगी ,और हाँ स्कूल में पढाने –लिखाने का चक्कर तो बड़े गुरुजी देख लेंगे ,तुम तो हमारे घर में जो चार बच्चे हैं उनको देख लिया करो .समझे कि नइ?
हमने लौटते वक्त बड़े गुरुजी की तरफ, बहुत दूर की लंबी खामोशी के बाद देखा, वे नजर फिराते हुए बोले देख लीजिए ये गाव है ,सरपंच जी के कहे में रहोगे तो कहीं कुछ जवाब माँगने वाला नहीं है |
मर्जी से अप-डाउन करो |
बड़े गुरुजी की बात, हमारे हित में थी सो अच्छी लगी|आदमी को हर ऐसी बात जो उसका हित –साधती हो अच्छी ही लगती है |
बड़े गुरुजी से इतनी देर के परिचय में ही,बेतक्कलुफी
आ गई थी इसलिए पूछ लिया ,गुरुजी यहाँ ‘ऐ डी आई एस’ साहब नहीं आते ,जांच वगैरह नहीं होती क्या ?
अरे जांच –वाच सब होता है |ऐसे ही थोड़े स्कुल चला रहे हैं |
हर क्लास की पंजी देख लो,सब बच्चे सेंट-परसेंट अटेंडेंस वाले हैं|मिड डे मील का हिसाब देना पडता है न ?
गाव में साहब-लोग तीज-त्यौहार वाले दिन आते हैं |
कम उपस्थिति का हवाला तीज-त्यौहार के मत्थे चल देता है या सरपंच जी सम्हाल लेते हैं |
एक –आघ बोरी चावल देकर पीछा छूट जता है |
करार के मुताबिक़ मेरा सरपंच जी को रिपोर्ट करना जारी हो गया |
सरपंच जी का काम मेरे लेपटाप की वजह से घंटे भर में निपट जाता| वे काम की प्रिंटेड क्वालिटी देख के गदगद हो जाते|अक्सर पूछते कितना खर्चा हुआ ? मै मौखिक हिसाब देकर चुप हो जाता |उनका हिसाब मेरे चोपडे में फिट होने लगा था |
सरपंच जी का हर जगह गोलमाल |रोड ,सड़क ,नाली सब में ठेकेदारों से मेलजोल |मंनरेगा में उनकी ऊपर तक पहुच ,मिड डे मील में उनकी हिस्सेदारी| हर विभाग में उंनके पसंद के अधिकारी |
मुझे काम देखते –देखते ख़याल आता कि ये क्या हो रहा है ?
सरपंच जी, हमारे अतिरिक्त काम का भरपूर मुआवजा देते ,हमारी तनखाह डबल सी हो गई थी |
हमारे चुप रहने का,या उनके गदहे जैसे बच्चो को मुफ्त ट्युशन पढाने की भरपाई हो रही थी |दिन मजे में अच्छे कट रहे थे |
उन्ही दिनों एक पत्रकार अपनी जुगाड में गाव के चक्कर लगाया करता |
गाव के लोगों से सरपंची करनी-करतूत के किस्से लेकर छोटे-मोटे लेख लिख देता |
सरपंच जी बौखलाते ,मुझसे पूछते ये तुम्हारे शहर का है न ?
उन्हें धीरे-धीरे मुझ पर शक होने लगा |मैंने समझाने की कोशिशे की मगर काम बिगडते रहा |मैंने किसी तरह अपना अटैचमेंट शहर के शिक्षण विभाग में करवा लिया |
मुझे सरपंच जी की नासमझी पर गुस्सा बहुत आया लगा कि भलमनसाहत का ज़माना ही न रहा |
मुझे यार-दोस्तों ने उचकाया ,तू उसे सबक क्यों नहीं सिखाता ?जब तक ऐसे लोगों को उखाडा नहीं जाएगा देश की तरक्की कहाँ हो सकेगी?
मुझ पर एकाएक देशप्रेम का भूत सवार हुआ |
एक शिक्षक ही देश को सच्ची राह ,सही दिशा दे सकता है, जैसे फितरो ने मेरी सोच पर आक्रमण कर दिया |
मेरी बेचैनी तब तक बढते रही जब ता कि मैं ढूढ कर पत्रकार को नहीं पकड़ा| उससे पक्का करवा लिया कि वो खबर का कहीं किसी से सौदा नहीं करेगा और सारी बात बता दी |
उसने उन बातों में कितना नमक –मिर्च लगाया वही जाने? मगर हाँ, सरपंच पन्द्रह दिनों में रिश्वत लेते रंगे हाथ धर लिया गया, तब से आज तक उसकी बोलती बंद है.......
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
मुझे भी तो मनाओ....
मुझे रूठे या खपा हुए एक ज़माना लद गया |वो बहुत अच्छे दिन ठे जब हम रूठा करते थे और वो मनाने का जिद ठान के बैठी होती थी|
कालिज नही जाते थे तो खबर पे खबर भिजवाए रहती थी |
खबरची भरी दोपहरी में या भीगते –भागते बारिश में आ-आ के जाने क्या –क्या बयान करता कि मन कभी या तो खबरची के हालत पे या उसके बया किए हालात पे तरस खा जाता ,और उसे पसीजने का सॉलिड बहाना मिल जाता |
अपने रूठने से अगर वो खपा हो जाती तो, स्तिथी ‘समझौते’ के लिए ‘मध्यस्थो’ की मुहताज हो जाती |
एक-दो अपनी तरफ से एक- दो उनकी तरफ से भिड पड़ते |
दोनों पक्षों के मध्य ,गिले –शिकवों की गिनती कराई जाती | तू ने ये नहीं किया ,वो नहीं किया |
मेरी क्या बताती है ,वो अपनी कहे मेरी एक बात कभी मानी ?कहा था क्लास छोड़ दो ,बैठ गई पीरियड अटेंड करने |एक पीरियड ‘गोल’ कर देने से कोई ‘मार्क्स’ नहीं घट जाता |
‘मध्यस्थ’,इन तू-तू,मै-मै के तोड़ निकाल लेते | ‘
युद्ध –विराम’ की घोषणा हो जाती |
बहुत अच्छे दिन थे |हंसते -हंसाते गुजर गए |
बचपन में रूठ कर ,जिद करके , अपनी बात मनवा लेने का ख्याल करके, अब बाप बनने के बाद पता चल पाया कि हम दो बच्चो की जिद से परेशान रहते है ,वे बच्चो की फौज को कैसे सम्हालते रहे होंगे ?
हमारे पडौस के मिश्रा जी को दब्बू –पति का ‘खिताब’ हर होली में हर कोई दे डालता है |वे काबिल-तौर पे हक़दार भी हैं |पिछली होली के कपड़ों में होली मना लेते हैं |पत्नी को तिनका भर गुलाल ज्यादा लगा दें तो उनकी भंव तन जाती है | आखे दिख गई तो हाथ में ली हुई कचौरी छोड़ देते हैं | वाजिब बात पर भी उनके रूठने का हक बनते कभी नहीं देखा |
उनको मिसाल देके ,पत्नी ताने जरूर देती है| देखो मिश्रा जी को देखो ,कैसे सर झुकाए आफिस से घर और घर से आफिस आते –जाते हैं |एक आप हैं ,कोई अता-पता नहीं न रहता ?
मुझे पत्नी को हाबी होते देख ,खपा होने का भूत सवार हो जता है |
तुम लोगों के लिए जितना करो कम है |रोज-रोज दफ्तर में घिस-घिस के काम करो ,घडी भर सांस लेने का टाइम नही और यहाँ तुम्हारी बकवास |मुझसे उम्मीद न रखो कि मै ‘मिश्रा-जी’ हो जाऊ?
पत्नी इतनी सी बात पर काम रोको आंदोलन पर उतर कर ,बिस्तर में घुस जाती |मुझे मनाने का घडी –भर ख्याल नहीं आता |
उल्टे मुझे ‘मिश्रा-जी’ के रोल में पानए के बाद ही अपनी गाडी, पटरी पर ला खड़ा करती |
उनको ‘रूठे पति को मनाने के हजार तरीके’ वाली किताब शुरू-शुरू में जब लाकर दी थी, तो उनने उसे पढ़ने की ये शर्त रखी, कि जब मै ‘रूठी पत्नी को मनाने के लाख तरीके’ वाली किताब ला कर दूंगा तो वह पढना शुरू करेगी |
मुझे आज तक वो किताब मिली नहीं ,सो मेरे खपा हो के रूठने का हक मिल नहीं पाया |ऐसे रूठने का मकसद ही क्या जिसके मनाने वाले का आता-पता न हो |
मुझे उन रूठने वालो पर फक्र होता है जिसके लिए सरकार के मुहकमे बंदोबस्त में लग जाएँ |मंत्री-संतरी एयरपोर्ट में तैनात रहें |एक गिलास ज्यूस पिलाने के लिए मीडिया आठ-दस दिनों तक गुहार लगाती फिरे |
जूस के एक घूट भरते ही ऐसा लगे कि जनता की , महीनों की प्यास बुझ गई हो |जय-जयकार के नारों के बीच यूँ लगे कि किसी ‘जिद’ ने फतह पाई हो |
मुझे उन रूठने वालो पर भी फक्र होता है, जो खिचडी खा के कहते हैं ,बीमार हैं |
उडती ‘पतंग’ को और ढील देना गवारा नहीं समझते |
बिना मांजे के पतंग को उडाए रखने को बाध्य किए होते हैं |
‘चकरी’ लगभग इनके हाथ में होने का गुमान पार्टी को थोड़ा –थोड़ा होता है ,जिसकी वजह ,वो चिरौरी करते से लगते हैं |
“नीचे उतारो मेरे भइय्या तुम्हे मिठाई दूंगी ,
नए खिलौने ,माखन-मिश्री ,दूध मलाई दूंगी”
सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की उक्त पंक्तियों की तर्ज पर रूठने वाले ‘कन्हैय्या’ को उतारने के लिए अब ‘चार्टेड-प्लेन’ की व्यवस्था है, वे मीडिया के मार्फत बात उन तक पहुचाते हैं |क्या गजब का अंदाज है ?रूठे तो यूँ ...,खपा हों तो ऐसे.... |
हमे तो हमारी बारात में भी, “खाना है तो खाओ” के हाल पे छोड़ दिया गया था |
काश जीवन में एक बार , हमे भी कोई यूं मनाता ...?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
८-६-१३
रिश्वत लेने की तकनीक ....
इस लेख को पढ़ने वालो को ये वैधानिक चेतावनी ध्यान में रखना जरूरी है |
ये लेख किसी मर्द ,औरत , औरतनुमा मर्द या मर्द नुमाँ औरत को रिश्वत लेना कतई नहीं सिखाता |
इसमें दिए नुस्खे को यदि कोई आजमाता है या आजमाने का प्रयास करता है तो उसके अंजाम का वह खुद जिम्मेदार होगा |
यूं तो रिश्वत लेने –देने को सिखाने के लिए कोई कोचिंग क्लास मेरी जानकारी में अभी तक चालू नहीं हुई है |जहाँ तकनीकी ज्ञान प्राप्त हो सके |
आदमी भला सीखे कहाँ से ?
अनाप –शनाप ले लेते हैं |
जहाँ चार इंच मु खुलना चाहिए चालीस इंच खोल देते हैं |
चलो,गलती से खुल भी गया तो खपाने का,गुटकने का तरीका आना चाहिए |
ये क्या कम्पौडरी करते हैं और दो सौ करोड को टच कर लें ?भाई बुरा मानने का दूसरों का हक जायज है कि नहीं ?
विरोधियों को शांत रखने का गुर सीखना जरुरी है | घर में,घर के भेदी होते हैं ,पडौस वाले कुढते हैं ,मुहल्ले वाले जलते हैं, उनको पटाए रखने का तजुर्बा तो ये है कि ट्रांसफर लेते रहो एक जगह टिक के न बैठो |
मैंने टुटपुंजिया रिश्वत खाने वाले बहुत देखे हैं |सुबह मंजन घिसने से लेकर शाम गुड नाईट को हाथ हिलाते तक इनके बीच ही घिरा रहता हूँ |
सुबह –सुबह दो –दो किलो के दूध का केन लटकाए चार –छ: किलो दूध लाते श्रीवास्तव जी, बुलंद आवाज से ,जैसिया राम बोलते हैं |
बोलने के वजन से पता चलता है की दो किलो वे खुद पी जाते होंगे |
मैंने यूं ही पूछ लिया ,आप कुल जमा तीन प्राणी हैं इतना कहाँ खप जाता है?
वे बड़े गर्व से बताते हैं ,डेढ़-एक किलो तो सीसन (शेरू) पी जाता है |
मै मंजन की पीक जोर से थूकते हुए ,सोचता हूँ स्साला दो कौडी का बाबू कल तक छाता –बरसाती मांग कर ले जाता था ,आज किलो भर दूध शेरू के वास्ते लिए जाता है |
जम के दुह रहा है|
उससे रोज सामना न हो जाए इसलिए मै अपने मंजन का टाइम –टेबल बदल लेता हूँ या उसे दूर से आते हुए देख के मै घर के भीतर चला जाता हूँ |
उस दिन साहू जी पेपर लिए ,पेट्रोल के बढे दाम पर, चिंता और मातमपुर्सी के तर्ज पर तर्क कर रहे थे तभी श्रीवास्तव का गुजरना हुआ |
बहस में हल्के –फुल्के से हिस्सा लेकर यूं कहते आगे बढ़ गए ,कि ज्यादा इजाफा कहाँ है ?
सब चीजों के दाम तो बढ़ रहे हैं ,पेट्रोल भी बढ़ गया तो क्या ?
उसके जाने के बाद साहू जी फट पड़े ,इनको क्या.....? सब फोकट का मिल जाता है |
आफिस की गाडी से ड्राइवर जो पेट्रोल मारता है, उसे आधी कीमत में खरीद लेता है साला.... |
दाम बढ़ने से क्या फरक ?
आप को पता है , हर अर्जी पे दस –बीस का चढावा ,चढवा लेता है तब अपनी कलम घिसता है |दिन-भर में चार-पांच सौ कहीं नहीं गए |
मैंने कहा कोई अकडू नहीं टकराता क्या ?
साहू ने मेरी ओर इस नजरिए से देखा जैसे मुझे दुनियादारी का ज़रा भी इल्म नही हो |
अब भला इतने कम अमाउन्ट पे कौन को पडी है जो अपना काम बिगाड़े ?
इसी तर्ज अपना रामदीन सिपाही भी तो है |सबसे दो-दो,पांच –पांच ले के पूरे क्वाटर-अध्धी का इन्तिजाम कर लेता है और मस्ती में झूमते-झामते लुढका हुआ मिलता है |
मेरी बहुत इच्छा थी कि मेरे नाम के सामने डाक्टर जुड़े ,पी .एच.डी. करूँ |
सब्जेक्ट ढूढते-ढूढते साठ पार कर गया |
भला हो मेरी याददाश्त का,जिसने बताया कि एक डी.वाई .एस .पी ने बाकायदा पाकेटमार पर रिसर्च करने के लिए पाकेटमारो के संगत में कई दिन बिताए ,पाकेटमारी भी की |
मुझे लगा कि रिश्वतखोरो के साथ ये काम कर के देख लिया जाए |जहां चपरासी से लेकर मंत्री तक सब भ्रष्ट हों ,जहाँ कुछ अखबार ,कुछ टी.वी चेनल आड में इन्ही खबरों की कमाई कर रहे हैं वहाँ आकडे जुटाना कोई मशक्कत वाला काम नहीं है|बैठे-बिठाए पी एच डी हो जाएगी |
कहते हैं इश्क-मुश्क छुपाए नहीं छुपते|उस जमाने में रिश्वत का बोलबाला नहीं रहा होगा ,वरना इश्क-मुश्क के साथ इसका नाम भी जुडा होता |
रिश्वत में खुशबू अच्छी होती है |मेरे घर के पीछे रामनाथ रहता है |है तो वो मामूली सा नजूल आफिस में चपरासी मगर उसके घर से बासमती चावल ,हैदराबादी बिरयानी की खुशबू वक्त-बेवक्त उठते रहती है |कोई हिम्मत वाला वेजेटेरियन बाम्हन ही उसके पडौस में टिक पाता है |
रिश्वत में रोब-दाब खूब होता है| ट्रांसफर पोस्टिंग का भाव करोडो में हो गया है |”दबदबे- दार मामू” हो तो अगला विश्वास क्यों न करेगा भला?
वे मरियल से खाने वालो पर हसते होगे ?
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बात तब की है जब हिनुस्तान में रिश्वत नहीं होता था |
आजादी का जुनून होता था |जेल जाने वाले लोग , जमानत की गरज नहीं करते थे |अरेस्ट के नाम पर उनका दम फूलते किसी ने नहीं देखा, वे अटेक और हाई बी पी के बहाने हास्पिटिलाइज्ड भी न हुए |
ले दे कर छूटने –छुटाने की उनने कभी सोचा भी नहीं|जमाना लद गया |
लोकतंत्र ,पंचायत ,और आखिरी आदमी तक हक व् न्याय की बड़ी-बडी बातें कही जाने लगी |इन बडी बातो के चक्कर में, या यूं कहे कि दलदल में देश धंसते चला गया |
हर जगह मखौलबाजी ,मुखौटेबाज ,मसखरे बाज लोगो ने अपनी जड़ें जमा ली |
लोग हर काम में ,हिसाब –किताब और फायदा देखने लगे |जिसे जब जितना चूना लगाने का मौक़ा मिला, वे उसी दम तैय्यार दिखे |
मेरे बाप-दादे डरते थे ,बिना टिकट, कभी पास के स्टेशन तक भी कहीं गए नहीं |बिना टिकट चुनाव भी नहीं लड़े |कभी निर्दलीय नहीं बने|दल और पार्टी के लिए हमेशा निष्ठावान बने रहे , सो उनका मोल-भाव नहीं हुआ |वे एक पार्टी को जिताते रहे |
बेखौफ जीतते रहने के कारण,निष्ठावान पार्टी के लोग सत्ता को बपौती मानने लगे |वे अपनी टोपियां सहेज के रख दिए ,कि फिलहाल जरूरत तो नहीं ,कभी हुई तो निकाल पहन लेंगे |
टोपियां जब सर पे बोझ सी लगाने लगे ,जब टोपी बदलने के दाम मिलने लगे तो समझो राजनीतिक सुनामी कभी भी आ सकती है ?
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चुनरी में दाग ....
हमारे उस्ताद जी को दाग –धब्बों से बहुत चिढ सी थी |वे कतई बर्दाश्त नहीं करते थे कि उनका शागिर्द किसी किस्म के उलट –फेर में पड़ा रहे |उनमे खुद कोई बुरी आदत, सिवाय एक भांग खाने के नही थी |इसे भी वो शिव –भोले के प्रसाद के निमित्त मानते थे |आयुर्वेद में हाजमा दुरुस्त रखने के अनेकानेक उपायों में से एक जानकर अपना बैठे थे |
उस्ताद जी को अखाड़े से बाहर ,हमेशा साफ –सफेद वस्त्रों में लिपटे हुए देखा |कई साबुन-डिटर्जेंट वाले विज्ञापन देने-दिलाने के नाम पे चक्कर काट गए पर उस्ताद जी को ‘झागदार’ बनाने में सफल नहीं हुए |
उस्ताद जी का कहना था कि, लोग आपको ‘झागदार’ बनाते –बनाते कब ‘दागदार’ बना देंगे कह नहीं सकते ,यानी लालच से बचो |
कम खाओ ,’बनारस’ में रहो, इस सिद्धांत को पालते –पोसते वे कब ‘बनारसी’ हो गए पता नहीं ?
उस्ताद जी को गुजरे अरसा हो गए ,तब से आज तक हमने किसी हार-जीत पर दांव नहीं लगाया |
फुटबाल ,हाकी ,कैरम ,क्रिकेट हमने भी कई खेल खेले पर हमें खरीदने वाला कोई माई का लाल तब पैदा नहीं हुआ|हमें फक्र इस बात का भी है हमारी बोली नही लगी |
हम तक, झांकने को नीम-बबूल दातूनो का स्टाकिस्ट तक नहीं फटका कि आओ हमारे प्रोडक्ट के ब्रांड एम्बेसडर बन जाओ |
मजे की लाइफ थी ,खेलो और भूल जाओ |कोई रिकार्ड-विकार्ड का चक्कर नहीं |
करीब-करीब ,कबीरी जिंदगी जीने वालो का एक ज़माना था,..... गुजर गया |
’जस की तस धर दीन्ही चदरिया’...... वाले लोग अपनी-अपनी ,चादर को समेट के बेदाग़ बढ़ लिए|
जिसने ज्यादा यूज किया, वे ‘तार-तार’ होने तक भी चादर नहीं बदले |
कभी स्याही –चाय गिर गई तो बड़े-बूढों के डर से थोड़ी बहुत धो लिए|
एक परंपरा थी कि ज्यादा ‘दाग’ लगने नही देना है |’चरित्र’ के नाम पर राम-चरित मानस की तरह जगह –जगह प्रवचन चलता था |
मास्टर जी की क्लास में कूट-कूट कर बतलाया जाता था ,ये गया तो कुछ गया ,वो गया तो ‘कुछ और...; गया मगर ‘चरित्र’ गया.... तो समझो सब चला गया |
मास्टर जी की पकड़ से छूटते ही, दादा-बाबूजी की पकड़ में फिर वही सीख ,’चरित्र’ गया.... तो सब गया |
इन सीखो की वजह से गृहस्थाश्रम से आज तक किसी बलात्कार के कभी ब्रेकिंग न्यूज ही नहीं बने |
हमारी खानदानी ‘चादर’ बेदाग़ रह गई |हमारी खुद की भी बेदाग़ रह गई |
हमने ‘दाग अच्छे हैं’जब से सुना, हमारे होश गुम हो गए|माना कि तुम्हारे पास अच्छे डिटर्जेंट हैं, इसका ये मतलब नहीं कि तुम इतराओ ,‘दाग’ में सूअरों की तरह लोट जाओ |
धोने वालो का तो ख्याल रखो उनके पास और भी तो काम हैं तुम्हारे दाग छुडाने के |
ड्राई -क्लीन के जमाने में मिस्टर क्लीन कहलाना या हो जाना अलग मायने रखता है |हमारे जमाने में किसी गलती से, चरित्र पर शंका उत्पन्न हो जाती थी तो अग्नि परीक्षा ,सामाजिक बहिस्कार,तिरस्कार ,गंगा स्नान और न जाने क्या –क्या उपाए किए-सुझाए जाते थे|
लोग स्वस्फूर्त साधू बन के गायब हो जाया करते थे ,वे तब बाहर आते थे जब ज्ञान का अकूत भंडार उनके पास हो जाता था |प्रवचन वे तब भी ‘चरित्र’ के मुद्दे पर ही किया करते थे |
ढीले-करेक्टर वालों के आंकड़े सुनते–सुनते अब तो मानो कान पक जाते हैं |दो-चार साल के बच्चो पर रेप,मनमाना घूस ,पुलसिया इन्काउंटर ,नेताओं के बहके –बहके बयान, खेल के भीतर खेल |
इमान्दारी से देखा जाए तो आज जितने जेल हैं ,उतने की ही और जरूरत है |
इन ढीले-करेक्टर वालो को, हम लोगो ने बहुत सहा है |मूक दर्शक बन के करोडो लोग अपना धन और समय की बर्बादी कर रहे हैं |बहिस्कार –तिरस्कार की भाषा में निपटने की बजाय चेनल वाले अपनी रोटी सेक रहे हैं ?अखबार वाले जगह दे रहे हैं ?
यों नहीं होना चाहिए कि इनकी ‘चादर’ इनसे छिन ली जाए ?बिना दाग- धब्बे की इनकी केवल नंगी पहचान बनी रह जाए?......
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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लाल बत्ती वाले लोग
हम लोग निपट देहात में रहा करते थे |सुविधा के साधन कम हुआ करते थे | न रेडियो न फोन |
पचास साल पहले ,टी वी ,मोबाईल के बारे में कोई जानने की सोच भी न सकता था |
मास्टर जी गाव के सर्वेसर्वा सुचना व् प्रसारण का काम सम्हालते थे|
वैसे उस जमाने में रोज की दिनचर्या में, खबरों की कोई जगह नही थी |लोग कमाने निकलते थे ,दिनभर की रोजी में थक हार के लौटते |अन्धेरा घिरते ही पूरा गाव सो जाता था |अब ऐसे में खबर्रो का भला क्या अचार डालते ?
खबरों से ज्यादा,गांव में किस्से-कहानियों का प्रचलन था|चौपाल में कहीं दुबक के बैठ जाओ तो पिछले चालीस –पचास सालों का इतिहास समझ में आने लगता |कैसे १०० रु में तोला भर सोना,एकड भर खेत |
पन्द्रह रु महीने की पगार और चार आने की तरकारी में बड़े से बड़ा परिवार आराम से जीम लेता था |उस जमाने में किसी सी ए ,पी ए की पैदाइश नही हुई थी , कोई तहलकेदार इकानामिस्ट नही हुआ करता था |
बुजुर्गों की पूछ –परख वाला वो जमाना धीरे –धीरे मनो लद सा गया|
मास्टर जी को देख, पेशाब कर देने वाले लोग अब लाल बत्ती लगाए घूमने लगे |किस्सा कुछ यूं है ;
कंछेदीलाल और मै साथ-साथ पढते थे |
वो एक कमजोर सा दुबला –पतला ,स्कूल से हमेशा गोल रहने वाला, या यूँ कहें कि मास्टर जी के डर से स्कूल से दूर –दूर भागने वाला, कम अकल का साधारण सा बालक था |वो मेरे ठीक पीछे बैठता था |उसकी अनुपस्थिति का खामियाजा मुझे झेलना होता था |मास्टर जी उन दिनों के रिवाज के मुताबिक उसे बुलाने ,उसके घर मुझे भेज देते |कभी मिलता तो उसे पकड़ लाता |वरना मुझे भी पढ़ने से कुछ राहत मिल जाती| स्कूल ज़रा देर से पहुच कर कन्छेदी की जगह –जगह तलाशी का ब्योरे वार विवरण देकर वाहवाही पा लेता |इस बहाने ,मास्टर जी से और भे कई छूट मिल जाया करती थी |
कभी कन्छेदी को लगातार स्कूल आए देखता तो मन ही मन मुझे उस पर गुस्सा सा आया करता था|
कन्छेदी प्राय: हर क्लास में मेरे करीब ही बैठता |उसे अघोषित रूप से मेरे स्लेट –कापी से देख के लिखने की आदत सी थी |
एक दिन खराब तबीयत के चलते मैं स्कूल नहीं जा सका |कन्छेदी पर आफत आ गई |मास्टर जी, परीक्षा की तैयारियों करवा रहे थे ,कंन्छेदी सब गलत कर बैठा |मास्टर जी बौखला के दो-चार जमा दिए|कन्छेदी मूत मारे था |क्लास के उत्पाती बच्चो के लिए कन्छेदी को चिढाने का नया जुमला मिल गया |उसका नया नामकरण ‘मुतरा’ हो गया| सहपाठी उसका जिक्र आने पर इसी नाम से जानने लगे थे ,मगर सीधे उसके मुह पर कोई नहीं कह पाता था |
कन्छेदी का, मास्टर से डर का पारा यूँ बढ़ गया कि ,वो परीक्षा तक तो स्कूल ही नही आया |
आगे के क्लास में हमारे सेक्शन बदल गए |
कन्छेदी का पढाई से इतना ही वास्ता था कि वो पास हो जाया करता था|
उसकी दोस्ती मोहल्ले के एक –दो पहलवानों से हो गई | पहलवानी में उसका जी क्या लगा , देखते –देखते उसकी काया बदल गई |मस्त सांड की तरह बदन का हर हिस्सा गुब्बारे की तरह तन गया |
कन्छेदी मोहल्ले के टपोरियों का उस्ताद हो गया |टपोरी उससे संगत बढ़ाने के लिए हमेशा घेरे रहते |पान की दुकान , सेलून , चौराहे पर चाय-भजिए के होटल में उसका जमवाडा या पाया जाना लगभग तय रहता था |उसके खबरी आ-आ कर गाव ,मोहल्ले,पडौस की खबर उसे पास-आन किया करते थे | उसे गाँव की हिस्ट्री-जिओग्राफी ,बच्चे से बूढों तक की सेहत,यहाँ तक कि, जनानी बातों की जानकारी भी उसे मिल जाती थी|
उसके तजुर्बे दिनों-दिन बढ़ रहे थे |नौकरी की उम्र में पहुँच कर बहुत हाथ पैर मारे ,मगर मार्क-शीट देख सब मुह फेर लेते थे |यों नौकरी के नाम पर बस खाली जूता घिसना ही हुआ|
हताश हो कर कन्छेदी से बैठा न रहा गया |उसके टपोरी –विंग ने पैसा कमाने के कई नुस्खे बताए |कन्छेदी कन्विंस न हो पाया |बस आखिर में उसे दलाली वाला आइडिया ही जमा |इसमे जोखम कम ,लागत कम और जब तक दिल करे , काम करो वाली बात ने , उसे अट्रेक्ट किया | उसकी दलाली जम गई |कई लोग संपर्क में आते गए |सुझाव दर सुझाव ,सलाह-दर सलाह करवट बदल –बदल के, कन्छेदी गाँव का मुखिया , सरपंच , जिला पंचायत का अध्यक्ष ,विधायक और अंत में मंत्री तक बन गया |
कन्छेदी की तरक्की के ग्राफ को, किस्से कहानी की जुबानी कहे तो, “जैसे उनके दिन फिरे “ वाली बात हो जाती है |हम लोग इसे किस्मत का नाम देकर,बस ठंडी आहें भर लेते हैं |जलने-भुनने –कुढने की बात नही होती वरन कन्छेदी जैसे ‘लो आई-क्यू’ वाले लोग कहीं कम नही पाए जाते |
कन्छेदी की मिनिस्ट्री ठाठ से चल रही है |कछेदी के विचार –व्यवहार में जमीन –आसमान का फर्क आ गया है|वो तोल-मोल के अच्छा बोलने लगा है|किसी दार्शनिक के बतौर तर्कसंगत बातें सुन कर गाव वाले,उसे अगला और उससे भी अगला चुनाव अवश्य जीता देंगे |अभी तक तो यही माहौल है |
कई सालो बाद, मेरे नाम से मुझे ढूढते-ढाढ़ते मास्टर जी आए |कहने लगे ,तुम्हारे दोस्त कन्च्छेदी से ज़रा काम था |मैंने कहा मास्टर जी आपने तो उसे भी पढ़ाया है |मास्टर जी कहने लगे- हाँ , मगर सीधे –सीधे कहना जमता नहीं |मेरे बेटे का ट्रान्सफर दूर के देहात में हो गया है सो उसे रुकवाना है , ये उन्ही के मंत्रालय का काम है वे शिक्षा –सचिव साहब को बोल देगे तो तुरंत काम हो जाएगा |मास्टर जी की कातरता से मुझे लगा कि गुरु-दक्षिणा का मौक़ा बिन मांगे मिल गया है |मै उॠण होने की तैय्यारी में लग गया |
वैसे मेरी मुलाक़ात कन्च्छेदी से कई सालो से नही हुई थी |मुझे खुद नहीं मालुम कि वो मुझे कितना वजन दे पाएगा ?मगर मास्टर जी ने पहली बार किसी बात के लिए कहा है तो इंकार की कोई गुंजाइश भी नही थी ,वो भी तब जब मास्टर जी गाँव से चल कर राजधानी मुझसे मिलाने आए थे|मैंने कहा चलिए |काम हो जाएगा |मास्टर जी स्कूटर पर पीछे बैठ गए |
कन्च्छेदी का भव्य मंत्री वाला बंगला ,सेक्युरिटी ने रोका ,गांव का वास्ता देने पर जाने दिया |आगे पर्सनल सेक्रेटरी ने कई सवाल दागे|कहने लगा ,सब गांव का रिफरेंस दे के मिलने चले आते हैं साहब का बहुत टाइम खोटा होता है|आप लोग पहली बार दिख रहे हो |
मैंने पी.एस.से मास्टर जी से परिचय कराया , अपने को उसका अभिन्न मित्र बताया |सेक्रेटरी ने कहा साहब गुस्सा होते हैं |हर किसी को मत भेज दिया करो |
मेरे कहने पर, कि आप ये चिट भेज भर दो |नहीं मिलते तो हम गाव में मिल लेंगे |सेक्रेटरी राजी हुआ |चिट के जाते ही बुलावा आ गया |
कन्च्छेदी के कमरे ,उसकी बैठक, उसका रोब-दाब, ठसन देख कर पहली बार यों लगा कि मै अपनी स्लेट–कापी कन्च्छेदी से छुपा लूँ ,उसे बिना मेहनत के सब सही हल क्यों मिले ?
मेरे सहज होने से पहले कन्च्छेदी ने बहुत उत्साह के साथ हाथ मिलाया , मास्टर जी को प्रणाम किया |इधर-उधर की बातें हुई |उनके पास आने के बारे में हम बता पाते इससे पहले दो –चार फोन आ गए |उनकी व्यस्तता थी |वे कुछ सुनते , कुछ फाइल उलट-पुलट लेते |स्टेनो को बुला के हिदायत देते| सहज होने की कोशिश करते –करते वो हांफने लग गया | बस एक मिनट , बस दो मिनट, बस हो गया , की बात दुहराए जा रहा था |
उसे एक छोटा सा अंतराल मिलते ही , मैंने आने का मकसद, एक सांस में कह सुनाया |मास्टर जी खामोश श्रोता की तरह मेरी बात में सर हिलाते रहे | मेरी बात पूरी होते ही , कन्च्छेदी कुर्सी से उछल के खड़े हो गए , वे सीधे बाथरूम में घुस गए |निकलने के बाद उनके चहरे पर एक ताजगी दिख रही थी |
मुझे मास्टर जी की,स्कूल के दिनों में कन्च्छेदी की, की गई कथित पिटाई का ख्याल आ गया |मैंने बेखयाली में मास्टर जी की तरफ देखा|मास्टर जी बेखबर दिखे ,उन्हें शायद याद भी न हो |सैकड़ों को पीटे हैं|मेरे जेहन में एक जुमला मन ही मन उतर गया ‘मुतारा’ |मुझे हँसी आते –आते रह गई |
कन्छेदी बाथरूम से आ कर फोन मिलाने में व्यस्त हो गया , शायद सेक्रेटरी को मास्टर जी के बाबत बता रहा था |
उधर से सेक्रेटरी ने कहा ,सर अच्छा हुआ आपने फोन लगा लिया ,आपको सी.एम्. साहब ने अभी तलब किया है|
वे तत्काल उठ खड़े हुए |फिर बाथरूम गए |
निकल कर सीधे लाल –बत्ती की गाडी से रवाना हो गए |
मुझे लगा ,हो न हो ‘मुतरे’ ने खुद ही मास्टर जी के बेटे का ट्रांसफर किया हो |
सुशील यादव ,न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552 susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
वे पीट रहे हैं ......
ये पढ़ के आपको लगा होगा कि वे कहीं मास्टर जी होंगे ,बच्चो से नाराजगी निकाल रहे होंगे|
दूसरा ख्याल गुंडा-मवाली को लेकर आया होगा ,हो न हो , हप्ता वसूली के विवाद में पिटने –पिटाने वाला खेल खेल रहे होंगे |
आपने ये भी सोच लिया होगा कि सांप निकल जाने पर कोई लकीर पीट रहा होगा |
ना भाई ना आप, कदाचित सर्वथा गलत हैं|
वे जम के पीट रहे हैं, बोलते ही आप समझ जाएगे, कि उनकी नम्बर दो की कमाई जम के हो रही है |
रिश्वत के छोटे –मोटे संस्करणों की जानकारी मुझे बचपन से थी |
पडौसी रामदीन ,जो नजूल दफ्तर में चपरासी था ,के घर से चिकन बिरयानी ,बासमती चावल की आए दिन खुशबू आया करती थी |अम्मा –बापू बतियाते थे ,अच्छी कमाई कर रहा है |
बापू को अम्मा कोसते हुए कहती ,ये मास्टरी वगैरह छोडो ,ढंग की कोई नौकरी कर लो |
बापू बस में कुछ और करने का रहा क्या था सो करते ?बस कुछ और बच्चे ट्यूशन पढाने बटोर लाते | अम्मा चांदी के गहनों में इजाफा कर लेती और खुश हो जाती |
लखन मास्टर के बेटे ने ओव्ह्र्सीयर बन के खूब कमाई की|दुमंजिला बनाते तक तो वो ठीक-ठाक रहा |फिर बाद में अक्सर झूमते –झुमाते घर आने लगा |
रिश्वत की ‘खुशबू’ के बाद रिश्वत का ‘झूमना’ देखा |
शादी –ब्याह की पार्टी में मिश्राइन भाभी का ‘ज्वेलरी- शो ‘,शर्माइन का साडी कलेक्शन पर व्याख्यान, सब को अपनी ओर खिचे रहता था |क्या ठाठ थे उनके |
वे अपने-अपने पति के मेहनत(रिश्वतखोरी) का गुणगान करते नहीं अघाती थी |चन्नू के पापा , जब भी कोई नया टेंडर खुलता है ,मुझसे पूछ जाते हैं,कोई सेट चाहिए क्या?
हमारे शर्मा जी दौरे से लौटते हुए कुछ न कुछ उठा लाते हैं |मै इंनपे बिगडती हूँ ,ये क्या वही-वही फिरोजी कलर ,मै तो उकता गई हूँ |
वो पार्टी में मजे से रस-झोल गिराते –गिराते खाती ,दुबारा वो साडी या तो काम वाली बाई के हत्थे चढती या उनके बदले कटोरी –गिलास-बाल्टी खरीद लेती |
सुबह-सुबह ,मार्निग वाक् में हम लोग पिछले चौबीस घंटों की घटनाओं का जिक्र कर ही लेते थे |रविवार की सुबह तो सविस्तार बहस हो जाती थी |रिपीट टेलीकास्ट की नौबत बन जाती थी |
हाँ तो बद्रीधर जी ,जो आप क्या –क्या कह रहे थे परसों ,कि हमने शहर के चमचमाते नेमप्लेट ,कुत्तों से सावधान वाले घरों को देख के कभी सफेद -काली कमाई का आकलन किया है ?
ये तो वाकई सोचने वाली बात है ,कि जिस घर के सामने कलफदार कपड़ों में दरबान हो ,खुशबूदार फूल ,कारीने से कटे पौधे , हरे-भरे लान हो , ये सब सेठ –मारवाड़ियों के ठाठ नहीं होते|
वे अपनी कमाई की नुमाइश लगाने की बजाय शाप या फेक्ट्री में खपा देते हैं |
ये ठाठ तो यकीनन अफसर या मंत्री के होते हैं |
दीवाली –होली तो ये लोग ही खूब मनाते हैं |
रात में नियत समय बाद पटाखे छुटाने की मनाही के बावजूद दो-तीन बजे तक धमाल किए रहते हैं |पता नहीं इनके कौन से आका-काका पटाखों का जखीरा छोड़ गए होते हैं ?
ताश की तीन-पत्ती में इनको ‘ब्लाईंड’ खेलते देख के तो यूं लगता है कि इनका बस चले तो , पूरे देश का बजट यहीं झोंक दें|
होली में इनको पक्का रंग मिलता है |इनके यहाँ रंगे जाने का मतलब हप्ते –दस दिन के लिए कलरफुल बने रहना |
सब ओर ‘ड्राई’ रहते हुए, इनके तरफ बाल्टियाँ भरी होती हैं |इनके इन्तिजाम मास्टर अचूक होते हैं |इनको कहीं से कोई आदेश नहीं होता, स्वस्फूर्त संचालित हुए से रहते हैं |
जो पीट रहे होते हैं ,उनसे ‘पिटने-वाले’ बकायदा बहुत खुश रहते हैं |
ऐसा अजूबा, ऐसे सम्बन्ध, बाप-बेटे ,मजदूर –मालिक या दुनिया के किसी रिश्ते में नहीं मिलता |
ये दो-धारी तलवार, जहाँ धार के एक ओर ‘नोक से लेकर पकड’ तक -चपरासी ,बाबू ,क्लर्क ,मुंसिफ ,दरोगा ,डाक्टर,इंजिनीयर ,संतरी-मंत्री हैं ,वहीं दूसरी ओर इनसे फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और ले-दे कर काम करवाने वाले लोग होते हैं |
इन दोनों ‘धार’ की मार आखिर में येंन-केन प्रकारेण जनता झेलती है |
किसी शहर के सुपर सिविल लाइंस के किसी भी घर का इतिहास झाँक लो , जो आज् दस-बीस-पचास –सौ ,हजार करोड के मालिक हैं ,कल तक वे टूटे स्कूटर में घूमते पाए जाते थे |
पंचर बनाने के जिनके पास पैसे न थे वे आज चार –छ: गाडियां लिए फिरते हैं |
इन्होंने ,जंगल बेच दिए ,जमीन बेच दी, खदान लुटा दिए,टेंडर में घपला किए ,खरीद में, दलाली में हर लेन-देन में गफलत, कमीशन |
चाल-चरित्र और चेहरे में मासूमियत लिए, हर पांच साल बाद आ फटकने वाले लोग कब देश बेच खाएं कुछ कहा नहीं जा सकता ? **सुशील यादव ,श्रिम सृष्टि, अटलादरा,सन फार्मा रोड ,वडोदरा (गुज)
समान विचार-धारा के कुत्ते
शुरू शुरू में जब इस कालोनी में रहने आया तो बहुत तकलीफ हुई |सीसेन(शेरू) को भी नया माहौल अटपटा लगा |
अपने देहात में, जो ‘आजादी’ कुत्ते और आदमी को है, वो काबिले तारीफ है |
कुत्तों को खम्बे हैं आदमी को झाड –झंखार ,खेत-मेड,तालाब, गढ्ढे हैं |पूरी मस्ती से, जहाँ जो चाहे करो |
आदमी को,देहात में समान विचार-वाले लोग, गली-गली मिलते रहते हैं |जय -जोहार और खेती –किसानी के अतिरिक्त विचारों का आदान –प्रदान कम होता है |
गाँव के आदमी और कुत्ते में ,वैचारिक-खिचाव लगभग नही के बराबर होता है, कारण कि अगर वे आदमी हैं तो बारिश होने, न होने ,कम होने की चिंता से वे ग्रसित रहते हैं| अगर कुत्ते हैं तो पिछले बरस महाजन के यहाँ शादी में खाए हुए दोने पत्तलों के चटकारे लेने में मशगूल रहते हैं |वे इसी को बहस के मुद्दों को लंबे –लंबे खीचते रहते हैं |अब भला इन बातों से, टकराव का वायरस कहाँ तक पनपे ?और टकराव हो भी जाए तो, वो तो बारिश है उसे एक ही के खेत में कब गिरना है ,वो अपनी मर्जी से ,अपने हिसाब से ,अपने तरीके से भरपूर गिरेगा |जिसे जो चाहे करना हो कर ले |
गाव के शांत माहौल को ‘बाहरी-हवा’ से निपटने में दम फूल सा जाता है| एक बाहिरी ‘हवा’ है , जो गाव के शांत माहौल को कभी –कभार बिगाड़ के रख देती है |चुनाव आते ही गाव दो खेमो में बट जाता है |
’बाहरी-हवा’ ,ज्ञान का पाम्पलेट, जहां –जहाँ बाँट के चल देती है,लोग मौसम को भूल जाते हैं |कुत्ते पोस्टरों में टाग उठाने की कोशिश करते हैं मगर उस तक पहुच नहीं पाते |
सामान विचारों वाले देहात में खलल पैदा हो जाती है |
बाहरी हवा के कारनामे,गाँव के कुत्ते भी बखूबी समझते हैं|माहौल बिगडते देख ,वे इतने जोर -जोर से भौकने लग जाते हैं कि पडौस के गाव भी झांकने आ जायें |
‘बाहरी-हवा’ ने गांव में एक दिन कुहराम मचा दिया ,सर –फुटौव्वल का माहौल बना दिया |
वे अपने नेता को ‘सेकुलर’बताने के चक्कर में हरेक कौम के लोग इक्कठा करने लगे |
लठैत के सहारे उनके नेता सेकुलर हो गए |भाषण पर तालियाँ पिटी,टी.व्ही कवरेज मिला ,माहौल पर सेकुलर की हवा मानो छा सी गई |
देहातियों को बहस का नया शब्द ‘सेकुलर’ मिल गया |
वे आए दिन बहस करने लगे |
सेकुलर दिखाने के लिए ,आपस में टोपियां बदलने लगे |
वे टोपी बदलते-बदलते, कब सर के बाल नोचने लगे ,कब सर को धडाम से वजनदार लोहे की टोपी पहनाने लगे ?
पता ही नहीं चला |
गाव में सामान-विचारों के मुद्दे पर लोग बटने लगे,विचारों का पोस्टमार्टम होने लगा ,तर्क हाशिए पर जाने लगा ,कुतर्क वालो के पास भीड़ जुटाने लगी |बातो की इतनी छीछालेदर गाँव ने कभी देखी न थी |
कुत्ते हरेक को कुतर्की समझ ,दूर –दूर तक भौकते -पछियाने लगे |गाव अब रहने लायक रह नहीं गया |
माहौल इतना बिगडते चला कि, मुझ जैसे समझदार लोग गाव छोड़ देने में समझदारी देखने लगे |
सो गाँव से शहर के सभ्रांत कालोनी में आ बसा हूँ |
कुत्ता साथ में लाना पड़ा,वहाँ किसके भरोसे छोड़ता ?
मगर सीसेन जब से आया है ,खुले में घूमने की उसकी आजादी छिन गई है |
उसके भौकने पर कालोनी की सभ्रान्तता को देखते हुए लगाम लगाए रखना पडता है |वरना लोग हमें असभ्य –देहाती न समझें |
दिशा-मैदान के लिए उसे घर वालों का मुह ताकना पडता है |
हमारी पूरी कोशिश होती है कि उसे बुरा न लगे उअसका फील –गुड हिट न हो|
हमारी तरफ से ,घर के एक अशक्त को जो सेवा दी जा सकती है, वही ‘सिसेन’(शेरू) इन दिनों, पा रहा है|बावजूद इसके ,वो बहुत दुखी है |
उसे इस नए माहौल में अपने सामान –विचार धारा वाले दोस्त की तलाश है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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हमारा (भी) मुह मत खुलवाओ
उनको मुह बंद रखने का दाम मिलता है |कमाई का अच्छा रोजगार इन्ही दिनों इजाद हुआ है|
सुबह ठीक समय पर वे दफ्तर चले जाते हैं |खास मातहतों को केबिन में बुलवाते हैं ,प्यून को चाय लाने भेजते हैं |
गपशप का सिलसिला चलता है|
केदारनाथ के जलविप्लव,लोगों की त्रासदी ,बाढ के खतरे ,सरकार की व्यवस्था-अव्यवस्था ,देश में हेलीकाफ्टर की कम संख्या ,सब पर चर्चा करते लंच का समय नजदीक आने पर, एक-एक कर मातहत खिसकने लगते हैं|
अंत में शर्मा जी बच पाते हैं ,वे उनसे पिछले सप्ताह भर की जानकारी शाम की बैठक का दावत देकर ,मिनटों में उगलवा लेते हैं |
शर्मा जी की दी गई जानकारी, उनके लिए,एक मुखबिर द्वारा ‘ठोले’ को दी गई जानकारी के तुल्य होती है |
वे इसे पाकर अपनी पीठ थपथपाना नहीं भूलते |
वाहः रे मै ? वाले अंदाज में वे साहब के केबिन की ओर बढ़कर, ‘नाक’ करते हैं | वे ‘में आई कम इन सर’ की घोषणा इस अंदाज में करते है जैसे केवल औपचारिकता का निर्वाह मात्र कर रहे हों वरना साधिकार अंदर घुस कर कुर्सी हथिया लेना उनका हक है | और ये हक उंनको, साहब को ‘वैतरणी’ पार कराने का, नुस्खा देने के एवज में सहज मिला हुआ है |
साहब आपत्ति लेने का अपना अधिकार मानो खोए बैठे हैं,वे पूछ लेते हैं ,कैसा चल रहा है ?
उनके पूछने मात्र से, वे शर्मा जी वाला टेप स्लो साउंड में चला देते हैं|साहब जी क्या कहें ,सारा स्टाफ करप्ट है|
वे स्टाफ के साथ –साथ ,साहब को भी जगह-जगह लपेटने से बाज नहीं आते |
साहब, पेंट की जेब से रुमाल निकाल कर ,पसीना पोछ-पोछ कर ,घंटी बजाते हैं ,प्यून के घुसते ही कहते हैं –थोड़ा ए .सी .बढाओ |
ए.सी. से राहत पाकर वे पूछते हैं ,कोई खतरा तो नहीं है ?
सी.बी.आई. वालों से तुम्हारी कोई पहचान नहीं निकल सकती क्या ?
यों करो इस हप्ते इसी अभियान में लगे रहो ,देखो किसी से कुछ कहना मत ,बिलकुल चुप रहना |
तुम्हारा पहुच जाएगा |
वे इत्मिनान से आफिस की गाडी ले के अपनी फेमली ट्रिप में दूर निकल जाते |शर्मा जी को खास हिदायत दे के रखते कि मोबाइल स्विच आफ न रखे |
उनका तर्क है कि कौन कितना खाता है ,कब खाता है ,किससे खाता है ,इतनी जानकारी आपके पास हो, तो आप अच्छे-अच्छो को हिला सकते हैं |
वे इसे समाज सेवा के बरोबर मानते हैं |
आपके नजर रखने मात्र से कोई अगर इस राह का राही नहीं बनाता तो हुई न देश की सेवा ?
वे वापस आकार दिल्ली ट्रिप का, जुबानी खर्चा-बिल साहब को बता जाते हैं|
वे साहब पर भारी पडने वाले अंदाज में कहते हैं ,फिलहाल सर आप फाइल-वायल को ठीक–ठाक कर लें|
दो-चार ठेकों को बिना लिए निपटा दें|आपकी छवि बनेगी |घर में नगदी वगैरा न रखें तो बेहतर होगा |बेनामी के कागज़-पत्तर को ठिकाने लगा ले|पता नहीं वे कब आ धमकें ?
साहब जी प्यून को बुला के ए.सी. बढ़वा लेते हैं |
वे साहब जी पर एहसान किए टाइप ,अपनी कुर्सी पर आकार ,स्वस्फूर्त फुसफुसाते हैं,बहुत अंधेरगर्दी मची है पूरे दफ्तर में |
सुशील यादव
रोम वाज नाट बिल्ट इन ए डे / सुशील यादव
तब अंग्रेजी का अपना एक अलग रूतबा हुआ करता था, एक सख्त किसम के टीचर हमें पढाते थे, क्लास में उनके घुसते ही एक वीरानी, सन्नाटा या सच कहें तो मनहूसियत का माहौल हो जाता था।
पता नहीं उनकी याददाश्त या डिक्शनरी में कम शब्द या प्रोवर्भ थे .जो आए दिन कहा करते थे ;
“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”......।
इस वाक्य के बोलते समय, उनका चेहरा एक अलग किस्म के तनाव से भर जाता था, टीचर जी पढ़ाते –पढाते कहीं खो जाते थे। उनकी वापसी तब होती थी जब कोई प्यून रजिस्टर ले के आता, या छात्रों की गपशप की आवाज ऊँची गूंजती .या स्कूल में पिरीयड बदलने की टन्न बजती।
मैं उन दिनों अखबार पढ़ लिया करता था, इसलिए मुझे अतिरिक्त ज्ञान हो गया था, मसलन मै,घपलो-घोटालो, राजनीतिक पहुँच, उपरी लेन-देन, पैसों के लिए बाबू से मंत्री तक के,चारित्रिक स्तर के बारे में जानने लग गया था।
टीचर जी के उस वाक्य के मायने कि, “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे .....” यू लगता था कि, “रोम” चाहे चार दिन में बना हो या चार सौ सालों में, हमारा क्या वास्ता? दूसरी बात ये खटकती कि, रोम के ठेकेदार, कारीगर ज्यादा सुस्त रहे होंगे, या “रोम” में वो कौम नहीं रही होगी जो ‘स्पीड- मनी’ पर विश्वास करती थी?
शायद रोम में अच्छे ‘बाबू –इंजीनियर-नेता’ लोग पैदा होना भूल गए थे , कि ‘रोम’ को बनने-बनाने में बरसो लग गए?
कौतुहल के और अनेक कारण भी थे, जो रोम को एक बार देखने की वजह आज भी बने हुए हैं ।
हमारे तरफ की बात अलग है,इधर आर्डर हुआ नही कि रातो-रात “रोम” बस जाता है।
पूरी की पूरी राजधानी बन जाती है।
ठेकेदार, इंजीनियर जेब में एक से एक डिजाइन का ‘रोम-रोमियो’ का नक्शा लिए घूमते रहते हैं।
एक-एक दिन की खबर रहा करती है, कब केबिनेट की मीटिंग हो रही है, फाइल किस टेबल तक पहुची है।
किसने रोड़ा डाला।रोड़ा डालने वाले की कितनी औकात है।कितना वजन डालना होगा। कितने तक में मामला सेट होगा। उन तक पहुचने का अप्रोच रोड क्या है?
वो सब के सब टकटकी लगाए बस ये देखते रहते हैं कि, कब साहब का फरमान हो, रोम की लेन लगा दें।
स्वीमिंग –पुल, रोड, नाहर बिजली –पानी सब का दुरुस्त इन्तिजाम। मिनटों में जहाँ कहे रोम-रोम में फिट कर दें।
डिस्काउंट के बतौर, मेम साहिबानों के लिए छोटे-छोटे रोम की अलग से भेट।
कहते हैं, पैसा बोलता है। इन इन्तिजमो को देख के लगता है, पैसा लाउडस्पीकर की आवाज भी रखता है .तभी तो इसकी आवाज क्लर्क –बाबू . ठेकेदार, इंजीनियर, सांसद-विधायक, मंत्री –संतरी सभी एक साथ सुनकर “रोम”,बनाने में हाथ बंटाते हैं।
कुछ पत्रकार अडंगेबाज होकर, रोकने की मुद्रा में खड़े होते हैं।
नए रोम के बारे में वे अनाप-शनाप लिखते हैं, बताते है नया रोम संस्कृति के खिलाप है। कई खामियां गिनाते हैं।
उधर विधायक विपक्ष, सांसद विपक्ष अकड़े हुए से आंकड़े फेकते हैं, थू-थू से माहौल थर्राया सा लगता है।
लगता है ये सब रोम के पाए को कहीं भी, कभी भी जमने नही देंगे। जिस-जिस ने रोम के पाए पर अपना कंधा दिया है, वे उनको ही दफना के डीएम लेंगे।
सरकार सोते से जागती है, वो रोम निर्माण में अनर्थ ढूढने की जी तोड़ कोशिश करती है।उंनसे अनर्थ ढूढा ही नही जा पाता। वो थक-हार के निर्णय लेती है, ‘निगरानी-आयोग” के हवाले मामला दे दिया जाए। सरकार के पास और भी काम है वो अगले इलेक्शन की तैय्यारी में लग जाती है। सरकार की उपलब्ध्दियो में रोम -कथा, कम समय, कम खर्च में बना हुआ बताया जाता है। गरीबों से इसे जोड़ते हुए श्रम उपलब्ध कराने का जरुरी तरीका बताया जाता है। ये कहा जाता है कि मंनरेगा के तहत काम उपलब्ध कराए गए। पक्ष वालो को वोट की फसल लहलहाते दिखती है।
एक ठेकेदार को मै करीब से जानता हूँ, हमेशा बड़े दुखी मन से मिलते रहे। वो पर्यावरण, स्वास्थ्य परिवार-नियोजन, जेल इत्यादि सभी मंत्रालयों की विस्तृत जानकारी रखते हैं, भले वे अपने लड़के का फोन नंबर भूल जाए. तमाम दूसरो के नम्बर तात्कालिक –मौखिक याद रखते हैं।
वे मिल कर, इस बात का रोना –रोते हैं ... कि अब की बार अच्छी बारिश हो गई है, नहर का काम शायद रुक जाए...।बाजार में अच्छे टीके आ रहे हैं लोग बीमार नहीं पड़ेंगे...। अगला सप्लाई आर्डर केंसिल हो न जाए।... बच्चे कम पैदा हो रहे हैं, लोग घरो में दुबक गए हैं, आगे काम कम हो जाएगा।
मै उनको आश्वस्त कर कहता हूँ, ऐसा कुछ नहीं होने वाला, यहाँ तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं।
ऊपर से खुद –ब-खुद फरमान आएगा, फलां पुल जर्जर हो गया है, तोड़ के बना दो,/ कही से मेट्रो निकाल दो, इंटरनेश्नल स्वास्थ्य का हवाला देकर, गरीबो के लिए आलीशान फाइव-स्टार नुमा हास्पिटल बना दो। कसाब की सुरक्षा खतरे में है, जेल को सद्दाम के बख्तरबंद –नुमा महल में तब्दील कर दो।
हम उस जगह है जहां काम की कमी ही नही?
वो एक गहरी सांस में, ‘आमीन की मुद्रा’ लेकर मुझसे बिदा ले चल देता है ।
मुझे उनसे रोम-टाइप के कई डिटेल –अपडेट मिलते रहने का सिलसिला बरसों तक चला।
मै भी करीब-करीब ठेकेदार जैसा हो गया था। किसी बनते हुए पुल या रोड को देखकर, घंटों वहीं खड़े होकर, उसके बनाने वालो की हैसियत का अंदाजा लगाने लगता।
निर्माणाधीन –स्थल को देखकर, यह भी बताने की स्तिथि में रहता कि, फाइल कहाँ होनी चाहिए?
मेरे तजुर्बे से कई लोग फ़ायदा उठाने की कोशिश में रहते कोई फ़ायदा उठा भी लेते, कहते आपकी वहां पहुंच है, ये काम करवा दीजिए, एहसान मानेंगे, वो एहसान से कभी आगे बढ़े नहीं और मै वही का वहीं रह गया......।
अरे हाँ, टीचर जी का ‘रोम’ वाला वाकिया “नाट बिल्ट इन अ डे” पीछे छुट गया...। बहरहाल, उन दिनों, हम छात्रो की जुबान में भी रोम चढने लग गया था।बात –बात में हम लोग भी कहने लग गए थे “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”।
हमारी जुबान का ये ‘तकिया-कलाम’ हो, इससे पहले, भला हो हमारे क्लास के, विवेक नाम के एक लड़के का, जिसने पता लगा कर बताया कि, यार अपने अंग्रजी वाले सर जी कई दिनों से अपना मकान बनवा रहे हैं। सस्ताहा टाइप ठेकेदार –मिस्त्री को काम दे रखे हैं। किसी के पास पूरा सेंट्रिंग-मटेरियल नहीं तो कोई मजदूर होली मनाने गया तो लौटा नहीं। काम कई महीनो से रुक-रुक कर धीरे–धीरे चलने से टीचर जी परेशान से रहे। कर्जा भी ख़ूब हो गया, लगता है। मगर हाँ, गनीमत समझो, कल छत की ढलाई हो गई। शायद टीचर जी अब चैन की सांस लें।अब रोम के बनने –बिगड़ने का असर उन पर न पड़े। और सच ही, वो उसके बाद ‘रोम-विहीन’ हो गए।
हम ‘रोम’ की गली से गुजर कर कब अगली क्लास में पहुँच गए? पता ही नहीं चला।
मेरे हिस्से का (सर) दर्द / सुशील यादव
इस मायावी संसार में जो आया है वो अपना–अपना सर और अपना–अपना दर्द ले के आया है। कई लोग अपवाद के तौर पर पैदा हो जाते हैं। पैदा होते तो पूरे पुर्जे के साथ हैं मगर किसी-किसी का पुर्जा, काम के बोझ से,या हैसियत से कहीं ज्यादा मिल जाने पर अनाप-शनाप काम करने लगता है।
मेरे एक साहब हुआ करते थे, पता नही अब हैं या नहीं, अगर कहीं जिन्दा हैं तो भगवान से उनके लिए सदबुद्धि मांग कर उनके घर –परिवार का सरदर्द बढ़ाना नहीं चाहता।
अजब खब्ती किस्म के सरके हुए से थे। उनसे एक कागज पर दस्तखत कराना मानो एक जंग जीतने के बराबर था। अपने को अंगरेजी में शेक्सपियर के बाद का संस्करण मानते थे।
अनुसंधान वाली किसी भी फाइल पर, छापा मार कर आए अफसरों को वो अनाप-शनाप सवाल पूछते थे कि पहले ही लाख प्रिपेयर हो के आए रहे हो, बिखर जाते थे। सर झुकाए अफसरों को वो, शर्लाक्स होम्स, और जेम्स हेडली चेईज की तरह, बात की जड में, घुसने की हिदायत दे कर, ऐसी झिडकी पिलाते थे कि दुबारा केस बुक करने के बारे में सोचे। कभी तुरंत अपने ड्रोवर से एक कोरी फाइल निकाल कर, अफसर के खिलाप, अफसर के सामने, तहकीकात में खामी गिनाते खोल देते थे। अनुँसंधान दल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। ये दीगर बात थी कि उन्ही खामियों की आड में वे ‘पार्टी’ का शिकार कर लेते थे।
किसी की औकात नही थी कि, वो अपने तजुर्बे, अपने बल-बूते पर कुछ काम कर लें,या ‘सर’ के अति पर, उपर फरियादी बनकर खड़े हो जाएँ। बाद में वे चार-छह दफ्तर के चाटुकार अफसर और लेडी-स्टेनो से घिर कर यूँ हाँकते थे, देखा कैसे हडकाया?
सब खींसे निपोर कर हिनहिनाते थे।
साहब के गुड-बुक्स में रहने का सबसे आसान सा तरीका होता है इन चाटुकारों की तरह हिनहिनाना।
तंग करने में वे माहिर इतने थे कि अगले को रुला के दम लें। आपके ब्रांच से टाइपिस्ट,कंप्यूटर-आपरेटर को हटा कर, आपको, पांच सालो का डाटा मांग लेना,ब्रीफ लिखे हो तो थीसिस मांग लेना, थीसिस लिख ले जाओ तो कहें, क्या समझते हो? उपर वाला कोई इतना पढ़ने के फुरसत में बैठा है। छोटा करो, छोटा करो।
वे अपने गोपनीय ब्रांच को, शस्त्रागार समझने में कभी भूल नहीं किए। चार की जगह आठ लोग बिठा रखे थे। छुट्टियों में बुला कर, प्रचारित करते थे कि फलां-फलां की फाइल रंगी जा रही है|स्टाफ की नाक में दम कर रखा था। स्टेनगन की जद में कौन कब आ जाए कहा नहीं जा सकता था।
ऐसो के खिलाफ़ कौन उठे?
स्टाफ, गंडे-ताबीज बंधवाता, मिन्नत–मनौती माँगता। उसके ट्रांसफर हो जाने पर भगवान को प्रसाद बदता। आठ घंटे की सरकारी नौकरी के लिए चौबीसों घंटे का बोझ लिए फिरता। दफ्तर टाइम पे पहुचता। बिना सी. एल. के कोई गायब नहीं रहता। लेडी-स्टाफ को देख के सर झुका लेता। कोई राजनैतिक बहस नही होती थी। बाबू –अफसर, क्लाइन्ट का काम बिना किसी उम्मीद के निपटा रहे थे। क्रिकेट में इंडिया पिटे या पीट दे सब भावना शून्य से हो गर थे। वे ट्रांसफर एप्लीकेशंस लिख ले जाते मगर देने की हिम्मत न जुटा पाते। एक किस्म की इमरजेंसी लद गया था दफ्तर में।
माहौल से नाराज अफसरों का एक विद्रोही दल, आजादी की जंग वाले अभियान की तरह छुपे-छुपे एकजुट होने लगे। वे एहतियात भी बरत रखते कि कोई भेदिया न घुस पाए नहीं तो लेने के देने पड जाए।
शुरू-शुरू में एनानिमस कम्प्लेंट करके, एक-दूसरे को तसल्ली देते रहे। ‘बोर्ड’ में माहौल बनाने का काम जारी था कि पता चला किसी दूसरी जगह के किसी बदनीयती के लफड़े में साहब को सस्पेंड कर दिया है।
दफ्तर का बहुत बड़ा ‘सर’ अब स्वयं दर्द के हवाले हो गया जानकार, दफ्तर में मिठाई बंट गई।
मेरे सर से भी रोज उठने वाला दर्द जाता रहा।
फुरसतिया लोगों की जमघट / सुशील यादव
अपने शहर में लोग बड़े फुर्सत में मिलते हैं| उन्हें आप किसी भी काम में लगा सकते हैं|
प्रवचन-भाषण, बकवास सुनने के लिए वे हरदम तैय्यार रहते हैं|
बाबा लोगों का लूज केरेक्टर, चोर-उचक्का, उठाईगिरी-टपोरी होने की उनकी पास्ट हिस्ट्री कोई मायने नही रखती|
वे चौरासी-कोसी यात्रा तो क्या भारत-भ्रमण भी कराओ तो अपने-आप को झोक देते हैं|
आपने राम का नाम लिया नहीं कि वे, भक्त हनुमान की भूमिका में अपने को फिट कर लेते हैं| उन्हें लगता है, ‘प्रभु ने’ किसी बहाने उसे पुकारा है| वो नइ गया तो परलोक में क्या मुह दिखायेगा?
राम की नैय्या सामने आ रुकी है तो बैठने में हर्जा ही क्या ?यूँ तो अपने बूते, एक ईंट खरीद के दान देना कंटालता है, अगर चलते-चलते भक्तों की ईंट से प्रभु की इमारत बन जाए तो अहोभाग्य ?
इन्हें पैदल जितना चाहे चलवा लो, वैसे ये घर के लिए, धनिया लेने के लिए भी न निकलें|
एक अलग टाइप के सुस्त फुरसतिये आपको जंतर-मंतर, रामलीला में दिख जाते हैं, ये अनशन में बैठे हुओ को या सरकार को गाली –गलौज करने वालों को, भीड़ बनके ‘मारल-सपोर्ट’ देने के वास्ते अवतरित हुए होते हैं| इनका बस चले तो डाइपर-स्टेज से जिंदाबाद-मुर्दाबाद बोलने लग जाते|
ये ऐसी भीड होते हैं, जो किसी का भी दिमाग खराब कर दें| इन्हें थोक में देखकर कोई भी आर्गेनाइजर, एम एल ए या एम् पी बनने या चुनाव जीतने का मुगालता पाल ले| हप्तेभर तक कोई लाख आदमी की आमद हो जाए तो ‘किंग-मेकर’या ‘ला- मेकर’ जैसे ख़्वाब आने लगते हैं| अमिताभ-बच्च्नीय करेक्टर डेवलप हो जाता है, कि हम जहाँ खड़े है लाइन वहीं से शुरू होती है|
फुर्सतिया लोग, योगासन की सभा में उसी मुस्तैदी से जाते हैं, जिस मुस्तैदी से सडक जाम के लिए निकले होते हैं|
प्याज, पेट्रोल, महंगाई के नाम पर इनका दैनिक कार्यक्रम है कि धरना-प्रदर्शन में भाग लें|
मिल्खा सिग ने जितनी तेजी न दिखाई हो, उस गति से तेज, ये दौड सकते हैं, बशर्ते इनके पीछे विपक्ष का कोई ‘दिमागदार-चीता’ लगा हो ?
वैसे इस देश को कुछ दिमागदार चीता लोग ही गति दे रहे हैं, वरना चूके हुए घोड़े की तरह, ये कब का बैठ गया होता| कभी आपने घोड़े को बैठे देखा है ?
एक फुरसतिया कन्छेदी मुझसे जब भी टकराता है, देश का रोना रोता है| वो मुझे, पहले बकायदा लेखक जी कहता था, अब लेखू जी कहके काम चलाता है| लेखू जी देख रहे हैं डालर ?मैंने कहा कौन सा?सत्तर वाला ?वे खीज के बोले, शुभ-शुभ बोलिए, आप तो खामोखां सत्तर पहुचा दे रहे हैं ?क्या हाल होगा देश का ?पेट्रोल, डीजल खरीद पायेगा देश ?
वो इकानामिस्ट की तरह गहन सोच की मुद्रा में ध्यान मग्न हो जाता है| मुझे फुरसतिया लोगों का ध्यानस्थ हो जाना, गहन खोजबीन प्रवित्ति से ‘स्टिंगयाना’, अर्थशास्त्री बनके देश के पाई-पाई का हिसाब लगाना, जरूरत से कुछ ज्यादा लगता है| मैं इंनसे पीछा छुडाने की तरकीब ढूढने लग जाता हूँ| मुझे मालुम है कि अगर उनकी बातों के समुंदर में डूबकी लगाने उतर गया, तो ये मुझे बीच मझधार में ले जा के छोड़ देंगे| लेखक जीव, देश के नाम पर घुलता रहेगा बेचारा| रात-भर डालर की चिंता में सो न पायेगा|
मैंने टालने की गरज से और माहौल को हल्का करने के नाम पे, कन्छेदी को कहा, दिल पे मत ले यार| देश का मामला है, सरकार निपट लेगी| कुछ न कुछ कड़े कदम उठा के रुपय्या को सम्हाल लेगी|
वो दार्शनिकता की जकड से उबर के, ज्योतिष-शास्त्रीय तर्क पे उतर आया, कुछ भी कहो, जब से हमने रुपये का ‘सेम्बाल’ बदला है, तब से हमारा रुपया लुढकते जा रहा है| आर एस(Rs) में क्या परेशानी थी, अच्छा-खासा पैंतालीस पे टिका था, उठा के बदल दिया| ये मद्रास से ‘चेन्नई’ नाम बदलने जैसा सार्थक होता तो मजा आ जाता| लेखू जी आप क्या समझते हैं अगर डाइरेक्टर, ’मद्रास एक्सप्रेस’ नाम की पिक्चर बनाता तो, दो –ढाई सौ करोड कमा पाती ?है न सेम्बाल या नाम का कमाल ?
मुझे लगा कि कन्छेदी नाम के, दो-चार जोक नुमा तर्क और हो जाए तो हमारा तो पूरा खून ही निचुड जाएगा| क्या-क्या बकवास तर्क लिए फिरता है स्साला ?वैसे टाइम –पास के लिए आदमी बुरा भी नहीं|
लेखू जी, प्याज एक्सपोर्ट वालों की तो चांदी है ?डालर में पेमेंट, अपने यहाँ डालर भुनाओ तो मजे ही मजे ?आपको नहीं लगता, प्याज वाले लोगों को, शुरू से निर्मल-बाबू टाइप ईंट्युशन हो गया था, प्याज को बाहर भेजो, कम रहेगा तो इडिया में दाम बढ़ेंगे, बाहर भेजो तो बढे डालर से कमाई होगी| प्याज वालों को अपने देहस की अर्थ-व्यवस्था नहीं सौपी जा सकती क्या ?
मैंने कहा, कन्छेदी, आप जल्दी घबरा जाते हो| आपको खाने को मिल रहा है न ?सरकार ने खाने की ग्यारंटी ले रखी है| वे हमारे मिड-डे से लेकर मिड नाईट ‘मील’ को दिल्ली से देख रही है| हमारे चूल्हे के लिए जिसने गैस दे रखा है, उसपे तपेली चढाने का जिम्मा भी उसी का है| आपको ज़रा सा तो भरोसा रखना चाहिए कि नहीं ?
वे जरा आश्वस्त हुए|
कन्छेदी का चुप रहना तो बुलबुले की तरह क्षण भर का होता है| उसके पास स्टेनगन माफिक बातों का अनंत कारतूस होता है| ट्रिगर दबाते रहो, निशाने पे लगा तो ठीक, न लगा तो बात ही तो है खाली गया तो क्या, कोई राजपूताने की जुबान तो नहीं ?
वे अपना अगला दुःख, सास बहु सीरीयल कहने लगे, लेखू जी हम निरे बुध्धू थे, मैंने मन में सोचा, कितनी सहजता से वे, अपनी जग-जाहिर कमजोरी बता रहे हैं| मैंने कहा भला आप, ये क्यूँ सोचते हैं ?वे घूर कर मेरी तरफ देखने लगे| मैंने असहज होते हुए कहा, वैसी कोई बात नहीं, हाँ तो आप कह रहे थे आप निरे बुध्धू थे, क्यूँ ?
कोई दस साल पहले हमें भू-माफियाओं ने यूँ घेरा, वे अखबारों में पत्रकारों को इंटरव्यू देकर, बताने लगे कि हमारे खेत और आस-पास की जमीन का सर्वे, रोड बनाने के लिए हुआ है| सरकार, सरकारी-दर पे मुआवजा देके जमीन कब्जा लेगी| वे आये, लालच दिए, हमे जमीन बेच दो, वरना सरकार सस्ते में ले जायेगी| हम लोगो ने जमीने बेच दी| जिस जमीन को हमने दो लाख में बेची थी, उसे उन लोगों ने शापिंग माल वालों को, दो करोड में बेची है| शुध्ध एक करोड अनठानबे लाख का घाटा|
मुझे कन्छेदी के इस बयान के बाद लगाने लगा कि, एक करोड अनठानबे लाख का सदमा उस पर बहुत जोरो से हाबी है|
उसे फुर्सत में रहते-रहते, आने वाले हर खतरे को सूंघ के जान लेने की जबरदस्त प्रेक्टिस सी हो गई है|
मगर, डालर के मुकाबले गिरते रूपये को सम्हालने के लिए, उसके जैसे देश के करोड़ों हाथों को लकवा मार गया है ?
मै मानता हूँ कि, कोई बीमारी ला-ईलाज नहीं होती| दुआ से, दवा से, धैर्य से, परहेज से, मेहनत से, अभ्यास से मर्ज को काबू किया जा सकता है|
अगर फुरसतिया लोगों में ज़रा सा भी, देश के लिए सोच है तो वे नौसिखिया बाबाओं, आडम्बर वाले योगियों, झांसा देने वाले ठगों, तम्बू लगाने वाले तान्त्रिको, लुज करेक्टर के बलात्कारियों, चोर-उच्चके किस्म के टपोरियों से बचें|
क्रान्ति अगर आनी है तो जंतर -मंतर, राम-लीला मैदान की भीड़ नही लाएगी|
क्रांति, पैदल यात्रा, अनशन, सायकल, लेपटाप बाटने से नहीं आयेगी|
क्रांति ग़रीबों को मुफ्त अनाज देने से नही आएगी|
देश में भाषण, भाषणबाजों की कमी नहीं| पिछड़े हुओ को प्रलोभन कब तक दिया जा सकेगा ?
देश की तरक्की का सूत्रधार बनना है तो अपना वोट किसी कीमत पर, किसी को मत बेचिये| सूरते-हाल अवश्य बदलेगी, आपका खालीपन बहलता रहेगा|
पावर ऑफ कामन मैन / सुशील यादव
उस दिन आम आदमी को बगीचे में टहलते हुए देखा। आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा आप इधर? वो बोला हाँ, तफरी का मूड हुआ चला आया। आप और तफरी? दाल में जरूर कुछ काला है? उसने कहा हम लोग ज़रा सा मन बहलाने क्या निकलते हैं आप लोगों को मिर्ची लग जाती है? अब तफरी पर भी टैक्स लगाने का इरादा है, तो हद ही हो जायेगी।
मैं सहज पीछा छोडने वाला जीव नहीं हूँ। मामले की तह तक जाना,मैं पत्रकारिता का उसूल ही नहीं सामाजिक दायित्व भी समझता हूँ। सो उससे भिड गया। उसे छेडते हुए, जैसा कि आम पत्रकार भीतर की बात निकलवाने के लिए, करते हैं, उसे पहले चने की कमजोर सी ड़ाल पर चढाया, पूछा भाई आम आदमी, इश्क-मुश्क का मामला है क्या?
आदमी का बगीचे में पाया जाना, करीब-करीब इधर का इशारा करता है। वो बोला नइ भाई,इस उमर में इश्क ! चालीस पार किये बैठे हैं, आप तो लगता है पिटवाओगे? मैंने कहा, लो इसमें पिटने-पीटाने की क्या बात हुई? लोग तो सरे आम सत्तर-अस्सी वाले, संत से लेकर मंत्री सभी रसियाये हुए, एश कर रहे हैं। और तो और वे इश्क से ऊपर की चीज कर रहे हैं, और आप इसके नाम से तौबा पाल रहे हैं?
क्या कमी है आप में जो इश्क की छोटी-मोटी ख्वाहिश नहीं पाल सकते?
वो गालिबाना अंदाज में कहने लगा “और भी गम हैं, दुनिया में मुहब्बत के सिवा”...
मुझे उसकी शायरी को विराम देने के लिए चुप सा हो जाना पडा|
बहस जारी रखने में हम दोनों की दिलचस्पी थी। हम दोनों फुर्सद में थे। संवाद आगे बढाने की गरज से मैं मौसम में उतर आया, अब हवा में थोड़ी सी नमी आ गई है न?
अरे नमी-वमी कहाँ? आगे देखो गरमी ही गरमी है।
अपने स्टेट में हर पाचवे साल यूँ गरमाता है माहौल। अलगू चौधरी को टिकट दो तो जुम्मन शेख नाराज, जुम्मन मिया को दो तो मुखालफत, बहिस्कार?
टिकट देने वाले हलाकान हैं। शहरों को भिंड –मुरैना का बीहड़ बना दिया है बागियों ने। जिसे टिकट न दो वही बागी बनाने की धमकी दिए जा रहा है।
मैंने बीच में काटते हुए कहा, आपकी बात भी तो चल रही थी.क्या हुआ?
उसने मेरी तरफ खुफिया निगाह से फेकी , उसे लगा मैं इधर की उधर लगाने वालों में से हूँ।
मैंने आश्वश्त किया, कहा मेरे को बस, मन में ये ख्याल आया, कहीं पढ़ा था, आपका नाम उछल रहा है, सो जिज्ञासावश पूछ रहां हूँ, अगर नहीं बताना है तो कोई बात नहीं।
उसे कुछ भरोसा हुआ। वैसे आदमी भरोसे में सब उगल देता है। बड़े से बड़ा अपराधी भी पुलिसिया धमकी के बीच, एक-आध पुचकार पर भरोसा करके, कि उसे आगे कुछ नहीं होगा, सब बता देता है। दुनिया भरोसे पर टिकी है। वो मायूस सा गहरी सांस लेकर रह गया। अनुलोम-विलोम के दो-तीन अभ्यास के बाद कहा, हम आम आदमी को भला पूछता कौन है? किसी ने मजाक में हमारा नाम उछाल दिया था। पालिटिक्स में बड़े खेल होते हैं, किसी ने हमारे नाम के साथ खेल लिया। दरअसल दो दिग्गजो के बीच टसल चल रहा था,कोई पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था, टिकट बाटने वाले अपना सिक्का चलाना चाह रहे थे। उन्होंने हमारे नाम का बाईपास निकाला, दोनों धराशायी हुए।
हमारे नाम का गुणगान यूँ किया कि हम आम –आदमी हैं, राशन की लाइन में लगते हैं, भाजी के साथ भात खा लेते हैं, सच्चे हैं ईमानदार हैं, पार्टी को हम जैसे लोग ही आगे ले जा सकते हैं|हमारी जय-जयकार हुई, हमारे नाम के चर्चे हुए। मीडिया ने घेरा। दोनों दिग्गजों को आश्वाशन-ए-लालबत्ती मिला, वे दुबक गए।
पत्रकार जी, हम भले, आम आदमी हैं, मगर थोड़ा दिमाग भी खर्चते हैं। हमने मन में गणित बिठाया कि जिस टिकट के लिए चिल्ल-पो मची है, वो हमारे नाम खैरात में डालने की जो जुगत कर रहा है वो बहुत चालु चीज है। जो दिख रहा है, वैसा तो कदापि नहीं है। जरूर कुछ लोचा है। हमने अपने सर के हरेक जूँ को रेगने से मना कर दिया, जो जहाँ है वहीं रहे कोई हरकत की जरूरत नहीं। रात को पार्टी मुखिया लोग आये, कहने लगे, आपके पास राशन कार्ड है,मतदाता परिचय पत्र गुमाए तो नहीं बैठे, दिखाओ, अब तक आधार कार्ड बनवाया कि नहीं? सरकार से कर्जा-वर्जा लिया है क्या? चुनाव में खूब खर्चा होगा कर सकोगे? आजकल करोड़ों में निकल पाता है एक सीट। कुछ तो पार्टी लगा देती है,मगर नही-नही में बाटते –बाटते चुनाव हरने वाला सड़क पे आ जाता है, सोच लो।
हमे लगा ये पालिटिक्स वाले हमें सपना दिखा -दिखा के कर मार देंगे। हमने उनसे पीछा छुडा लिया या यूँ कहें उनके मन के मुताबिक़ उन लोगों ने अपनी चला ली।
आम आदमी को पूछ भी लिया और मख्खी की तरह लिकाल बाहर फ़ेंक दिया। वैसे हमे भी मानते हैं, चुनाव लड़ना आम आदमी के बस की बात नहीं। पैसे का बोल-बाला रहता है। पार्टी आपको हरवा कर भी कहीं-कहीं जीत जाती है, वो किसके हाथ आपको बेच दे कह नहीं सकते।
आम आदमी, एक दार्शनिक मुद्रा में मेरी तरफ देख के फिर आसमान ताकने लगा, मुझे लगा कि वो मानो कह रहा है, देखा पावर-लेस ‘मेन’ का पावर?
सस्पेंडेड थानेदार का इंटरव्यू / सुशील यादव
वो थानेदार इंटरव्यू देने के नाम पे बहुत काइयां है| बड़े से बड़ा कॉड हो जाए वो मुह नई खोलता| ऐसे कारनामो में भी जिसमे उसे श्रेय लेने का हक होता है वहाँ भी चुप्पी लगा जाता है|
पत्रकार लोग मनाते हैं, उसके थाने वाली जगह में कोई भी ‘दारोमदार’ वाला वाकया न घटे, कारण कि चटपटी खबरों का पूरा सत्यानाश हो जाता है|
उसकी थानेदारी में सुबह-सुबह सब की शामत आए रहती है| नाइ को थाने में तलब करके,थानेदार साहब की शेविंग-ट्रीमिंग से दिन की शुरुआत होती है| एक अर्दली जूते को पालिश करवाने ले जाता है| दूसरा ड्राइक्लीनिर्स से ड्रेस उठाने जाता है| तीसरा, घंटे भर की मशक्कत के बाद बुलेट के एक-एक पुर्जे को साफ कर के तैयार करता है| उसे कडक ड्रेस और चमचमाते बुलेट से बेंइंतिहा प्यार है| बुलेट की आवाज में ज़रा सा भी चेंज हुआ तो मेकेनिक की खिचाई हो जाती है|
उनकी सोच है कि, कडकपन और रुतबे को, यही बाहरी तामझाम, ही तो पुख्ता बनाते हैं| जब तक फरियादी-अपराधी थाने की सीढियां चढते काँप न जाएँ तो थाने और पोस्ट-आफिस में भला फर्क क्या हुआ?
वे जिस थाने के इंचार्ज बनाए जाते हैं, चार रात बिना सोए, गस्ती में गुजार देते हैं|
’गस्ती’ को वे शहर-बस्ती की स्टडी का सबसे खास मापदंड मानते हैं|
उनका कहना है कि अपराध सर्वव्यापी है| जहाँ अन्धेरा है वहाँ अपराध ,जहाँ सुनसान है वहीं उठाईगिरी ,जहाँ भीड़-भाड है वहीं पाकिटमारी ,और तो और, जहां भजन –कीर्तन है, वहाँ भी बाबाओं की धोखाधडी है|
एक पुलसिया सोच में हर जगह लोचा है, बस लोचन घुमाने की देर है सब सामने आ जता है|
सरकार ने ला एंड आर्डर का डंडा पुलसिया हाथ में जिस आदि-काल से दे रखा है, तब से लेकर आज तक जर, जोरू ,जिस्म ,जान ,माल-एहबाब की हिफाजत ही हिफाजत हो रही है| थानेदार इसे बिलकुल वैसा ही बताते हैं कि, महाभारत में सारथी मधुसूदन के रहने –न रहने का क्या फर्क पडता ?यकीनन ,बिना सारथी-मारुती , के रथ की धज्जियां ही उड़ गई होती| प्रभु ने अपनी अलौकिक शक्ति को जैसे ही अलग कर बताया, धुरंधर धनुर्धारी अर्जुन के पाँव के नीचे की धरती खिसक गई|
वे अपनी ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से निभाते रहे| पंगा तब तक न हुआ जब तक बकायदा जुए के फड वाले ,सटोरिये ,उठाईगीर,बुटलेगर सभी तय रिवाइज्ड रेट पर हप्ता पहुचाते रहे|
इधर कुछ दिनों से नए इलेक्शन बाद, दादा किस्म के विधायक के पालतू लोग, उभर आए| सब के सब नेता के ‘दाहिना हाथ’ होने की धमकी देने लगे|
‘हप्ता-महीना’ के व्यावहारिक लेन-देन के बदले कोइ थानेदार से ठेंगा बताए तो अव्यवहारिक स्तिथी का पैदा होना तो बनता ही है ?
थानेदार के पास लम्बे हाथ वाले कानून भी होते हैं,जिसे वे प्राय: जेब में घुसाए रहते हैं| जेब से हाथ निकला तो सामने वाले को खामियाजा तो भुगतना पडता है न ?
थानेदार ने बेरियर लगा दिया ,गस्ती बढ़ा दी| एक-एक ‘दाहिने हाथ के दावेदारों’ को चुन-चुन के घरों से उठाने लगे| सब की कमाई का जरिया बंद होने की नौबत देख, ‘आका’ लोग मौक़ा ए अपराध में कूदे|
उन सबों को ‘उपर के आदेश की मजबूरी बता कर हाथ खड़े कर देना थानेदार का आजमाया हुआ नुस्खा था|
नेताओं में तहलका मचा, वे भाग कर मुखिया की शरण में गए|
मुखिया ने कहा ,जहां तक हमारे थानेदार का एक्शन है ,उस पर तो हम कुछ करने से रहे| सब ‘टू द पॉइंट’ वाला मामला है|
तुम लोग थानेदार को किसी दूसरे तरीके से घेर-फंसा सको तो मामला बनेगा| नेता लोग अपना सा चेहरा लिए लौट आए|
थानेदार का छुट-भइयों के स्टाइल में स्टिंग की कइ कोशिशे हुई| काइयां लोग पकड़ में कब आते हैं भला?वे भी पकड़ से दूर थे|
कहते हैं हर कुते का एक दिन जरूर आता है ,हुआ भी वैसा ,एक मरियल सी गाय को एक समुदाय विशेष ने बाइक से ठोक डाला| गउ-माता परलोक चली गई| इस लोक में कुहराम मच गया| दंगे भडक गए| थानेदार को हवाई फायर करने की नौबत आ गई|
कलेक्टर का दौरा हुआ| फरमान निकला, ला एंड आर्डर, का ठीक से अनुपालन नहीं हुआ ,शहर में दंगे भडक जाने के पूरे आसार थे, थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित क्र दिए गये|
केवल हमारा चेनल, पहली खबर देने का ठेका लिए फिरता है, सो हम हालात का जायजा लेने पहुचे| हमारे बाद दुसरे चेनल वाले भी कूद-कूद कर बताने लगे ,थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित|
हमने सस्पेंडेड थानेदार की ओर माइक किया|
हम लोग की इंटरव्यू लेने के पहले, इंटरव्यू देने वाले को खूब चढाते हैं| हमने उसकी प्रसंशा में कहा ,जनाब आपके थाने का एक बेहतरीन रिकार्ड है| सभी कस्बों से कम चोरी -डकैती ,लूट-मारपीट ,ह्त्या-आगजनी ,बलात्कार –किडनेपिंग के केस, आपके यहाँ पाए जाते हैं ऐसा क्यं,इसकी कोई खास वजह ?
थानदार ने अपने डंडे को ऊपर की तरफ इशारा करते हुए कहा, सब ‘ऊपर वाले’ की मेहरबानी है जनाब| एक काइयां-पन से लबरेज जवाब हमारे सामने था,जिसके दो-तीन मायने तो लग ही सकते थे| ,
हमने पूछा ,आपको एक सख्त थानेदार के रूप में जाना जाता है| अपराधियों की पतलून आपके थाने में आपके डर से गीली हो जाती है ?
नहीं जी ,ये सरासर गलत है| हम तो बड़े प्यार से पुचकार के तहकीकात करते हैं| अब हमारे छूने मात्र से कोई अपने अधोवस्त्र को गीला होने से न रोक सके तो हम क्या कर सकते हैं ?
एक बात कहे ?...... लोगों में जो कानून का भय होता है वही उनके पतलून को गीला करता है जी| वे अपनी मुछो पर हाथ फिराने लग गये|
अच्छा आखिरी सवाल ,आपको सस्पेंड होने में कैसा लग रहा है ?
बहुत बढिया लग रहा है जी|
थानेदार हो, और सस्पेंशन-वस्पेशंन न हो, ये तो कोई बात न हुई जी|
बारी-बारी से प्रोग्राम बना होता है| ये अंदरूनी बात है|
हम ला-आर्डर वाले लोगो के ऊपर, ‘पबलिक के लिए मेसेज वाला कार्यक्रम’ भी चलता है| अभी सस्पेंशन हुआ है ,चार्ज –शीट मिलेगा ,इन्क्वारी होगी ,रुटीन है जी रुटीन ?
हमने देखा थानेदार के न तो चहरे की हवाईया उडी .न शिकन आया ,न कहीं जू के रेगने का निशाँ मिला ,वे सर को तनिक भी नहीं खुजलाए|
ये हमारा पहला इंटरव्यू था, जिसमे थनदार के सामने ,हम ज्यादा घबराए लग रहे थे|
दांत निपोरने की कला ....
बहुत कम लोग इस कला के बारे में जानते हैं |और जो जानते हैं वे इसके मर्म को बताने के लिए सीधे –सीधे तैयार नहीं होते |
वे जानते हैं की इस कला के कदरदान बढ़ गए, तो उनकी पूछ –परख में कमी आ जायेगी |
दांत का निपोरा जाना अपने-अपने स्टाइल का अलग-अलग होता है |घर के नौकर, पति ,आफिस के बाबू –चपरासी ,हेड क्लर्क , साहब ,बड़े साहब,संतरी-मंत्री सभी, अपने से एक ओहदे उचे वालों से, घबराते नजर आते हैं या परिस्थितिवश उनके सामने दंत-प्रदर्शन के लिए कभी न कभी बाध्य होते हैं |
घबराहट में ,’एलाटेड’ काम के प्रति की गई लापरवाही से, जो बिगड़ा परिणाम सामने आता है उसी से कर्ता की घिघी बंध जाती है|
दन्त-निपोरन का बस इतना ही इतिहास है |
इस विषय में आगे शोध करने वालो को बताये देता हूँ निराशा हाथ लगेगी ,वे ज्यादा अन्दर तक घुस नहीं पायेंगे|उनके गाइड उनको इधर उधर भटकाते रहेंगे औरर अंत में दांत को इस्तमाल करते हुए आपसे कहेंगे कोई और सब्जेक्ट लेते हैं ,यहाँ स्कोप नहीं है |
हाँ ये अलग बात है कि वे इतिहास के, दांत निपोरने वाले पात्रो या परिस्थियों पर, आपके ज्ञान में कुछ वृद्धी कर सकें ,मसलन शकुनी का पासा जब दुर्योधन के पक्ष में पड़ रहा था, तो पांडव हक्के-बक्के बगले झांक रहे थे ,सब कुछ हार के, जब दांत निपोराई की रस्म अदायगी होनी थी, तभी द्रोपदी-दु:शासन का चीर-हरण प्रकरण शुरू हो गया| सभासदों का ध्यान हट गया |कहते हैं ,हारे हुए जुआडियों को कोई फरियाद की जगह नहीं बचती ,अपील का कोई मौक़ा नहीं मिलता |वो तो द्रोपदी की पुकार थी जिसे आराध्य कृष्ण ने सुन ली, और लाज सभी की बच गई |
उन दिनों ,“युद्ध न करना पड़े के लाख बहाने” जैसी किताब तब छपा नहीं करती थी|
हमारे हीरो ‘अर्जुन’, अपने सारथी कृष्ण को, तर्क देकर टाल नहीं पाए |उलटे प्रभु के तर्क उन पर हाबी रहे |लगभग वे युद्ध-भूमि में हें` हें,~खी खी करके दांत निपोरने की अवस्था में पीछे हटने की रट लिए थे, मगर प्रभु-लीला ने बुध्धि फेर दी|युद्ध हुआ ,कौरव जीते और हमको पीढ़ी-दर पीढी पढने के लिए उपदेशों की हमको ‘गीता’ मिल गई|
सार संक्षेप ये कि उन दिनों युद्ध में पीठ दिखाना. भरी सभा में गिडगिडाना,घिघयाना या दांत- निपोरना अक्षम्य अपराध जैसा था |आजकल ये राजनीति कहाती है |इसके जानकार प्रकांड पंडित लोगों को चाणक्य की उपाधी से विभूषित होते भी देखा जाता है |
वैसे अपवाद स्वरूप कुछ क्षत्रिय धर्म मानने वालों के लिए आज भी ये सब अपराध है| मगर कलयुग में ‘सब चलता है’ पर आस्था रखने वालों की कमी भी नहीं है |वे न केवल पीठ दिखा आते हैं, वरन पीछे पोस्टर भी टाँगे रहते हैं, हमें मत मारो हम कभी आपके काम आयेंगे |
दूसरे शब्दों में ये कहना कि भाई ,हमारी मजबूरी है,कि सामने आपको चेहरा नहीं दिखा पा रहे हैं वरना दांत निपोर के खेद प्रकट कर आपका सम्मान रख देते |
सतयुग के इन किस्सों को कुदेरने में एक और महाकाव्य लिख जाएगा |हमें मालुम है आप पढ़ नहीं पायेंगे ?
आज के एस एम् एस युग में, बस छोटे-मोटे किस्से ही चल सकते हैं बड़े किस्से पढने की फुर्सद किसको है ?सो बेहतर है कलयुग में लौटें चलें ....
रामू ,प्रेस करवा लाया ...?
-वो साब जी क्या है कि, बीबी जी ने मुझे एडी-घिसने का पत्थर मंगवा लिया था| पूरे बाजार में ढूढ़ते –ढूढ़ते थक गया ,कहीं न मिला ,इसी में आपका काम भूल गया |
रामू के हाथ यकबयक कान खुजलाने में लग जाते हैं, जो इशारा करता है आइन्दा गलती नहीं होगी स्साब्जी...... |
साहब ,मेम पर भडास निकालते हैं ,ये क्या...? कल बाहर के डेलीगेट्स आ रहे हैं....... तुम्हे एडी केयर की पड़ी है |ढंग से एक जोडी कपडे तैयार नहीं करवा पाती ?शाम खाने में क्या बना रही हो .....?करेला ....?कल मीटिंग है ना ....? बहुत तैयारी करनी है |रात-भर डाक्यूमेंट्स तैयार करने हैं ,करेला खा के ,करेला सा जवाब दिया तो अपनी तो कम्पनी बैठ जायेगी ?
मेम साब, साबजी के , इस चिडचिडाने वाले टेप को सिरे से खारिज कर देती हैं |
~देखो आफिस का टेशन घर में तो लाया मत करो |
वैसे कौन सा तीर मार लोगे अच्छे –अच्छे जवाब देके ?
प्रमोशन तो होना नहीं है ?
मल्होत्रा साहब को देखो ,साहबों के आगे खी-खी करके दांत काढ़ते रहते हैं ,सभी साहब खुश रहते हैं |चापलूसी तो आपको ज़रा सी भी आती नहीं |क्या घर क्या आफिस हर जगह ‘रुखंडे’ रहते हो |चहरे में दो इंच मुस्कान लाओ मिस्टर..... सब काम बनाता नजर आयेगा |
ओय रामू जा साहब के सूट को अर्जेंट में ड्राई-क्लीनर्स से प्रेस करवा ला (देखें क्या तीर मारते हैं,वाले अंदाज में )
-हाँ बताइये कौन –कौन ,कहाँ –कहाँ से आ रहे हैं |
-उनके लंच –डिनर ,रुकने –ठहरने की अच्छी व्यवस्था है या नहीं ?
दुनिया के डेलीगेट्स लोग इन्हीं बातों से ज्यादा प्रभावित होते हैं |
अपने ‘चाइना वाले स्टाइल’ को अमल में लाओ भई,देखा कैसा ‘ढोकला,पूरी छोले में निपटा दिया ?प्रेक्टिकल बनो .....|दुनियादारी इसी का नाम है |
डेलीगेट्स का क्या है , पर्सनल काम होता है, वही निपटाने के लिए टूर पे आ जाते हैं |इन्सपेक्शन तो बस बहाना होता है समझे साब्जी....... |
आपका प्लान, आपका प्रोजेक्ट, रात~रात भर घिस~घिस के तैयार किया डिस्प्ले कोई काम आने का नहीं........ |उनके पास आंकड़े –प्लानिग सब मौजूद रहता हैं,रट के आये रहते हैं |
ये अलग बात है कि ,आपको काम में लगाए रखने की, यही ऊपर वालो की टेक्नीक होती है |वे काम न परोसेंगे तो आप लोगो की बुद्धि में जंग न लग जायेगी .... ..? ऐसा उनका मानना होता है |
खाना खाईये ,मजे से सोइये ,सुबह –सुबह,आफिस पहुचते ही कड़क गुड-मार्निंग बोलिए |वे आपके गुड-मार्निग बोलने के तरीके से भांप लेगे की आपकी तैयारी कैसी है|फिर चाहे आप उनके, किसी भी प्रश्न के एवज दांत निपोरें सब जायज |
साबजी ,कल के लिए ,आई विश यू गुड लक......इत्मीनान से ...मजे से सोइए .....और हाँ ....
बड़े लोगों को, ऐसे लोग भी अच्छे लगते हैं जो अपनी कमजोरियों को छुपाते नहीं ,बत्तीसी निकाल के जग जाहिर कर देते हैं |
चहरे पर हवाइयां उड़ते मातहत उन्हें अपने काम के आदमी लगते हैं |
***
ये हर मिडिल क्लास घर के, रोजमर्रा की बातें हैं |
पति,बड़े से बड़ा ओहदेदार हो, घर में उसकी क्लास पत्नियां ही लेती हैं |
रहम वो बस इतना करती है कि, मुर्गा बना के उनका सामाजिक प्रदर्शन नहीं किया जाता |
एक और फील्ड है जिसका जिक्र किये बिना, दांत-निपोरने वालों के आगे हमें दांत-निपोरना पड जाएगा |
आजकल आप रोज टी वी में खुद देख रहे हैं | सरकार बनाने के लिए कैसे –कैसे जुगाड़ भिडाये जा रहे हैं |
हमारे देश के कर्मठ लोग , कबाड़ में से काम की चीज बनाने में माहिर हैं |जुगाड़ के छकडे गाँव –देहात में मजे से चल निकलते हैं |
इसी तर्ज में , कुछ बुजुर्ग कबाड़ी ,उन देहाती विधायको को तव्वजो देते दिख रहे हैं , जो कहीं मीडिया के एक प्रश्न झेलने के काबिल नहीं |
नए-नए विधायक घेरे जा रहे हैं |घेरे जायेंगे |
उनके लिए मीडिया के मार्फत ,प्रलोभन का पहाड़ खड़ा किया जाता है |
ये कबाडिये, वो जुगाडिये होते हैं, जो कभी खुद मेट्रिक,बी ए, एम ए , पास न किये मगर आलाकमान के इशारों में ,बड़े-बड़े आई ए एस,आई पी एस को डांट पिला देते हैं |
अपने आप को किग मेकर की भूमिका में फिट किये ये स्वयंभू नेता, उसी भाँति बहते हुए किनारे लगे हैं,जैसे बाढ़ में ,शहर का जमा कूड़ा करकट किनारे लग जाता है |
चूँकि शास्त्र अनुसार, आत्मा अविनाशी है, विज्ञान अनुसार तत्व अविनाशी है अत; दोनों अविनाशी ,नष्ट होने से बचे रहते हैं |
जनता से ऐसे झांसे-दार वादे कर लेते हैं ,जैसे ट्रेन में बिदाउट टिकट चलने वाला प्रेमी अपनी प्रेमिका से कर लेता है|”मै तेरे लिए चाँद तोड़ लाऊगा” |सही मानो में अगर चाँद का एक पोस्टर भी ला के देने की हैसियत होती तो ट्रेन का टिकिट न लिया जाता ?
ये चूहे , क़ानून की हर उस लाइन को कुतर लेते हैं जो इनके मकसद के आड़े आता है |
जिन्दगी भर कानून के दांव~पेचों को कुतरना इन चूहों की बाध्यता है|अगरचे,ये अपना दांत कुतरने में इस्तेमाल न करें या , बेवजह न घिसें तो , इनके दांत अनवरत बढ़ते रहेंगे |
जो , खी-खी करने में बदसूरत,
स्माइल प्लीज के लिए एकदम बेकार और
निपोरने में नाम पर बेडौल नजर आयेंगे .....?
सुशील यादव
व्यंग
शक की सुई
आदमी के पास दिमाग नाम की एक चीज होती है |
इस दिमाग में सोच के साथ, ‘शौच’ के लिए दिशा मैदान को पहचानने की क्षमता होती है |हर दिमाग में कहें तो एक कम्पास फिट रहता है जो ये तय करता है कि आप सही जा रहे हैं या नहीं ?
इसी कम्पास के अगल बगल, एक और कम्पास होता है जिसकी ‘सुई’ ‘शक’ नाम के भारी मेटल से बना होता है |
यों तो ये शक की सुई हर ख़ास ओ आम में पाई जाती है, मगर आम तौर पर वहमी आदमी औरतों में ,खुफिया डिपार्टमेंट के खुखारों में ,.पुलिसिया खोजबीन करने वाले काइयां किसम के अकडू लोगो में , इन्कौन्टर स्पेशलिस्ट खुर्राटों में और आजकल के घाघ नेताओं में इसका पाया जाना आम सा हो गया है |
इस सुई के , ऊपर बताये लोगों के अतिरिक्त अन्य जगह पाए जाने की जो संभावित और खास जगह है, तो वो है आपके पडौसी का दिमाग |
हर एक पडौसी अपने बगल में रहने वालों की गतिविधियों को बहुत ही गहराई से सालों सदियों से परखते रहता है |परखने के बाद चिपकाने लायक खामियों बुराइयों को ढिढोरा पीटने लायक शकल में ढालता है |
आप स्रीलिग़ में अगर इंन बातों को गौर फरमाएं तो समझाने में ज्यादा सहूलियtत होगी |
इसी से ‘चुगली;जैसे शब्दों का चलन शुरू हुआ हो, ऐसा फौरी तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है |
जब हम चाल में रहते थे, बड़े सादगी का जीवन था |
सात्विक विचारधारा वाले शर्मा जी, सीधे सादे वर्मा जी, और अपने काम से काम रखने वाले अन्य जैसे श्रीवास्तव बाबू ,झा ,ओझा, आदि जैसे लोग थे |क्या बिहारी क्या यु पी ,मराठी ,बंगाली तेलगु तमिल सब में भाई चारा जैसा माहौल था |
सुबह शाम घरों में घंटी घंटा और शंखनाद जैसा गूंजते रहता था |
किस किस घर से क्या क्या बन के नहीं आता था ....?
कहाँ मती मारी गई थी हमारी ,,? प्रसाद आरती के माहौल को छोड़कर थ्री बी एच के वाले प्लेट में आ गए |
ऊपर वाला नीचे वालों को नहीं पहचानते |
लगता है सब लोगों को काले धन की बारिश हो रही है|
दिन रात कार घुमाए रहते हैं |
इनके स्कूटर स्कूटी मानो पानी में चलते हैं |बेहिसाब चलाते हैं |
कितना देती है .....? जैसे तुच्छ सवाल अगर कर दो तो हमेशा के लिए इन लोगों की नजर से गिर जाओ |
‘स्टेटस सेम्बाल’ को मेंटेन करना है तो यहाँ चुप्पी सबसे अच्छी जीज है|
ये हिदायत अपने श्रीमती जी को हमने मौक़ा मुआयना करने के बाद सबसे बड़ी और पहली सावधानी के रूप में दे रखी है |
गाँठ बाधने लायक कुछ और तजुर्बों के निचोड़ से, वाकिफ करा दिया है |किसी ग्रुप में ज्यादा घुसो मत |एक की सुन के दूसरे को बताओ मत |काम वाली बाइयों से किसी पडौसी महिला के रहन सहन, बात व्यवहार पर टीका टिप्पणी मत करो|इतना कर सको ,तभी इधर टिक पाओगे वरना फ्लेट में रहने के अरमान को गोली मारना पड़ेगा |
हमने देखा है कि,यहाँ रहने वालों के एक पैर तो फकत शापिंग माल में थिरकते रहता है |दूसरा पैर अगर शाम को लड़खडा न रहा हो तो महंगे होटल या थियेटर में मय फेमिली के टिका होता हैं |
हमने अपने शक की सुई, जगह जगह आदमी दर आदमी ,घुसा घुसा के देख ली, सुई ही भोथरी होने को आ गई, मगर ‘करेक्टर’ खत्म होने के नाम नहीं लेते |
यो तो शक्की सुई को इजाद हुए तो सदियों बीत गए |
मगर ,हम सतयुग के पीछे जाने की चेष्टा खुद अपनी अज्ञानतावश नहीं कर रहे |
महाभारत काल में कौरवो द्वारा सुई के नोक बराबर जमीन न देने की घोषणा के साथ पाडवों के बदन में सैकड़ों सुइयां चुभ गई होगी |
कौरव के कुछ एक चहेतों ने पांडवों पर नमक मिर्च लगी सुइयों का प्रयोग किया होगा ....?
कहा होगा ...!..देखते क्या हो .....हक़ से मागो ....मिलेगा कैसे नहीं .....?
ये छोटे छोटे दृष्टांत महाविनाश के बीज बो देते हैं युद्ध अवश्यंभावी हो जाता है |
रामायण वाले स्क्रिप्ट उठाइये |
मंथरा बहिनजी की सुई माता कैकई को कैसे चुभी...... आप सब जानते हैं|शक ये कि राम को गद्दी मिलने के बाद भरत की जाने क्या दुर्गति हो ....?
राज भारत को मिले.....! ,मिलना ही चाहिए |एक तरफा जिद .....|
‘जहाँ प्राण जाए पर वचन न जाए’ वाले शासक हों, वहां आप हलकी फुल्की सुई की जगह, दिए हुए वचनों का ‘सूजा’ चुभा दो..... |आपका काम निष्कंटक हो जाएगा |
माता ने वही किया |
फूल से कोमल राजकुमार का देश निकाला हो गया |
पत्नी और भाई विछोह के दंश , और सेवा भाव में संग हो लिए |
मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपने जिस पराक्रम से दंभी रावण का वध किया ,उतनी ही क्षुद्रता के साथ किसी गैर के लगाए आरोप पर सीता मैया के उन तलुओं में शक की सुई चुभा दी,जिन तलुओं ने उन्हें जंगल, झाडी, कंकर,पत्थर, कांटे भरे रास्तों में साथ दिया था |
उस अबला का अपराध क्या था ....?जो उसे जमीन के दरारों में, समाने को विवश होना पड़ा .....?वो तो राम के खिलाप सुसाइडल नोट भी न छोड़ सकी |
यों होती हैं भाई जान........ शक वाली सुई ....!
हमारे पडौसी देश वाले, काश्मीर का दावा लिए फिरते हैं |
यो करते करते उनहोंने अपनी जमीन, अपने देश का, एक बड़ा हिस्सा ‘बंगला देश’ के नाम से खो दिया |बेचारों का चवन्नी बचाने के फेर में लाखों का नुकसान हो गया फिर भी न चेते ....|
वे हमेशा शक के घेरे में रहते हैं .....?कौन समझाए ......?
शायद यही उनके देश में ,उनकी राजनीति की, रोजी रोटी चलाने का जरिया ~ नजरिया हो |
अपने तरफ ‘मन्दिर‘ को जरिया~नजरिया बना के चलाने की कोशिशे कई देनों तक हुई |
लोगों में शक या खौफ पैदा करके राज करने का फार्मूला कब तक चलेगा कह नहीं सकते |
कभी ~कभी यूँ लगता है ,अपनी सरकार जितना बेहिसाब पैसा मिलेट्री और नताओं की सिक्युरिटी में लगा देती है उसकी चौथाई अगर पडौसी मुल्क को दान दे दे , वहां स्कुल कालेज उद्योंग धंधे खुलवा दे तो दोनों तरफ अमन चैन का माहौल अपने आप ,व्याप्त हो जाएगा |
मुझे कालिज के दिनों पदाने वाले ,अपने एक ‘सर’ की याद आ रही है |हर वक्त बात बेबात , बौखलाए हुए से रहते थे |
शोरगुल वाले क्लास में आ धमकते ही, रोबदार लहजे में गरजते ..... ,हल्ला नइ.......हल्ला बिलकुल नाइ..... चोप ......एकदम चोप्प.......|
हम लोगो ने उनका नाम ‘अल्ला~सर’ रख दिया था |
वे आते ही कहते ,’आई वांट पिन ड्राप साइलेंस ....,एकदम शान्ति ,,,,,,,,यु नो पिन ड्राप .........|मालुम है इसका मतलब .....?
फिर ,कमीज के तीसरे बटन के पास खुरसे हुए दो तीन पिन में से एक निकाल के फर्श पर गिराते .....उनके इस करिश्मे को देखने और सुनने में ही माहौल सन्नाटे वाला हो जाता था .......डेड साईंलेन्स मेंटेन हो जाने पर, वे उत्साहित होते |
उन्हें लगता लगाम उनके कब्जे में है |
सुई का ऐसा अनोखा प्रयोग आपने किसी मुहावरे के साथ, शायद ही कभी सूना हो ............?
इस जगह, हालाकि ये चुभने वाली चीज , शक की कतई नहीं हुआ करती थी | .
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सुशील यादव
भावना को समझो..... व्यंग
वे आदमी बुरे नहीं हैं |
जुबान फिसल जाती है |उनकी फिसली जुबान को, पटरी पर चढा दी जावे या उनके कहे के मर्म को समझ लिया जावे, तो कोई दिक्कत पेश नहीं आती |
अभी~अभी उनने कह दिया, जो डाक्टर काम नहीं करते उनके हाथ काट देनी चाहिए |
क्रोधित स्टेथेस्कोप ने काम बंद करने की धमकी दे डाली|
उन्होंने सफाई दी, हमने तो कहावतों. मुहावरों का इस्तेमाल किया था बस |
अब उनके जैसे विद्वान को सफाई देने की नौबत आ जाए, तो प्रशासन कौन नत्थू खैरे सम्हालेगा ?
बातों के सफाई अभियान में, पांच साल कब निकल जायेंगे, बेचारे को पता ही न चल पायेगा ?
बेचारा ठीक से अपने धूप~ बदली~ बरसात के लिए, इन्तिजाम भी न कर पायें रहेंगे ? उनकी तरफ से चलो हमी, माफी~साफी की औपचारिकताएं पूरी किये देते हैं ,भाई सा ,भैन जियो , भावनाओं को समझो .....?
ये भी मान के गम खा लो, की वे अभी देहात के हैं |ज़रा शहरी मैल जम जाए, तब किसी अच्छे डिटर्जेंट से चाहे तो जी भर, धो डालियेगा |
एक उलट बात और.....|
मुझे ऐसे समाचार पढने में खूब मजा आता है ....|
मै इन धमकी भरे समाचारों का अचार, “दो सौ साल पहले की मटकी में” डाल के कल्पना के खूब चटकारे लेता हूँ |
यदि सचमुच कोई सुलतान~ बादशाह अपनी रियासत में “....ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर....” वाला हुक्म सुनाये,चलाए तो क्या नजारा होगा ...?
~ओय खबीस का बच्चा ....तुम किधर की डाक्टरी पास किया है ....?
ढोर का इजेक्शन आदमी को दिए फिरेला है ....?
हमारे राज में ढोर बिना इंजेक्शन के बेमौत मर रहे हैं ,कुछ खबर तुसी है कि नइ....?आदमी की जान अलग लिए फिरता है ,यानी हमारे राज में एअक हाथ से दो दो वारदात ......|बहुत नाइंसाफी है.....
दरबान ! सिपाहियों से कहो ,इस जुर्म करने वाले डाक्टर को ले जाएँ |इनके हाथ यूँ काट दें , कि किसी दूसरे को, जुर्म करने का साहस न हो | इनके कटे हाथ को देख कर ...लोग हमारे न्याय को याद रखें |इस मनहूस को हमारी नज़रों से इसी दम ओझल करो.....
अगला मुजरिम पेश हो .....बुलंद आवाज दरबान की गूजती है
पेशकार द्वारा चार्ज पढ़ा जता है |हुजूरे आला ,मुजरिम पेशे से आपकी रियायत के एक कसबे की म्युनिस्पेलटी में डाक्टर का ओहदा रखता है|ये अपने सेनापति जी का साला है |उनकी ही सिफारिश पर आपने नजदीक के, खटीक गाव की म्युनिस्पेलटी में इन्हें नरेगा के तहत स्पेशल अपॉइंटमेंट दे के , दो इन्क्रीमेंट के साथ रखा है |हुजूर... मुजरिम की गुस्ताखी ये है कि इनने, बी पी के पेशेंट को ‘आयोडीन साल्ट’ नाम की दवाई लिख मारी | सुगर वालो को ‘पार्ले जी’,खीर पूड़ी भरपूर खा के हेल्थ बनाने का ये मशवरा दे डालते हैं |
हुजुर.... ! मरीजों के ‘टे’ बोलने की नौबत आ गई|वो तो अच्छा ये हुआ कि अपने हकीम साहब तालाब में दातुन करतेकरते इस मरीज की हरकत पर गौर फरमा लिए |सेम्प्टनदेख के वे ताड़ गए की हो न हो ये मुनेस्पेलटी हास्पिटल के मरीज हैं | वे सैकड़ों बिगड़े केस वहीं तालाब किनारे निपटा देते हैं हुजुर| वे ही इन मरीजों को बचा पाए वरना राम नाम सत्य है हो जाता ....मरीज की ,’लाई’ लुट जाती जनाब |
महामहिम से फरियाद है, इस ‘झोला छाप’ को सख्त से सख्त सजा दी जावे |अपने हकीम साहब को हुजुर जो इअनाम इअकर्म बख्शना चाहे वो अलग मर्जी ......
अपने राज में इस जुर्म की सजा, महामहिम ने हाथ काटने की मुकर्रर की है जनाबे आला .....
पेशकार को ध्यान से सुनाने बाद ,शहंशाह ,सेनापति को तलब करते हैं जो उनके साले हैं| |सेनापति जी .हम ये क्या सुन रहे हैं.....? आपके साले होनहार नहीं थे तो....आपको बताना चाहिए था न हमें ? हम कहीं और फिट कर देते ...|अब इस मुसीबत से कैसे निपटें ..? ..अगर सजा देते हैं तो मुसीबत ! नही देते तो जनता का विशास हमारे न्याय से उठ जाएगा ....|
सेनापति ने, तत्काल दरबारी को तलब किया|वो जो पहला केस अभी ~अभी निपटा है जिस पर हाथ काटने की सजा हुई है , उस पर तत्काल सजा मुल्तवी रखो कहना की ये जनाबे आला की आसंदी से फरमान है |हम यहाँ से अगला आदेश बिना विलम्ब के भिजवाते हैं |
सेनापति ने न्याय की पुस्तक मंगवाई |
सभासदों को इस विषय को गहराई से पढ़ , नई व्याख्या करके, सुझाव देने को कहा गया |
सभासदों ने एक स्वर में स्वीकार किया कि ‘हाथ काट दो’ का शाब्दिक अर्थ; पढ़े लिखे विद्वान डाक्टरों के सन्दर्भ में,ज्यो का त्यों लगाना न्यायोचित नहीं है|
इसे मुहावरे या कहावत के रूप में इस्तमाल हुआ समझा जावे |
इस किसम के आरोपी को ‘सांकेतिक फटकार’ की सजा काफी है |
अस्तु हमारी स्तुति ये है की आरोपी को फटकार लगा कर छोड़ दिया जाये |
सांकेतिक फटकार वाला ,ये ‘प्रयोग’, आप भी ,किसी भी समाचार पर प्रतिक्रिया स्वरूप करके, आए दिन के नीरस समाचार को रोचक बनाए रखने में कर सकते हैं |आप अपने रिटायरमेंट के ‘टाइम~पास’ वाली भावना को इससे जोड़ देखो मजा आयेगा ...? चलिए आगे जुड़ते हैं ....
आजकल मीडिया वालों को खोया~पाया या भूल सुधार के लिए एक ‘टाइम स्लाट’ अलग से फिक्स कर देना चाहिए |किसने कल क्या कहा ....? जो दबाव पड़ने पर, कैसे यूं टर्न वाली सफाई दिए फिर रहे हैं....... |
अपनी पुरानी भावना को, किन नये शब्दों की चाशनी में डुबो के, आपके गले उतारने की कोशिश में लगे हैं .....?
ये वाकया राजनीति के अलावा और कहीं देखने को नहीं मिलता |
कोई स्कूल टीचर, कभी विस्तार से नहीं समझाता , कल जो हमने न्यूटन के सिध्धांत बताये थे कि हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है,सेब ऊपर से नीचे गिरता है ,ये विज्ञान में तो सही है |मगर राजनीति में कुछ कह नहीं सकते .....
वो चाह के भी इस अकाट्य सत्य को झुठला नहीं पाता|
उसे मालुम होता है कि राजनीतिज्ञ लोग आज के सच को कल झूट, कल के झूठ को आज सच कर डालते हैं|दोस्ती ~दुश्मनी का भी यहाँ कोई फिक्स रुल नहीं है |
उनके पास गुरुत्वाकर्षण की अलग थ्योरी, अलग ताकत लिए होती है|
जनता के हाथ रखे सेब को छीन के, वे अपनी सबसे उंची शाख पर रख दे सकते हैं |उसे हर पांच साल में इसी सेब के बूते फिर से वोट की राजनीती जो करनी है |उनका सेब कभी टपकता नहीं |
वे अपने ‘चुम्बक बल’ सहारे विरोधियों को खीच लेते हैं |सरकार कचरे में गिरे ‘अणुओ’ को धो पोछ के अपने काम के लायक बनाने में बड़े माहिर होते हैं |फायदे के लिए समझौते की भावना स्वत: पैदा हो जाती है |
इनसे पंगा ले के देखो,’बेजामिन के करेंट’ वाले गाव की सैर करा देंगे |
जनता इनकी मासूमियत से वाकिफ होते होते सालों लगा देती है | निरीह जनता की भावना को समझो , .....
बचपन से मेरी भावनाओं को किसी ने नहीं समझा |
मेरी शिक्षा का लेबल उतना ही रखा गया, जिससे क्लर्की मिल जाए |ट्यूशन पढने की इच्छा होती थी, घर वालों के .हाथ तंग होने ,पिछले महीने के बिजली बिल, जो सात या आठ रुपये होते थे, अदा नहीं कर पाने से अवगत कर दिया जाता |मुझे भी उन भावनाओं के साथ जुड़ते~जुड़ते दुनियादारी के हिसाब~ किताब समझ में आने लग गए थे | लिहाजा चुप किये रहता |
आज की नई पीढी की भावनाओं को समझते ~समझाते रीढ़ की हड्डियों में बेइंतिहा दर्द होता है |डाक्टरों के पास जाने से घबराते हैं ,क्यों बेकार किसी के हाथ को कटने ,कटाने या तोड़ने तुडाने की सजा दी जाए ....?
सुशील यादव
बुरा जो देखन मै चला
एक दिन इच्छा हुई चलो अपने से ज्यादा बुरे लोगों को देखा जाय |
यह अपने आप में, आस पास के लोगों को परखने की,अन्दर से उपजी हुई , एक सात्विक इच्छा भर थी|इसमें न किसी पार्टी की दखल थी न किसी आलाकमान का दबाव .....बस कबीर ताऊ . अचानक याद आ गए |
अगर मै, ये कहता कि “बुरे लोगों को देख लिया जाय” तो मेरी तामसिक प्रवित्ति का रहस्य उदघाटित होता |
”देख लिया जाय में” कहीं न कहीं ,बाकायदा बांह चढाने का स्थायी भाव छुपा होता है,| इस भाव के संग लठैत लिए चलने की परंपरा का, विलंबित ख़याल अपने आप जुड़ जाता है |”देख लिया जाय” में पुरानी रंजिश की बू आती है |
देखने ~दिखाने के चक्कर में अपना राष्ट्रीय पडौसी ,अरे क्या कहते हैं ,वही काश्मीर के नीचे वाला ज्यादातर लगा रहता है |
समय समय पर उनको जावाब न दो तो,’हुदहुद’ जैसा विकराल तूफान मचाने से वे बाज नहीं आते |
उनके तरफ लावारिस लोगों की फौज , इतने सारे हो गए हैं कि, आए दिन दो चार अपने इलाके में टपकते रहते हैं |
अगर उधर, संस्कार वाले माँ बाप होते, तो पूछते बेटे कहाँ जा रहे हो ?शाम~ रात तक लौटोगे या नहीं ?अगले हफ्ते तुम्हारी सगाई है, ऐसे में यार दोस्तों के साथ ज्यादा भटका मत करो ज़माना खराब है | और हाँ छुरी~ तमंचा वालों के संगत में तो पड़ना मत ,कहे देते हैं |
पुराने जमाने में लोग खाली~खाली बैठे होते थे |
उन्हें काम के नाम पर आज जैसी चीजें मुहैया न थी आज के लोगों को टी व्ही देखना, चेटिंग करना,पार्टी के झंडे`~चंदे का इन्तिजाम करना ,रैली के लिए आदमी जुगाडना जैसे कई काम हो गए हैं |शिक्षक और सरकारी मुलाजिमो को मतदाता सूची बनाना ,जनगणना के आंकड़े इक्क्कट्ठे करना ,और न जाने कई ज्ञात~अज्ञात बेगारी के कामो में बिधना पड़ता है |
पहले के लोग सिर्फ गपियाने के और कुछ न जानते थे |
खेती किसानी के बाद बचे समय में वे किस टापिक पर वार्ता करते रहे होंगे पता नहीं ?
न ओबामा, न ओसामा ,न चाइना न पाक की लड़ाई ,न पुल ठेके का घपला .....?न भाई भतीजा को लेकर बहस......... न राजनीतिक विरासत के चर्चे,,न इलेक्शन और न ही कोयला, खनिज,टू जी थ्री जी के बंदरबाट में पैसा कमाने के आरोप ....?
वहां उस जमाने में चर्चा हो तो किस पर .....?
लिहाजा ,वे हर सातवे दिन आत्म मंथन के रज्जू को, हाथों ~हथेलियों में लिए अगल बगल में पूछने निकल जाते थे|
ऐ भाई .... मुझमे कोई ऐब है क्या ....? बता न ......?
इसे ही मथते रहते थे |
दस~बीस लोग जब बोल देते की नहीं आपमें कोई ऐब नहीं तो वे आकर तसल्ली से तरकारी में नान वेज खा लेते थे चलो कहने को कुछ तो एब रहे |
बुरा जो देखन मै चला का, निचोड़ निकल आता था ,नानवेज वाला पार्ट, तुम्हे बुरा बनाए दे रहा है| वे स्वीकार करते हुए सो जाते थे ,प्रभु .....! मुझसा बुरा न कोय ....?
हमने विज्ञापन में देखा है, दूध के साथ बोर्नवीटा~हार्लिक्स मिला दो तो दूध की शक्ति बढ़ जाने का दावा होता है |’शक्ति युक्त’ दूध पीने से तंदरुस्ती, और तंदरुस्ती से, अकल बढ़ जाती है |
अपने देश में इनकी फेक्टरी जरूरत से ज्यादा हो गई लगती है|इसे पी~पी कर बहुत से अकल वाले पनपने लग गए हैं |
इंनकी बदौलत कहीं~कहीं राजनीतिक लुटिया भी डूबाई जा रही है |ऐसी कुछ फेक्टरी को उनके देश में खोलने में अपने तरफ से सरकारी मुआवजा मिल जावे, तो दोनों तरफ अमन चैन कायम हो जाए |
शक्ति का शक्ति से मिलन ,अकल से अकल की लड़ाई |यानी बराबर की अदावत का इन्तिजाम |खूब जमेगी जब मिल बैठेंगे बिछुड़े यार दो ....|खैर ये सब राष्ट्रीय स्तर के मजाक की बातें हैं |
अपन देशी स्तर के बुरे लोग,यानी कबिरा वाला बुरा आदमी ,
........यानी ‘इन कम्पेरिजन टू मी’ वाले बुरे आदमी की तलाश में थे ?
पात्र और स्थान बदल बदल के देखें तो हर जगह ये अपनी उपस्तिथि दर्ज कराये रहते हैं |
मसलन एक छोटे से दफ्तर में रामलाल अदना सा एल डी सी,बच्चों के रफ वर्क के लिए एक तरफ यूज किये कागज़ उठा लाता है ,कभी कभार दो चार आलपिन टूटे बटन की जगह टांक के घर लेता है |बस इतनी सी बात, उसको, उसके नजर से गिराए रहती है |वो अपनी नजर का बुरा आदमी बना रहता है |
वैसे वो, आस पास के माहौल को मुआइअना करने पर पाता है, कि सिन्हा जी पेसील ,रबर शार्पनर की इंडेंट~फरमाइश हर दूसरे तीसरे दिन लगा देता है|
उसके बच्चों को स्टेशनरी की दूकान, उनके इलाके में कहाँ है पता नहीं होता |
मोतीबाबू रजिस्टर ‘रिकास्ट’ करने के नाम पर शुरू के दो पेज लिखते हैं बाद में वहीं पूरा रजिस्टर घर लिए जाते हैं|
बड़े बाबू की तो पूछो मती, यूँ मानो, खाने पीने पचाने के मामले में वे ‘डाइनासोर’ हैं |कब क्या चट कर जाए.....? पता नहीं? वे बिल में जितना मंगवाते हैं, अपना दफ्तर उससे आधे सामानों में बखूबी चल सकता है |
मिस्टर कबीर के जमाने में, ये टुच्ची हरकतें करने वाला मुहकमा पैदा नहीं हुआ था|
न ही उन्होंने किसी सरकारी दफ्तर की क्लर्की की थी लिहाजा वे अपने अडौस~ पडौस के लोगों के मनोविज्ञान को समझने में कन्फ्यूज रहे | झकास धुले हुए कपडे पहने लोगो से मिलते रहे |अपनी कम धुलाई वाली कमीज की हीनता में कह गए हों कि मुझसा बुरा न कोय ?
बुरा देखने की मेरी दृष्टि व्यापक कभी नहीं बनी|
अपनी संगत धासू लोगों के साथ न होना इसका बड़ा कारण रहा |
आज जमाने में धासू होने का मतलब किसी गाव का मुखिया हो जाना ,सरपंच चुन जाना ,मुनिस्पेलटी इलेक्शन में पार्षद बन जाना या शहरी इलाके में टपोरी गिरी करना से लगाया जा सकता है |
ये लोग फंड मेनेजमेंट का फंडा बखूबी जानते हैं |
किस काम में फंड है कहाँ नहीं .....ये काम की घोषणा के साथ ही केल्कुलेट कर लेते हैं |हर काम के लिए ये ‘अपने बुरे आदमी’ का इन्तिजाम रखे होते हैं |इनको अपने से ज्यादा बुरा आदमी देखने के लिए अपने घर की देहरी भी नहीं लांघनी पड़ती,|
उलटे ये जहाँ से गुजरते हैं बुरा आदमी इनके कदमो में लोट~लोट जाता है ,हुजुर हमे भूल गए का .....?कोई खता भई का हमसे ? ,जो हमसे काम नइ करवाने का मन बनाए फिर रहे हैं ...?
लो बुरे की सोचो, बुरा हाजिर |
देश के लिए ,तात्कालिक सेवा लो,और भूल जाओ कि तुम कभी बुरा ढूढने भी निकले थे |
छोटी~छोटी विसंगतियों पर लोग न जाने कैसे लम्बी लम्बी बहस कर लेते हैं ?
ताज्जुब होता है |
५० पैसे डीजल घट गया ,अखबारों में सुर्खियाँ ..|चमचे ...!.सरकार की नेक नियती के कसीदे पढने में देर नहीं लगाते |
सरकार की पीठ थपथपाने वाले ,चेनल के माध्यम से कयास लगाने लग जाते हैं| इससे हमारी इकानामी पर जबरदस्त असर पड़ेगा ,सब्जी के रेट परिवहन सस्ता होने पर गिरेगा ,रेलभाड़ा में कमी आयेगी ,सेंसेक्स में कमी देखेगी ,प्लाट के रेट सस्ते होंगे..... ,यानी हवाई किले के हजार मंसूबे ,जिसे जो सूझता है बाँध देते हैं |
उन्हें इकानामिक्स का एक भी सिद्धांत का पता नहीं होता |कामन सेन्स वाले सिद्धांत भी कोसो दूर होते है |भाईसा, ... होता तो ये है कि एक बार जिन चीजों के दाम आसमान छू लिए , वे धरती पर लौटने की बजाय त्रिशंकु हो के उपर ही उपर रहते हैं |
कोई माई का लाल या ‘माइक पकड़ा हुआ लाल’ भी उसे वापस नहीं ला सकता |अब ऐसे नासमझों को क्या अक्ल दें ...?माथा ठोक लेते हैं |
हम समझे बैठे थे तीन बार मेट्रिक फेल होंने से हमारे दिमाग की बत्तियां गुल हैं ,हमी निपट देहाती ,ढपोरशंख बुरे केटेगरी के हैं |
मगर यहाँ तो लगता है ‘दिमाग वालों’ का पूरा ‘पावर हाउस’ ही उड़ा हुआ है....?
आज के युग में खुद पे इल्जाम लगाने का न फैशन है, न रिवाज , अत: दावे के साथ हम खुद नहीं कहते.......
बुरा जो देखन मै चला,............,बुरा न मिलिया कोय ,जो दिल खोजा आपनो, मुझसा बुरा न कोय ........
***
सुशील यादव
खुलती हुई कलई
बात उन दिनों की है जब बर्तन ताम्बे या पीतल के हुआ करते थे |इन बर्तनों को धोने –सम्हालने या रख –रखाव में परेशानियों के कारण अक्सर इनमें कलई करवा लिया जाता था |
कलाई करने वाला मोहल्ले-मोहल्ले जा कर अपनी सेवायें देने के लिए आवाज लगाता ‘बर्तन कलई करा लो’”…….| गृहणियां घर से बर्तन निकाल लाती |कलई करने वाला बिना नगद लिए पीपे –भर कोयला के बदले , बर्तन चमका देता |हम बच्चे घेर कर कलई करने वाले का चमकदार जादू देखते रहते |
अब वो कारीगर लुप्त हो गए |कलइ करने-कराने का ज़माना लद गया |स्टील के चमकीले बर्तनों ने वो पुराना ज़माना पीछे छोड़ दिया |
पाठक जी को जब भी कोई पुराना इतिहास बताओ, तो वे इसमे कुछ न कुछ जोड़ देते हैं |उनकी बातो से लगता है कि ,उन्हें पूरे शहर के इतिहास की एवं शहर के तमाम भूले –बिसरे लोगों की मौखिक जानकारी है|
पाठक जी की ,शनीचरी बाजार में हार्डवेयर लाइन में एक छोटी सी हार्डवेयर की दूकान है| वे बताते हैं कि कल्लू-कलई उनकी दूकान से ही जस्ता –सीसा या कलई करने का दीगर सामान ले जाता था | कलइ किए जाने का धंधा जब से मंद हुआ कल्लू का लोप होने लगा, मगर दुआ-सलाम बनी रही |
पाठक जी बताते हैं कि कल्लू जब भी किसी बहाने संपर्क में आता, अपना प्रोगेस रिपोर्ट जरुर बताता|
कल्लू अपनी कलई पाठक के सामने बेखौफ खोलता कि कैसे कलाई करते –करते जमाँ हुए कोयले को,शुरू –शुरू में इस्त्री करने वालों को बेचता रहा|कोयले के काम में ज्यादा रम जाने की वजह से ,धीरे-धीरे हुए जमे-जमाए ग्राहको के सुझाव दिए जाने पर कब कोयला-टाल का मालिक और कब कोल-माइनिग के ट्रांसपोर्ट धंधे में लग गया , पता नहीं चला ?
शुरू-शुरू में ट्रांसपोर्ट धंधे में बहुत परेशानी आई ,ट्रक का परिमट लेना ,उसे कोयला माफिया –यूनियन से पास करवाना,जंगल-माइनिग इलाके से ट्रक निकालना कोई आसान काम नहीं था |जगह –जगह रोडे ,जगह –जगह चढावा |
कल्लू –कलई , चढाने की कला में माहिर उस्ताद था ,पर एक दिन जब उसके ट्रक की बिना-वजह जब्ती बन गई तो वह फनफना गया |आफिसों-अफसरों के चक्कर लगाते-लगाते इतना घिस गया कि उसे लगा अब इन अधिकारियों पर कलइ चढाने की नौबत आ गई है |
कलई चढाने से पहले जैसे बर्तन को गरम करने की जरूरत होती है वैसे ही कल्लू ने गर्मागर्म बहस कर अफसरों को तपा दिया |
किसी दफ्तर का नाम भर ले दो,कल्लू वहाँ के पूरे बाबू से अफसर की कुंडली बखान कर देने में माहिर होते गया |
उसे अब कलई उतारने के खेल में मजा आने लगा |
एक शिष्टाचार सप्ताह ....
नत्थू ,रोनी सी सूरत लिए मेरे पास आया ,मैंने पूछा, क्या परजाई जी से खटपट हो गई है.....?
.....वो, .....,आप तो अन्तर्यामी है प्रभु, के भाव लिए ....’सही पकडे हैं’ के अंदाज में मेरे निकट कालीन पर बैठ गया |
मैंने कहा वत्स ....सविस्तार बयान करो ,बेखौफ कहो ....पत्नी की चढ़ी त्योरी को ध्यान में लाओगे तो सब कुछ ‘भीतर धरा’ रह जायगा |
यहाँ मै ‘प्रभु’ की भूमिका में खुद को रखकर टी वी से मिले अधकचरे धर्म ज्ञान की पोटली में से कुछ निकाल के, उसको देने की प्रक्रिया में लग जाता हूँ |.
यों तो ......”भीतर धरा रह जाएगा” ,केवल इस एक वाक्य के तहत पोथी भर का ज्ञान दिया जा सकता है परन्तु इसके लिए समय और सुपात्र की तलाश करनी पड़ेगी ,हर लाईट सब्जेक्ट पर ज्ञान को लुटाना लिटरेरी ठीक भी नहीं ......?
मेरी जगह दूसरा भी होवे तो, इस लाभ को दुल्लत्ती मारने की बेवकूफी नहीं कर सकता |
‘पत्नी-प्रताड़ित’ कम लोग ही खुल कर बयान देते देखे गए हैं|मन-मसोस कर रहने वाले घुटते- घुट जायेंगे, मगर जी से पत्नी के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटा पाने में, एक अघोषित-शर्मिन्दगी से दो-चार होते रहते हैं |
मगर नत्थू के साथ ऐसा नहीं था |उसका अडिग विश्वास मुझ पर था, कि इधर की बात उधर करने वाला ‘वायरस’ मुझमे नहीं है |
बोलो भी,चुप रहना था तो ,मेरा समय खराब करने काहे चले आये .....?
उसने, धरावाहिक ‘सास-बहु सीरियल’ में से , बहु वाला पार्ट रिलीज किया |
आपकी परजाई, पिछले कुछ दिनों से,अखबार में सोने के भाव कम होने की खबर क्या पढ़ रही है ,हाय-तौबा मचाये रहती है .....|
नत्थू जी,सिम्पल सी बात है ,आप अखबार लेना बंद काहे नहीं करवा देते ....?
आप भी.... सर जी .....? अखबार बंद करवाने से रोग मिटाता तो मिटा लेते ,ये टी वी और उनकी सहेलियों के व्हाट्स ऐप और सोशियल मीडिया का क्या करे.... पल-पल की खबरें ब्रेकिंग-न्यज माफिक चलाते फिरते हैं |
बीस-तीस रूपये दाम भी सोने के , गिरते-बढ़ते हैं, तो आफिस में मोबाइल घनघना दे हैं |बोलो सोने में बीस-तीस मायने रखता है भला .....?
आफिस से थके-हारे जो वापस आओ, तो चाय काफी के पहले ‘सराफा’ के उठाए चढाव पर तप्सरा चालु हो जाता है |
किस बहनजी के घर कितना ग्राम,.कितना तोला आया ,उन्हें एक-एक माशा-रत्ती का हिसाब मालुम होता है |
वे हमसे मुखातिब कहती हैं , मालुम .....शर्मा जी के यहाँ पुरषोंत्तम मॉस के बाद,किलो के हिसाब से खरीदा जाने वाला है, ऐसा अपनी कालोनी की लेडीज क्लब में चर्चा है .....?
मै साश्चर्य पूछता हूँ .....साले की नम्बर दो की कमाई अब छलकने को आई ....|
मुझे बताना कब खरीदने वाले हैं ......ऐ सी बी .....वालो का रेड डलवा दूंगा .....?शरीफों की बस्ती में,तमीज नहीं है , रहने चले हैं ...नंबर दो वाले .....|
ये ल्लो ...आपको सही बात बताओ तो मिर्ची लग जाती है|जिनके पास है ,भाव गिरे तो हम आप कौन हैं रोकने वाले .....?
दूसरों के साथ लड़ने-भिड़ने की जुगाड़ चौबीसों घंटे लगाये रहते हैं आप |कहे देती हूँ ऐसे बहाने से मै डिगने वाली नहीं......?शादी के बाद एक रत्ती भर लिवाये हो तो कहो ....आपको जब भी बोलो कान की दिला दो,हाथ की खरीदो ,गला सूना लगता है ....तो अपनी शेरो शायरी में घुस जाते हो .....कहे देती हूँ सब आग में झोक दूंगी .....एक दिन ....बहुत हो गया देखेगे-देखेगे की सुनते ....|
सर जी ,पानी तो बादल फटने जैसा सर से उप्पर होने को है ...आपके पास ,’सोना नहीं खरीदने के हजार बहाने’; जैसी कोई किताब हो तो बताओ.....
नत्थू जी ,गृहस्थी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पति का स्वर्ण-दान समारोह भी समय-समय पर होते रहना चहिये....समझदार पति इसे इन्कार करके कभी सुखी नहीं रह सकता ....|खैर ये सब तो सक्षम पति के चोचले हैं|तुम्हारे साथ अभी पत्नी-जिद से निपटने वाली समस्या का निदान होना पहली प्राथमिकता है ....?बोलो ऐसा ही है या ......
ठीक है ,दोनों तरफ देखते हैं .....|
तुमने परजाई से पूछा कितनी रकम है....?
हाँ पूछ देखा.... हमने कहा पैसे निकालो.... ,तो कहने लगी रकम,पैसा, तनखा कभी हाथ में दिए जो हिसाब मांग रहे हो ....?ठनठन गोपाल रखा है .....?आज तक मेरी हर ख्वाहिश मायके से पूरी होते रही .....होश है आपको .....?
जितने गिनवा के लाए थे, उसका चौथाई भी चढाये होते तो पाँव-आध किलो बदन पर फबते रहता ....|चार लोगो में शान से उठती-बैठती....... |
सर जी उनके मायका पुराण चालु हो जाने के बाद मेरे पास डिफेंसिव शाट खेलने के अलावा कोई दूसरा विकल्प बचता नहीं ....?
सर दर्द,आफिस में ज्यादा काम ,थकावट जैसे आम-आदमी वाले बहाने सूझते हैं |
डाईनिग टेबल पर रखी दवाइयों के डिब्बे से एक-आध गोली दिखाने के नाम पर यूँ ही गटक लेता हूँ |
मेरे तरफ से घोषित मौन पर, युद्ध-विराम पर, रात, दस बजे समझौता-वार्ता की पहल के तहत खिचडी परसी जाती है मै चुपचाप खा के सो जाता हूँ .....|
नत्थू जी , नारी-हठ का गंभीर मामला है|
ये सोना जो है ना ,युगों से अपना खेल खेलते आया है |सीता मैय्या भी स्वर्ण मोह से बच नहीं सकी थी ,उनने न केवल अपने लिए, वरन अपने पति के लिए भी विपत्ति को बुलावा भेज दी |
न प्रभु स्वर्ण-मृग के पीछे भागे होते,न रावण सीता-मैय्या को उठा ले गए होते |खैर वे सब तो जैसे-तैसे मार-काट के निपट लिए ...अभी समस्या आपकी है .....?
कितनी रकम है आपके खाते में .....?उधर ख्वाहिश किस चीज की हो रही है ....?कितने तक आ जाएगी .......?
सर जी, डिमांड पाच-तोले की है ,लगभग डेढ़ लाख तक आ जायेगी ....|मै चाहता हूँ वो अपनी चादर की हैसियत से पांव फैलाना जाने ......
ऐसा करो, तुम्हारी कार की सेकंड हेंड वेल्यु भी इतनी ही होगी, उसे मेरे गैराज में डाल दो ,कहना कि हार के लिए बेच दी....|पैसा दो तीन दिनों में मिलेगा ,फिर हार ले लेगे ....|
और हाँ ...कल से शिष्टाचार सप्ताह मनाना शुरू कर दो .....?
मतलब .....?
मतलब ये कि खाने में एक-आध रोटी कम कर दो|रात को आफिस का काम फैला लो |सुबह मार्निग वाक् चले जाओ ,अगर घूमना पसंद नही तो सौ कदम दूर, चाय की दूकान में बैठ के अखबार पढ़ के वापस चल दो ......आफिस मोटर सायकल से आने जाने लगो .....एक जी तोड़ के चाहने वाले धासु पति की छवि बनेगी जो बीबी की इच्छाओं के पीछे अपने तन-मन-धन को जी जान से लगाये देये जा रहा है .....
सर जी,..... इन सबसे होगा क्या .....?
वो सारी...... कहके आगे-पीछे चक्कर लगाएगी .... जिद करेगी ,कार वापस ले आओ ....बिना कार के नाक कटती है .....जी .....|जब पैसे आ जायेगे, नेकलेस की तब सोच्चेंगे ......|
भाई नत्थू ,,,,मेरे इस सुझाव को अमल में लाने के बाद संकट टल गया की मुद्रा में निश्चिन्त मत हो जाना ....|
वैसे, परजाई जी, का हक़ बनता है ,कहो तो आज ही किसी ज्वेलरी शाप चलें ,कल सोने का कहीं भाव न बढ़ जाएँ ....?
कार और ज्वेलरी दोनों पाके,उधर से अगाध प्रेम उमड़ेगा.... ,उसकी साक्षी बनने मै चाय पर जरुर आउंगा ,तब तुम्हारी काबलियत की तारीफ करके, सोने में सुहागा कर दूंगा ....
चमक किस-किस की दुगनी होती है ....देखें .......
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
विलक्षण प्रतिभा के 'लोकल' धनी
यूँ तो राष्ट्रीय अंतर-राष्ट्रीय प्रतिभाएं अनेकों विद्यमान हैं ।
अपने- अपने फील्ड के महारथियों ने अपने-अपने इलाके में धूम-धडाका भी जबरदस्त किया होगा, परन्तु जिन लोगों ने किसी फील्ड में ‘जुगाड़’ की इजाद की उन्हें भूलना, उनके प्रति असहिष्णुता है ।हम इतने गये-बीते नहीं की उनको याद न करें ।
सबसे पहले मुहल्ले के नुक्कड़ में दस बाई दस के कमरे में अस्त-व्यस्त कबाड़-बिखरे सामान के साथ दिमागे-दुरुस्त में जो कौधता है, वो है ‘अर्जुन सोनी’ ....।इन्हें पिछले ४० सालों से इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रानिक्स की दुनिया में व्यस्त देखा हूँ ।दिल्ली मेड रेडियो ,टेप ,रिकार्ड प्लेयर और बाद में टी वी ,वी. सी .आर. के किसी भी माडल और मेक को सुधारने का जबर्दस्त दम और हुनर उसके पास है ।मुहल्ले का ऐसा कोई एंटीना नहीं था , जिसे बिना उसकी जानकारी के किसी ने फिट करवाया हो | उसे रिपेयरिंग के काम में परफेक्शन, जरुरी की हद तक, पसंद होने के चक्कर में, ग्राहकों को महीनों घुमा देता ।
जहाँ लोग टरकाऊ छाप कम करके लाखों पीट लिए,अफसोस वहां ये आर्कमिडीज 'यूरेका' की खोज में समय से पहले बुढापा बुला बैठा ।
दूसरा , एक समय था जब अपने शहर में जुए-सट्टे का जबरदस्त चलन था ।इसी लत में आकंठ व्यस्त रहने वाले जिस इंसान का जिक्र कर रहा हूँ ,वो है सुनील 'चोरहा'।उस्का नाम सुनील श्रीवास्तव था ,'चोरहा' खिताब उसकी उठाईगिरी प्रवित्ति के खुलासा होने के कारण खुद ब खुद बाद में लोगो ने जोड़ दिया ।उन दिनों सायकिलों को किराया में दे कर चलवाने का धंधा जोरों पर होता था | नये-नये सायकल स्टोर खुलते थे ।पचीस-पचास नई सायकलें किराए से दे दी जाती थी ।
सुनील की 'माडस-ओपेरेंडी' यूँ थी, कि आपने जिस स्टोर से सायकल उठायी ,वो भी किराए पर वहीं से सायकल ले लेता ।वो आपके गंतव्य का पीछा करता | आपका जहाँ सायकल लाक करके किसी होटल या दूकान में घुसना होता , वो अपनी सायकल आसपास रखकर 'मास्टर की' से खोल के , आपकी सायकल पार कर देता । पकड़े जाने पर सफाई के लिए , एक ही स्टोर की हुबहू सायकल में, शिनाख्ती भूल का हवाला देकर बचने की भरपूर एल्बी या गुजाइश होती थी ।घर आकर इत्मीनान से सिर्फ सायकल के मडगार्ड को जिसमे सायकल स्टोर का नाम नम्बर होता , बदल कर औने पौने कीमत में बेच देता ।बदले मडगार्ड को नदी तालाब के हवाले कर देता |सायकल की धडाधड होती चोरियों ने, लोगों को चौकन्ना कर दिया।तमाम सायकल स्टोर के किराया-रजिस्टर में वारदात के दिनों की एंट्री की जाँच हुई |सूत्र सिवाय एक श्रीवास्तव सरनेम कामन मिलने के, अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा ।पुलिस ने स्टोर मालिको को चौकन्ना कर दिया कि किराए पर सायकल उठाने वालों के नाम को गौर से चेहरा देख लिखा जावे ।इसी के बूते अपने श्रीवास्तव जी ,जो मोहल्ले से दूर के किसी सायकल स्टोर में, जहाँ कभी रोहन- सोहन नाम के साथ श्रीवास्तव उठा लेता था , किसी दिन रोहन की जगह श्रीवास्तव सरनेम के साथ सोहन लिखवा बैठा| उसकी चोरी की दुनिया की अक्लमंदी में मंदी शुरू हो गई ।सबूत के अभाव में वह छोट तो गया मगर लोग उसे इलाके में देख भर ले अपनी-अपनी सौकल से चिपक जाने लगे |
तीसरा चरित्र उन दिनों के ख्यातनाम कवि और अदब से ताल्लुक रखने वालों से बावस्ता है |इनमे से कुछ अब दिवंगत हैं|,उन सब की रूह जन्नत में आराम नशीं हो |आमीन |
कवी महोदय , नई पौध के लेखन को प्रोत्साहन के नाम पर नुक्कड़ के किसी चाय के टपरे में मजमा लगाए रहते थे |खाली समय व्यतीत करने के लिए, उनकी जन्दगी में, ताश और जुआ, शगल आदत और मजबूरी का मिला-जुला, दखल रखता था |यूँ कहें जब ताश नहीं तो बस शायरी, गजब का विरोधाभास लिए उस इंसान को हम लोगों ने जीते हुए देखा है |
उनकी शायरी का जबरदस्त लोहा मानने वालों में दो तीन नाम याद हैं| एक नत्थू साहू व्यंगकार ,दूसरा कौशल कुमार उभरता गीतकार ,तीसरा राम चरण कहानी कार ....|आगे चल के ये लोग कुछ बने या नहीं पता नहीं चला |
नत्थू उन दिनों सेवादार की भूमिका होता |’गुरुजी’,इस आदरणीय संबोधन से बात शुरू करता | इस गणेश उत्सव ,और नव-रात्री की जबरदस्त तैय्यारी करवा दीजिये बस |दस बीस कवी- सम्मेल्लन निपटाने लायक तगादा मसाला हो अपने पास |मजा आ जाएगा |आपने शायद किसी कवी के मुह से ये बात न सुनी हो तो अटपटा लग सकता है|जाने भी दो |
गुरुजी घर में ख़ास आपके लिए चिकन बनवाया है ,कहते हुए पुराने अखबार रखकर टिफिन सजाने लगता |मुर्गे की टांग के साथ, शेर कहते हुए गुरुजी को देखके, नत्थू धन्य हो जाता |उसी टांग खिचाई में गुरुजी अपनी किसी पुरानी रचना को यूँ सुनाते जैसे मुर्गे की प्रेरणा से इस रचना का सद्य निसरण हुआ है |मुर्गा-प्रेरित रचना को नत्थू नोट करके अपनी डायरी को धन्य कर लेता |दस-पन्द्रह मुर्गों की बलि से नत्थू का कवि-सम्मलेन भारी वाहवाही की उचाई को छू लेता |अखिल भारतीय स्तर के एक कवी-स्म्मेल्लन का जिक्र कई बार उनके मुह से सुना है |गुरुजी क्या भीड़ थी ,खचाखच ,अपन ने ”इतने हम बदनाम हो गए” वाली रचना सुनाई| क्या दाद मिला गुरूजी कह नहीं सकते |’माया रानी’ जो ख्याति लब्ध मानती थी सन्न रह गई |यहाँ तक कि लोगों ने हूट करके अगले दौर में बिठा तक दिया |
उन दिनों , लाइव टेलीकास्ट और सेल्फी युग नहीं था वरना नथ्थू के छा जाने वाली बात की तस्दीक हो जाती|
खैर यूँ गुरु-चेले की निभती रही| नत्थू की दुकानदारी को देख के कई नौसिखिये इस मौसम के उपयोग हेतु आने लगे |गुरुजी बाकायदा दस-दस रुपयों की बोली में रचनाएँ बाँटते| जिसे नव-लेखक उत्साह से दूर दराज के गाँव में जाकर पढ़ते |चूँकि गुरुजी शहर से बाहर कभी निकल के कभी कविता पाठ नहीं किये थे अत: उनकी सख्त मनाही थी, कि दुर्ग-शहरी क्षेत्र में कोई रचना न पढ़ी जावे |मूल लेखक के उजागर हो जाने का खतरा है |अगर इस इलाके में पढना है तो बाकायदा ताजी रचना लिखवाना | लोग ख़ास मौको पर ताजी रचना भी गुरुजी का मूड बना-बना कर हलाल करने लगे |
एक दिन हमने गुरुजी से यूँ ही पूछ लिया आप जानते हैं ,आप साहित्य को बदनाम करने लगे हैं |वो कहते जब पेट की आग धधकती है तो ये मान के चलो ,कोई नज्म ,गजल या कविता आग बुझाने नहीं आयेगी |केवल रोटी से ही ये आग बुझेगी |नौकरी पेशा तो हम हैं नहीं कैसे चल-चला पाते हैं,हमी को पता है |वैसे भी आजकल, मानो साहित्य मर सा गया है ,इसका स्तर कितना गिरने लगा है |मुझे मालुम है ये जिस सम्मेलन में जाते हैं मुश्किल से इन्हें सुना जाता होगा| लतीफे-बाज, चुटकुले-बाज मंच छोड़ते नहीं|चिपके रहते हैं |उनका अपना ग्रुप होता है |तू मुझे बुला मै तुझे बुलाउंगा | जब ये चुटकुले-बाज पी के धुत्त होकर पढने लायक नहीं होते तब हमारे साहित्यिक रचना की बारी आती है |
कुछ विद्रोही रचनाओं को अखबार में .पत्रिका में छापने वाले भी, सरकारी विज्ञापन कट जाने के भय से दरकिनार कर देते हैं |सर पटक लो वे नहीं छापते |
ऐसे में साहित्य का कहाँ से सर उठाये और साहित्यकार किस बूते जिए.....? बताओ ......?
ये लोग जो हमारा लिखा पढ़ रहे हैं, उसे किसी समय हमने उत्साह से लिखा था| चलो , किसी बहाने लोगो तक अपनी रचना पहुच तो रही है ....यही संतोष है ......|उनकी बेचारगी मुझे झझकोर कर रख दी| उनकी आत्मा को प्रभु शांति दे .....
उनका गमगीन चेहरा, इन शब्दों के साथ जब भी मुझे याद आता है ,मुझे साहित्य से यक-ब-यक अरुचि और विरक्ति सी होने लगती है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२० //१०.०२.१६
व्यंग,....... सुशील यादव ......
अधर्मी लोगों का धर्म-संकट
धर्म-संकट की घड़ी बहुत ही सात्विक, धार्मिक,अहिसावादी और कभी-कभी समाजवादी लोगों को आये-दिन आते रहती है |धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है |
यूँ तो मैंने अपने घर में केवल बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ |’
बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ,ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई | अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के करीब ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती |
मेरे जानकार लोग आ कर राय-मशवरा कर लेते हैं |
शर्मा जी ने कुत्ता पाला ,प्यार से उस दबंग का नाम ‘सल्लू’ रखा |दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि सलमान से भी तुलना किये जाने के काबिल था तो शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते |
रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते |उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के स्वत: हो गया था ,इस मजबूरी के चलते किसी ने उसे सलाह डी कि एरे गैरों पर लुटाने में बाद में वे लोग ज्यादा की इच्छा रखते हैं और खून –मर्डर तक करने से नहीं चूकते |बेहतर हो कि आप कोई मूक बेजुबान मगर गुराने भौकने वाल जीव कुत्ता पाल लो |इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज पाए जाते हैं |बी पी टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी होते हैं यी दावा विदेशों के खोजकर्ताओं ने अपनी रिपूर्त में दिए हैं |इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से सल्लू को खरीद लाये |कुत्ता ,डागी फिर सल्लू बनते बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर सेवारत है |
एक वे बाम्हन उपर से सल्लू की डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?
ये तो इस संकट की महज शुरुआत थी,उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज डबल मार करता था |
शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा अपने आँगन और लान तक सीमित रहेगा | मगर दागी कह देने मात्र से कुत्ते-लोग नस्ल विरासत को त्यागते नहीं| सूघने के माहिर होते हैं| उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता |शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले महराज ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही छापा दल की कार्यवाही होगी| वे सल्लू की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे |वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिद्काने का भाव जागृत करता,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद या ज्वेलरी को बिना देरी किये हटा लेते |शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सल्लू की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते |महाराज के बताये तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता |पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते| वे अपने क्लाइंट को महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात करने और लेन-देन का आग्रह करते|
शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है |शर्मा जी नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत सल्लू को भेजते |नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर श्रीवास्तव जी की लाइन में सल्लू को, सड़क किनारे निपटवा देते|श्रीवास्तव जी बहुत कोफ्ताते ,वे दबी जुबान नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते| वह मुहफट तपाक से कह देता कि सल्लू को गन्दी और केवल गंदी जगह में निपटने की आदत है| इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं नहीं है |सल्लू भी इस बात की हामी में गुर्रा देता |श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते |किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत बात, बॉस के कानो तक पहुचती तो वे आफिस में अलग गुर्राते |बाद में कंसोल भी करते कि,देखिये श्रीवास्तव जी आप तो जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते |श्रीवास्तव जी का ‘सल्लू’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था |
“सल्लू साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?
सल्लू की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते |कहते कि सल्लू अकेले बोर हो जाएगा |
सबेरे के वाक् में सल्लू और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से खीचते, नजर आती थी|
पता नहीं चलता था, कौन किसके कमाड में है ?
जब किसी पर ‘सल्लू’ गुर्राता, तो लोगों को शर्मा जी बाकायदा आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है |
वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?
वे दुविधा यानी धर्म-संकट में दिखे ...|बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जा रहे थे |
मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?
वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...|मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं |किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है| तुमको पांच साल पहले, कुर्सी सौप के सेवा से निवृत हुए थे |
सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है |हमारा सल्लू १४-१५ साल का हो गया| सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था |हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है |अब बीमार सा रहता है |कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता |पैर में फाजिल हो गया है चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है |शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा आये |जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया |फ़ायदा नहीं दिखा |
मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे ,किसी सगे को केंसर हो गया हो| बस दिन गिनने की देर है |उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया | सल्लू के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते |आजकल वो नानवेज छूता नहीं |उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे नान वेज खाने लग गए थे| अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन हप्तो से नहीं बना |
एक तरह से,वेज खाते-खाते सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं |पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?मेरे सामने वफादारी का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था |
वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे| मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”
“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी .....?
ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में मैंने कहा ,शर्मा जी ,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हो”, उनको सोच के, परमात्मा से ‘सल्लू’ के लिए बस दुआ ही माग सकते हैं |
मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया | पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता सामने रखने को कहा |नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से आग्रह किया, कुछ खा लें | वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए |
महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये, शर्मा जी को सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था|वे फ्रोजन चिकन खरीद रहे थे| मुझे लगा वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सल्लू’ की तेरहीं भी कर डाली हो |
मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये,
बाहर निकल आया |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
५.२.१६
सठियाये हुओ का बसंत .....
सठियाने की एक उम्र होती है।
बुढढा सठिया गया है कहने मात्र से किसी पुल्लिंग के साठ क्रास किये जाने की जानकारी ही नहीं मिलती, वरन कुछ हद तक उसके सनकी हो जाने,या दिमाग के 'वन बी. एच. के छाप ' हो जाने का अंदाजा भी होने लगता है ।
मै आम आदमी के तजुर्बे की बात कह रहा हूँ ।'राजनीती के धुरंधरों' को इस रचना-परिधि से दूर रखता हूँ क्यों कि इने-गिनो को छोड़ , वे आजीवन नहीं सठियाते ।
अपनी कालोनी में रिटायर्ड लोगो का ठलुआ-क्लब है।बसंत में उनकी खिली-बाछों को देखने का लुफ्त आसानी से पार्क में सुबहो-शाम उठाया जा सकता है |आठ -दस को मै बहुत करीब से जानता हूँ । शर्मा ,चक्रवर्ती, राणा ,सक्सेना ,दुबे ,असगर अली ,भिड़े,सुब्बाराव, ये लोग जब मिलते हैं तो करेंट-टापिक पर इनकी तपसरा या टिप्पणी से , बसंत में खिले हुए सैकड़ों फूलो का एहसास होता है।
राणा की बल्ले-बल्ले में दिल्ली ,चक्रवर्ती बंगाल ,शर्मा हरियाणा असगर अली यू पी दुबे बिहार ,भिड़े महाराष्ट्र,सुब्बाराव जी साउथ सम्हालते हैं ।रात को देखे हुए न्यज या सुबह की अखबारों की कतरन ही उनके बीच आपस में तू -तू, मै-मै करने का इन्तिजाम करवा देता है ।
दिल्ली वाले ने छेड़ दिया कि ये 'मफलर-बाबा' को किसी ने समझाइश दे दी है कि दिल्ली की बेशुमार गाड़ियों में हवा ही हवा है ,इसी को लेकर ,आगे वे दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने की मुहीम में योजनारत हैं। सप्ताह में एक दिन सब गाड़ियों की हवा निकाल दी जावे तो इससे वातावरण को हवा मिल जायेगी ।यदि कहीं लोगों के बीच से अल्टरनेट आड- इवन के फार्मूला का सुझाव आता है तो उस पर भी गौर किया जा सकता है ।
राणा जी के उदघोष पर पार्क के बुजुर्गों की सामूहिक हो- हो से पार्क गुजायमान हो गया ।कुछ आदतन छीछालेदर करने वाले , धीरे- धीरे इसके अंदरुनी पहलू की काट-छांट में, अपनी पुश्तैनी आदत के अनुसार लग गये ।
अपने इधर एक परंपरा है,तथ्य और तर्क के पेंदे को उल्ट के देखना हम जरुरी समझते हैं ।
इस पुनीत परंपरा के निर्वाह में लोग घुसते रहे । जानते नइ ! आड-इवन के फार्मूले में जनता को कितनी तकलीफ हुई थी। जिनके घरों में दो आड या दो इवन की गाड़ियाँ थी, वे बेचारे बेबस हो गए थे।इमरजेंसी में किसी को हास्पिटल ले जाने की नौबत आई तो पडौसियो ने कह दिया,भाई साहब हमारे मिस्टर खुद कार शेयर करके गये हैं ।हम लोग जिनसे शेयर-बंध हैं उनसे शेयर-धर्म तो निभाना पड़ता है ।आप हमारे पूल में होते तो आफिस टाइम में एडजस्ट कर लेते ।यही जवाब आम है ।
आदनी को इन दिनों 'पूल' में होना जरुरी हो गया है ।
राज्ञीतिक लोग इसे 'गुट' सामाजिक लोग 'पार' और गुंडे मवाली 'गेंग' कहते है।साहित्यिक बिरादरी में भी यह आम है ,तू मेरी फिकर कर मै तेरी सुध लेता हूँ ।
इस पूल, गुट, पार, गेग में होने के अलग-अलग फायदे हैं।आपकी नैया सहज पार लगती है ,इलेक्शन टिकट की गैरंटी होती है ,ब्याह-मंगनी में सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार घर-वर मिलते हैं और गेंग के रुतबे के क्या कहने ‘भाई’ का नाम लेते ही सब काम, हुकुम मेरे आका की तर्ज पर तुरंत हो जाते हैं ।
चलो बुढाऊ लोगों के दुसरे सत्र की बात देखे ...
भाई साब ये गलत बात है ,आप वोट अलग तर्ज पर मांगते हो और वाहवाही बटोरने के लिए अलग फार्मूला ले आते हो ,कहाँ की शराफत है .....? अरे दूबे जी आप वहीँ अटक गए वो टापिक तो सुबह ख़त्म हो गया था |
बुढउ लोगों के दिमाग की केतली से,दफ्तर के प्यून से लेकर बराक ओबामा तक सबकुछ गर्मागर्म बाहर निकलता है ।
एक न्यूज की कतरन दिखाता है ,देखो साला है तो महज चपरासी मगर एक करोड़ की नगदी ,गहना ,बेनामी संपत्ति ,कार और जमीन के कागज मिले हैं ।
पीछे से , हामी देने वाला कहता है,ये हाल चपरासी का है तो साहब की पूछोइ मत। साहब लोगों की कोई खबर ले तो इनसे सौ गुना ज्यादा की रेकव्हरी की जा सकती है ।
वे लोग जब तक ,भारतीय अर्थ व्यवस्था पर अपने आक्रोश जी खोल के व्यक्त करते तब तक ,बिरादरी के कुछ लोग बहाने से खिसकने लगे | खिसके हुओं के, जाने के बाद बातों का गेयर व्यक्तिगत आक्षेप पर चलने लगता है ।जनाब क्या खा के फेस करेंगे ,अपने जमाने में नंबर-दो का इनने कम नहीं कमाया है ।चुपचाप खिसक लिए ।कुछ विरोध दर्ज कराते हुए कहते हैं ,हमे अपनों के बीच ये सब नहीं कहना चाहिए।सब अपनी अपनी तकदीर का खाते हैं ।पीछे जो हुआ सो हुआ आगे की बात करे.|ये कभी पकडे ही नहीं गए तो हम आप बेकार ल्कीअर क्यों पीत रहे हैं |
आप तो हमेशा उनका पक्ष लेते हैं ,और लें भी क्यों नही .....?
.देखिये शर्मा जी ,हम कुछ बोल नहीं रहे इसके माने ये नहीं की हमे कुछ मालुम नहीं ।अगर शुरू हो गये तो .....?
बीच -बचाव बाद, करीब-करीब हुडदंगी हडकंप में तब्दील हो जाने वाली सभा समाप्त हो जाती है ।
ऐसे मौको में ,दो-चार दिन कुछ लोग खिचे-खिचे देखेगे| ये अघोषित तथ्य है |
शर्मा जी , जिनका बचाव कर रहे थे वो शख्श , भनक लगते ही आगबबुला हो गए |वे उस दिन के प्रखर वक्ता के तत्कालिक विरोध में उनके घर की ओर रुख किये ।उस नाचीज पर अपने राजनीतिक प्रभाव यानी गुट का वास्ता देने लगे ।हम आपसी बिरादरी होने की वजह से,तुम्हारे सामाजिक पहलुओं को पंचर करना भी खूब जानते हैं | उन्हें सामाजिल तौर पर तिरस्कृत करने का संकल्प गाली गलौज की मुद्रा में उठा लेते हैं ।अगर इससे भी आइन्दा बाज न आयें तो चेतावनी है ,मवाली- कुत्ते से कटवाया नहीं तो कहान्ना |उस दिन इस सरे-आम चेलेंज ने बुधु पार्टी से एक मेंबर खो दिया |
बरसों तक पार्क में मिल जुल के रहने वाले बुढढो की, जाते समय की मिल- जुल कर की जाने वाली योग की खोखली हंसी आजकल नदारद है ।
शायद अब पतझड़ के बाद मौसम के मिजाज में तब्दीली आये ......?
सुशील यादव
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बातों का आतंकवाद .....
हमारे देश में टी वी युग के आरंभ से एक नए आतंकवाद का जन्म हो गया है, वो है ‘बातों का आतंकवाद’ ....|
चेनल वाले बड़-बोलों का, पेनल बना के रोज-रोज नया तमाशा परोसने में लगे हैं |अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में भड़काऊ वाद-विवाद आये दिन जनतांत्रिक देश में, तांत्रिक रूपी एंकर द्वारा चीख-चीख कर कहा जाता है कि ‘चैन से सोना है तो जाग जाओ’......?ये कैसी जागृति का ढिढोरा है ....?जो जनता के कान खाए जा रही है |शायद ही इतना विस्फोटक और विनाशकारी ‘वार्ता-बम’ किसी भी देश के, मीडिया-वालों के हाथ अब तक लग पाया हो जो अपने यहाँ रोज विस्फोटित होते रहता है |
दुश्मनी भाजने में इन चेंल्बाजों का कोई सानी नहीं|सब एकतरफा एक सुर में हमला बोलते हैं |जिस किसी का ये गुणगान कर दें उन्हें देश की गद्दी पकड़ा के दम लेते हैं |एक बार हादी चढाने का तजुर्बा हो गया तो प्रयोग दुहराया जाने लगा |
पर दिल्ली बिहार राज्य के मामले में,उनकी हांडी दुबारा चढाने की बस हसरत ही रह गई |उन्होंने अपनी तरफ से , भरपूर कोशिश की मगर जनता को बना-मना नहीं पाये |
पुराने जमाने में , इस ‘बातूनी आतंकवाद’ का अंडर करंट, सामन्ती-राजसी व्यवस्था में देखने को मिलता था |किसी जगह राजा ,कहीं मालगुजार कहीं का सूबेदार तो कहीं सूदखोर बनिया जमात की बातें ‘दबंगई’ लिए होती थी |उनका कहा एक मायने में, कानून या फतवा से कम नहीं आंका जाता था |
जनता को इनका सामना करने के बाद मुक्ति मिल जाती रही हो, ऐसा भी नहीं था |वे इनके अलावा , दीगर आतताइयों से भी निपटते थे ,निपटते क्या थे अपने आप को पिटवाने के लिए परस देते थे |वे जाति के नाम, मजहब के नाम खुद को नोचवाने -खसोटवाने के लिए बाध्य होने की श्रेणी में गिने जाते थे |
उनकी डिक्शनरी में,या उनकी सोच में ,इन आकाओं के प्रति कभी कोई असहिष्णुता का भाव दूर दूर तक पैदा नहीं हुआ | ‘माई-बाप’ के लिए ,विद्रोह या बगावत की कभी सपने में भी सोचा जाना पाप की केटेगरी का हुआ करता था |वे दयनीय से दयनीय किसी हालात में भी गुजरे उनकी पत्नियों का मनोबल कभी टूटता सा नहीं दिखा करता |अपने पतियों के सामने कभी मुह नहीं खोलने वाली स्त्रियाँ, घर या गाँव छोड़ के जाने की बात कभी कर या कह भी नहीं पाती थी ....?
अब हालात बदले हैं |अच्छी बात है कि आज आप, जी-भर के किसी को भी कोस सकते हैं |किसी को इस मुल्क में रहने या उसका तंबू उखाड़ने की बात क्र सकते हैं |किसी को तमाचा जड़ने के लिए खुलेआम इनाम इकराम की व्यवस्था किया जा सकता है |किसी टार्गेट को उसके बयान और गतिविधियों के इतिहास का बखान करके, कालिख पोतने और पोछने की राजनैतिक कवायद की जा सकती है |एक से एक बोल-बचन,चेनल के माध्यम से हाईलाईट हुआ करते हैं |सुबह अखबार की सुर्ख़ियों में कमजोर दिल वाले पढ़ कर दुआ मनाते हैं कि फिलहाल आंच उन तक नहीं पहुच पाई है |
मान हानि के दावे , यदि फिफ्टी परसेंट केस में ‘बुक’ होने लगे तो फरियाद में लगने वाले कागज़ की पूर्ती हेतु एक इंडस्ट्री लग सकती है |टाइपिस्ट की इफरात मांग बढ़ सकती है ,नौकरी के नये सेक्टर बन सकते हैं |लेपटाप की बिक्री जोर पकड़ सकती है| तरफदारी करने वाले हिमायती, या विरोध पक्ष के वकीलों का अकाल पड सकता है |
दरअसल ,इस देश में “लघु शंकाओं का निवारण” ठीक से नहीं हो पा रहा है |सरकार सोचती है की एयर- कंडीशन-शौचालय बना देने से बात बन जाएगी |वे गलत हैं |ये लघुशंका, किडनी उत्सर्जित ताज्य अवशेषों का नहीं है,वरन , जनता की दिमाग उत्सर्जित विष्ठा है |इसे हटाने के लिए,फकत चार पेनलिस्टबीच अपना एक प्रवक्ता मात्र , टी वी में बिठा देने से मामला बनने की जगह बिगड़ता दिखता है |ये लोग ताबड़तोड़ बातों की गोलियां, स्टेनगन माफिक चलाने लग जाते हैं |इन्हें कोई भी टापिक दे दो, ये सभी इस मुस्तैदी से डट जाते हैं कि सालुशन केवल उनकी बात में है |ये कभी किसी बलात्कारी संत का बचाव करते दीखते हैं तो कभी मांस के नाम पर मारे गए व्यक्ति के, हत्यारों की पैरवी कर डालते हैं |ये लोग अपने फैब्रिकेटेड-आंकड़ों पर महीनों बहस बेवजह करवा लेते हैं कि, अमुक पार्टी क्लीन स्वीप कर रही है, जबकि परिणाम एकदम विपरीत आता है |यानी जिसका ये दम भरे होते हैं, वही धाराशायी हुआ दिखता है |टी आर पी का खेल गजब का है .....?
जनता बेचारी इडियट बाक्स के एक और आतंक से रूबरू हो रही है ,वो है इनका बाजार भाव में अपनी टाग घुसेड़ना |
होता ये है कि जो अनाज- सब्जी आपके स्थानीय बाजार में कम कीमतों में मिल रही होती है, एक बार दिल्ली की कीमत सुनते ही अपने-आप उछल जाती है |आप बाजार में टमाटर बीस रुपये किलो में तुलवा रहे हैं, तभी दूकानदार की टी व्ही में, अस्सी रूपये किलो का एलान होता है ,दूकानदार वापस अपनी तौल खीच लेता है |कभी दालें सत्तर-अस्सी रूपये किलो की हुआ करती थी ,इनकी बातों ने कीमतों में जहर घोल दिया |ये लोग ,बकायदा रिपोर्ट दिखा देते हैं, फलाने स्टेट में इस साल कम बारिश के चलते दलहन तिलहन फसल चौपट होने के आसार हैं,लो बढ़ गए दाम |
कभी-कभी तो यूँ भी लगता है,कि किसी सटोरिये-लाबी वालों की चल रही है वे इधर स्टाक जमा किये, उधर दाम बढ़ने की बात कह दी |
सरकार कहाँ होती है या कहाँ सोती है......पता नहीं चलता ?
किसी को सुध लेने की जरूरत नहीं महसूस होती |
जनता बेचारी तंग आ के मन बहलाव् की दीगर खबरों में, अपनी (अल्प) बुद्धि खर्च करने में लग जाती हैं|
पसंद न हो तो, चेनल बदलने का अधिकार अभी सब के पास बरकरार है,यही काफी है .....| ........ .?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२० //२७.११.१५
आओ बच्चो तुम्हे दिखायें......
इस धर्मनिरपेक्ष देश के बूढ़े-अधबूढ़े बच्चो,
टी वी के, घटिया न्यूज से सठियाये बुजुर्गो ,
सास-बहू सीरियल से, घबराई माओं,बुआओ ,बहनों.....
कभी तफरी का जी करता होगा ....?
बेटे-बहू आपकी बुजुर्गियत पर पीठ-पीछे तंज कसते होंगे| आपको जानकार, जाने कैसा लगता हो .... |
आपके हलके-फुल्के टाइम-पास का, ‘पाप-कॉर्न’(पाप का कारण ) चलो ढूढ़ते हैं |
सबसे पहले ‘बच्चो’ ,ये बताना मेरा नैतिक धर्म बनता है कि आप अपनी परसी हुई थाली को गौर से देखें |ज्यादा चिकनाई तो नहीं है ....?चिकनाई सेहत के लिए हानिकर होता है |आपकी रोटी में घी मख्खन चुपड़े होने का सीधा-सीधा मतलब, कहीं आपके पेंशन को दान में मागे जाने की तय्यारी तो नहीं हो रही है |
बेटा या बहु का ड्रामा , आपके पोते-पोतियों के भविष्य’,या उनकी अच्छी शिक्षा का वास्ता देकर ,इस खजाने से आपको वंचित करने का, प्लान तो नहीं बना रहे हैं |या हो सकता है आपके फिक्स्ड डिपाजिट एकाउंट से कोई बड़ा अमाउंट हथियाने के चक्कर या फिराक में वे सेंध लगाने के चक्कर में हों |
यूँ, सुनने में बहुत अच्छा लगता है ,बाबूजी ,ये अपना मकान है न ,जर्जर ,खंडहर सा हो रहा है ,इस इलाके में अभी कीमत अच्छी मिल रही है |हो सकता है कल मेट्रो या सड़क चौडीकरण में अपना मकान फंस जाए , फिर तो इसके औने-पौने दाम ही मिलेंगे क्यूँ न इसे फटाफट निकालकर, सिविल लैंन की तरफ, फ्लेट ले लिया जाए ,यही आज के समय की अक्लमंदी हैं |वे आपको ,’कन्फयुज्ड’ करके रख देंगे |कहाँ आप बाड़े-नुमा, हवेली माफिक मकान के स्वामी, और कहाँ ‘थ्री बी एच के’ का दंदकता, कुंद सा मुर्गी खाना ....? वे अपने सुझाव के पक्ष में ,चार यार-दोस्तों का हवाला देते हैं कि कैसे सस्ते में सब लोग फ्लेट एप्रोच लगा-लगा के ‘कबाड़’ रहे हैं|अगर अभी चुक गए तो आने वाले दिनों में जिनके दाम निशित आसमा छूने वाले होगे |और आने वाली सात पीढियां पानी पी-पी के अपन को कोसेगी .....कहाँ दादा जी की ‘मति’ मारी गई थी |आपका ‘ब्रेनवाश’ बिना डिटर्जेंट के होने से, अब भगवान रोक्के तो रोके ....|वरना ,इस उम्र में सरेंडर करने का पहाला पाठ यहीं से शुरू हो जाता है |
अगर आपके पास इस कान से सुनो और दूसरी से निकाल दो की ‘प्रेकटीस’ तगड़ी है, जैसा अपनी पत्नी के साथ अमूमन करते रहे हैं ,तब तो आप उस मकान में बरसो टिके रह सकते हैं वरना लालच और दबाव के आगे आपको अपनी मर्जी के खिलाप घुटने टेकना ही पड़ेगा |
आपने, अपने सरकारी ओहदे में कितने फरमान जारी किये होगे ...कितनो का अनुपालंन होते पाया होगा |जिसने फरमान के माफिक नही किया उसके ‘ऐ सी आर’ ,रंगे होगे ,वे तब के दिन थे |हो सकता है कई मातहत घुटने टेकने को भी बाध्य हुए हों ,मगर वो सब आपका सरकारी रुतबा ,दबदबा था ,अब इन सब की कहीं पूछ नहीं | इन सरकारी ‘ठाठ के दिनों को’ गमछे में लपेट के कहीं बाहर टांग दो,इसी में भलाई है |इससे कम सठियाये तो दिखोगे..... |
आप दो-तीन बच्चो वाले बुजुर्ग हैं, तो आपके के साथ ,’बागबान’ टाइप का खेल-खेला जा सकता है |फ़िल्म बागबान के ट्रेलर को याद कर लो, किस्से का खुलासा आप ही आप हो जाएगा कि कैसे बुजुर्ग-दंपत्ति का करवा-चौथ, दिल दहलाने वाला दृश्य उपस्थित करता है |
हम तो कहते हैं ‘दुनिया के बुजुर्गो एक हो’........
कहने को तो ये कह लिए,मगर तत्काल दिमाग में आता है कि, ये एक हो के... क्या भाडं झोक सकते हैं ?
‘भाड झोकने’ का डिटेल आपको बताएं |’भाड’ एक मिटटी का बहुत बड़ा, ऊपर चौड़े मुह का तपेला होता है |लकड़ी की जलती भट्टी या तेज आंच की आग में, रखा जाता है|इसमें रेत को तपा कर गर्म करके ,भीगे,पर सुखाए चनो को फूटने के लिए डाला जाता है |यूँ समझिये पुराने जमाने की तंदूर भट्टी ....|इसे आपरेट करने वालों को भडभुन्जिये कहते हैं | हमे लगता है इतनी उम्र देखते ये काम इनके ‘बस’ का नहीं |वरना सबसे पुराना, कम लागत वाला बिना दिमाग खर्च किये चलाने वाला ,यही सीधा- सादा धंधा था |
चलो ,आपको और काम में लगाते हैं |थैला ले के बाजार जाने का सिस्टम, जिससे आपको चाय -सिगरेट के लिए , दो पैसों की आमदनी हो जाती थी, आजकल बड़े-बड़े शापिंग-माल ने छीन लिया है |बाकायदा बिल प्रिंट हो के हाथ में दे दिया जाता है,मसलन , घपले का कोई चांस नहीं |
एक टी वी है जो आपके बुढापे का सहारा है |इंटरनेट ,फेसबुक,मोबाइल को बहु के दिए सीमित सेन्क्शंड बजट में चलाना होता है |
तो बच्चो ,यही टी वी आपको,समय समय पर , ‘तिहाड़-दर्शन’ करवाता है ,जहाँ फर्जी-डिग्री वाले अन्दर जाते दिखते हैं |ये आपको सात-समुंदर दूर, ‘लमो’ के पास भी ले जाता है जो सात सौ करोड़ के घपले-घोटाले की वजह से अपने देश के ‘इ डी’ तांत्रिकों द्वारा ढूढा जा रहा है,|दुनिया उनसे मिल लेती है मगर ‘न्याय’ की देखरेख करने वालों की, नजर नहीं जाती |ये वही लोग होते हैं, जिसका साथ, आपके वोट पर चुने हुए, आपके जन प्रतिनिधि,देते नजर आते हैं|
अपने कानों पर कलयुग में विश्वास कर लेना भी संदेहास्पद है |एक राज्य है ,पत्रकार की मौत का मुआवजा दे रही है,उसके मंत्री पर ,मरते हुए पत्रकार का बयान उसे मौत का जिम्मेदार ठहरा रहां है ,मंत्री को ढूढने में पुलिस मुहकमा अजीब सी सुस्ती में काम कर रहा है ,आम-जन का कानून अलग, मंत्री का कानून मानो अलग..... |
अब मंत्रियों को शपथ लेते हुए हूँ भी दिखाया जाना चाहिए ,मै इश्वर की शपथ लेता हूँ कि अगर किसी काण्ड में मेरा लिप्त होना आरोपित हुआ तो ,अविलंब पदत्याग करुगा |यदि ऐसा न कर सका तो भगोड़ा होने की दशा में मेरी सारी संपत्ति जो इलेक्शन लड़ते समय बताई गई है जब्त कर ली जावे |मै शपथ पूर्वक कहता हूँ की मेरी डिग्री के दस्तावेज फर्जी नहीं है |मुझपर बलात्कार ,चोरी ,खून डकैती के कोई आरोप नहीं है और न ही किसी अदालत में मेरी पेशी,इन आरोपी के तौर पर चल रही है |
आपने, योग-उत्सव का, तमाशा बतौर अलग आनन्द लिया होगा |अपने भी हाथ पैर इधर उधर जरुर फेके-फटकाए होंगे|चार बुजुर्ग मिलकर,आप लोगों ने लानत भी भेजा होगा..... क्या जरूरत थी इतना खर्चा करने की....... |ये लोग जनता के पैसों से, अपना वोट बेंक बढाने की ‘शाजिश’ को नए- नये नाम और लेबल देते रहते हैं |वाह री दुनिया ....इंसान में कितनी चालाकी भर दी है | इनके थिंक-टेंक को इनाम-शिनाम का इन्तिजाम भी हो जाए ,गुजरने से पहले वो भी देख लें |
.....और बुजुर्ग बच्चो .....!, आपने देखा ,अपने पी-एम् सतत लगे हुए हैं ,बाहर देशों के दौरे पर दौरे मार रहे हैं ,अभी जगह-जगह काला-धन ‘सूघने’ का प्रयास जारी है,जरूरत पड़ी तो ,छापा बाद में मारेंगे ,वे अपने प्रयास में सफल हो तो ,थोड़ा अपना जी इधर भी हल्का हो जाए .....?
सुशील यादव
ज़रा मन की किवडिया खोल ......
आप फेल तो हुए होंगे ,रायचन्दों का तांता लग जाता है |गलतियां गिनाने वाले हर गली मोहल्ले में रोक रोक के अपनी राय जाहिर करते हैं | पीठ पीछे वाले भी होते हैं, जो आपको छोड़ते नहीं |वे जनमत में यह फैलाते हैं की काश वे आपकी माने होते तो ये दुर्दिन देखने की नौबत उन्हें आई नहीं होती |
क्या कहूँ !
इन्हीं रायचन्दों में से मै भी एक हूँ |
बन्दा हाड माँस का जीव है और खुदा के रहमो करम ने, इसे दिल दिमाग से भी नवाज दिया है |ये दैनिक अखबार और मीडिया में चकल्लस रूपी बकवास प्रसारण में, चार लोगों की चौपाल वाली किच किच भी सुन लेता है ,अत: इसे चुनाव का व्यवहारिक ज्ञान हो गया है |
यूँ कहे, जनता की नब्ज टटोलने की चुनावी बीमारी सी लग गई है |
वैसे तो रिजल्ट आने के बाद हर कोई एक्सपर्ट ओपिनियन के तहत यह बताने से नहीं चुकता की हमने तो पहले ही कहा था.............,वे माने ही नहीं ,वरना परिणाम दूसरा होता |
खैर ! बीत गई सो बात गई ,यानी बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुधि लेय.....|एक ट्रेन छूटने का गम न कर यहाँ हर घंटे में तेरे ‘मकसद गाव’ की ओर एक ट्रेन जाने को है |बस तू टिकट कटाए रख ,लपक के अगली में घुसने की कोशिश कर |बच्चा ,कामयाबी जरुर मिलेगी |
इतना जान ,अगली ट्रेन जो लगने वाली है ,वो धार्मिक यात्रा वालों की सात्विक ट्रेन है|
मुसाफिर भोले भाले हैं |
इनसे किसी भी प्रकार से असात्विक बातें न कर |मांस मटन से ये कोसों दूर रहते हैं |इन्हें लौटती ट्रेन का आरक्षण जरुर मिले,यह व्यवस्था कर , ये भगवान से तेरे लिए दुआ मांगेंगे |किसी स्टेशन में इनको चाय पिला के देख, भूखी जनता ,और परेशान पेसेंजर ज्यादा न मिले तो थोड़े से संतोष कर लेने के आदी पाए जाते हैं |
इस ट्रेन में मागने वाले गवईए,फेरी वाले,डुप्लीकेट माल बेचने वाले जगह जगह से चढ़ेंगे |इनकी सच्ची पहचान मुसाफिरों से करवा के, वाहवाही लूट |ये उघते हुए मुसाफिर, जिस जगह जाग गए ,तुझे शुभकामनाओं से साराबोर कर देंगे |
तुम इस डिब्बे में खिडकी के पास बैठे , उन्तालिस्वे नम्बर के बर्थ वाले, “तत्व ग्यानी” महाराज से नहीं टकराए, वरना वो ललाट देख कर ही बता दिए होते कि तुम आगामी चुनाव में अपनी पार्टी के प्रचारक की हैसियत से जगह जगह सैकड़ों भाषण सभाएं करोगे |तुम्हारी वाणी से एक ओर करोड़ों के दान की घोषणाएं होंगी तो दूसरी तरफ तुम्हारी जिव्हा से, मजहबी दंगा फसाद में मारे गए व्यक्ति के विषय में एक भी शब्द कई दिनों तक नहीं निकलेगा|
तुम गौ माता के सेवक बतौर अच्छे हो मगर इसे “फायदे की माता” समझना भूल होगी |तुम्हारी ‘महंगी दाल’ गलाने वाला आदमी तुमको ढूढने से भी नहीं मिलेगा |तुम कितना भी प्रेशर लगाओ ,कुकर की सीटी तो बोलेगी मगर अच्छा व्यंजन परोस नहीं पाओगे|
तुममे अहंकार की जो चिगारी थी, वो अब ज्वाला बन गई है |उसे ज्वालामुखी बनने से पेश्तर, तुरंत रोको |
अपने ढहते घर को सम्हालो, फिर दूसरों के रंग रोगन दीवाली को देखने बाहर निकालो|ग़रीबों के पैसों को बाहर लुटाने की बजाये, मरते किसानों को ढूढ़ निकालने वालों पर इनाम की घोषणा करो |
आर्थिक उपलब्धियां गिनाने की बजाय,उपजाऊ जमीन में आ रही गिरावट की समीक्षा हो |मेक इन इंडिया की जगह ग्रो इन इंडिया के लिए विदेशी मजदूर बुलवाओ, क्योकि एक रुपये में अनाज बाँट कर, आपने सभी मजदूरों को काम के लिए अपंग निक्कम्मा कर दिया है |
प्रचारक भाई ! खोल सको तो “मन की किवडिया” खोलो ,देर अभी भी नहीं हुई है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
दृष्टिकोण चांगला पाहिजे .....
वे प्रबुद्ध हैं |उन्हें देश की चिंता रहती है|
वैसे आजकल प्रबुद्ध कहाने का शार्टकट भी यही है कि, एक स्वस्थ आदमी देश के बारे में सोचें |
वैसे तो पर्यावरण वाले भी देश के मौसम ,मिजाज ,हरारत ,सर्दी की दिनरात सोचते रहते हैं,अनुमान लगाते रहते हैं , मगर उन्हें प्रबुद्ध की श्रेणी में इसलिए नहीं रख सकते कि वे ‘पेड़’ इम्प्लाई हैं |इसकी, नजर-खबर रखने की , वे तनखा पाते हैं |
बिना तनखा कमाए, जो देश की सोचे सो प्रबुद्ध .....|
पुराने जमाने में जनहित की सोच रखने वाले विरले मिलते थे |मगर जो मिलते थे वो एकदम सॉलिड .....|आंधी-तूफान से टक्कर लेने वाले......|
वे अधिक माथा-पच्ची नहीं करते थे |उनका ‘सब्जेक्ट- टार्गेट’ आजादी के इर्द-गिर्द घूमता था |उन महान लोगों को इस लेख परिधि से अलग रखते हुए, श्रधा सुमन अर्पित है |
अब आइये ,आजकल के चिंतन-मनन करने वालों की तरफ रुख करें |
इनकी तादात देखते-देखते इन दिनों करोड़ों से ऊपर की हो गई है|इनकी आबादी दिनों दिन बढ़ने-बढाने के पीछे, शोध पर पाया गया की ये सब मीडिया की नई उपज हैं |वार्तालाप की मंडी में, जगह-जगह उतर रहे हैं |
मार्निग वाक् वाले बुजुर्ग ,धोबी ,नाइ ,मोची ,ड्राइवर ,भिस्ती ,बावर्ची सभी करंट राजनीति के विश्लेषक बन गए हैं |
सरकारी मुहकमो में, एक चौथाई समय सरकार के कार्यकलापो और पिछली रात, इडियट बाक्स में दिखाए छम्मक छल्लो माँ ,कथित हत्यारिन माँ ,और पी एम ,सी एम संवाद में निकल जाता है |
जिसके पास बखान करने का ज्यादा मसाला होता है उसकी दिन भर के चाय-समोसे का इन्तिजाम पक्का हो जाता है |प्रवचन सुनाने वाला,श्रोता जमात और जजमान को देखकर गदगद रहता है |पूरे स्टाफ में प्रबुद्ध का खिताब धारी होना अलग मायने रखता है |
कुछ वे लोग भी हैं जो ,देश में गिरती अर्थ व्यवस्था पर मनन कर अपना वजन घटाए रहते हैं |सेंसेक्स नीचे चला जाता है तो रात भर बेचारे सो नहीं पाते|बच्ची,लड़की या बुजुर्ग महिला पर अमानुष कृत्य हो जाए तो खुद को अपराधी महसूस करते हैं |
झासा देकर कोई राजनीतिक दल मतदाताओं से वोट ऐठ लेता है, तो लुटा हुआ महसूस करते हैं |
भ्रस्टाचार उन्मूलन की मुहीम में उन्हें सबसे आगे रहने वाले जीव होने का दावा करते देखा जा सकता हैं |
वे महज निगेटिव सोच पालते तो, मुहाल्ले पडौस से उखड़ गए होते |उन्हें समय सापेक्ष पाला बदलने का भी खासा तजुर्बा रहता है |उनके किसी क्रियाकलापों से आप कांग्रेसी या संघी की मुहर नहीं लगा सकते |सफाई अभियान की बात हो तो चार झाड़ू के पैसे अपनी जेब से ढीली कर देते हैं |कलफदार कुरते-पैजामे में उनको देक्खकर लगता है, पूरे दिन की सफाई का श्रेय वही लूट ले जायेंगे |’आप’ की सीट दिल्ली में बढती है तो बाछे खिल जाती है |उन्हें प्रजातंत्र का अवतार पुरुष कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी |
उनका मत है कि,कोई प्रबुद्ध हो और देश के प्रति चिंता न रखे, ऐसे प्रबुद्धों को लानत है|वे दिन में ‘अमरवाणी’ बनाने लायक कई सूक्ति वाक्य बोल चुके होते हैं ,उनको मलाल रहता है कि कोई इन्हें नोट करने वाला आसपास नहीं रहता |
उनकी ‘चिंतामणी’ छवि मोहल्ला पड़ोस के स्तर पर भी गौर करने लायक है|किसी की भैस गुम जाए तो बाकायदा पडौस के गाव तक खोजने निकल पड़ते हैं,वहां के पञ्च सरपंच को आगाह करना ,इत्तिला देना पहली फुरसत का काम जानते हैं|बदले में उधर, चाय ,और राजनीतिक घुसपैठ की गुजाइश पैदा हो जाती है |
किसी परिचित की, कम दूध देती गाय का इलाज जब तक किसी वेटनरी डाक्टर से न करवा दे,वे अघोषित, अन्न जल त्यागे की श्रेणी में होते हैं |
वे अखबार में छपी, छोटी-छोटी खबरों से भी चिंता उठा लेते हैं|इसे उनका अखबार प्रेम कहें ,निठल्लापन कहे,काम-काजी बेटे-बहुओं द्वारा उपेक्षित बुढापा कहें या देश के प्रति बुझते दिए की टिमटिमाहट कहे ....?समझ नहीं आता ....बहरहाल वे छोटी-छोटी चिंताओं को लिए मन ही मन तलवार भांजते रहते हैं | कोफ्त में दीखते हैं .....|
मैंने एक दिन उनसे यू ही पूछ लिया ,ताऊ जी ये मोहल्ले भर का झमेला क्यूँ लिए रहते हैं ?
वे बोले ,सुकून मिलता है|दिल से बोझ उतरा हुआ सा महसूस होता है |
अगर मुहल्ले की न सोचूं तो देश हाबी हो जाता है ,और तुम तो जानते हो देश के बारे में इन दिनों सोचना कितना भयंकर सा काम है |अच्छा खासा आदमी अनिद्रा-रोगी बन जाए ...?
ताऊ जी को नये-नये हाबी बदलते भी देखा गया है|उसे ब्यान करने में लगता है की वे सठियाने लग गये हैं |एक दिन मार्निग वाक् के दौरान देखा कि गय्या की रस्सी पकड़े आ रहे हैं ...?हमने पूछा सुबह सुबह गौ माता को कहा लिए जा रहे हैं ....?वेटनरी अस्पताल तो अभी खुला न होगा |वे संजीदा हो के मेरी तरफ देखे ......तुम लोगों की नजर संकीर्ण क्यों हो गई है,वो जो सामने श्रीवास्तव जी अपने कुत्ते का पट्टा पकड़े हैं उन्हें माडर्न समझोगे ,हम जो अपनी गाय को चराने निकल गये तो आफत आन पड़ी ....?
मुझे बगले झाकने, और जल्दी खिसक लेने में एकबारगी बुद्धिमानी लगी |मेरे कदम वाक् से जागिग केटेगरी के कब हो गए ,पता न चला |
वे हाई-बी-पी वाले डिटेक्ट हो गए हैं ,उनके हित में डाक्टरों ने अनर्गल टी वी में प्रसारित समाचारों और आजकल दिखाए जा रहे बेकार की मुद्दों पर बहस से बचने की सख्त हिदायत दे रखी है |
वे मानने वालो में से हों मुझे नहीं लगता ......?
सुशील यादव
पत्नी की मिडिल क्लास ,’मंगल-परीक्षा’
आफिस से लौट कर जूते-मोज़े,खोलते हुए बेटर-हाफ को आवाज लगाया ,सुनती हो ......?
ये नासपिटो (नासा के पिटे हुए) ने हमारा सलेक्शन मंगल-ग्रह जाने के अभियान में कर लिया है |इसरो -बॉस ने हमें खुशखबरी सुनाते हुए मुबारकबाद दिया है ....|
पहले तो बीबी गर्व से साराबोर हुई ....|फिर आर्ट-विषय से एम. ए. पास के भेजे में, भूगोल और साइंस की मिली-जुली खिचडी, पक कर, कूकर-वाली लंबी सीटी बजी, तो यकायक ख्याल आया ,ये मंगल-गढ़ की बोल रहे हैं क्या .....?
उनने फिर स-अवाक पूछा.... क्या कहा ,,,,,मंगल-ग्रह यानी अन्तरिक्ष वाला ......? जाना है.....?
ये, अपने टीकमगढ़ से तो, करोडो मील की दूरी पर है, बतावे हैं ....?
हाँ ...करोड़ों मील दूर..... बिलकुल सही सुना है |लाखों की स्पीड वाला शटल भी, साल-भर में पहुचाता है |
तो बताओ आप ही को, काहे भेज रहे हैं ,आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे,होशियार सक्सेना जी ,श्रीवास्तव जी को कहे नहीं भेज रहे .......?
मैंने कहा, पगली उन लोगों का फील्ड अलग है| वे लोग पर्चेस में हैं ,श्रीवास्तव जी एकाउंट सम्हालते हैं ,वे लोग क्या करेंगे .... क्या कहती हो वो तुम्हारे मंगल गढ़ में?
तो आप कौन से खेत में मूली बोने जा रहे हैं ....?नासा वालो को ,आप जैसे भुल्लकड की क्या दरकार पड गई .?
हम वहां ‘एनालिस्ट’ हैं.....|.एनालिस्ट माने..... तुम्हे क्या समझाएं ...?.समझो हम लिक्विड-चीज में क्या- क्या, मिला-घुला है, इसकी जाँच करके बताते हैं ?
आप क्या जाँच करते होगे.....हमें शक होता है कोई आपकी कहे को मानते भी होंगे ....? हम जो फिछले दो माह से,दूधवाले को समझने समझाने की कह रहे हिन् उस पर तो जूं नहीं रेंगती , दूधवाला निपट पानी जैसा दूध दे के पूरे पैसे गिनवा ले जाता है |उसकी जाँच कभी आफिस में कर आते कि नहीं .....?
खैर छोड़ो.... मंगल गढ़ में क्या जंचवाना है, नाश पीटो को......
मैंने कहा ,तुम टाइम निकाल के, टी वी में सास बहु सीरियल के अलावा और कुछ भी देख लिया करो| ....कई दिनों से वे चिल्ला चिल्ला के बखान रहे हैं ....मंगल-ग्रह में पानी की खोज कर ली गई है|ये नासा वाले उसी पानी को,इस धरती में लाकर यहाँ जाँच-वाच करना चाहते हैं |वहां के पानी में, और यहाँ के पानी में क्या क्या समानता और असमानताये हैं ?
देखो उधर जा रहे हो तो, अपने घर के लिए भी एक ‘कुप्पी’ रख लेना |एक-एक चम्मच प्रसाद जैसे, मोहल्ले में और किटी वाली जतालाऊ औरतों में बाट दूंगी....?
क्या मतलब ....?
वैसे ही,जैसे लोग ‘गंगा-जी’ जाते हैं, तो अडौस-पडौस वाले बाटल में अपने लिए गंगाजल की फरमाइश कर देते हैं ....|
पगली !तुमने नासा-इसरो वालों को घास छिलने वाले घसियारों की केटेगरी में समझ रखा है ....?बहुत हुआ तो हम चोरी-छिपे, पेन के इंक को, उधर फेक के थोड़ा-बहुत तुम्हारे प्यार की खातिर ला सकेंगे ज्यादा की मत सोचना |आगे-पीछे सब देखना पड़ता है .... सी सी टी वी की जद में चौबीस घंटे रहना पड़ता है ,समझी .... |
लौकी,सेम-वेम के बीज तो, छोड़ के आ सकते हो......मंगल में बसने वाली पीढियां अपने बच्चो को कहेगी कि ये लौकी जो देख रहे हो साकू के पापा सालों पहले अपने साथ लाये थे ...?
ना ...... वो भी नहीं....?फिर वहां पानी मिलाने का क्या फ़ायदा
हमने समझा पानी मिल गया है तो फसलें भी उगेगी |
आपके दीगर जरूरत की चीजों का बंदोबस्त भी करना होगा ,आप तो एक चड्डी भी धो निचोड़ नही सकते पता नहीं उधर कैसे मेनेज करेंगे ....?कल से बैगेज तैय्यार करने में भिड़ती हूँ ...?कब जाना है ..आखिर ...?
चार छ: सेट ,कच्छा, बनियान, टाई,मोज़े सब नये लेने पड़ेंगे |घिसे-घिसे को चलाए जा रहे हैं ....?दो तीन जोडी शर्ट-पेंट भी कल माल से ले लेंगे| अभी उधर, फिफ्टी पर्सेट आफ का आफर चल रहा है |
मैंने कहा आराम से ,.....वे लोग तैय्यारी के लिए हप्ते भर का टाइम देते हैं|
आपको मठरी-खुर्मी बहुत पसंद है ,कल से जितना ले जाना है ,बनाए देती हूँ ...|
मैंने जोर देकर कहा वे लोग ये सब कुछ अलाऊ नहीं करते....|सब दस्त बीन में दाल देंगे ....?और हाँ .... वहा बाहर कहीं किसी को कुछ दिखाने का नहीं, बरमुडा ही काफी रहता है |हाँ ठंडी बहुत रहती है ..मगर .वे लोग उसका भी इन्तिजाम कर रखे होते हैं तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं |
वैसे डार्लिंग ! ये मेरा पहला टूर होगा जहाँ से तुम अपने लिए कुछ भी नहीं मंगवा सकती .....?
आप बीबी लोगों को नहीं जानते ....हम कुछ भी मंगवा सकती हैं ...|.कम से कम एकाध पत्थर, एडी घिसने ले लिए तो लेते ही आना|बड़े फक्र से किटी-बहनों को बता सकूंगी की मंगलग्रह के पत्थर से अपना रूप-रंग निखारती हूँ |
देखो अब, हप्ते दो हप्ते का मेहमान हूँ तुम्हारा ...!
.जी भर के खिलाओ-पिलाओ,प्यार-व्यार कर लो ..?
वो सकते में आ गई ...कैसी अशुभ बाते कहते हैं .....?बताओ वापस कब तक आना होगा ....?
शायद साल भर तो जाने का ही लगता है अब सोच लो ....
तो फिर आपको मै जाने नहीं दूगी ....भाड में जाए ऐसी नौकरी .....|पत्नी का भूगोल ज्ञान में अचानक भूकंप सा आने लगा जो धीरे-धीरे, सात-आठ डेसीबल की तरफ बढ़ने लगा |
बड़े साइंटिस्ट बने फिरते हैं नासा वाले, नाश पिटे ! मशीन काहे नहीं बना सकते ....?इतनी बड़ी-बड़ी खोज किया करते हैं ,एक छोटी सी ‘पानी-जांच मशीन’ बनाने के लिए कंजूसी क्यों कर रहे हैं .....?उनको हमारा ही मर्द दिखा.... जो आर्डर फार्मा रहे हैं ...?
और मै पूछती हूँ तुम कैसे मर्द हो जी ......?जो कोई भी आदेश पा के खुशी-खुशी चहकते घर में आकर उंची नाक करके अपनी बीबी को बहादुरी के किस्से बखान कर रहे हो ....?
मै कल सुबह ही, ‘झा अंकल’ से कहके आपके इसरो आर्डर को केसिल करवाने के लिए पी एम से बात करने को कहूंगी |अपने सांसद आड़े समय में काम न आये तो क्या फ़ायदा .....?मै तुम्हे किसी कीमत में मंगल ग्रह में जाने नहीं दूगी |
मुझे अनजाने ही अपनी बेटर हाफ का, बेटर वाला, यानी सती-सावित्री रूप का साक्षात दर्शन हो गया |
चुपचाप शर्ट की उपरी जेब से कोई बिल नुमा कागज़ निकाल के ........टुकडे-टुकड़े कर दिया और कहा लो ,मेरा जाना केंसिल ......|
इसरो बॉस को समझो मै कल मना लूंगा |हाँ नासा वालों का हर प्रोग्राम बेहद टॉप सीक्रेट होता है अडौस-पडौस में मेरे दौरे की चर्चा नहीं करना वरना लेने के देने पड सकते हैं ......
वो लजाते हुए बोली मुझे आप एकदम भोली समझे हैं क्या ....इतना दिमाग तो कम से कम है ही ....?
मै मुस्कुरा दिया ....
मुझे लगा इस फर्जी एहसान तले, मेडम ‘सावित्री’ को लाकर कम से कम कुछ दिनों के लिए अच्छा खाने- पीने और मस्ती का लाईट इन्तिजाम बखूबी कर लिया |
सुशील यादव
मन चंगा तो .....
एक बार संत रैदास के पास उसका दुखी मित्र आया,कहने लगा आज गंगा में स्नान करते समय उसका सोने की अंगूठी गिर गई |लाख ढूढने पर मिल नहीं सकी |संत रैदास ने पास में रखे कठौते (काष्ट के बड़े भगोने, जिसमे चमड़े को भिगो कर काम किया जाता था ) को उठा लाये , उसमे पानी भरा और अपने आगन्तुक मित्र से बोला ,चलो अपने हाथ को डुबाओ |मित्र की अंगूठी उस कठौते में थोड़ी देर हाथ घुमाने पर मिल गई |अब ये चमत्कार संत का था, कठौते का था,या चंगे मन का था, कहा नहीं जा सकता मगर तब से, ये कहावत जारी है “मन चंगा तो कठौते में गंगा”
आदमी के मन में अगर कहीं खोट नहीं है,असीमित आत्मसंतोष है, तो सीमित साधनों में भी उसे सब कुछ उपलब्ध हो सकता है |पाप धोने के लिए गंगा जाना जरुरी है, ये हिन्दू के अलावा किसी दूसरे मजहब में प्रचारित नहीं दीख पड़ती |
कठौते से, गंगा में खोए सोने का मिल जाना वास्तविकता के आसपास यूँ भी हो सकता है कि, संत-सखा को सोने से ज्यादा कीमती, रैदास के उपदेश लगे हों .....?वो उसी पे संतोष कर लौट गया हो .......पता नहीं......?
कई बार यूँ भी होता है की हम जिस चीज को गंवा बैठते हैं उससे ज्यादा हमें उस पर बोल-वचन सुनने को मिल जाते हैं |जो चला गया...... वापस कब आता है....?’आत्मा’ या ‘चीज’ के संबंध में सामान रूप से लागू हो जाता है |आदमी अपने धैर्य को मर्यादा में रहने की सीख यहीं से देना शुरू कर देता है |
सब्र की बाँध को टूटने से बचाने के लिए जरुरी है हम किसी संत की शरण में यदा-कदा झांक लें|
शहर के ,’मर्यादा- बार’ में अपने बगल की टेबल से पहले पेग का प्रवचन, एक इकानामिस्ट चतुर्वेदी की तरफ से जारी था |बगल में तीन चार नव-सिखिया,बिल्डर,वकील,नेता लेखक जमे बैठे थे |अपना उनसे केजुअल हाय-हेलो जैसा था|आमने-सामने पीने- पिलाने में दोनों पार्टी को कोई परहेज नहीं था |
वे दूसरे पेग में देश की सोचने पे उतारू हो गए |यार इस दिल्ली को बचाओ .....?
मफलर भाई क्या चाहता है आखिर ....?
दिल्ली के ‘कठौते’ पर काबिज हो गया है |
पूरी दिल्ली खंगाल लिया ,पता नहीं इनका क्या खोया है जो मिल नहीं रहा .....?
बेचारी जनता ने ६७ रत्नों से जडित कुर्सी से दी, इतनी इनायत कभी किसी पर नहीं की ....?
जनाब और दिखाओ ....और दिखाओ की रटी लगाए बैठे हैं.......?बिल्डर ने सिप लेते हुए कहा, .....है खुछ और दिखाने को नेता जी ,क्या कहते हो ....?
नेता ने, ‘बाबा जी का ठुल्लू’ वाला मुह बना कर, अपने ‘चखने’ पर बिजी हो गये |
वकील ने इकानामिस्ट से पूछा ,ये एल जी और केंद्र से काहे टकरा रहे हैं ......?
जनता से जो वादा किये उधर धियान काहे नहीं दे रहे बताव ....?
इकानामिस्ट ने अपनी बुजुर्गियत झाड़ते हुए कहा ,तुम लोगों को पालिटिक्स अभी सीखनी पड़ेगी |जनता से वादे निभाने के अपने दिन अलग से आते हैं|ये नहीं कि वादों के एजेंडे वाली कापी, शुरू-दिन से खोल बैठें |तुम लोगों ने एक्जाम तो खूब दिए होंगे,जुलाई से कभी पढने बैठ जाते थे क्या ....,?पढाई की तैय्यारी तभी होती है न .... जब एक्जाम के डेट सामने आ जाएँ |ये लोग भी तब कर लेगे|
ये लोग और किस पावर की बात कर रहे हैं .....?ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पुलिस पर कंट्रोल .....?लेखक ने सोचा तीसरी लेने के पहले उसे कुछ कह लेना चाहिए,वो जानता है....,दमदार वार्ता उसी की रहने वाली है ....|वो प्रबुद्ध है .....पिए-बिन पिए हरदम निचोड़ वाली बात कहता है ....
भाई सा ....देखो ये ‘पावर’ ‘कुत्ती’ चीज है,कुत्ती समझते हैं ना .... अच्छे-अच्छो का दिमाग खराब कर देती है|चुन के आ गए ,रुतबा नहीं है .....क्या ख़ाक कर लेंगे .....?
लेखक द्वारा भाई सा, को ‘भैसा’ बनाने में,दो ढाई पेग की ‘लिमिटेड’ जरूरत होती है|हाँ तो मैं क्या कह रहा था ‘भैसा’.... पावर न हो तो क्या अंडे छिल्वाओगे .....६७ लोगो के लीडर से ?
दो ,इनको भी मौक़ा ,करें ट्रांसफर ,बिठाए अपना आदमी ........’जरिया’ खुलने का ‘नजरिया’ साफ जब तक नहीं दिखेगा ये खंभा नोच डालेंगे ....?
ओय ,राइटर महराज ,ये ‘जरिया’ ,’नजरिया’ क्या लगा रखा है ,तू खुल के बोल नहीं पा रहा है आखिर चाहता क्या है बोलना ....,बिल्डर बोतल उसकी गिलास के मुहाने रख देता है .......|अरे यार मरवाओगे क्या ....चढ़ जायेगी .....|
चढती है तो चढ़ जाने दो राइटर जी ,पीने का मजा ही क्या, जब दिल की बात दिल में रह जाए ......?बोल क्या जरिया चाहिए ,ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पोलिस दहशत ....क्या लेगा दिल्ली के लिए ....?वे दिल्ली के मास्टर-प्लान बनाने में जुटे थे ......
मुझे लगा ,इनकी बातों का कुतुबमीनार अब-तब कहीं मुझ पर जोरो से न आन गिरे ....|
..मैं वेटर को आवाज देता हूँ ,ऐ सुनो .....बिल ले आओ फटाफट ......
.न जाने बियर मुझे एकाएक कसैला क्यों लगने लगा ......|
सुशील यादव
सवाल जो मुझसे नहीं पूछे गए .....
अच्छा हुआ ! मुझे किसी ने कोई पुरूस्कार से नहीं नवाजा ....|पुरूस्कार मिलता तो उस कहावत माफिक चोट लगती ,”बेटा न हो तो एक दुःख ,हो के मर जाए तो सौ दुख,और हो के निक्कमा,नकारा निकल जाए तो दुखों का अंबार नहीं” |
अपन इस आखिरी वाले बेटे की सोचें ,यदि पुरूस्कार मिला होता तो आज की परिस्तितियों में उसे वापस लौटाने की नैतिक या सामाजिक दायित्व के बोध से आत्मा में धिक्कार पैदा होती ....... लौटा ! .....लौटा ....! इस दुनिया में क्या ले के आया था ,नश्वर जहाँ से क्या ले के जाएगा .......जो सम्मान तुझे मिला था, वो तेरे अतीत के अनुभव का निचोड़ था ,आज वर्तमान में चारों ओर धर्म कुचला जा रहा है, विचारवानो की वाणी में ताले-जड़ने का उपक्रम हो रहा है ,समाज के कुलीन चेहरों पर कालिख मली जा रही है और तू है, कि तोले भर के सिक्के-नुमा पदक को टाँगे फिर रहा है ....जिस दस बाई पन्द्रह के कांच वाले फ्रेम में तेरे किये के, कशीदे कहे गए हैं उसमे अपनी पत्नी का फोटो जड़ दे |दीवार को साफ सुथरा रख ,आने-जाने वाले को जिस शान से उस फेम को पढवाता था उसके दिन लद गए |
तकाजा है,जब-तक पुरूस्कार के तमगे को गले से उतार नहीं देता, गले में कुछ फांसी-जैसा चुभता महसूस करता रहेगा |
अक्सर मुझे ये ख़्वाब आता है कि ‘अमुक जी’ के घर पत्रकार का छापा दल, टी वी वेन के साथ आ धमका है |
सी आई डी के खुरापाती ‘दया’ की लात से अमुक जी का कमजोर फाटक धराशायी हुआ पडा है |अमुक जी दुबके से, सहमे हुए कोने में कंपकपा रहे हैं |अमुक जी के साथ ,सवालों की बौछार का, लाइव टेलीकास्ट किया जाने वाला है |
“ये हैं अपने शहर के मशहूर साहित्यकार, अमुक जी ,इन्होने साहित्य जमात में वही मुकाम हासिल किया है, जो मुकाम शोले के भारी भरकम लेखको ने मिलकर हासिल किया था ,जी हाँ आप सलीम-जावेद का नाम कैसे भूल सकते हैं |उनकी लिखी कई पटकथाएं पुरूस्कार पाने के रिकार्ड तोड़ डाली हैं |हमारे अमुक जी इनसे कुछ मम नहीं ,इनको इतने पुरुस्कारों के बावजूद, आज आप जिस हाल में देख रहे हैं वो इनके पब्लिशर की देन है|वे इनकी रायल्टी नहीं चुकाते |कुछ इनकी रचनाओं के पूरे अधिकार मात्र चंद रुपयों में खरीदकर, भारी मुनाफा कमाए बैठे हैं |देखिये ,....हमारे अमुक जी के कमरे का पूरा ‘टांड’ पुरुस्कारों-ट्राफियों से अटा पड़ा है |मै केमरामेन को कहूंगा ज़रा इस टांड पर ज़ूम करे|
कौतूहलवश अमुक जी के घर में पहुचा ,अमुक जी , मुझे देखकर अपनी घबराहट से निजात पाए हुए दिखे |उनका मेरी तरफ देखना बिलकुल वैसा ही था जैसे पुलिस किसी निरपराध को सीखचों के हवाले कर दे तब कोई परिचित का दिख जाना यूँ लगता है की जमानत का इन्तिजाम हुआ ही समझो ...? एंकर की पैतरेबाजी शुरू हुई
अमुक जी इतने पुरुस्कारों को इकट्ठा करने में आपको कितने साल लगे ......?
मुझे पहले प्रश्न से ही एतराज हुआ मैंने इशारा किया ,वे कैमरा को ‘पाश मोड़’ में रख के घूरे, .... ये बीच में टोकने वाला कहाँ से आया ....?
अमुक जी ने परिचय करवाया ,यादव जी ! ....अपने अभिन्न पडौसी एवं मेरी रचनाओं के पहले पाठक हुआ करते हैं, लिहाजा मेरी पूरी साहित्यिक यात्रा के ये हमसफर हैं, जान लो....?बेहतर है आप मेरे से पूछे जाने वाले सवालों का जवाब इन्ही से ले लेवे ...|आप इंट्रो में ये खुलासा करके बता दीजिये कि मै देश दुर्दशा पर ‘मौन-व्रत’ धारण किये हुए हूँ |बीच-बीच में मै हामी भरता रहूंगा..... आप मुझ पर फोकस कर सकते हैं |
वे अपनी टी आर पी को तुरंत भांप कर केल्कुलेट कर लिए और मेरे मौन का एक इंट्रो फटाफट बना डाला ...|.तो ये हैं अमुक जी ,देश की वर्त्तमान व्यवस्था से छुब्ध साहित्यकार .....अभी मौनव्रत धारे हैं| उन्होंने लिखित में बताया कि उनके सवालों के जवाब उनके पडौसी जो उनकी साहित्यिक यात्रा के निकटदृष्टा हैं ,देगे ....
हाँ तो यादव जी ,ये बताइये अमुक जी साहित्य सेवा में कब से आये ....?
मैंने कहा ,यही कोई आठ-दस बरस की उम्र रही होगी ....दरअसल जिस पाठशाला में हम लोग पढ़ा करते थे अमुक जी हमसे दो दर्जा आगे थे |तब पाठशालाओं में गणेशोत्स्व होता था |गुरुजी अपनी स्क्रिप्ट पर नाटक खिलवाते थे |अपने अमुक जी उनकी चार लाइनों पर एक दो अपनी घुसेड देते थे |अच्छी होने पर माट सा लोग, कुछ नही बोल पाते थे |प्रोत्सान मिलते गया |दसवीं क्लास में उनको किसी समाजी संगठन द्वारा,अंतर-स्कूली, निबन्ध प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिला |तब से वे निरंतर अनवरत साहित्यिक झुकाव वाले हो गए |शहर की काव्य गोष्ठियां ,कविसम्मेलन सब में छाए रहने लगे |
क्या उन्होंने आजीविका के लिए कोई नौकरी वगैरा की .....?
जहाँ तक मेरी जानकारी है, वे एक प्राइवेट कालेज में लाइब्रेरी में ‘बुक लिफ्टर’ बतौर रख लिए गए |वहां उन्हें एक फ़ायदा यह हुआ कि लाइब्रेरी की तमाम साहित्यिक पुस्तको को पढ़ डाला |प्रमचंद ,मुक्तिबोध,निराला ,प्रसाद ,चतुरसेन शास्त्री ,विमलमित्र आदि नामी लेखको की छाप उनके मानस-पटल पर अंकित होते गई .....|
उनके लिखने के अंदाज में, दिनों-दिन निखार आते गया |तभी कालेज की लाइब्रेरी छात्र हिसा की शिकार हुई, और आग के हवाले कर दी गई|यूँ उनके आर्थिक पहलू का सहारा-समापन हो गया |उनके पास ऊँची कोई डिग्री नहीं थी लिहाजा अन्य काम न मिल पाया ,मगर उनके लिखने में कमी नहीं आई वे लिखते रहे और समान पुरूस्कार पाते रहे |स्तिथी यूँ भी हुई कि कभी कालिज का पढाई के नाम पर मुह नहीं देखे,पर उनके लिखे को कोर्स बुक में रखा जाने लगा |
एंकर , क्या आज वे अपने सम्मान या मै कहूंगा सम्मानों को लौटाने का कदम ,जैसा की अन्य ख्यातिनाम साहित्यकार उठा रहे हैं,अमुक जी भी उठाएंगे .....?
देखिये पुरूस्कार के नाम पर जो भी उनको देय राशि मिली थी, एक भी न बची |यहाँ गुजर-बसर के लाले पड़े रहते हैं |कभी-कभी, मै जब दौरे पर चल देता हूँ, तो कहना अच्छा नहीं होगा ,इनके खाने के भी लाले पड जाते हैं|मैंने अमुक जी से इस बाबत बहुत ही अंतर्मुखी जीव पाया है ,वे खुल के अपने साहित्य के सिवा और कहीं मुखरित नहीं होते |मैंने प्रसंगवश पिछले हप्ते,इसी बात की चर्चा की थी| वे बोले थे , ये सब मेरे किस काम के हैं....? रद्दी में बेचूं तो भी हफ्ते भर का राशन नहीं आ पायेगा ,जिसे जहाँ लौटाना हो लौटा दो .मेरे पास तो इन्हें ले जाकर कहीं देने या लौटाने के लिए ऑटो लायक पैसे भी नहीं ....देख लो ....
इत्तिफाकन आज आप लोग आ गए .....|मै अमुक जी का मुख्त्यार, आपको उन्ही के सामने, ये टांड भर, रखा पुरूस्कार वापस लौटाता हूँ ...अमुक जी ने अपनी सहमती में गर्दन झुला कर हामी कह दी |कैमरा ज़ूम हो के कभी अमुक जी की हामी में झूलती गर्दन दिखाता तो भी पुरुस्कारों से भरे हुए टांड .की तरफ चल देता ....
मै चाहता था, एंकर मुझसे निजी तौर पर पूछता ....आपने अमुक जी इतनी सेवा की ....आप अमुक जी की मुफलिसी को, साहित्य बिरादरी में प्रचारित करके, उनकी सहायता के लिए कुछ किया क्यों नहीं ....?
मै ये कहने वाला होता कि अमुक जी अपने संकोच को, अपनी असुविधा को, अपनी फटेहाली को जीना बर्दाश्त कर लेते हैं वे सहायता के नाम पर असहाय हो के मागते हुए दिखना नहीं चाहते ....?उनकी खुद्दारी है की अगर उसकी कलम में कभी ताकत रही होगी तो शासन उसे स्वयं आँक के मेरे पास आयेगा ...|
वे अक्सर ,मेरी अकिचंन से भेट या चढावे को , कभी संकोच या कभी उलाहना के साथ ग्रहण करते रहे हैं |
सर्दी में ठिठुरते,गरमी में झुलसते ,बरसात में, चुहते हुए कोठारी में, इस कोने से उस कोने भीगते हुए उसे करीब से मैंने देखा है |कागज़ का कोई कोरा पुर्जा थमा दो वे अविस्मर्णीय कोई चीज लिख कर रख देते हैं|
उनके जैसे बुद्दिजीवी का क्षरण,सहनशील आदमी का ह्रास या निरपेक्ष जीव का तिल-तिल मौत के मुह की ओर समाज के द्वारा धकेला जाना,या उपेक्षित किया जाना मुझसे कतई बर्दाश्त नहीं होता |
सुशील यादव
साधू न ही सर्वत्र ....
जैसे हर पहाड़ में माणिक, हरेक गज के मस्तक मोती, हर जंगल में चन्दन का पेड़ नहीं मिलता, वैसे ही हर कहीं साधू मिल जाए, संभव नहीं है |
वे जो साधू होने का स्वांग रचते हैं, विशुद्ध बनिए या याचक के बीच के जीव होते हैं |साधू का अपना घर-बार नहीं होता|घर नहीं होता इसलिए वे कहीं भी, रमता-जोगी के रोल में पाए जाते हैं |’बार’ नहीं होता इसलिए वे पीने की, अपनी खुद की व्यवस्था पर डिपेंड रहते हैं|
टुच्चे साधू, कभी-कभी ,जजमान की कन्याओं को ‘बार-बाला’ दृष्टि से देहने की हिमाकत कर लेते हैं |अपनी निगाह में उनको चढाये-बिठाए रखने की लोलुपता में नहीं करने लायक कृत्य कर बैठते हैं |
साधू का राजनीति-करण हो जाए, तो बल्ले-बल्ले हो जाता है | शराब-माफिया ,ठेका-परमिट के खेल से पैसा पीटते इन्हें देर नहीं लगती|रातों-रात आश्रम की जमीन में भव्य-महल खडा हो जाता है |लग्जरी-कारों का काफिला .नेशनल परमिट की बसे. आश्रम के पास की नजूल जमीनों में खड़ी होने लगती हैं |
देने-वाला जब भी देता, पूरा छप्पर फाड़ के देता, वाली कहावत का पीटने वाला डंका इनके हत्थे लग जाता है |
सर्वत्र नहीं मिलाने वाले, साधू की तलाश में मै बरसों से हूँ |
जंगलों में ,पहाड़ों पर ,गुफाओं में सैकड़ो लीटर पेट्रोल फुक कर ढूढ़ डाला |जबरदस्ती, कई साधुनुमा चेहरों के सामने हथेली रख कर भविष्य पढवाया| वे लोग आम तौर पर एक कामन वाक्य बोलते रहे, बच्चा तू सबका भला करता है मगर तेरा भला सोचने वाला कोई नहीं है|तेरे मन में ऊपर वाले के प्रति बहुत आस्था है |तू खाते पीते घर का चिराग है |मुझे लगता ,मेरे कपडे व गाडी को देख के वे सहज अनुमान में कह देते रहे होंगे | तेरे पार धन वैभव की कोई कमी नहीं तू हर किसी के मदद के लिए अपने आसपास की जगह में जाना जाता है |मै उनसे कहता ,बाबा मै एक सच्चे साधू की तलाश में भटक रहा हूँ मेरी कोई मदद करो .....?वे कहते अब तू हमारी शरण में आ गया तेरी तलाश पूरी हुई भक्त जन |
मुझे कभी लगता था कि एकाध साधू ,किसी दिन मुझे हातिमताई- नुमा आदमी समझ कर निर्देशित करेगा कि बच्चा यहाँ से हजारों मील दूर, सात समुन्दर पार, एक ‘मुल्क ऐ अदम’ है ,वहां हजारों साल से एक योगी ध्यान लगाए बैठा है जो भी उसके पास फटकता है वह अपनी तीसरी आँख से जान लेता है और या तो उसे भस्म कर देता है या उससे रीझ कर, खुश हो कर, इस संसार के सभी एशो आराम से नवाज देता है...... |
इस अज्ञात साधू के वचन से एक साथ दो छवियाँ मेरे सामने हटात उभरती है ,एक ओसामा दूसरा बगदादी .....|दोनों पहुचे साधू जमात के बिरादरी वाले लगते हैं |इनकी ध्यान मुद्रा में खलल डालने का मतलब है खुद को भस्म हो जाने के लिए पेश कर देना |और इनके कृपापात्र बनने का, भगनान न करे कोई नौबत आये ....चाहे लाख सुख आराम वाले घर मिले या , एयर-कंडीशन शौचालय में, कल्पना की उड़ान का अपशिष्ट, त्याग करने की व्यापक सुविधा हो|
वैसे दोनों संत समुंदर-पार हजारों मील दूर रहते हैं |
मै ‘कल्पना-बाबा’ से देशी-उपाय, बाबत आग्रह करता हूँ |कोई देशी- टाइप साधू जिसकी पहुच,आत्मा-परमात्मा तक भले न हो कम से कम परलोक सुधारने का नुस्खा या टिप ही दे दे |
‘कल्पना बाबा’ ने गूगल स्रोत पर विश्वास किया और आजमाया |बहुत खोज-ढूढ़ के बाद एक, त्रिगुण नाथ शास्त्री नामक गेरुआ वस्त्र धारी का संक्षिप्त परिचय मिला,
वे तीन गुणों के कारक कहे-समझे जाते थे पहला गुण वे निरामिष, निराहार ज्यूस पर टिके होने का दवा करते थे |दूसरा लगातार पांच इलेक्शन लाखों-मत के अंतर से जीतते रहे |वे अनेकों बार मंत्रिपद ठुकरा चुके थे |उनके पास आदमी को पढने की दिव्य शक्ति थी |
ऐसे दिव्य पुरुष के नजदीक फटकने का कोई सीधा-सरल उपाय सूझते न देख, हमने पत्रकार वाला चोला पहना |इस देश में यही एक सुविधा है कि, जब चाहे आप अपनी सुविधा के अनुसार अपना डील-डौल ,हील-हवाले चुन -बदल सकते हो |
मै एक माइक लिए उनके सामने था |
शास्त्री जी ,आप गृहस्थ-साधू के रूप में जाने जाते हैं ,आपमें आदमी को पढने की दिव्य शक्ति है ,आप इलेक्सन कभी नहीं हारते .....इन सब का कारण क्या है .....?
देखिये श्रीमान ...! आपने बहुत सारे प्रश्नों को एक साथ रख दिया है ,मै एक-एक कर के उत्तर देने का प्रयास करूंगा ...
जहाँ तक ‘आदमी को पढने’ की बात है, मै ज्यादा तो कुछ दावा नहीं करता बस मीडिया वाले यूँ ही उछाले बैठे हैं ,वैसे आपको सामने पा कर लगता है कि आप बहुत दिनों से किसी ‘ख़ास-आदमी’ की तलाश में भटक रहे हैं |मेरा मनोविज्ञान कहता है की आपको इस मोह-माया वाले संसार से कुछ लेने-देने का मोह भंग हो गया है |जिस व्यक्ति या वस्तु की आप बरसों से तलाश कर रहे हैं, उसे विलुप्त हुए तो सदियाँ बीत गई |इस मायावी संसार में ,भगवान पर सच्ची आस्था रखने वालों की अचानक कमी हो गई है, बस मजीरा-घंटी पीटने-हिलाने वाले, कुछ लोग बच गए हैं |मेरा इशारा तुम समझ गए होगे .....?
मै चकित हुआ, चकराया ! एकबारगी लगा क्या घाघ आदमी है, मगर दुसरे ही पल अपने गलत सिचार को विराम दे, उनके प्रति श्रधा के कई सुमन अपने आप खिल आये |
वे आगे कहने लगे ,जहाँ तक इलेक्शन जीतने का सवाल है ,मै अपने इलेक्शन-सभाओं में विरोधियों की जमकर तारीफ करता हूँ ,इनकी एक -एक खूबियों को जनता को गिनवाता हूँ, उनसे आग्रह करता हूँ कि, मुझसे सक्षम उम्मीदवार, वे लोग ही हैं| कृपया आप उनको चुन-कर .जिता लाइए| वे आपका भला करंगे |अकारण सारे वोट मुझ पर आ गिरते हैं |
आज नाली-सडक बनवा देने मात्र से जनता खुश होने वाली नहीं उन्हें मानसिक सुकून की तलाश है, जो गुंडा-मवाली किस्म का कैंडिडेट नहीं दे सकता इसलिए उनका झुकाव मेरी तरफ आप ही आप हो जाता है|
रही बात, मेरे गृहस्थ-साधु-रूपी छवि की, तो बतला दूं मै सेवागाम में पहले, अपने पिता जी के साथ सेवा-टहल में लगा रहता था |वहां के संस्कारों की अमित छवि है | आचार्य जी का, रहना, उठाना, बैठना पास से देखा है, सो वही दिलो दिमाग में काबिज है |
मुझे लगा मेरी तलाश लगभग ख़त्म हो चुकी है ,एक सच्चा साधू जरूरी नहीं कि वन-कंदराओं में भटकता फिरे ....उससे ,वो ज्यादा सच्चा है जो दुनियादारी में फंसकर भी बेदाग़ निष्कलंक रहे |
सुशील यादव
अधर्मी लोगों का धर्म-संकट व्यंग,....... सुशील यादव ......
धर्म-संकट की घड़ी बहुत ही सात्विक, धार्मिक,अहिसावादी और कभी-कभी समाजवादी लोगों को आये-दिन आते रहती है |धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है |
यूँ तो मैंने अपने घर में केवल बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ |’
बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ,ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई | अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के करीब ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती |
मेरे जानकार लोग आ कर राय-मशवरा कर लेते हैं |
शर्मा जी ने कुत्ता पाला ,प्यार से उस दबंग का नाम ‘सल्लू’ रखा |दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि सलमान से भी तुलना किये जाने के काबिल था तो शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते |
रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते |उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के स्वत: हो गया था ,इस मजबूरी के चलते किसी ने उसे सलाह डी कि एरे गैरों पर लुटाने में बाद में वे लोग ज्यादा की इच्छा रखते हैं और खून –मर्डर तक करने से नहीं चूकते |बेहतर हो कि आप कोई मूक बेजुबान मगर गुराने भौकने वाल जीव कुत्ता पाल लो |इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज पाए जाते हैं |बी पी टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी होते हैं यी दावा विदेशों के खोजकर्ताओं ने अपनी रिपूर्त में दिए हैं |इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से सल्लू को खरीद लाये |कुत्ता ,डागी फिर सल्लू बनते बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर सेवारत है |
एक वे बाम्हन उपर से सल्लू की डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?
ये तो इस संकट की महज शुरुआत थी,उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज डबल मार करता था |
शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा अपने आँगन और लान तक सीमित रहेगा | मगर दागी कह देने मात्र से कुत्ते-लोग नस्ल विरासत को त्यागते नहीं| सूघने के माहिर होते हैं| उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता |शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले महराज ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही छापा दल की कार्यवाही होगी| वे सल्लू की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे |वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिद्काने का भाव जागृत करता,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद या ज्वेलरी को बिना देरी किये हटा लेते |शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सल्लू की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते |महाराज के बताये तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता |पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते| वे अपने क्लाइंट को महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात करने और लेन-देन का आग्रह करते|
शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है |शर्मा जी नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत सल्लू को भेजते |नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर श्रीवास्तव जी की लाइन में सल्लू को, सड़क किनारे निपटवा देते|श्रीवास्तव जी बहुत कोफ्ताते ,वे दबी जुबान नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते| वह मुहफट तपाक से कह देता कि सल्लू को गन्दी और केवल गंदी जगह में निपटने की आदत है| इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं नहीं है |सल्लू भी इस बात की हामी में गुर्रा देता |श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते |किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत बात, बॉस के कानो तक पहुचती तो वे आफिस में अलग गुर्राते |बाद में कंसोल भी करते कि,देखिये श्रीवास्तव जी आप तो जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते |श्रीवास्तव जी का ‘सल्लू’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था |
“सल्लू साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?
सल्लू की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते |कहते कि सल्लू अकेले बोर हो जाएगा |
सबेरे के वाक् में सल्लू और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से खीचते, नजर आती थी|
पता नहीं चलता था, कौन किसके कमाड में है ?
जब किसी पर ‘सल्लू’ गुर्राता, तो लोगों को शर्मा जी बाकायदा आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है |
वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?
वे दुविधा यानी धर्म-संकट में दिखे. ..|बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जारहे थे | मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?
वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...|मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं |किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है| तुमको पांच साल पहले, कुर्सी सौप के सेवा से निवृत हुए थे |
सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है |हमारा सल्लू १४-१५ साल का हो गया| सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था |हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है |अब बीमार सा रहता है |कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता |पैर में फाजिल हो गया है चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है |शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा आये |जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया |फ़ायदा नहीं दिखा |
मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे ,किसी सगे को केंसर हो गया हो| बस दिन गिनने की देर है |उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया | सल्लू के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते |आजकल वो नानवेज छूता नहीं |उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे नान वेज खाने लग गए थे| अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन हप्तो से नहीं बना |
एक तरह से,वेज खाते-खाते सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं |पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?मेरे सामने वफादारी का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था |
वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे| मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”
“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी .....?
ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में मैंने कहा ,शर्मा जी ,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हो”, उनको सोच के, परमात्मा से ‘सल्लू’ के लिए बस दुआ ही माग सकते हैं |
मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया | पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता सामने रखने को कहा |नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से आग्रह किया, कुछ खा लें | वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए |
महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये, शर्मा जी को सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था|वे फ्रोजन चिकन खरीद रहे थे| मुझे लगा वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सल्लू’ की तेरहीं भी कर डाली हो |
मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये,
बाहर निकल आया |
सुशील यादव
हम आपके ‘डील’ में रहते हैं....
सूर्य-पुत्र कर्ण के बाद, आपने दूसरा दानी देखा है ....?
वे एक लाख पच्चीस हजार करोड़ ,दान में दे आये ....|
बिना योजना के, बिना प्लानिग के, बिना आगा पीछा देखे, दान देने वाले बहुत कम लोग इस धरती पर अवतार लेते हैं |
एक गरीब राज्य की भूमिका बांधी गई, और उस भूमिका में, देने वाले को बहाना मिल गया |
हम लोग स्टेशन में किसी भिखारी को आते देख मुह फिरा लेते हैं| कहीं कुछ देना न पड जाए के भाव हमारे दिल में बरबस उतर आता है, और वे हैं कि, बुला के देते हैं ,बोलो कितना चाहिए ,दस ,बीस ,पचास ,सौ ....फिर नोट की पूरी गडडी पकड़ा देते हैं ....|लेने वाला एक बार भौचक्क हो के मुह निहारता है .कहीं पगला तो नही गया .....?
अरे भाई वे पगलाए नहीं हैं, बस खुश हैं .....|बीबी के अनिश्चित काल के लिए मायके जाने को सेलीब्रेट कर रहे हैं |ये उनके खुश होने का स्टाइल है..... भला आप क्या कर लेंगे ....?
किसी को अगर एक सौ पच्चीस लाख करोड़ को डीजीटली लिखने को कहा जाए तो बन्दा फेल हो जाएगा ,अंदाजन ये रकम १२५,०००,०००००००००० जितनी होगी ....आकडे गलत हो तो पाठक सुधार के पढ़ लें, काहे कि इतनी बड़ी रकम अपनी नजर से कभी गुजरी नहीं और न ही कभी गुजरेगी ?
दुबारा इतनी रकम के नहीं दिखने की वजह पूछो तो बताये ......?
वो ये है कि वहां उनके पुराने प्रतिद्वंदी खेमे का राज है जिन्होंने पांच करोड़ के दान को लौटा दिया था |उनके जी में आया ,पांच ठुकराने वाले ,ले एक सौ पच्चीस लाख करोड़ ले .....?जी भर के कुलाचे मार .....फिर न कहना कि देने वाले ने कजुसी की ...
इस रकम को आप दिल्ली से बिहार तक हाथ ठेले से, चुनावी रैली की शक्ल में भिजवायें तो ,इलेक्शन के खत्म होते तक का समय, जरुर लगेगा |याद रहे, यहाँ स्कुल में पढाये जाने वाले काम ,घंटा, समय, मजदूरी को केल्कुलेट करने के लिए इकानामिस्टों और गणितज्ञो की सलाह लेनी पड़ेगी|सेक्युरिटी का जबरदस्त बन्दोबस्त, बिहार होने के नाते करना पड़ेगा | खाली, इस रकम को भिजवाने में ही गरीबों,इकानामिस्टों,गणित ज्ञाताओ,सिक्युरिटी जवानो और चेनल के रिपोर्टर को अच्छा खासा ‘मंनरेगा जाब’ मुहय्या हो जाएगा |
एक अच्छे शासक की तूती, इतने जोरो से बोलेगी कि पार्टी फंड से,इलेक्शन जीतने के बाबत एक पैसा खर्च करने की नौबत ही न आये|
अपोजीशन को यह एक सीख है, देखो तुम खजाना लुटाना नहीं जानते |सात पुस्तों तक बैठे-बैठे खाएं, इस हिसाब से जोड़े रहते हो, कौन आके खायेगा ....?
इस्तेमाल करो ....का वर्षा जब कृषि सुखानी ......?
उधर मुझे रकम पाने वालो की भी फिक्र है|वे इतनी बड़ी रकम रखेंगे कहाँ ....?
देने वाला एक दिन हिसाब लेने आयेगा ....बताओ क्या किये ....?
तुम हमे वो पुल दिखाओगे ,ब्रिज दिखाओगे ,सरकारी इमारत दिखाओ जिसे कहते हो कि भेजे हुए पैसो से नया बनवाया है......?आप जोड़ घटा के भी खर्च न कर पाए....?रकम ज्यो की त्यों ९० परसेंट बची है ....?
तुम जनता में बुला बुला के सायकल ,लेपटाप ,लालटेन ,साडी ,घड़ी ,फ्री मोबाइल ,रिचार्ज ,फ्री वाईफाई बाटने का दावा करोगे .....?रकम फिर भी ८० परसेंट बची है .....|इतना किया तो भी ठीक ....जनता का पैसा ,जनता की जेब में गिरे,हमें कोई तकलीफ नहीं ....|
बाकी बचे पैसों के लिए, अभी मारकाट मचेगी|
हम आपके ‘डील’ में रहते हैं, के दावा करने वाले, सीधे दलाल स्ट्रीट से बोरिया बिस्तर समेट कर, बंटती हुई रेवड़ी हथियाने के चक्कर में दौड़ लगायेंगे |
यूँ लगता है ,वहां के लोग तो रेलवे रिजेवेशंन काउंटर की लाइन में, अब तक लग के धक्का मुक्की कर रहे होगे ?क्या दिल्ली ,क्या मुंबई, चेन्नई कलकात्ता ...सब जगह के बिहारी बन्धु जो खाने कमाने निकले रहे वापस बिहार लौटने की तैयारी में होंगे|
अच्छे दिन बाले भइय्या ने अच्छे दिन की शुरुआत बिहार से कर दी है,ये डुगडुगी ज़रा जोर से पिटवाओ |मगर इस बात की ताकीद जरुर कर लो कि रकम का भुगतान अवश्य होवे, वरना किसी ‘जुमले’ का बहाना लेकर, देने वाले की नीयत देर सबेर कब बदल जाए कह नहीं सकते |
इस रकम पर माफिया सरगनाओं की नजर भी टिकी रहेगी |
एक सौ पच्चीस करोड़ में पाए जाने वाले आर्यभट्टिय-जीरो को, जब तक वे, पीछे की तरफ से कुतर न लेवे, उनकी भूख शांत नहीं होने की ..... |
उनके बिजनेस में बहुत मंदी आ गई थी|जिसे किडनेप करो, एक रोना रोता था....... भाई बाप .सारा नम्बर दो का पैसा तो विदेशों में पडा है, लाने को मिल नहीं रहा तुम्हे क्या दें ...?हाँ ये एकाउंट नम्बर है ,वहां जा के सेफली, कुछ ला सको तो अपनी फिरौती काट के बाकी नगद हमें पकड़ा दो आपका एहसान रहेगा |उस डूबे पैसों से भागते भूत को लंगोटी और हमें पजामा जैसा , कुछ तो मिलेगा |
माफिया सरगना लोग केवल किडनेपिंग-फिरौती के बल ज़िंदा नहीं रहते |इसके अलावा, उनके दीगर ब्रांच, मसलन सरकारी ठेका उठाने या ठेका पाए ठेकेदारों को उठाने धमकाने का भी होता है |अब इतनी बड़ी रकम आ रही है तो काम के बड़े-बड़े दरवाजे खुलेंगे |छोटी-मोटी खिडकियों की धूल साफ करने के दिन बिदा होते दिख रहे हैं |
बिहार के कुत्ते भी उचक-उचक के एक दूसरे की बधाईयाँ दे रहे हैं|एक ने पूछा आदमी खुश हो रहे हैं ये तो समझ में आता है भाई ,तुम लोग क्यों जश्न मना रहे हो.....?एक मरियल सा कुत्ता, पूछने वाले की नादानी पर कहता है ,साफ है ,बिहार में बिजली की कमी थी ,नए प्रोजेक्ट में बिजली के तार खिचे जायेंगे ,तार खीचने के लिए खंभे गड़ेंगे ...और खंभों से हमारी एक नम्बर वाली सुलभ शौचालय की समस्या दूर होगी कि नहीं...... ?
सबने अपने-अपने जुगाड़ ढूढने शुरू कर दिए |चलो थोड़ा आम-आदमी से भी पूछ लें ....
क्यों भाई आम आदमी ......भाषण-वाषण सुने बा .....?
आम-आदमी में आजकल सियासी-खुजली भी पाई जाने लगी है |छूटते ही कह देता है ,ये सब चुनावी चोचले हैं ....साहब .|अपने दुश्मन नंबर एक को पटखनी देने के सियासी दावपेंच खेले जा रहे हैं बिहार को बीमारू कह-कह के वे चारागर बने फिरते हैं, नब्ज टटोल रहे हैं .......ये हम सब नइ जानते का .....?वे लाठी इतनी जोर से भांजना सीख गए हैं कि अगले की कमर ही तोड़ के रख दो ,जिन्दगी भर उठने न पाए.....|ये जनता को बिकाऊ समझने वाले लोग ,प्रलोभन का मायाजाल बिछा के,हमारा रेड कारपेट वेलकम करने की, तकनीक विदेशों से सीख-सीख आये हैं |
देक्खते हैं... कब मिलता है...कितना मिलता है ,.कहाँ और कैसे जाता है, इतना पैसा ......?
सुशील यादव
पुरूस्कार व्यथा
धिक्कार है सुशील ! ,लेखक जमात, अपने -अपने पुरूस्कार लौटा रहे है तेरे पास लौटाने के लिए कुछ भी नहीं है ....?
तुमने क्या ख़ाक लिखा..... जो साहित्य-बिरादरी में स्थापित नहीं हुए ?
तेरे लिखे पर पुरुस्स्कार देने वालो की नजर ही नहीं गई ...?कम से कम ,एक अदद छोटे-मोटे पुरूस्कार मिलने की गुंजाइश तो पैदा हुई होती ......?साहित्य-बिरादरी के, घुंघराले-बालों में ‘जूं’ तक नहीं रेंगी ...?लगता है, मिडिल-क्लास वाली वेशभूषा ,रहन-सहन, ने तेरी गति, झोला लटकाए, टपोरी-राइटर से आगे बढ़ने न दिया, वरना ‘तोड़ती-पत्थर’ के टक्कर का साहित्य तू ने भी, मंनरेगा में काम करने वाली अधेड़ औरत पर लिखा था। ’कुकुरमुत्ता’ के काव्य सौन्दर्य बोध ने, तेरे लिखे में भी अपना घर बनाया था। कालिदास माफिक, मेघों को तूने जेठ-बैसाख की तपती दोपहरिया में लाकर, मोहल्ले-पडौस की, सुगढ़-कन्याओं को अपने बारे में सोचने पर मजबूर किया था। पंच-परमेश्वर जैसी धांसू न्याय-प्रियता, तेरे साहित्य के इर्द-गिर्द हुआ करती थी। आलोचक को, कुछ कहते नहीं बनता था। तुमने ‘गोरे लाल आवारा’ के छद्म नाम से सडक -छाप साहित्य लिखने में अपनी जवानी के कुछ साल नहीं बिताये होते तो साहित्य के आकाशदीप बन के छा गए होते। तुझे ऍन गरीबी की मार उस वक्त झेलनी पड़ी जब तेरी कलम से आग उगलने का समय था। तुमने नई-कविता ,नई-कहानी को, पचास सौ बरस पहले लिख कर मानो कूड़े-करकट के बीच फेक दिया ,लोगो की तब, नई-चीजों को समझने की समझ ही पैदा नहीं हुई थी।
पुरूस्कार देने वालों की ‘पलटन’ भी बेचारे बेबस थे। वे तुझे टंच करते और एक कोने, जिसे साहित्य में ‘हाशिया’ कहते हैं डाल देते।
तुझे गर पुरूस्कार मिला होता तो,यही आज आड़े वक्त में सम्मान पाने का एक और मौक़ा दे जाता है.... तू उससे खासा वंचित है ,शर्म कर....।
मुझे अपने आप को धिक्कारने का, ज्यादा मौक़ा नहीं मिला ,नत्थू सामने आ बैठा। मैं बिना वजह खुद को, अखबार समेटते हुए, दिखाने की चेष्टा में ,अखबार सेंटर-टेबल में रखते हुए उसे बैठने का इशारा किया।
नत्थू के आने के बाद, अखबार पढने की जरूरत, वैसे भी नहीं रहती।
वो ‘कालम बाई कालम’,तीन-चार अखबारों का निचोड़ , जिसे नुक्कड़ के ग्रामीण ‘चा- समोसा’ सेंटर में, आधी-चाय की कीमत चुका कर पढ़ा होता है ,मुझे हुबहू , पूरा, किस्से -कहानियों की तरह सुना डालता है।
अगर चश्मे को ‘रिचार्जे’ करवाने की कोई बात रहती, तो नत्थू बदौलत, मेरे काफी पैसे जो अखबार पढने में जाया होते, बचा करते।
नत्थू का खबर वाचन ,स्वत: की त्वरित टिप्पणियों पर, मेरी सविस्तार व्याख्या की अपेक्षा में सदैव रहता।
कभी वो कालिख-कांड में कालिख पोतने वाले ‘कुपात्रजन’ की, व्याख्या करने लेने के बाद ,कालिख पुतने वाले के प्रति, सहानुभूति का प्रदर्शन करने लगाता तो कभी दिल्ली बिहार की सैर बेटिकट घर बैठे करवा देता।
वो पहले कालिख-पोतने की घटना को शर्मनाक,प्रजातंत्र पर प्रहार ,अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात आदि-आदि बोल के, मेरी ओर यूँ देखता, जैसे रंग का डिब्बा मै हाथ में लिए खड़ा हूँ .....। फिर अपनी बात में बेलेंस बनाने के लिए दूसरे पक्ष की ओर मुड़ जाता।
इंन दिनों नत्थू को प्राय: असमंजस की स्थिति में देखता हूँ। उसने कहा ,गुरुजी ये पडौसी मुल्क वाले भी गजब करते हैं ,मूली अपने मुल्क में उगा कर, बेचने इधर आ जाते हैं ,हवा खराब हो जाती है।
उधर हमारे जवान को बन्दूक की नोक में रखते हैं इधर लेखक-गवयै भेज कर सांस्कृतिक -चोचले की मरहम-पट्टी की बात करते हैं। अपना मुल्क ये सब सहेगा भला .....?
बिहार-चुनाव ,में क्या हो रहा है जानिये .....!जिनने महागठ्बन्धन का ठेका लिया था वो सीट बटवारे के फले दौर से ही उखड गया। वहां केम्पेन के दौरान चारा-किंग ,आरक्षण ,नरभक्षी ,विकास, बीमारू-राज,सरकारी-अनुदान, महादान ,जैसे जुमलों के बीच अचानक ‘धार्मिक पवित्र नानवेज’ जैसे मुद्दे उछल गए।
अपने तरफ एक लोकोक्ति है
“बाम्हन बाम्हन जात के, कुकरी पूजे रात के
कुकरी सिरा गे ,बाम्हन रसा गे “
ये नानवेज का मामला बस ऐसे ही दिखता है ,बाम्हन जो रात को मुर्गे को पका लेता है और किसी कारण उसे खाने से वंचित होना पड़ता है तो बाम्हन के ‘रिसा’ जाने से कोई नहीं रोक सकता।
अपना लोकतंत्र बाम्हन है। कब किस बात से रूठ जाए कह नहीं सकते। एक चिंगारी अगर जोरों से सुलग गई तो खतरा परमाणु विस्फोट के बराबर का होगा।
कुछ ने इस ‘नानवेज’ मसले पर बढ़-चढ़ के बोला तो किसी ने एकदम दम-साध लिया, कि अपन को बोलना ही नहीं है। उनके न बोलने के कई मतलब थे ,बड़ा मतलब सामने चुनाव से ताल्लुक रखे था।
जनता कहती है ,वे बड़-बोले हैं मगर लगाम कहाँ लगाना है, बखूबी जानते हैं।
नत्थू,देशव्यापी चर्चा को आगे बढाने के मूड में दिख रहा था।
मुझे बातों का गेयर बदलना अच्छे से आता है सो मैंने कहा ,नत्थू मैं लेखकों के सम्मान बाबत सोच रहा था। आये दिन पढ़ रहे हैं आज इस साहित्यकार ने अपना पुरूस्कार लौटाया कल उसने ...सिलसिला थम नहीं रहा है ?
राजनीतिग्य तबके में इसे आडंबर ,उथली वाह-वाही पाने का नाटक करार दिया जा रहा है। मैं सोचता हूँ उनके साथ नाइंसाफी है। वे किस विरोध में हैं पहले वो तो जानो .....?
सत्ता काबिजों को लगता है कि पिछली सरकार के ये ‘ढिंढोरची’ हैं। मगर एक पहलू ये है कि लेखक कितनी मेहनत के बाद ये सम्मान का हक़ पाता है उसे उसके सिवा कोई नहीं जानता। वह किसी उथले कारणों से अपने सम्मान को त्याग नहीं देगा ....?समझो वे अपनी जीवन भर की पूंजी को तज रहा है। सत्ता काबिजों को ये महज मखौल लगता है। तरह-तरह के तंज किये जा रहे हैं ,मशवरे दिए जा रहे हैं। उनका मानना है ,पानी सर से ऊपर अभी नहीं हुआ जा रहा है ......?
नत्थू ! आज बड़ी इच्छा हो रही है ,मै भी अपना सम्मान-पुरस्कार लौटा दूँ। इस अदने लेखक को, लिखने के शुरुआती दिनों में , किसी गाव के ‘सरपंच’ ने ,उसकी चाटुकारिता में लिखे चार-लाइन की बदौलत शाल-श्रीफल और एक सिक्के से नवाजा था।
नत्थू अब वो बुजुर्ग तो इस जहाँ से कूच कर गए हो .....?,पंचायत में ये जमा करवा देना और हाँ, अपने ‘हरिभूमि’ वाले पत्रकार बाबू को ये खबर जरुर कर देना।
अपोजीशन की होली ....
नत्थू,! इस देश में गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले चुनाव के बाद गहन सन्नाटा पसर गया है। होली जैसे हुडदंग वाले त्यौहार में रंग-भेद ,मन-भेद ,मतभेद की काली छाया कैसे आ गई? ज़रा विस्तार से बता।
सेक्युलर इंडिया के ढोल-नगाड़े किधर बिलम गए ?
घनश्याम ,ब्रज ,गोपी ,गोरियां जो होली के हप्ते भर पहले से रंग-अबीर से सराबोर हुआ करती थी,उनका क्या हुआ ?
अद्धी ,पव्वा,भंग की गोलियां ,भांग घोटने वाले सिद्ध पुरुष कहाँ लुढ़क गए ज़रा खोज खबर तो ले।
नत्थू उवाच ......।
महराज ,कलियुग आई गवा है ?का बताई ....?
जउन इलेक्शन की आप कही रहे हो ,हम इशारा समझत हैं ......।
तनिक लड़ियाने के बाद नत्थू ने हुलियारा-स्वांग को छोड़ कर सीधे-सीधे कहना यूँ आरंभ किया ;
इसी पिछले दो-तीन इलेक्शन ने गुड गोबर किया है।जनता ने गद्दी वालों को अपोजीशन और अपोजीशन वालो को गद्दी दे के कह दिया है , लो इस होली में पकवान की जगा गुड खाओ ,गोबर लगाव-लीपो बहुत कर लिए राज-काज ।
इनकी पार्टी आजादी के बाद से जो दुर्गति न कराई थी, सो हो गई।
हस्तिनापुर-कुरुक्षेत्र के पराजित योद्धा, मुह लटकाए खेमे में लौट गए हैं।
कहाँ तो वे लकदक लाव-लस्कर के साथ चलते थे ,सफेद वस्त्रों पर सिवाय होली के दिन के, कभी दाग न लगते थे।
इनकी पार्टी के कुछ लोग, वेलेंटाइन,न्यू इयर के दिन के,शुरू से दाग-दाग कपड़ों में धूमते नजर आने के आदी होते गए।
कुछ के कपड़ों में, दाग कहीं मलाई चाट के हाथ पोछने के थे ,कहीं वेळ इन टाइम काम करने के चक्कर में, किसी की पंचर हुई गाड़ी को धक्के लगाने के थे।
किसी-किसी के दामन ,इक्जाम पास कराने में, स्याही के बाटल खुद पर लुढकाऐ दिखे।सब अपने-अपने स्टाइल की होली साल भर अपनी मस्ती में मनाते रहे।
महाराज !सच्ची कहूँ ! जनता बड़ी चालाक हो गई है ,वे किसे कब कहाँ निपटाना है,लुढकाना है ,लतियाना है, बिलकुल उस ऊपर वाले की तरह जानती है ,जो हर किसी के सांस की डोरी या नथ अपने हाथ में लिए रहता है।
महराज ,हम जानते हैं आप उन दिनों की याद को मरते दम तक बिसरा नहीं पायेंगे, जब आप होली के हो-हुड़दंग से पहले,गाँव के बड़े-बुजुर्गों के पाँव छूने ,चंदन-अबीर का टीका लगाने निकल पड़ते थे।
हर घर से तर घी के मालपुए ,पुरी-कचौरीकी खुशबू उड़ा करती थी। बड़े मनुहार से परोसे-खिलाए जाते थे।
फिर दोस्तों के संग, भांग छानना-पीना,मस्ती की उमंगों में बहक-बहक जाना अलग मजा देता था। नगाड़े पीट-पीट कर जो फाग की स्वर लहरियां गुजती थी जो राह चलती कन्याओं पर फब्तियां की जाती थी .....”.पहिरे हरा रंग के सारी, वो लोटा वाली दोनों बहनी” सरा रा रा ररर .......
काय महाराज ! जवानी की छोटी लाइन वाली ट्रेन पकड़ लिए का ......?सुन रहे हैं ......?
नहीं नाथू ,तुम सुनाव अच्छा लग रहा है। ऐसा लग रहा है हम मनी-मन होलिका की लकडिया लूटने के लिए निकल पड़े हों।
नत्थू याद है, कैसे पंचू भाऊ को तंगाए थे, .होली चंदा देने में जो आना- कानी की थी ....। बेचारा अधबने मकान के सेंट्रिंग की लकड़ी की रखवाली में खाट लगाए सोया था,हम लोगो ने , खाट सहित उसे उठा लिया। ‘राम नाम सत’ बोलते जो उसे होलिका तक उठा लाए, बेचारा हडबडा के गिडगिडाते हुए दौड़ लगा दिया था।
महाराज जी! पंचू भाऊ की आत्मा को शान्ति मिले।
अब के बच्चे, ये जो स्कूलों में ‘मिड-डे मील’ खाने वाले हैं ,ऐसे हुडदंग करने करने की सोच भी नहीं सकते ?ऐसा ‘किक’ थ्रिल जो ‘होली’ बिना मांगे दे जाता था वो आज के किसी तीन-चार सौ करोड़ कमाने वाली मूवी न दे सकेगी।
हाँ नत्थू , ये अपोजीशन वाले होली-सोली मान मना रहे हैं या ठंडे पड गए,?पहले , इनके मोहल्ले से निकल भर जाओ रंग की हौदी-टंकी में डुबो कर हालत खराब कर देते थे। नाच गानों में, हिजड़े अपना रंग अलग जामाए रहते। सिर्फ इकलौते, अपने नेता जी बैंड-बाक्स ड्राईक्लीनर्स से धुली कलफ-दार झकास सफेद पैजाम-कुरता पहने टीका लगवा के पैर छूने वाले वोट बेंको को मजे से निहारा करते थे। किसी में हिम्मत न होती थी की सिवाय माथे के किसी और बाजू रंग-गुलाल लीपे-पोते।
महाराज,अपने तरफ की कहावत माफिक कि “तइहा के दिन बईहा लेगे’ (यानी पुराने अतीत को कोई पागल ले के चला गया) नेता जी के यहाँ, इस साल न तंबू गडा है,न डी जे वालो को कोई आर्डर गया है और न ही लंच डिनर मीठाई बनाने वाले बुलवाए गए हैं। उनके घर की कामवाली बाई कह रही थी,भूले-भटके मिलने-जुलने के नाम. आने वालों के लिए आधा किलो अबीर और दो तीन किली मिठाई मंगवा ली गई है बस।
और महाराज जी, ये भी खबर उड़ के आई है की नेता जी होली पर यहाँ रहे ही नहीं ,बहुत दिनों से काम से छुट्टी न मिली सो वे कहीं बाहर छुट्टियाँ बिता कर त्यौहार बाद लौटें ?
आप बताएं. होली शुभकामना वाले कार्ड पोस्ट कर दें या उनके वापस आने पर आप खुद मिलने जायंगे ?
सुशील यादव
नन्द लाल छेड़ गयो रे
उस जमाने में नंदलालों को छेड़ने के सिवा कोई काम नहीं था |सरकारी दफ्तर ही नहीं होते थे, जहाँ बेगारी कर ली जाए |अगर ये दफ्तर भी होते तो चैन की बंसी बजईय्या टाईप लोग, कुछ देर काम करते और ‘एक नम्बर’ के बहाने साहब को अर्जेंसी का वास्ता देकर, तालाब पोखर की तरफ खिसक लेते |उस ‘खुले शौच’ के जमाने में इतनी छूट तो मिल ही जाती थी |वे पनघट-ब्रांड लड़कियों को इशारे-विशारे करना खूब जानते थे | उन दिनों इत्मीनान इस बात का होता कि; किसी प्रकार के एक्ट का चलन नहीं था; सो खतरा भी बिलकुल नहीं होता था |एफ आई आर,, नाम की कोई चिड़िया खुले आकाश में दूर-दूर तक उड़ा नहीं करती थी |खाखी,-खद्दर वाले लोग भी किसी बात को ‘इशु’ बनानें के नाम पर ,गली-गली ‘मुद्दे’ सुघियाते नहीं फिरते थे| क्या मजे का जमाना था ......?
बाद के दिनों में ,खाखी, खद्दर, टोपी, झंडे ने देश की ‘वाट’ लगा दी....!
आपने इस ‘वाट’ को ‘जेम्स वाट’ की तरह, दिमागी रेल इंजन दौडाने के फिराक में, अब पकड़ ही लिया, तो तफसील भी जानिये |
ये आपका बुनियादी ,प्रजातंत्रीय हक़ भी है, कि जिसने ‘वाट’ कहा है उसे वह एक्सप्लेन भी करे|
‘वाट’ को इधर मै छोटे-मोटे उठाईगिरी टाईप के लफड़ों में इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो राजनीति के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा बन गया है मसलन ,|नेता वादा करके वादाखिलाफी न करे ,’खाखी’ अगर माँ बहनों वाली डिक्शनरी न खोले ,’टोपी’ अगर झांसा न दे ,’झंडे’ को कोई लाठी के बतौर, उसे उठाने वाला, चलाना न जाने तो आजकल प्रजातंत्र के पाए डगमगाए से लगते हैं |’बड़े वाट’ पर बात करने का जमाना ,दिन-बादर हैं नहीं |मुफ्लिसिये पर दस करोड़ की मानहानि वाली बिजली गिर गई तो, अपना कुनबा ही साफ हो जाएगा... ?
नब्बू एक दिन मायूस सा आया |भइय्या जी मजा नहीं आ रहा है .....|उसके इस कथन के पीछे मुझे किसी नए किस्म की खुराफात के पर्दाफाश होने का आभास, छटी इन्द्रिय के मार्फत , तुरन्त हुआ सा लगा |मैंने खीचने के अंदाज में कहा, जिन्दगी के ‘तिरसठ -पूस’ ठंडाये रहे, तुम्हे भुर्री तापते कभी न देखा आज कौन सी आफत आ गई जो कंडा सकेलने निकल गए .... बोलो .....?
भइय्या जी, बात ये है कि आजकल की राजनीति में दम नहीं है | हम रोज अखबार पढ़ते हैं ,आप भी देखे होंगे ....न छीन झपट,न जूतम पैजार .... न किसी के अन्गदिया पैर उखाड़े जाते ,न एक दूसरों की सरे आम वस्त्र उतारने की बात होती |सब सन्नाटे में बीत जाता है |अपने मुनिस्पेलटी इलेक्शन में ही देखो लोग खड़े हुए, न झगड़े न सर-गला कटा|कोई पेटी उठाने का दम भरते नहीं दिख पाता |किसी जमाने का वो सीन भी याद है जब मवाली, कोठे में नोट लुटाने की तर्ज और स्टाइल में, बेलेट को धडाधड छापता और कह देता, बता देना ‘छेनू’ आया था|छेनू नाम का सिक्का चला के जीत-हार हो जाती थी |मतदाता को दस-बीस जो मिल जाता ,उसे वह पाच सालाना बोनस बतौर स्वीकार कर लेता |कोई शिकायत या उलाहना देने की नौबत कब आती थी ? वैसे भी उन दिनों पानी लोग कम इस्तेमाल करते थे ,शौच-नहाना-धोना तालाब किनारे हो जाता था इस वजह घरों में पानी बहने बहाने या नाली की समस्या न थी |बच्चों को स्कूल में इतना पढ़ा दिया जाता कि रात को उनको सबक-होमवर्क करने की जरुरत न पड़ती थी, इसलिए बिजली की भी दरकार नहीं थी| नेता की चरण-पूजाई का स्कोप कम या नहीं के लगभग था |उन्हें कोई हारे या जीते से सारोकार नहीं होता था |
नब्बू ने आगे बताया ,भइय्या खबर है, अपने धासु बेनर्जी जो बड़े डाइरेक्टरों में गिना जाता है, अपने मिस्टर आजीवन कुआरे कन्हईया को लेकर पुरानी और नई तहजीब पर फ़िल्म बना रहे हैं |पांच हजार साल पहले की याददाश्त अपने हीरो को दिला बैठे हैं |उसका दिल नदी नालों पोखरों के आसपास मंडराते रहता है|हर नदी में फ्लेश्बेक है|रईस बाप हर कीमत पर अपने बेटे को इस फ्लेश्बेकिया बीमारी से निजात दिलाने के लिए उसके मुरादों वाली सीन एक्ट्रेस लंगोटिया कामेडियन सेट बनवा के रखता है, किसी ने उसे सुझाया यूँ तो आप पैसा पानी की तरह बहा ही रहे हैं तो क्यों न इसे शूट करके साउथ डब वाली फ़िल्म की शकल दे दी जाए |रईस को सुझाव उम्दा लगा सो पहले उसके बीमार लड़के के शौक का रिह्ल्सल होता है फिर उसी सेट में आजीवन कुआरा फिट हो जाते |
“कंकरिया मार के जगाया’ इस गाने के बोल फिल्माने के लिए बुलडोजर से कई किलोमीटर कांक्रीट रास्ते को उखाड़ कर, बजरी-पत्थर-कंकर डाले गए|हीरो ने एक कंकर उठा के मटकी फोडी सब निशाने की वाह-वाह में लग गए |हिरोइन इसी पलो की याद में, फूटे-मटके पर सर रख के अपने सोये(प्रेम में अज्ञानी) होने का प्रलाप कर रही है |
इंटर तक, पाच हजार पुराने मटका फोडू को तत्व-ज्ञान मिल जाता है |अक्सर ये अचानक बिना साइंटिफिक रीजन के तत्व-ज्ञान मिलाने वाला अक्षम्य-अपराध अनेकों फिल्मी-स्क्रिप्ट की जान है और बाक्स आफिस में हजार करोड़ कमाने का नुस्खा भी है अत: किसी के पापी पेट को लात न मारते हुए आगे बढ़ते हैं|
मटका फोडू हीरो, पहले मटका-किंग फिर बाद में, बाप की अंडर वर्ड वाली रियासत को सम्हालता है | उसे घेरे रहने वाले उसे किग-मेकर बा जाने की सलाह दे डालते हैं, जिसे पूरी तन्मयता के साथ वो निभाता है |डाइरेक्टर उसे ग़रीबों के साथ हंसना-खेलना सिखलाने के लिए विदेश ले जाता है |किसी के घर मातम में कौन सा मुखौटा होना चाहिये, इसकी बाकायदा तालीम दिलवाता है |भाषण के बीच लोगों से प्रश्न क्या पूछे कि, जवाब ‘हाँ’ में निकले,कब बाह चढा कर भाषण में अपनी भुजा दिखाना है, इन छोटी-छोटी हरकतों पर गौर करने को कहता है |
‘नन्दलाल’ जिसे आधुनिक हीरो बनाया अपनी पुरानी यादों को अचानक संसद में ताजी कर लेता है |बड़े-बड़े सांसदों मंत्री-मंत्राणी, किसी को नहीं छोड़ता |सबकी मटकी में उसे माखन होने का संदेह रहता है |मलाई खाते हुए वे लोग जो अब तालाब पोखर की ओर आना भूल गए उनके लिए वो खुद इन्साफ का कंकर लिए छेदने-छेड़ने के लिए तैयार दिखता है |
इति फ़िल्म पटकथा समाप्त |डाइरेक्टर, राइटर, हीरो हजार करोड़ की उम्मीद में |कुछ अति उत्साही आस्कर में ले जाने के लिए फार्म भी खरीदे लाये है |भगवान जाने आगे क्या हो ....?
नब्बू की बेसिरपैर की कथा का विस्तार, अगले एपीसोड में फिर कभी ...तब तक आप सेफ रहें ......
सुशील यादव
कहानी ........ सुशील यादव ,,,,एक चिता अचानक ......
पता नहीं किस टेलीपेथी से, बरसों बाद मै अपने पुराने पुश्तैनी मकान की तरफ चला गया, जिसे बरसों पहले बेचकर, हम भाई लोग अलग-अलग शहर में अपनी सुविधानुसार बस गए थे|
पुराने इलाके के, टपोरी होटल में चाय पीने की तलब और पुराने लोगों से कुछ मेल-मुलाक़ात हो जाए, इस मकसद से गया | खपरैल के छप्पर वाले होटल की जगह,कंक्रीट छत के नीचे , दो कमरे का कस्बा-नुमा बिना प्लास्टर का , गोडपारा का मराखन होटल आज भी उसी नाम से जाना जाता है|
तकरीबन सब नए नये चहरे दिखे, जो बीस-पच्चीस साल पहले पैदा हुए, नई पीढी के पौध लग रहे थे | इन सब को शायद मै पहली बार देख रहा था | वे लोग मुझे अजनबी जैसी निगाह में कनखियों से देख रहे थे| मेरी निगाह किसी पर ठहरती इससे पहले ,किसी कोने में बैठे , थोड़े से बुजुर्ग जैसे शख्स ने मेरे बचपन के नाम से पुकारा ,कैसे अनिल ,बहुत दिन बाद दिखे ....?बस मुझे बैठने का ठिकाना मिल गया |उससे बतियाने का ,पुराने मोहल्ले की भूली-बिसरी यादों को ताजा करने का मुझे मौक़ा मिल गया |एक-एक लोगों के घर-परिवार की लंबी तहकीकात मैंने शुरू कर दी| उस होटल में ताजा बने समोसे ,भजिये के दो-दो प्लेट आर्डर कर बैसाखू के सामने परसवा दिया |वो मुझे आश्चर्य मिश्रित झिझकती नजर से देखने लगा|उसकी झिझक को शांत करते हुए मैंने कहा सब तुम्हारे लिए है ,मै तो एक आध खा पाउँगा |हाँ यहाँ की चाय तब गजब की होती थी वही पीने रुक गया था |पता नहीं ये नए लोग अब वैसा बना पाते हैं या नहीं ?
दो स्पेशल चाय बनाने को बोला,चाय के काउंटर में बैठे नौजवान से मुखातिब होकर बताया तुम लोग मुझे नहीं पहचानते होगे |ये पीछे ठेठवार गली में हम लोगों का पुश्तैनी मकान होता था |समझ लो इस होटल में मेट्रिक-कालेज पढ़ते तक घंटों चाय पीने का मजमा दोस्तों के साथ लगाए रहते थे|तुम्हारे बाबूजी हम लोगो को बहुत उधारी देते थे |
मैंने बैसाखू से पूछा क्या बात है ,इस मोहल्ले में अब पहले जैसी रौनक नहीं रही ?कहाँ तो...... इस चबूतरे पर, पासा खेलते लोग ,उस पर दर्शकों की भीड़ ,हल्लागुल्ला,किसी कोने में सटोरियों की अलग चौपाल ,शाम को टुन्न होकर गरियाते लोगों के,मा- बहनों वाले अंतहीन संवाद |सब अभी जी रहे हैं या.......?
बैसाखू ने कहा ,किया बताएं बाबू सा ,पहले जैसी मस्ती तो, आजकल के ये लड़के कहाँ पायेंगे ? लोग,.... उस जमाने में कम कमाते थे, मगर जीते शान से थे ?
किसी भी तीज त्यौहार में जिस गली से गुजर लो, अच्छे-अच्छे पकवानों की देशी खुशबु आती थी |
‘पुलिस-सक्ती’ करने लायक अपराध होते नहीं थे......., तो पुलिस भी झाकती न थी|
देर रात के बारह-एक बजे तक बड़े धूम से होटल चालु रहता था |सट्टे के ‘क्लोसिंग नम्बर’ जो बाढ़ बजे खुलते थे , सुनने वाले उताव्लियों से मोहल्ला गुलजार होता था |
‘मुण्डा-मुछड’,जानते हैं न आप ....? हाँ हाँ ...टकलू को अच्छे से जानता था ,क्या बेदम पीता था बाप रे ......|वही, क्लोस का नबर, फर्राटे से साइकिल में चिल्लाते निकलता था दो सौ चालीस .....छक्का.......उस स्टाइल की नकल आज तक कोई नहीं कर पाया | संयोग देखिये जिस दिन उसका हजार रूपये का आकडा फंसा, उसी दिन जगह-जगह, ज्यादा पी के मर गया|
वैसे बाबू सा......!,अच्छा हुआ आप लोग इस मुहल्ले से निकल लिए |ये मुहल्ला आज भी किसी घर के बच्चों पर, अच्छे संस्कार पड़ने नहीं देता |चपरासी की नौकरी से आगे कोई निकल ही नहीं पाता |पता नही क्या अभिशाप है इधर.........? सुना है आपके बच्चे विदेश में हैं ....? हाँ बैसाखू ,तुमने सही सुना है ,बच्चो को विदेश में नौकरी मिल गई,वे लोग निकल गए |बाबू आप लोग बच्चों को, इतनी दूर भेजने की हिम्मत कैसे कर लेते हो |हम लोग तो बच्चे के ससुराल से वापिस आने तक में उपर-नीचे होते रहते हैं|
मैंने कहा, आजकल मोबाइल-कम्प्यूटर का जमाना है ,रोज हालचाल जान लेते हैं,और क्या चाहिए ?उन लोगो को खुश जानकार तसल्ली हो जाती है | मैंने कहा और सुनाओ .....?
मैंने गौर किया कि, उसकी निगाह होटल के दीवार-घड़ी की ओर कनखियों से गई ,मैंने पूछा ,कहीं जल्दी है क्या ....?
वो झेपते हुए बोला ,अभी मंगली भैया....खैर .....आप नहीं जानते होंगे शायद ,पंचानबे साल की उम्र में, कल रात ख़तम हो गए |इस मोहल्ले के सबसे बुजुर्ग में से थे |उनकी ‘काठी’(अंत्येष्टि) में जाना था .....|
मेरा मुह खुला का खुला रह गया ....!
मंगली दादा...... , जिसे वो सोचता था मै नहीं जानता,इनको पता नहीं मै कितने करीब से जानता था उन्हें |मैंने होटल में बिल देकर बैसाखू से कहा चलो मै भी श्मशान चलता हूँ |उसे अपनी कार ने बिठा के, श्मशान की तरफ निकल चला |पांच किलो मीटर के फासले को, अनगिनत यादों के साथ बैसाखू के साथ शेयर करते रहा |
बैसाखू ,मैंने मंगली दादा को हमेशा खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट में देखा है |हम लोग यहाँ से जब दूसरे शहर शिफ्ट हुए , तब तक वे मुनिस्पेलटी की चौथे दर्जे की नौकरी से रिटायर हो गए थे |अभी जिस होटल में बैठे थे, उसी के करीब उनका खपरैल वाला कच्चा मगर साफ सुथरा लिपा पुता घर होता था |उसकी ड्यूटी, सन साठ के दशक में, जब इस शहर में बिजली की लाइन नहीं खिची थी ,जगह- जगह, सात-आठ फीट के लेम्प-पोस्ट पर, लेम्प को जला कर रखने की होती थी |
इस काम में मगर, उसे दोपहर से मशगूल हो जाना पड़ता था |उसके जिम्मे पच्चीस लेम्प पोस्ट होते थे ,हम लोगो की उम्र सात-आठ साल की रही होगी, हमें उसे काम करते देखें में आनन्द आता था |स्कूल से छूटते ही हम कुछ बच्चे उसके घर पहुच जाते |उसे बीती रात ,लेम्प के काच में लगे कालिख को बड़े सावधानी से साफ करते देखते |वे इस नफासत से एक-एक दाग धब्बों को रगड़ कर साफ करते कि, लेम्प जलाने के बाद, काच लग जाए तो रोशनी दस-गुनी अधिक लगती थी |वे बार- बार हम लोगो को लेम्प के कांच, और मिटटी तेल की कुप्पी से दूर रहने की हिदायत देते रहते |
वो हममे से किसी एक को , एक लेम्प के जल जाने के बाद,बहुत हिदायत से ,दो फीट की लकड़ी के डंडे के एक सिरे में, मिटटी तेल में भिगोये कपड़े को जलाकर छोटा मशाल पकड़ा देते |हमे बारी-बारी से सभी लेम्प्स को जलाने की कहते |
इस श्रेय को लेने की, हम सब बच्चो में होड़ रहती |वे दर्याफ्त कर लेते, कि कल किसने ,परसों किसने जलाया था ,फिर अगले नये को मौक़ा देते |
उस जमाने में, पन्द्रह-वाट के बल्ब जितनी रौशनी के लेम्प का , बीस-पच्चीस के समूह में एक साथ देखना,नजारा ही कुछ और होता था..... और अपना मजा अलग ही देता था |
शाम के छ या गरमी के दिनों में सात बजे तक उनको हरेक लेम्प पोस्ट में लेम्प रखना होता था |
वे एक कंधे में छोटी हलकी सीढ़ी, और दूसरे कंधे में कांवर जिसके दोनों पासंग, बांस की बनी बड़े परातनुमा टोकरी होती थी,जगमगाते लेम्प को लिए चलते देखना तो मानो लोगों को अचंभित कर देता था |आने-जाने वाले रूककर या कहे कि उस ख़ास नजारे को देखने की कवायद में गली-गली जमा हुए रहते थे |हम बच्चों का भी शगल था, कि उसके पांच-दस लेम्प पोस्ट तक उनका साथ दें |
हम लोग चलते-चलते तरह-तरह के सवाल करते, मसलन कि ये कब तक जलता है ?सुबह बुझाने कौन आता है ?इसे इकठ्ठा कौन वापस ले कर जाता है ?
वो किस्से-कहानी मिलाकर, हम लोगों को बताता कि, कैसे पिछली रात उस नुक्कड़ पर भूत- प्रेत से पाला पड गया था |बमुश्किल जान बचा कर भागा |एक लेम्प का कांच तभी टूट पड़ी |प्रमाण में वो टूटा कांच दिखा देता |हम लोगों की अन्धेरा घिरते देख हिम्मत नहीं होती कि उसके पूरे लेम्प – पोस्ट में लेम्प रखने में आगे साथ दें | हम झुण्ड में घरों की तरफ दौड़ लगा के, भाग निकलते|
परीक्षा के दिनों में, हमने अपने बड़े भाइयों को इन्ही लेम्प पोस्ट से लेम्प को उतारकर फट्टी बिछा के पढ़ते देखा है |या कहे कि ‘मगली दादा’ की सद्भावना के चलते बड़े भाइयों ने मेट्रिक बड़े आराम से निकाल लिया |वे पढने वाले लड़कों को कुछ न कह के एक तरह से अपनी ‘सहमति’ के सर हिलाये रहते |
बैसाखू ! मेरी बातों को किस्से-कहानी की तरह मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था |मंगली दादा के इस गुण का बखान उसने आज से पहिले कभी से नहीं सूना था, कारण कि बैसाखू ने पाचवी से आगे की पढ़ाई की नहीं थी,और न ही उसे लेम्प-पोस्ट से लेम्प उतारने की जरूरत पड़ी थी |
श्मशान पहुचते ही, रास्ते में ली हुई माला और पीताम्बरी जमीन में रखी उसकी अर्थी पर श्रद्धा से अर्पित किया |
परिवार जन, मोहल्ले के जमा लोग मुझे हैरत से देख रहे थे| श्मशान के एक कोने में, उसकी वर्दी, वही खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट फिकी पड़ी थी | लाश को चिता पर रख दिया गया था |
उसका कोई नजदीकी, आग को हाथ में लिए परिक्रमा कर रहा था तभी न जाने मुझे क्यों लगा ‘मंगली दादा’ मुझसे कह रहे हो, अनिल ,आज तेरी बारी है चल झटपट सब लेम्प को मशाल ले के जला तो दे......?
मै फूट-फूट कर रो पडा ..... सुशील यादव २५/९/१५
हम लोगो की खूबी है कि हम. मुद्दों को ,लोगों को ,सिद्धांतों को,सुविधाओं को जाति-धर्म,भाषा, समाज.या लोकतंत्र को अपनी सुविधानुसार, आपस में आपस में बाँट लेते हैं |
बिना बांटे हमें शर्म सी आती है
‘कोई क्या कहेगा’, वाली सोच से घिर जाते हैं |
नहीं बाटने वाली चीजे भी ‘भगवान-दास’ ने बनाई है वो है ‘उपर की आमदनी’|इस अदृश्य आमदनी को लोग सीधे –सीधे देख तो नहीं पाते,केवल अनुमान लगाते रहते हैं |रहन-सहन में एकाएक बदलाव ,हाव-भाव में रईसी झलक ,आस-पास के लोगो को चौकन्ना करने के लिए काफी होता है | लोग इन्हें देख के बडबडाते रहते हैं , देखो अकेले-अकेले कैसे खा रहा है ,डकार ;लेने का नाम भी नही लेता है |क्या ज़माना है ?
बैसे ,हम खाने पीने के मामले में हेल्दी सीजन का इंतिजार करते हैं |इस मामले में’बसंत-बहार’ से बेहरत ऋतु हमें कोई दूसरा पसंद नहीं |
‘बहार’ हमारे तरफ जनवरी से दस्तक दे डालती है |हमने ‘बहार’ को बाँट लिया है |एक सप्ताह पिकनिक सैर सपाटे का ,अगले सप्ताह डागी-वागी शो ,फिर फूलो की प्रदर्शिनी बगैरह |आम जन के लिए बहार यहीं तक बहार-इफेक्ट देती है |
आफिस में ‘बहार’ के फुल फ्लेज्ड दिन, मार्च के अंतिम सप्ताह में आते हैं,| पर्चेसिंग का मनमाना बुखार चढा रहता है |पर्चेसिंग का आफिसियल स्टाइल सब जगह प्राय: एक सा ही होता है |
प्राय:एक ही आदमी से तीन-तीन कोटेशन्स मंगवा कर, चाहे वो व्यवसायी गुड –तेल मूगफली बेचता हो, ,फ्रिज ,केलकुलेटर कागज ,पेसिल,फाईल कव्हर ,कंप्यूटर,फेक्स,फोटोकापी मशीन सब के आर्डर दे दिए जाते हैं |
खरीदी बाद आने वाले आडिट वालो की आखों के लिए, सुरमे का बंदोबस्त, फाईलो के चप्पे-चप्पे में किया जाता है |
बड़ा बाबू मातहत से पूछ लेता है ,फंस तो नहीं रहे ना ?कर दें दस्तखत ?
यही सवाल, अधिकारी, बड़े बाबू से औपचारिकतावश पूछ लेता है ?फंस तो नहीं रहे कहीं ?
कर दें आर्डर पास?
सबको ‘बहार’ आने का, और शुभ-शुभ बिदा हो जाने की बिदाई पार्टी, आर्डर पाने वाला , ‘मान –मनव्वल रेट’ तय हो जाने के बाद गदगद हो के देता है |
इस साल ‘बहार’ आने का जश्न फीका सा रहा |
सबके चहरे लटके हुए से थे |
आचार-संहिता के चलते बड़े-बड़े प्रोजेक्ट और पर्चेस-सेल के डिसीजन पेंडिंग रहे |
चलो कोई बात नहीं...... अब की बार जून-जुलाई की बरसात में ‘आनंदोत्सव’ मनेगा |कोई देखने वाला भी नही रहेगा ,सब नई-नई सरकार बनने –बनाने के फेर में लगे रहेंगे ?
वैसे बताए हुए , ‘बहार’ को बांटने का तजुर्बा हमारा कुछ ज्यादा हो गया है |मजा नही आता |या यूँ कहे बहार वाले खेल में अब दम नहीं रहा,सा लगता है |
वही टुटपूंजियागिरी अठ्ठनी लो, चव्वनी आगे खिसका दो |कुछ बड़ा खेला हो जावे तो मजा भी आवे |
हमने ठेके में पुल, सड़क,बाँध बिल्डिंग्स ,सब तो बनाए हैं |सरकार ने कहा तो ,आदिवासियों से ,महीने भर में फटाफट तेंदूपत्ते बिनवा दिये |जंगल में जब जैसा कहा गया,वैसी साफ –सफाई में लगे रहे |खदानों में से सारा माल निकाल के रख दिया |
यहाँ भी बात वही,.... अठन्नी वाली .......|यानी चवन्नी रखो चवन्नी फेको |
सामने वाला, चवन्नी ले के जो आखे ततेरता है, उससे बडी कोफ्त होती है जनाब |
इनको साइड-लाइन करना हमें लगता है ,’टपोरी दुनिया के लोकतंत्र’ के लिए बेहद जरूरी है | समय-समय पे सब को उनकी औकात दिखाते रहने से लेंन-देंन वाली दुनिया के पहिये घूमते रहते हैं वरना .......?
हमें इंतिजार है कि कब वोटिग मशीन्स में बंद परिणाम खुले?
दो-चार लोग जो हमारे पे-रोल में हैं अगर जीत गए तो हम सरकार बनने –बनाने में, पर्दे के पीछे वाला रोल निभा सकते हैं |
आप सब को मालुम है ,कटपुतली सी एम, आजकल जगह-जगह पाए जाते हैं |
एक, अपने इधर भी बनते ,चलते-फिरते, देखने की बरसो की ख्वाहिश है |
इसी ख्वाहिश के चलते हमने पैसा पानी की तरह, अपने’घोडो-गदहों’ पे लगाया-बहाया है |
चुनाव जीते हुए लोग तो, नर-नारायण केटीगरी के हो जाते हैं|हाथ लगाने नही देते |
उनका भाव आसमान छूता है |उनके खरीदे-बेचे जाने तक तो, कोई शपथ ले के राजभवन से वापिस आते मिलता है |
अपनी योजना है कि, कठपुतली सी एम् के भरोसे हम ठेके की दुनिया के बेताज बादशाह हो जायें |
यहा का गणित ही दूसरा है |समझो ,ग्यारह कमाओ ,एक रखो दस पास आन करो |
इस गणित में भी अलग, अपना मजा है|लेने वाले के ‘दस’ में चूना लगाने की गुंजाइश बनी रहती है ,क्यों कि उनको हजार हाथो का परसा खाने को मिलता है |वो परवाह नहीं करते किसने कितना दिया,....?कितना कम दिया ?
मुझे लगता है अच्छे दिन आने वाले हैं |
इस स्टेज में अगर सरकार एक की बन गई तो खूब मनमानी होगी|यहाँ दो ‘कमिया’ लगाओ |सरकार को बाटो,यही राजनीति है |
अपने गनपत राव या रामखिलावन दोनों में से किसी एक को, सी एम, दूसरे को डेपुटी सी एम बना देगे| काम चल जाएगा .......?
***
ये क्या......?
लोग मेरी कालर पकड़ कर जुतिया रहे हैं ,लात –घूसो से बचने के लिए मैने हाथ –पैर जो मारे तो पत्नी की पीठ में धमा-धम पड़ा गया |वो हडबडा के उठ बैठी ,मुझे झिझोड के जगाया |
बोली; आपको ये आजकल क्या हो गया है |दिन-रात ,सोते –जागते पालिटिक्स,,,,?
ज्यादा टी.वी तो मत देखा करो .......|
मैंने चादर खीच के मुह ढक लिया ...|
मेरे देखे सपने का ज्योतिषफल,आप में से अगर कोई बता सके तो मेहरबानी होगी |
सुशील यादव
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मन तडपत .....हरी दर्शन को ....
जब भी मै अपनी आस्था के दिए में,जी भर के तेल –घी डाल के बस जलाने ही वाला होता हूँ कि कहीं न कहीं बवाल हो जाता है |
स्वनाम धन्य महाराज,अघोरी, एकटक बाबा ,पेट्रोल वाले बाबा,बुलेट बाबा,पायलट बाबा और ऐसे ही स्वयं घोषित बाबाओं -भगवानो को मै, अपनी श्रधा-सुमन पेश करने की नीयत से तैयार करता हूँ या ज्यादातर कहूँ कि अर्धागनी द्वारा एक्सपेल किया जाता हूँ कि “मानो .....नहीं मानोगे तो सद्गगति नहीं मिलती” ,तो यकायक कोई न कोई चमत्कार हो जाता है और मै ढोगी लोगो के चक्कर में आते-आते रह जाता हूँ |
पत्नी द्वारा मुझे, सदगति को समझाते-समझाते तकरीबन पच्चीस साल हो गए |इतना लंबा प्रवचन अनास्था को आस्था में बदलने का अपने आप में मिसाल है |शायद कहीं न मिले |
जितनी जीवटता से उनने अपने प्रयास किये हैं उतनी शिद्दत से मै भी अपनी अकड में कायम रहा हूँ |नइ मुझे इन ढकोसलेबाज साधू-महात्माओं के बीच मत घसीटो |मै किसी दिन उनसे उलझ पडुंगा |ये लोग अजवाइन,मुग- मुलेठी,हरड,बहर,त्रिफला और किचन में शामिल चीजों के उपयोग और फायदे बता-बता के अपना प्रवचन टी आर पी बनाए रखते हैं |बीमारी के कारण और निदान के लिए क्या खाना है,-केला,करेला नीबू आंवला की जानकारी प्रवचन , बीच-बीच में देते रहते हैं |इनका मकसद होता है ज्यादा से ज्यादा लोगे घेरे में आयें |चढावा मिलता रहे |
अमेरिका में ये क्या चल पायेंगे ?वहाँ वैज्ञानिक प्रमाण के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता |इन बाबाओ की दाल पच्चास सीटी भी दे दो तो उधर के कुकर में नहीं गलेगी |
हमने साइंस पढ़ा है |साइंस में ऐसी कोई चमत्कारिक चीज नहीं जिसके तह में उसके होने या न होने का कारण न छुपा हो |ये बाबा लोग सिर्फ और सिर्फ कुछ प्रयोग ,कुछ हाथ की सफाई ,नजरो का धोखा और सम्मोहन के उथले जानकार होते हैं |सिद्धियाँ किसी को नहीं मिली होती |
हस्त रेखा बाबाओं को किसी मुर्दे के हाथ की छाप दिखा के देखो |उसके लंबी जीवन की गाथा पढ़ देंगे |इलेक्शन जीता देने की ग्यारंटी दे देंगे,राजयोग के हकदार बता देगे |किसी बीमार मरणासन्न की कुंडली में, उनको बच्चे के यशस्वी होने का पूरा भविष्य दिख जाएगा,बता देगे बहनजी ये एक दिन ऐसा सिक्सर लगाएगा कि दुनिया देखती रह जायेगी ! बशर्ते कुंडली बिच्ररवाने, किसी कुलीन घर की धनी महिला पहुची हो |
मेरे तर्को को खारिज करना,और किसी बहाने मुझको देव दर्शन के लिए प्रति माह-दो माह में राजी कर लेना पत्नी का हक बनता है इससे मुझे आज भी इनकार नहीं है |
सबकुछ ,जानकार ,मै चुपचाप बिना बहस के उनके द्वारा ले जाए जाने वाले हर जगह, हर तीर्थ में सर नवा लेता हूँ |वैवाहिक जीवन की नय्या को पार लगाने के लिए ,इतनी आस्था की वो हकदार भी है ?
अपने तर्कों से, उनकी भक्ति भाव को क्षीण करने में मेरी उक्तियाँ , भले कोई असर न छोडी हो मगर बाबाओं के प्रपंच से उनको सचेत जरुर कर रखा है |
पहले, ‘बाबा दर्शन मात्र’ से पुलकित हो उठाती थी |चेहरा दमकने लगता था |ये भी लगता था कि, किसी जन्म के पुन्य थे, जो बाबा घर पधारे |
बाबाओं का सत्कार करने, उनको ड्राइंग रूम में बिठाके मेवा-मिष्ठान का अंबार लगा देने ,छप्पन भोज परोसने में वो ये जतलाती थी कि मोहल्ले के किसी घर में है इतना दम ? ,दान-दक्षिणा में, सोने-चांदी,कपडे पैसे, यथा बाबा तथा चढावा का जी खोल अनुशरण करती |
अब ,मेरे समझाइश को तव्वजो दे के , फक्त, पांच सौ से नीचे की राशि ही, इस मद में किसी –किसी बाबा को आवंटित कर पाती है |
मैंने काश्मीर से कन्या-कुमारी तक के भक्ति-मार्ग,भक्तों और देवगणों की व्याख्या अपने त्त्रीके से की है |
उनके भगवान से पूछा है, जब इतने सारे भक्त-गण काल-कलवित हुए केदारनाथ में घटी त्रासदी में भगवान कहाँ गए थे ?मोक्ष को पाने का यही सुगम रास्ता है तो हर साल ये सुनामी क्यों नहीं आती ?
पत्नी से अब ,जब आग्रह करता हूँ कि इस बार केदार बाबा के पास चलें, वो बहाने से टाल देती है,मंजू अभी पेट से है उसकी देखभाल जरूरी है ?
कभी गंगा –हरिद्वार जाने की सोचा तो, मीडिया वालों ने इतना हल्ला मचाया कि गंगा मैली हो गई है?
सरकारी सफाई अभियान में अनुमानित है ,अस्सी करोड लगेगे|
हमने सोचा लगा लो भाई , अस्सी करोड, तब चले जायेगे,कौन जल्दी है ?
कम से कम बदली हुई गंगा को , देख के ये तसली हो सकेगी कि भगीरथ ने जिस गंगा के लिए इतना तप किया उस गंगा को हम सवा करोड लोग, क्या कारण थे कि अस्सी करोड वाली भेट नहीं दे सके थे आजतक ?
गंगा दर्शन बाद, फक्र से मैय्या से कहेंगे माँ गंगे हमने अस्सी करोड आपमें समर्पित किये हैं |अब तो अपने चाहने वालो का उद्धार करो माँ |
’माते’ हमारे कहे, इस आंकड़े में फेर हो तो, हमें क्षमा करना|
इनमे से कुछ करोड अगर , भारत की भूखी जनता ,नेता .ठेकेदार ,इंजीनीयर के उदर में समा गए हो तो हमारे आकडे को माँ आप स्वयं सुधार लेना |माँ सब आपके बेटे हैं ,इनके अपराध क्षमा करना |कल वे सब ‘अस्थिया’ बन के आप के पास आयेंगे |तब के लिए ,आप अपना ‘सलूक’ इन गैर-इरादतन भ्रष्टाचारियों के प्रति अभी से सुरक्षित रख लें माँ |
अगले पडाव में हम साईं को रखे हुए थे |अब कुछ संत लोग ये समझाइश दिए जा रहे हैं कि साईं जी को भगवान की श्रेणी में, लोगों ने, पैसा कमाने की नीयत से रख दिया था |वे कभी अपने आप को भगवान बोले ही नहीं ?
तस्सल्ली है तो इस बात की कि इस मामले में कोई जांच आयोग बैठेगा नहीं|कोई सी बी आई, पुलिस वाले किसी को हडकायेगे नहीं कि बताओ किसके कहने पे ये भगवान का दर्जा दिया ?बेचारा फकीर तुझसे बोलने तो नहीं आया था कि मुझे सम्मान दो ?बेकार दूसरो के कटोरे की आमदनी खराब कर दी ?
लोग आस्था रखते हैं नेक आचरण पर ?
अपने को भगवान कहलाये जाने वाले एक संत ने अमेरिका में जाके प्रवचन दिया |
जिस किसी ने उन प्रवचनों में अपने आप को बहा लिया वे उन सब के लिए भगवान हो गए |
बिल्कुल ऐसे ही ,लोगो ने अपना अभीष्ट साईं में देखा ,साईं उनके भगवान हो गए |
किसी के हाथ –पैर तो बाँधना नहीं है कि नहीं .....इन्हें मत मानो .....
जहाँ हम अपने तर्क को घुसेड देते हैं, भगवान वहाँ से प्राय: लुप्त हो जाते हैं |
या यूँ कहे, भगवान वहीं निवास करते हैं जो बिना राग-द्वेष-इर्ष्या-लालच के उनमे लींन हो जाए |फायदे की कोई बात न हो |सब प्रभु की इच्छा है ,यही सोच उत्तम रखे |
अगर कहीं सचमुच प्रभु हैं, तो ‘प्रभु दर्शन की अवहेलना’ का पाप, मुझको कदम-कदम लगते जा रहा है ?
इस ‘सहारे’ को ‘बुढापे की लाठी’ लोग यूँ ही नहीं कहते ?
किसी दिन पूरी अनास्था छोड़ के, मैं अगर माथा टेके किसी दर पे मिल जाऊ, तो कतई आश्चर्य मत कीजियेगा |
इतना जरुर है ,भगोड़े बाबाओं को, अगर वे मुझे ‘पारस’ देने का भी लालच दें, तो उनको अपनी गाँठ की चवन्नी भी न दूँ |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग {छ.ग.}
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ...........
गनपत शाम को आया |आज उसकी खोजी निगाहें शांत थी |वो ड्राईग रूम में इधर-उधर कुछ नहीं देख रहा था |इलेकशन निपटाए हुए नेता की माफिक शांत चेहरा था |परिणाम आने में हप्ते भर का समय हो और काटे न कटे जैसा भाव दिख रहे थे |उसकी बैचैनी को ताड़ के हमने पूछा क्या बात है गनपत ,कुछ उखड़े हुए से हो ...?
उसने अगल –बगल निगाह फेरी ,मै समझ गया कोई राज-नुमा बात है जिसके खुलासे से पहले वो इत्मीनान चाहता है |मैंने ग्यारंटी देते हुए कहा ,भाई खुल के बताओ |अपनों से क्या पर्दा ?
वो झिझकते हुए खुलने को राजी हुआ |सुशील भाई वो आपकी भाभी है न .....?
हाँ ..हाँ ...अपनी बेगम ....यानी आपकी अर्धांगनी ....?खैरियत तो है ....?
-अरे ऐसी खैरियत-वैरियत वाला मामला नहीं है वो एकदम तंदरुस्त हैं |मगर मामला उन्ही से जुडा है.....|
मैंने कहा भाई गनपत ,साफ-साफ कहो ,पहेलियाँ मत बुझाओ |वैसे पिछले महीने भर से इलेक्शन वाली पहेलियाँ बुझा-बुझा के, आपने हमारा दिमाग खाली कर लिया है |सीधे-सीधे बताओ तो सही बात क्या है जिसमे आप हमारी दखल चाहते हैं ?झगडा फसाद हुआ क्या ,ये तो प्राय: मिया-बीबी के बीच रोज का मामला है, |घर-घर होते रहता है| ये बिना किसी बाहरी दखल के दो-चार दिनों में अपने-आप शांत हो जाता है |
अगर गायनिक मसला है तो हमारी श्रीमती चली जायेगी साथ| किसी डाक्टर को दिखा लाएगी ...|
सुशील भाई आप तो समझ नहीं रहे हो ....ये सब बात नहीं है ....?
मैंने कहा तुम समझाते भी नहीं.... और चाहते हो मै समझ जाऊ..?.मै कोई उपर वाला हूँ क्या ...?अगर शर्म-लाज से लिपटी हुई बात है तो ये समझ लो डाक्टर के पास मर्ज जितना खुल के कहोगे ईलाज उतना बेहतर मिलेगा ...समझे ....?
वो बिना रुके ,एक सांस में बेझिझक कह गया ,तुम्हारी भाभी “मुझसे पहली सी मुहब्बत मागती है” |
मेरे होठो में जोर की हसी आई |हसी दबाते हुए मैं, गनपत के गंभीर टाइप ‘मनोवैज्ञानिक वाकिये’ से पल भर में अपडेट हो गया |
अब गनपत को छेडने और खीचने की गरज से कहा ,तो पहली सी मुहब्बत देने में कोई हर्ज है क्या .....?घी –दूध बादाम –शादाम खाओ तंदरुस्ती बनी रहेगी |चव्यनप्राश तो आजकल आम बात है ,उमर के साथ शर्माने वाली बात ही नहीं है |लोग कहते हैं,तीतर,बटेर,मुर्गे ,अंडे में अच्छा दम रहता है |भाई गनपत वो क्या कहते हैं शिलाजीत -वियाग्रा वगैरा जिसका एड जहां –तहां आते रहता है ,कभी ले के देखो,वैसे हम इस की सलाह नहीं देते |हमने बिना सांस खीचे मिनटों में ‘पहली सी मुहब्बत’ का ट्रेलर फेक दिया |
इस ट्रेलर का असर गनपत के सोच की टिकट खिड़की पर औंधे मुह ऐसे गिर गया जैसे करोडो खर्च करके फ़िल्म प्रोड्यूस की हो, और पहले दिन हाल खाली मिले |
-उसने कहा, सुशील भाई ,हम उनको मुहब्बत के नाम पे, चार-चार ‘इशु’ टाइम-टाइम पे पहले पकड़ा चुके हैं| ....वे सब भी अब खुद काबिल ,बड़े, और समझदार हो गए हैं |उन सब के बच्चे ,यानी नाती –पोते घर में धमा-चौकडी मचाये रहते हैं |अब इन सबों के बीच ये सब शोभा देता है भला ?
अब ऐसे में, उनकी ‘पहले सी मुहब्बत’ वाली मिन्नत पल्ले नहीं पडती |
और आपको बता दें, हम झंडू च्वयनप्राश वाले नहीं हैं. कभी इस्तेमाल ही नहीं किया|वियाग्रा –शिलाजीत वालों से कोसो दूर भागते हैं |हमारे बाप – दादों ने जो नहीं किया वो करके क्या नरक के दरवाजे में कपडे फाड़ेंगे ....?
रोटी –दाल,खिचडी में निपट रहे हैं|
देखो तो ससुरी ,अब जाके अपना और हमारा मुह ......अब क्या कहें .?
फजीहत कराने में तुली हैं .....खैर ...जाने भी दो ....?
मैंने गनपत से कहा गनपत भाई अगर मामला ‘इधर’ का नहीं है तो सचमुच ,तुम कहीं कन्फ्यूज्ड हो ...|
मुझे आराम से सोच लेने दो|
जरुर तुम, दूसरी-तीसरी गली में घुस गए हो ?
भाभी जी के भले संस्कार हैं |नित भजन –कीर्तन में जाते मैंने स्वयं देखा है |आपको गलत फहमी हो रही है ....?
यूँ करो आप मामला मुझे फ्रेम-बाई –फ्रेम आराम से पूरे संदर्भ के साथ बताओ |
किस तरह ,कब-कब उनने ये उलाहने दिए , “आप मुझसे पहली सी मुहब्बत नहीं करते’.....
-मेरा अंदाजा है, भाभी जी को ,किसी शापिंग माल में कोई चीज, यानी साडी या ज्वेलरी पसंद आ गई होगी |इसे खरीदने कि भूमिका बांधी जा रही होगी |या मायके से ‘काल’,मेसेज आया होगा|उधर से कोई आने को होगा ,जिसे स्टेशन लेने जाने,घुमाने –फिराने का मामला आपके जिम्मे गिरना है ....|
तुम जो सोच रहे हो,जवानी के दिनों जैसा, प्यार-मोहब्बत वाला मामला है, वैसा मै अपने तजुर्बे के साथ कहे देता हूँ ,कुछ नहीं है समझे ?
घर जाओ ,किसी शुभ मुहूर्त में उनसे प्रणय निवेदन करो ,देखो कैसे झिडक के छिटक जायेगी |छी आपको शर्म नहीं आती .....?
कल आके बतलाना जरूर ....जोर का झटका धीरे से लगा कि नहीं .......?
अगले सप्ताह भर गनपत नदारद रहा |
आठवे दिन शापिंग माल में फौज के साथ मिला |परिचय कराने लगा ये मेरे साले ,उनकी पत्नी,बच्चे सब छुट्टियाँ मनाने आये हैं |
पीछे उनकी पत्नी यानी भाभी हाथ जोड़ के नमस्ते कर रही थी |
उनके जुड़े हुए हाथों में, गनपत के प्रति मुझे, एक अनुनय, एक आग्रह,एक उलाहना दिख रहा था| इन सब के साथ ही एक जुमला भी ख्याल करके हंसी सी आ रही थी ,बमुशील रोक पा रहा था,मानो बड़े इशरार से गनपत से कह रही हो “आप मुझसे पहली सी मुहब्बत नहीं करते”
गनपत ,अपनी शर्मिदगी लिए बहुत से थैलों के झुरमुट में,मुझसे जल्दी बाय-बाय करने के मुड में दिख रहा था ......|
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग)
बदला ....राजनीति में ....
राजनीति में पार्टी या पारी बदलने के साथ, ‘बदला’ लेने की परंपरा शुरु से रही है |
इस परम्परा को न मानने वाले, ‘धुरंधर खिलाड़ी’ की श्रेणी से बहिस्कृत कर दिये जाते है|
यहाँ बदला लेने वाले का अंत;करण ‘अर्जुन-कृष्ण संवाद’ को ध्वनित करते हुए उसे ‘मैदान’ में आने के लिए उत्साहित करते रहता है ;यथा ;
-‘हे पार्थ , अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-स्वरूप, इस प्रकार के ‘युद्ध’ को भाग्यवान लोग की पाते हैं |’
-‘यदि तू इस धर्मयुद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ती को खोकर पाप को प्राप्त करेगा |’
-‘सब लोग तेरी भूत-काल की अपकीर्ती का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ती मरण के सामान है |’
-‘जिनकी dristhiदृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित रहा ,वे महारथी तुझे ‘भय’ के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे |’
राजनीति में ‘खदेड़े’ हुए लोग बड़े धुरंधर ,काबिल और माहिर होते हैं |
इनसे पंगा लेने का मतलब है, आ बैल मुझे मार, यानी सोये हुए शेर को पत्थर मार के जगाना |
एक तो इन्हें निकालना नहीं चाहिए, दुसरे अगर अकेले मलाई चट करने के लिहाज से, इनसे किनारा करना, निहायत जरुरी किसम की, आवश्यकता है, तो ‘चाणक्य- नीति’ के, गुटके टाइप इतिहास का, घोर,-घनघोर अध्धयन किया होना बेहद जरुरी है |
ये युद्ध के लिए लालाईत लोग होते हैं |पीछे हटते नहीं |
अमूमन देखने में आया है, कि किसी ने अपनी पार्टी में बढ़ते प्रभाव के चलते,एक-दो टिकट ज्यादा मांग लिए ,पेट्रोल पम्प में अपने लोग काबिज कराने अपने केंडीडेट डाल दिए,किसी टेंडर- ठेके में अपनी टांग घुसेड दी ,नजूल जमीन की सरकारी बन्दरबांट में अपनी चला दी ,यही सब,लोकतंत्रीय व्यवस्था के व्यवधान, उभरते किस्म के लोगो को, पार्टी से धकियाने के कारण बनते आये हैं |
इसमें कुछ अहम महत्वपूर्ण कारणों का उल्लेख लेख की मर्यादा कायम रखने की बदौलत नहीं लिखे जा पा रहे हैं जिसका खेद है ,मसलन मिनिस्ट्री में मलाईदार जगह,संगठन में ठोस निर्णय की सर्वकालिक जानकारी यथा ‘बिना उनके पत्ता न हिले’ वाली सोच........ ,उनके पुराने कारनामे में ‘पर्दा –प्रथा’ जारी रहे की मांग....... या हो सके तो उनके विरुद्ध सभी ‘न्यायालयीन’ मुद्दों की सभी प्रकार के क्रियाकलापों की अंत्येष्ठी.......
पार्टी की कुछ मजबूरियां होती है,वरना कोई बेवफा नहीं होता |
उथले इल्जाम भी संगीन तरीके से लगाने की नौबत आ जाती है |
यानी कि आप, पार्टी के बड़े ओहदेदार के खिलाफ, मीडिया में क्या खाकर चले गए ?
संगठन वाले अपना दफ्तर सुबह आठ से लगाए फिरते हैं और आप हैं कि उधर का रुख नहीं करते ?
आपका ‘इगो’, उधर का ‘गो’ करने नहीं देता,?
आपकी सोच होती है ,छोटन से क्या मुह लगे....? ‘बड़े’ के पास फटकार की डर से आपका जाना नहीं होता|
जो कहना है मीडिया वालो से कह डालो ,जरूरत पड़े तो यू- टर्न फार्मूला हाजिर है |बात, बनी तो बनी, नहीं तो सब्जी बेचे अब्दुल गनी .......?
चार-आठ दिन तो खलबली सी मची रहती है |भइय्या ,अब तो ये गए .वाली ....|
पार्र्टी मामला ठंडा करने ,लीपा-पोती के तात्कालिक प्रयास में प्रेस वालो का पंचायत- कांफ्रेस करवा देती है |
कारण गिनवाए जाते हैं,नमक-मिर्च ,इंट –रोड़ा-पत्थर जिसे जो मिला इनके माथे जड़ दिया जाता है ,
‘और आगे नहीं-निभने’ की घोषणा के साथ दरकिनार का एलान हो जाता है |
मीडिया वाले तुरंत, माइक का मुह ‘बहिष्कृत’ की तरफ मोड़ देते हैं “दीपक ,बताओ उन को कैसा लग रहा है ?
दीपक का फायर राउंड चालु हो जाता है ,आपने इतने साल पार्टी की सेवा की ,आज आप निकाले गए ......कैसा लग रहा है .....?
-देखिये ,हम बहुत खुश हैं (पता नहीं ये क्यों खुश हैं ?, शायद हर बात में थैंक यू कहने की आदत के चलते रिवाजी जूमला हो इनका ) |
-हमने पार्टी को अपने कन्धों पर पच्चीस सालो तक खीचा ,केबिनेट में रहे ,बड़े –बड़े निर्णय में हमारी अहम् भूमिका रही ....हमसे सब अच्छी तरह से घुले-मिले थे यही हमारा अपराध था .....?
-सर ,इसमें अपराध जैसा कहाँ है .....?
-नहीं आप समझे नहीं ....|
-सर्वे-सर्वा को हमसे खतरा दिख रहा था ,अब ज्यादा क्यों मुह खुलवाते हो .....अभी पूरा निर्णय कहाँ हुआ है ?शो-काज आने दीजिये ,फिर देखेंगे ?
-इसके अलावा कोई दूसरा पहलु भी है ....आपकी नाराजगी का .....?
-हाँ ,है तो सही ,मगर आप मीडिया वाले दिन-दिन भर हाई-लाईट के नाम पर वही-वही दिखाते हो .....सुनिए ! हमें अपनी बेइज्जती ‘कल के छोकरों’ से बर्दाश्त नहीं होती ....बस ,इशारा समझिये ....चलाइये अपना चेनल ......
वे चलते बने .......
-सर,जाते –जाते ये तो बता जाइए आपका अगला कदम क्या होगा .....?
-अगला कदम , ....? आपको जल्दी पता चल जाएगा ...हम एक किताब लिखने की सोच रहे हैं |बखिया सबकी उधेडी जायेगी ....किसी को नहीं बख्शेंगे ....|समझ लीजिये .....
इन संवादों के ‘साइड- इफेक्ट्स’ में यूँ लगा, कुछ देर के लिए मुझे राजा विक्रम की छद्म भूमिका मिल गई है ?
बेताल घुडकते हुए कह रहा है ,बता राजन ,एक पुँराने निष्ठावान की निकासी यूँ संभव है ?
क्या निष्ठावान, ‘निकासी के फायदे’, स्वरूप अपनी पुस्तक के प्रचार में अभी से लग गया ?
क्या पार्टी के बेलेंस में कोई झटका लगेगा ?
बेताल की धमकी कि, इन प्रश्नों के उत्तर अगर जानते हुए भी न दिए गए तो सर के तुकडे-तुकडे कर दिए जायेंगे ;सकुचाते हुए ,मेरे भीतर का राजन उवाच-
बेताल ! यूँ तो आपने बहुत सारे सवाल उछाल दिए हैं ,अपनी हैसियत मुताबिक़ मै इंनके उत्तर देने की कोशिश करता हूँ
जहाँ तक पुराने निष्ठावान होने का प्रश्न है सिर्फ निष्ठावान होने भर से, किसी को अमर्यादित बयान देने की छूट नहीं मिल जाती|
उन्हें, नीति कहती है, मर्यादा में रहना चाहिए |अपनी बात, संगठन के मंच पर कहना सर्वदा उचित होता है |
-दूसरे प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहना है कि ,निष्ठावान, अपनी ‘पोल-खोलू किताब’ की बिक्री योजना का कोई मंसूबा नहीं पाले हुए है |
उसे सालों से अच्छी मिनिस्ट्री मिलते आई है ,अथाह कमाई के बाद रायल्टी वाला आइडिया निष्ठावान के केरेक्टर से मेल नहीं खाता |
मेरी राय में ,रायल्टी तो टूटपुंजिया साहित्यिक-लेखको की बस रोजी-रोटी हल करती है |इनकी किताबे लिखी तो जाती हैं ,प्रकाशित होती हैं मगर खरीदने वाला सरकारी विभाग की लाइब्रेरी के अलावा कोई,कहीं नहीं होता|
पब्लिसिटी के अभाव में,प्रकाशित होने के पहले हप्ते ही किताब बिक्री का दम तोड़ देती हैं |यहाँ फिल्मो जैसा व्यापार नियम नहीं है ,नंगे हो जाओ ट्राजिस्टर से आगे अंग ढको ,पीछे जैसे कोई देखने वाला नहीं फिर टिकट खिडकी में सौ-दो सौ करोड़ पीट लो ...|
निष्ठावान टाइप लोगों की पुस्तके ‘एक पंच लाइन के दम पर’ बिक्री का आसमान छू लेती हैं |
बेताल ये विडंबना मै खुद लेखक होने की वजह से भुक्तभोगी जीव बन के कह रहा हूँ |
रही बात पार्टी के बेलेंस की ,वो तो सम्हल जायेगी |
एक के गए से , बाजार नहीं भरेगा, ये आज तक कभी हुआ है ?
बाजार की रौनक आज –नहीं तो कल अपने पूरे शबाब ,दम-ख़म से लौट आयेगी |
बेताल ये कहते हुए, पेड़ पे जा लटका ,राजन ,तुमने मेरे प्रश्नों के सब सही जवाब दिए .....
स्वगत मैंने जोड़ लिया; ‘आपकी जीती हुई ‘करोड़’ की राशि किस स्विस अकाउंट में जमा कराऊ,.......है कोई स्विस खाता तुम्हारे पास ......?’
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
सब कुछ सीखा हमने ......
होशियारी कहाँ सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला ?
यूँ तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं |
हमारे फेके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए |बिसात धरी की धरी रह गई |
हमारे चारों तरफ हुजूम होता था |आठ –दस माइक से मुह ढका रहता था |एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेंन लिए, हमारे कारवाँ के पीछे सुबहो-शाम भागते थे |
सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था |
हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बाँट रखा था |सुबह भजन कीर्तन,मंदिर –मस्जिद वालों से मुलाक़ात,फिर उदघाटन,फीता कटाई के आग्रहकर्ताओ से भेट ....|लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई,यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन ...| उसके बाद टेन्डर,ठेका लेने वालो से बातचीत, हिसाब-किताब |
नाली, चबूतरा,रोड,पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी जाती थी |
आप सोच सकते हैं ,हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में ,घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी,कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया |
आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़,कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ?
जो हमारे दरबार चढा ,सब को सब कुछ, जी चाहा दिया|किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नही की |उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के तो यूँ लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं |इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो |ना नहीं करेगे .....|
हम इलेक्शन में खड़े हुए |इन्ही लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट ,फकत अपने पक्ष में माँग बैठे |वे हमें न दिए | जाने कहाँ डाल आये |हमारी सुध न ली |जमानत तक नहीं बचा सके हम ....?
तीस –पैतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमे कम नहीं लगा |
इस वक्त हम अकेले आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं |साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी ,शुभचिंतक ,जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है |
चाय वाला मक्खियाँ मारने से बेहतर,कहीं और चला गया है |
हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी ....?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
समीक्षा के बहाने .....
मुझे लिखते हुए बरसों हो गए |मैंने दरबार नहीं लगाए |
जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करंते नहीं बनेगी |आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता |बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मै ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए |
बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है |
मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ?
फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है |ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं |साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है |
हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं|मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं |इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है |श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है|परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ?
व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं |डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं “किसी की भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है |
जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी |यही तो इसकी जान है |आजकल इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता |वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है |गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ?
लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है |ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो |लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ?
मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ?
हमारे एक मित्र ने,कहीं लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा |
हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी सब समा जाए |सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ?
लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा |
‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं |भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक, |अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहाँ तक है ?
सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया |
समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग)
नैतिक जिम्मेदारी के सवाल .....
हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है |इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आयोजन या कार्यक्रम का फेल हो जाना जरूरी तत्व होता है |हमारे तरफ इसे बहुत ही संजीदगी से लेते हुए अंजाम दिया जाता है |
किसी मिशन,आयोजन या कार्यक्रम के फेल होने का ठीकरा एक-एक कर किस-किस पर फोडते रहेंगे ये अहम प्रश्न असफलताओं के बाद तुरंत पैदा हो जाता है ?इसके लिए समझदार लोग या पार्टी पहले से पूरी तैय्यारी किए होते हैं | एक आदमी सामने आता है या लाया जाता है, जो पूरी इमानदारी के साथ अपने आप को, ‘हुई गलती’ के लिए ‘मेन दोषी आदमी’ बतलाता है |लोग उस पर विश्वास करके, आने वाले दिनों में भूल जाने का वादा कर लेते हैं |ये बिलकुल उसी तरह की सादगी लिए होता है जैसे एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद एक छोटे से गेगमेन को जिम्मेदार ठहरा कर सस्पेंड कर दिया जावे या शहर में कत्लेआम ,कर्फ्यू के बाद एक थानेदार को लाइन अटेच कर लिया जावे |माननीय मंत्री,सांसदों के किसी लफड़े-घोटाले में इन्वाल्व होने पर एक जांच आयोग बिठा देने का प्रचलन है |यहाँ जिम्मेदारी फौरी तौर पर कबूल नहीं की,या करवाई जाती |
‘नैतिक जिम्मेदारी’ की रस्म-अदायगी सर्व-व्यापी है | दुनिया के हर काम में हर फील्ड में ये व्याप्त है| |आप खेल में है,तो खिलाड़ी, खिलाने वाले कोच ,क्यूरेटर,नाइ,धोबी सब इसके दायरे में आ जाते हैं |बस ‘हार’ होनी चाहिए, कोई न कोई खड़ा होके कह देगा ये मेरी वजह से हुआ |
हमारी नजर में ‘वो’ ऊपर उठ जाता है|ऊपर उठने का अंदाजा यूँ लगा सकते हैं कि अगले मैच में, अगला दिखता नहीं |वो अलग सटोरियों की जमात में शामिल होकर पैसा बानाने की जुगत में चला जाता है |नाटकों में इसे नेपथ्य कहा करते हैं |
अरबों –खरबो के, सेटेलाईट भेजने के अभियान में, कभी-कभी कोई चूक हो जाती है ,ऊपर जाने की बजाय सेटेलाईट धरती में लोट जाता है|हम अमेरिका ,जापान,चीन.या पडौसी देश को दोष देने के लिए खंगालते हैं |भाई आओ ,जिम्मेदारी लो हम अपने अभियान में असफल रहे ,बता दो ये सब तुम लोगों की चाल थी |घटिया माल भेजे,वरना हमारी सेटेलाईट आसमान में बातें करती |अब की बार हमारी लाज बचा लो हम कल आपके काम आयेंगे |
वो सेटेलाईट, जो पुराने फटाको की तरह फुस्स हो के या जो अनारदाना जलने की बजाय फट जाए वाली की नौबत में समा जाती है |इस मौके को मीडिया वाले हाथ से जाने नहीं देते |वो घेरते हैं ,क्या कारण थे कि सेटेलाईट ‘कक्षा’ में नहीं भेजे जा सके?
वैज्ञानिकों को अगर कारण पता होता तो भला सेटेलाईट फुस्स ही क्यों होता ?
वे अपने राजनैतिक मुखौटे में पहले से तैय्यार जवाब पेश कर देते हैं |
इस अभियान में दरअसल बरसों की मेहनत लगी है|हमारे वैज्ञानिक दुनिया में बेजोड हैं |जो चूक हुई है उसका विश्लेष्ण किया जाएगा |हम मिशन को फेल नहीं होने देंगे |हम छह महीनों के भीतर दुनिया को दिखा देंगे कि हम भी अंतरिक्ष के मामले में किसी से कम नहीं हैं |इस फेल हुए मिशन की नैतिक जिम्मेदारी समय पर वैज्ञानिकों को वेतन न देने वाले बाबुओ की है |आगे क्या कहें ?
अगले दिन पेपर की हेडलाइन बनती है सेटेलाईट मिशन फेल |संपादकीय में खेद के साथ सरकार को समझाइश दी जाती है कि अगर मिशन की सफलता चाहिए तो वैज्ञानिकों को उचित समय पर पारिश्रमिक दिया जावे |ये मनरेगा मिशन नहीं है जिसमे ठेकेदार अपना कमीशन बाधे.... ?
हमारे देश में नहर ,बाँध ,डेम,पुल ,इमारतें ,रोड सब ठेके पर बनवाए जाते हैं |ठेके पर इन्हें देने –लेने की परंपरा कब और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है |प्रमाणिक चीज तो ये है कि आजादी के बाद बनने वाले नहर ,पुल इमारत ,सड़क-रोड का टिकाऊ होना जरूरी नहीं है| |इस बारे में ,ठेकेदारों का ये मानना है कि, घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?इस मुद्दे पर सब ठेकेदार एकमत हैं| वे इतना कमजोर प्रोडक्ट देते हैं कि एक खास मुकाम तक खिच भर जाए बस की सोच रहती है |
किसी अभागे का, बनते ही टूट- गिर जाता है तो उनको तत्काल, नैतिक जिम्मेदारी वाला रोल निभाना जरूरी हो जाता है |
वो बकायदा ,कभी घटिया सीमेंट या कारीगरों की एक रुपिया किलो अनाज मिलने से, काम के प्रति लापरवाही का बम फोड देते हैं |उल्टे सरकार को दोष दे देते हैं कि मजदूरों को इतनी सुविधाएँ दी गई तो वो दिन दूर नहीं जब वे काम के प्रति उदासीन हो जायेंगे |सरकार नैतिक जिम्मेदारी समझे...... | कुछ कदम उठाये ....?
अगला ठेका ,इस रस्म अदायगी के निचोड़ से खुश होकर सरकार उनको दे देती है कि एक रुपिया वाला प्रचार,गरोबो की हितैषी ,गरीब रक्षक सरकार का, अच्छी तरह से हुआ |
मुझे मेट्रिक में तीन विषयों में सप्लीमेंट्री आई |तब मै समझता था, कि मेरी उम्र नैतिक जिम्मेदारियों को समझने-साधने की नहीं हुई है |घर वालों ने दबाव बनाया ,मुझ पर लापरवाही के दोष मढ़े गए|इतनी लापरवाही आखिर हुई कैसे ....?क्या दिन-रात खेलकूद में मगन रहे ..?हम सब तो फस्ट,सेकंड डिवीजन की त्तरफ देख रहे थे,हमे क्या पता था जनाब सप्लीमेंट्री वाला गुल खिला रहे हैं |मेरी गर्दन तब झुकी रह गई थी |थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ ,निगेटिव विचार कुआ- बावड़ी,सीलिग़ फेन वाले भी क्षण मात्र को आये ,जिसे झटक दिया |ऐसे समय इन विचारों का झटक देना किसी महाअवतारी ही कर सकता है मुकाबला, आरोप लगाने वालो की तरफ धकेल दिया | सीधे-सीधे नाकामयाबी का सेहरा कैसे पहन लेता ...? मैंने प्रतिप्रश्न किया, मालुम है सब दोस्त लोग ट्यूशन-कोचिग पढते हैं तब जाके पास होते हैं |आप लोग तो कभी बच्चो पर ध्यान देते नहीं ....?वे लोग जवाब-शुन्य थे, मेरी आफत टल गई थी |
आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है |
जिस किसी को किसी भी मौके पर,किसी भी किस्म की जिम्मेदारी लेनी हो या मुह फेरना हो उसे अध्ययन –मनन के फेर में पडने की बजाय रटा-रटाया,बना-बनाया हल मिल जाए तो इससे बेहतर चीज भला दूसरी क्या हो ....?
आजकल राजनीति में औंधे मुह गिरने की गुंजाइश जोरो से हो गई है |
संभावित हार के नतीजे ,इधर मीडिया ने एक्जिट पोल में दिखाया नही, उधर नैतिक जिम्मेदारी वाला भाषण स्क्रिप्ट तैयार करवा लेनी चाहिए |इससे व्यर्थ तनाव ,अवसाद जैसे घातक रोगों से निजात मिल जाती है |
यूँ तो नैतिक जिम्मेदारी वाली ,सभी स्क्रिप्ट लगभग एक सी होगी|आप अपनी सुविधा के लिए सेफोलाजिस्ट से मिले आंकड़े, भर के, थोड़ी राहत की गुजाइश अपने लिए देख सकते हैं |
बता सकते हैं कि पिछले चुनाव से ज्यादा व्होट अब की बार मिले हैं |व्होट प्रतिशत में इजाफा होने के बावजूद ये सीट में तब्दील नहीं हुए ये हमारा,हमारी पार्टी का दुर्भाग्य है |
हमारी हार की वजह पिछडों का मतदान करने न आना ,एक खास जाति के मतदाताओं का झुकाव एक खास पार्टी के पक्ष में हो जाना रहा|हमारी पार्टी ने रहीम को साधा, राम को दरकिनार किया |रोड शो में हमने किराए के लोग नहीं लगवाए |मीडिया को चटकदार जुमले नहीं परोसे, जिसे लेकर दिन-रात वो बहस करवाते रहें | हमने गलत पार्टी से गठबन्धन किया ,जिसका खमियाजा हमें भुगतना पड़ा|हमने टिकट वितरण में गलती की ,जीत सकने वाले लोगों को टिकट नहीं दे सके |अमीर लोगो को टिकट दे दिए ,वे पैसे एजेंटों को दे के, सो गये |बूथ तक झांकने नहीं आये |एजेंट पैसे मतदाताओं को देने की बजाय ,खुद दबा गए |खेल यहाँ हो गया .....|वैसे इन सब के बावजूद हार की सारी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मै अपने पद से स्तीफा देता हूँ .....|
मै इस स्क्रिप्ट की कापी राईट का लफडा नही रखते हुए, इसे सार्वजनिक प्रापर्टी बतौर एलान करता हूँ |इन शब्दों का इस्तेमाल जिसे जब मौक़ा मिले, पूरी, अधूरी या कोई एक भाग , अपने भाषण में कर लें......|मुझे तमाम असफल लोगों के साथ सहानुभूति है ....|आगामी समय उनका हो .....आमीन ....
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पिछवाड़े बुढ्ढा खांसता
बुढ्ढे को जिंदगी भर कभी बीमार नहीं देखा |हट्टा-कट्टा,चलता-फिरता ,दौडता-भागता मस्त तंदरुस्त रहा |कभी छीक ,सर्दी-जुकाम, निमोनिया-खासी का मरीज नहीं रहा|
अभी भी वो सत्तरवे बसंत की ओर पैदल चल रहा है |उसकी सेहत का राज है कि वो , घर की सुखी दाल-रोटी में मगन रहता है |दो बच्चे थे ,शादियाँ हो गई |इस शादी के बाद पत्नी की सीख पर कि बहु–बेटियों का घर है ,समधन पसरी रहती हैं ,आते –जाते खांस तो लिया करो |
इस प्रायोजित खांसी की प्रेक्टिस करते –करते उन्हें लगा कि ‘ग्लाइकोडीन’ का ब्रांड एम्बेसडर बनना ज्यादा आसान था, कारण कि टू बी..एच. के. वाले मकान में जहाँ पिचावाडा ही नहीं होता ,आदमी कहाँ जा के खासे ?
हमारे पडौस में दो दमे के बुजुर्ग मरीज रहते हैं ,उनके परिवार वाले बाकायदा उनको पिछवाड़ा अलाट कर रखे हैं जब चाहो इत्मीनान से रात भर खांसते रहो |
एक हमारे चिलमची दादा भी हुआ करते थे ,एक दिन इतनी नानस्टाप, दमदार,खासने की प्रैक्टिस की कि पांच-दस ओव्हर पहले खांसते-खासते ,उनकी पारी सिमट गई ,वे अस्सी पार न कर सके |
आजकल हमारे चेलारामानी को पालिटिकली खांसने का शौक चर्राया है |
वे लोग लोकल पालिटिकल फील्ड में हंगामेदार माने जाते हैं ,जो समय पे ‘खासने’ का तजुर्बा रखते हैं मसलन ,सामने वाले ने प्रस्ताव रखा महापौर को घेरने का सही वक्त यही है वे कहेंगे नहीं अभी थोड़ी गलती और कर लेने दो ,वे खांस कर वीटो कर देते हैं उनकी उस समय,मन मार के , सुन ली जाती है |
आप कैसा भी प्रस्ताव, कहीं भी, चार लोगों की बैठक में ले आओ वे विरोध किए बिना रह ही नहीं सकते |
लोग अगर कह रहे हैं कि देखिये ,हम लोग मोहल्ले में पानी की कमी के बाबत मेयर से मिल के समस्या से अवगत करावे |वे खांस दिए मतलब उन्हें इस विषय में कहना है |जोर से खांसी हुई तो मतलब उनकी बात तत्काल सुनी जावे |वे सुझाव देने वाले पर पलटवार करके पूछते हैं |आपके घर में पानी कब से नहीं आ रहा ?घर के कितने लोग हैं , हमारे घर में चौदह लोग रहते हैं .सफिसियेंट पानी आता है |इतना आता है कि नालियां ओव्हर फ्लो हो रहती हैं |मेयेर से हमारी तरफ नाली बनवाने का रिक्वेस्ट किया जावे |अभी गरमी आने में तो काफी वक्त है आपकी समस्या तब देख ली जावेगी |मीटिंग उनके एक लगातार खासने से, अपने अंत की तरफ चली जाती है ,न पानी और न ही नाली की बात, मेयर तक पहुच पाती है |
हम मोहल्ले वाले चेलारमानी के ‘न्यूसेंस-वेल्यु’ को भुनाने के चक्कर में उनको एक बार मोहल्ला सुधार समिति का अध्यक्ष बना दिए |उनने साल भर का एजेंडा यूँ बनाया |भादों में सार्वजनिक गणेश उत्सव ,कलोनी वालों से चन्दा ,फिर नवरात्रि में कविसम्मेलन का भव्य आयोजन , चंदा |मोहल्ला सुधार समिति की तरफ से विधायक –मन्त्री का स्वागत ,जिसमे मोहल्ले के विकास के लिए राशि की मांग ,सड़क –नाली सुधार पर ध्यानाकर्षण |हरेक माह समिति के सदस्यों की बैठक |
वे बैठक में एकमेव वक्ता होते ,आए दिन ,चंदा उगाही में, मुस्तैदी के चलते मोहल्ले वाले तंग आ गए |किसी भी दरवाजे पर खटखटाने की बजाय वे केवल खास दिया करते तो लोग समझ जाते चेलारमानी आ गए |एक सौ, चंदे की चपत लग गई समझो |आदमी सौ तो बर्दास्त कर लेता, मगर बिना चाय के न टलने की आदत को बर्दाश्त न कर पाते |
जिस गरमी से उसे चुना गया था उसी मुस्तैदी से उसे हटाने का अभियान चलाना पड़ा |लोग चंदा दे-दे के हलाकान हो गए थे |
चेलारमानी के सब्सीट्युट , ताकतवर खासने वाले की तलाश मोहल्ले में जारी है |
अगर आपके पिछवाड़े में कोई बुढ्ढा खांसता हुआ मिले तो इस मुहल्ले में भिजवा दे |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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पीठ के पीछे की सुनो .....
आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते |ढेर सारी चिकनी –चुपडी सुना के जाते हैं |क्या जी आपने तो खूब मेहनत की | लोग आप को समझ नहीं पाए जी |पिछली बार अच्छे से समझे थे |पता नहीं इस बार क्या कारण रहा ? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला ....?
प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं |
परोक्ष में ,यानी पीठ के ठीक पीछे,....... कहते फिरते हैं ,खूब ताव आ गया था....... स्साले में ,आदमी को आदमी नहीं समझता था |
कुत्तों ,गुलामो की तरह बिहेव करता था |
हारना ही था |
अब भुगतो पांच साल को |
और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले |
गए..... |
उधर प्रकट में ,नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी ...?
फिर हुई तो हुई कैसे ....?
हार के कारणों के विश्लेषण के लिए अपने चमचो की कमेटी को काम सौपते हैं |
देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूँ नहीं ,मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं |
तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो |देखे क्या निकलता है |
चमचे नेता जी से राशन-पानी,डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है|
आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं |
महराज ,मै किशनपुरा इलाके में गया था,वहाँ से आप बीस हजार से पिछड़े थे |
जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था ,दरअसल ,लोग उसके सख्त खिलाफ थे |वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था |अनाज,कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता मगर सबके दाम आसमान में चढाये रखता था,जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए |सामान वापस करने जाओ तो,दैय्या-मैया करके भगा देता था |किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे |अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना प्रचार करवाने निकलोगे तो जीतने की गुजाइश कहीं बचती है क्या ?
भैय्याजी ,हम उसी के बगल वाले गाँव की रिपोर्ट लाये हैं |वहाँ ये हुआ है कि,मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए |अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते |लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची |
भय्या जी आपके लठैत के रंग –ढंग अच्छे नहीं थे |
-काय बिलवा,खुल के बता न ...?अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे ....?
भईया जी,हमने पहले कही थी,लठैतों को शुरु से मत उतारो|आप मानते कहा हो ...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे|गाँव में लौंडिया छेडते रहे|आपकी, वो क्या कहते हैं ,साफ सुथरी इमेज को ‘सर्फ’ से धोने लायक भी न रख छोड़ा|
जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों के गाव से अकेले पच्चीस – तीस की लीड करते|
महाराज,जिसे आपने अपने पक्ष में ,पांच पेटी दे के बिठाया , वो मनराखन साहू ,बहुत कपटी आदमी निकला |विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने ..... |वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया|दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर |आप भी कहाँ –कहाँ फंस जाते हो ,समझ नहीं आता | वो पिल्ला बोलता है ,इलेक्शन के खम्भे हर साल क्यों नहीं गडाए जाते ...?मूतने में सहूलियत होती |
महराज ,आपने एक बात,पटरी पार वाले गाव की नोट की ?
आपने उधर शहर को जोडने वाले पुल बनवाए | रोड को मजबूती दी , सीमेंटीकरण करवाए,बुजुर्गो के लिए उद्यान,कन्याओं के लिए गल्स कालेज खुलवाए |उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं |आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं |केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के लहराया है भाई जी |
काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते ...?आपकी जीत निश्चित होती |
सुशील यादव
पूर्वजो की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ |अब ज्यादा फेकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे |
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानो उनमे कुछ बनने की, अपने –आप में काबलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नही चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथो हुआ करता था |
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं |
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गो के लिए फक्र का मसला हुआ करता था |
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू |
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है |
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच हो जाया करते थे |
सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी |
किसी पडौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... |मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड |
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर, कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था|वे जंगलो में शिकार के वास्ते दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों के लिए चल देते थे |
हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोस्त उनका लंच –डिनर होता था |
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है |
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया |वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल ,बच्चो को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे |
इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडौस के सहदेव जी,खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नही,पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा |
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी आर्डर ही नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई |पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन |
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है |बेटा अपनी पोस्ट और पैसे पर इतराता था |चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सडक को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है |उसे सरकार छोडती ही नहीं |बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है |
अभी ब्रिज का काम मिला है |वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं |सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून, बाटन में पल्टी मार के कहता है|मेरी बात सुने नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी |कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त |
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई |
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों लेते रहते हैं |उसके पीछे का मकसद ,शायद ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा |
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम अगर सब इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापो के अफलातून बेटों को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती |इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुह से बोल, फूलो की माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज का फरमान जारी |
मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश |यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन जरूरत होती है |वे मजे से बता सकते हैं कि प्याज, डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है |
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
सब कुछ सीखा हमने ......
होशियारी कहाँ सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला ? यूँ तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं |
हमारे फेके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए |बिसात धरी की धरी रह गई |
हमारे चारों तरफ हुजूम होता था |आठ –दस माइक से मुह ढका रहता था |एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेंन लिए, हमारे कारवाँ के पीछे सुबहो-शाम भागते थे |
सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था |
हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बाँट रखा था |सुबह भजन कीर्तन,मंदिर –मस्जिद वालों से मुलाक़ात,फिर उदघाटन,फीता कटाई के आग्रहकर्ताओ से भेट ....|लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई,यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन ...| उसके बाद टेन्डर,ठेका लेने वालो से बातचीत, हिसाब-किताब |
नाली, चबूतरा,रोड,पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी जाती थी | आप सोच सकते हैं ,हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में ,घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी,कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया |
आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़,कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ?
जो हमारे दरबार चढा ,सब को सब कुछ, जी चाहा दिया|किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नही की |उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के तो यूँ लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं |इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो |ना नहीं करेगे .....|
हम इलेक्शन में खड़े हुए |इन्ही लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट ,फकत अपने पक्ष में माँग बैठे |वे हमें न दिए | जाने कहाँ डाल आये |हमारी सुध न ली |जमानत तक नहीं बचा सके हम ....?
तीस –पैतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमे कम नहीं लगा |
इस वक्त हम अकेले आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं |साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी ,शुभचिंतक ,जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है |
चाय वाला मक्खियाँ मारने से बेहतर,कहीं और चला गया है |
हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी ....? सुशील यादव,.
समीक्षा के बहाने .....
मुझे लिखते हुए बरसों हो गए |मैंने दरबार नहीं लगाए |
जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करंते नहीं बनेगी |आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता |बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मै ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए |
बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है |
मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ?
फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है |ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं |साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है |
हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं|मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं |इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है |श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है|परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ?
व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं |डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं “किसी की भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है |
जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी |यही तो इसकी जान है |आजकल इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता |वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है |गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ?
लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है |ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो |लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ?
मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ?
हमारे एक मित्र ने,कहीं लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा |
हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी सब समा जाए |सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ?
लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा |
‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं |भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक, |अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहाँ तक है ?
सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया |
समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग)
नैतिक जिम्मेदारी के सवाल .....
हमारे यहाँ हरेक असफलता के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने की परंपरा है |इस परंपरा के निर्वाह के लिए किसी मिशन ,आयोजन या कार्यक्रम का फेल हो जाना जरूरी तत्व होता है |हमारे तरफ इसे बहुत ही संजीदगी से लेते हुए अंजाम दिया जाता है |
किसी मिशन,आयोजन या कार्यक्रम के फेल होने का ठीकरा एक-एक कर किस-किस पर फोडते रहेंगे ये अहम प्रश्न असफलताओं के बाद तुरंत पैदा हो जाता है ?इसके लिए समझदार लोग या पार्टी पहले से पूरी तैय्यारी किए होते हैं | एक आदमी सामने आता है या लाया जाता है, जो पूरी इमानदारी के साथ अपने आप को, ‘हुई गलती’ के लिए ‘मेन दोषी आदमी’ बतलाता है |लोग उस पर विश्वास करके, आने वाले दिनों में भूल जाने का वादा कर लेते हैं |ये बिलकुल उसी तरह की सादगी लिए होता है जैसे एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद एक छोटे से गेगमेन को जिम्मेदार ठहरा कर सस्पेंड कर दिया जावे या शहर में कत्लेआम ,कर्फ्यू के बाद एक थानेदार को लाइन अटेच कर लिया जावे |माननीय मंत्री,सांसदों के किसी लफड़े-घोटाले में इन्वाल्व होने पर एक जांच आयोग बिठा देने का प्रचलन है |यहाँ जिम्मेदारी फौरी तौर पर कबूल नहीं की,या करवाई जाती |
‘नैतिक जिम्मेदारी’ की रस्म-अदायगी सर्व-व्यापी है | दुनिया के हर काम में हर फील्ड में ये व्याप्त है| |आप खेल में है,तो खिलाड़ी, खिलाने वाले कोच ,क्यूरेटर,नाइ,धोबी सब इसके दायरे में आ जाते हैं |बस ‘हार’ होनी चाहिए, कोई न कोई खड़ा होके कह देगा ये मेरी वजह से हुआ |
हमारी नजर में ‘वो’ ऊपर उठ जाता है|ऊपर उठने का अंदाजा यूँ लगा सकते हैं कि अगले मैच में, अगला दिखता नहीं |वो अलग सटोरियों की जमात में शामिल होकर पैसा बानाने की जुगत में चला जाता है |नाटकों में इसे नेपथ्य कहा करते हैं |
अरबों –खरबो के, सेटेलाईट भेजने के अभियान में, कभी-कभी कोई चूक हो जाती है ,ऊपर जाने की बजाय सेटेलाईट धरती में लोट जाता है|हम अमेरिका ,जापान,चीन.या पडौसी देश को दोष देने के लिए खंगालते हैं |भाई आओ ,जिम्मेदारी लो हम अपने अभियान में असफल रहे ,बता दो ये सब तुम लोगों की चाल थी |घटिया माल भेजे,वरना हमारी सेटेलाईट आसमान में बातें करती |अब की बार हमारी लाज बचा लो हम कल आपके काम आयेंगे |
वो सेटेलाईट, जो पुराने फटाको की तरह फुस्स हो के या जो अनारदाना जलने की बजाय फट जाए वाली की नौबत में समा जाती है |इस मौके को मीडिया वाले हाथ से जाने नहीं देते |वो घेरते हैं ,क्या कारण थे कि सेटेलाईट ‘कक्षा’ में नहीं भेजे जा सके?
वैज्ञानिकों को अगर कारण पता होता तो भला सेटेलाईट फुस्स ही क्यों होता ?
वे अपने राजनैतिक मुखौटे में पहले से तैय्यार जवाब पेश कर देते हैं |
इस अभियान में दरअसल बरसों की मेहनत लगी है|हमारे वैज्ञानिक दुनिया में बेजोड हैं |जो चूक हुई है उसका विश्लेष्ण किया जाएगा |हम मिशन को फेल नहीं होने देंगे |हम छह महीनों के भीतर दुनिया को दिखा देंगे कि हम भी अंतरिक्ष के मामले में किसी से कम नहीं हैं |इस फेल हुए मिशन की नैतिक जिम्मेदारी समय पर वैज्ञानिकों को वेतन न देने वाले बाबुओ की है |आगे क्या कहें ?
अगले दिन पेपर की हेडलाइन बनती है सेटेलाईट मिशन फेल |संपादकीय में खेद के साथ सरकार को समझाइश दी जाती है कि अगर मिशन की सफलता चाहिए तो वैज्ञानिकों को उचित समय पर पारिश्रमिक दिया जावे |ये मनरेगा मिशन नहीं है जिसमे ठेकेदार अपना कमीशन बाधे.... ?
हमारे देश में नहर ,बाँध ,डेम,पुल ,इमारतें ,रोड सब ठेके पर बनवाए जाते हैं |ठेके पर इन्हें देने –लेने की परंपरा कब और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है |प्रमाणिक चीज तो ये है कि आजादी के बाद बनने वाले नहर ,पुल इमारत ,सड़क-रोड का टिकाऊ होना जरूरी नहीं है| |इस बारे में ,ठेकेदारों का ये मानना है कि, घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?इस मुद्दे पर सब ठेकेदार एकमत हैं| वे इतना कमजोर प्रोडक्ट देते हैं कि एक खास मुकाम तक खिच भर जाए बस की सोच रहती है |
किसी अभागे का, बनते ही टूट- गिर जाता है तो उनको तत्काल, नैतिक जिम्मेदारी वाला रोल निभाना जरूरी हो जाता है |
वो बकायदा ,कभी घटिया सीमेंट या कारीगरों की एक रुपिया किलो अनाज मिलने से, काम के प्रति लापरवाही का बम फोड देते हैं |उल्टे सरकार को दोष दे देते हैं कि मजदूरों को इतनी सुविधाएँ दी गई तो वो दिन दूर नहीं जब वे काम के प्रति उदासीन हो जायेंगे |सरकार नैतिक जिम्मेदारी समझे...... | कुछ कदम उठाये ....?
अगला ठेका ,इस रस्म अदायगी के निचोड़ से खुश होकर सरकार उनको दे देती है कि एक रुपिया वाला प्रचार,गरोबो की हितैषी ,गरीब रक्षक सरकार का, अच्छी तरह से हुआ |
मुझे मेट्रिक में तीन विषयों में सप्लीमेंट्री आई |तब मै समझता था, कि मेरी उम्र नैतिक जिम्मेदारियों को समझने-साधने की नहीं हुई है |घर वालों ने दबाव बनाया ,मुझ पर लापरवाही के दोष मढ़े गए|इतनी लापरवाही आखिर हुई कैसे ....?क्या दिन-रात खेलकूद में मगन रहे ..?हम सब तो फस्ट,सेकंड डिवीजन की त्तरफ देख रहे थे,हमे क्या पता था जनाब सप्लीमेंट्री वाला गुल खिला रहे हैं |मेरी गर्दन तब झुकी रह गई थी |थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ ,निगेटिव विचार कुआ- बावड़ी,सीलिग़ फेन वाले भी क्षण मात्र को आये ,जिसे झटक दिया |ऐसे समय इन विचारों का झटक देना किसी महाअवतारी ही कर सकता है मुकाबला, आरोप लगाने वालो की तरफ धकेल दिया | सीधे-सीधे नाकामयाबी का सेहरा कैसे पहन लेता ...? मैंने प्रतिप्रश्न किया, मालुम है सब दोस्त लोग ट्यूशन-कोचिग पढते हैं तब जाके पास होते हैं |आप लोग तो कभी बच्चो पर ध्यान देते नहीं ....?वे लोग जवाब-शुन्य थे, मेरी आफत टल गई थी |
आज के जमाने में ,नैतिक जिम्मेदारियों वाले बयानों का कलेक्शन करना,एल्बम बनाना,या वीडियो रिकार्डिग रखना एक पेशेवर काम का नया फील्ड हो सकता है |
जिस किसी को किसी भी मौके पर,किसी भी किस्म की जिम्मेदारी लेनी हो या मुह फेरना हो उसे अध्ययन –मनन के फेर में पडने की बजाय रटा-रटाया,बना-बनाया हल मिल जाए तो इससे बेहतर चीज भला दूसरी क्या हो ....?
आजकल राजनीति में औंधे मुह गिरने की गुंजाइश जोरो से हो गई है |
संभावित हार के नतीजे ,इधर मीडिया ने एक्जिट पोल में दिखाया नही, उधर नैतिक जिम्मेदारी वाला भाषण स्क्रिप्ट तैयार करवा लेनी चाहिए |इससे व्यर्थ तनाव ,अवसाद जैसे घातक रोगों से निजात मिल जाती है |
यूँ तो नैतिक जिम्मेदारी वाली ,सभी स्क्रिप्ट लगभग एक सी होगी|आप अपनी सुविधा के लिए सेफोलाजिस्ट से मिले आंकड़े, भर के, थोड़ी राहत की गुजाइश अपने लिए देख सकते हैं |
बता सकते हैं कि पिछले चुनाव से ज्यादा व्होट अब की बार मिले हैं |व्होट प्रतिशत में इजाफा होने के बावजूद ये सीट में तब्दील नहीं हुए ये हमारा,हमारी पार्टी का दुर्भाग्य है |
हमारी हार की वजह पिछडों का मतदान करने न आना ,एक खास जाति के मतदाताओं का झुकाव एक खास पार्टी के पक्ष में हो जाना रहा|हमारी पार्टी ने रहीम को साधा, राम को दरकिनार किया |रोड शो में हमने किराए के लोग नहीं लगवाए |मीडिया को चटकदार जुमले नहीं परोसे, जिसे लेकर दिन-रात वो बहस करवाते रहें | हमने गलत पार्टी से गठबन्धन किया ,जिसका खमियाजा हमें भुगतना पड़ा|हमने टिकट वितरण में गलती की ,जीत सकने वाले लोगों को टिकट नहीं दे सके |अमीर लोगो को टिकट दे दिए ,वे पैसे एजेंटों को दे के, सो गये |बूथ तक झांकने नहीं आये |एजेंट पैसे मतदाताओं को देने की बजाय ,खुद दबा गए |खेल यहाँ हो गया .....|वैसे इन सब के बावजूद हार की सारी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मै अपने पद से स्तीफा देता हूँ .....|
मै इस स्क्रिप्ट की कापी राईट का लफडा नही रखते हुए, इसे सार्वजनिक प्रापर्टी बतौर एलान करता हूँ |इन शब्दों का इस्तेमाल जिसे जब मौक़ा मिले, पूरी, अधूरी या कोई एक भाग , अपने भाषण में कर लें......|मुझे तमाम असफल लोगों के साथ सहानुभूति है ....|आगामी समय उनका हो .....आमीन ....
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पिछवाड़े बुढ्ढा खांसता
बुढ्ढे को जिंदगी भर कभी बीमार नहीं देखा |हट्टा-कट्टा,चलता-फिरता ,दौडता-भागता मस्त तंदरुस्त रहा |कभी छीक ,सर्दी-जुकाम, निमोनिया-खासी का मरीज नहीं रहा|
अभी भी वो सत्तरवे बसंत की ओर पैदल चल रहा है |उसकी सेहत का राज है कि वो , घर की सुखी दाल-रोटी में मगन रहता है |दो बच्चे थे ,शादियाँ हो गई |इस शादी के बाद पत्नी की सीख पर कि बहु–बेटियों का घर है ,समधन पसरी रहती हैं ,आते –जाते खांस तो लिया करो |
इस प्रायोजित खांसी की प्रेक्टिस करते –करते उन्हें लगा कि ‘ग्लाइकोडीन’ का ब्रांड एम्बेसडर बनना ज्यादा आसान था, कारण कि टू बी..एच. के. वाले मकान में जहाँ पिचावाडा ही नहीं होता ,आदमी कहाँ जा के खासे ?
हमारे पडौस में दो दमे के बुजुर्ग मरीज रहते हैं ,उनके परिवार वाले बाकायदा उनको पिछवाड़ा अलाट कर रखे हैं जब चाहो इत्मीनान से रात भर खांसते रहो |
एक हमारे चिलमची दादा भी हुआ करते थे ,एक दिन इतनी नानस्टाप, दमदार,खासने की प्रैक्टिस की कि पांच-दस ओव्हर पहले खांसते-खासते ,उनकी पारी सिमट गई ,वे अस्सी पार न कर सके |
आजकल हमारे चेलारामानी को पालिटिकली खांसने का शौक चर्राया है |
वे लोग लोकल पालिटिकल फील्ड में हंगामेदार माने जाते हैं ,जो समय पे ‘खासने’ का तजुर्बा रखते हैं मसलन ,सामने वाले ने प्रस्ताव रखा महापौर को घेरने का सही वक्त यही है वे कहेंगे नहीं अभी थोड़ी गलती और कर लेने दो ,वे खांस कर वीटो कर देते हैं उनकी उस समय,मन मार के , सुन ली जाती है |
आप कैसा भी प्रस्ताव, कहीं भी, चार लोगों की बैठक में ले आओ वे विरोध किए बिना रह ही नहीं सकते |
लोग अगर कह रहे हैं कि देखिये ,हम लोग मोहल्ले में पानी की कमी के बाबत मेयर से मिल के समस्या से अवगत करावे |वे खांस दिए मतलब उन्हें इस विषय में कहना है |जोर से खांसी हुई तो मतलब उनकी बात तत्काल सुनी जावे |वे सुझाव देने वाले पर पलटवार करके पूछते हैं |आपके घर में पानी कब से नहीं आ रहा ?घर के कितने लोग हैं , हमारे घर में चौदह लोग रहते हैं .सफिसियेंट पानी आता है |इतना आता है कि नालियां ओव्हर फ्लो हो रहती हैं |मेयेर से हमारी तरफ नाली बनवाने का रिक्वेस्ट किया जावे |अभी गरमी आने में तो काफी वक्त है आपकी समस्या तब देख ली जावेगी |मीटिंग उनके एक लगातार खासने से, अपने अंत की तरफ चली जाती है ,न पानी और न ही नाली की बात, मेयर तक पहुच पाती है |
हम मोहल्ले वाले चेलारमानी के ‘न्यूसेंस-वेल्यु’ को भुनाने के चक्कर में उनको एक बार मोहल्ला सुधार समिति का अध्यक्ष बना दिए |उनने साल भर का एजेंडा यूँ बनाया |भादों में सार्वजनिक गणेश उत्सव ,कलोनी वालों से चन्दा ,फिर नवरात्रि में कविसम्मेलन का भव्य आयोजन , चंदा |मोहल्ला सुधार समिति की तरफ से विधायक –मन्त्री का स्वागत ,जिसमे मोहल्ले के विकास के लिए राशि की मांग ,सड़क –नाली सुधार पर ध्यानाकर्षण |हरेक माह समिति के सदस्यों की बैठक |
वे बैठक में एकमेव वक्ता होते ,आए दिन ,चंदा उगाही में, मुस्तैदी के चलते मोहल्ले वाले तंग आ गए |किसी भी दरवाजे पर खटखटाने की बजाय वे केवल खास दिया करते तो लोग समझ जाते चेलारमानी आ गए |एक सौ, चंदे की चपत लग गई समझो |आदमी सौ तो बर्दास्त कर लेता, मगर बिना चाय के न टलने की आदत को बर्दाश्त न कर पाते |
जिस गरमी से उसे चुना गया था उसी मुस्तैदी से उसे हटाने का अभियान चलाना पड़ा |लोग चंदा दे-दे के हलाकान हो गए थे |
चेलारमानी के सब्सीट्युट , ताकतवर खासने वाले की तलाश मोहल्ले में जारी है |
अगर आपके पिछवाड़े में कोई बुढ्ढा खांसता हुआ मिले तो इस मुहल्ले में भिजवा दे |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
mobile 08866502244 :::,8109949540::::09526764552
susyadav7@gmail.com , sushil.yadav151@gmail.com
पीठ के पीछे की सुनो .....
आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते |ढेर सारी चिकनी –चुपडी सुना के जाते हैं |क्या जी आपने तो खूब मेहनत की | लोग आप को समझ नहीं पाए जी |पिछली बार अच्छे से समझे थे |पता नहीं इस बार क्या कारण रहा ? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला ....?
प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं |
परोक्ष में ,यानी पीठ के ठीक पीछे,....... कहते फिरते हैं ,खूब ताव आ गया था....... स्साले में ,आदमी को आदमी नहीं समझता था |
कुत्तों ,गुलामो की तरह बिहेव करता था |
हारना ही था |
अब भुगतो पांच साल को |
और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले |
गए..... |
उधर प्रकट में ,नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी ...?
फिर हुई तो हुई कैसे ....?
हार के कारणों के विश्लेषण के लिए अपने चमचो की कमेटी को काम सौपते हैं |
देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूँ नहीं ,मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं |
तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो |देखे क्या निकलता है |
चमचे नेता जी से राशन-पानी,डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है|
आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं |
महराज ,मै किशनपुरा इलाके में गया था,वहाँ से आप बीस हजार से पिछड़े थे |
जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था ,दरअसल ,लोग उसके सख्त खिलाफ थे |वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था |अनाज,कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता मगर सबके दाम आसमान में चढाये रखता था,जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए |सामान वापस करने जाओ तो,दैय्या-मैया करके भगा देता था |किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे |अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना प्रचार करवाने निकलोगे तो जीतने की गुजाइश कहीं बचती है क्या ?
भैय्याजी ,हम उसी के बगल वाले गाँव की रिपोर्ट लाये हैं |वहाँ ये हुआ है कि,मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए |अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते |लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची |
भय्या जी आपके लठैत के रंग –ढंग अच्छे नहीं थे |
-काय बिलवा,खुल के बता न ...?अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे ....?
भईया जी,हमने पहले कही थी,लठैतों को शुरु से मत उतारो|आप मानते कहा हो ...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे|गाँव में लौंडिया छेडते रहे|आपकी, वो क्या कहते हैं ,साफ सुथरी इमेज को ‘सर्फ’ से धोने लायक भी न रख छोड़ा|
जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों के गाव से अकेले पच्चीस – तीस की लीड करते|
महाराज,जिसे आपने अपने पक्ष में ,पांच पेटी दे के बिठाया , वो मनराखन साहू ,बहुत कपटी आदमी निकला |विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने ..... |वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया|दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर |आप भी कहाँ –कहाँ फंस जाते हो ,समझ नहीं आता | वो पिल्ला बोलता है ,इलेक्शन के खम्भे हर साल क्यों नहीं गडाए जाते ...?मूतने में सहूलियत होती |
महराज ,आपने एक बात,पटरी पार वाले गाव की नोट की ?
आपने उधर शहर को जोडने वाले पुल बनवाए | रोड को मजबूती दी , सीमेंटीकरण करवाए,बुजुर्गो के लिए उद्यान,कन्याओं के लिए गल्स कालेज खुलवाए |उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं |आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं |केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के लहराया है भाई जी |
काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते ...?आपकी जीत निश्चित होती |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
पूर्वजो की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ |अब ज्यादा फेकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे |
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानो उनमे कुछ बनने की, अपने –आप में काबलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नही चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथो हुआ करता था |
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं |
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गो के लिए फक्र का मसला हुआ करता था |
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू |
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है |
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच हो जाया करते थे |
सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी |
किसी पडौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... |मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड |
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर, कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था|वे जंगलो में शिकार के वास्ते दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों के लिए चल देते थे |
हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोस्त उनका लंच –डिनर होता था |
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है |
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया |वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल ,बच्चो को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे |
इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडौस के सहदेव जी,खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नही,पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा |
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी आर्डर ही नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई |पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन |
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है |बेटा अपनी पोस्ट और पैसे पर इतराता था |चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सडक को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है |उसे सरकार छोडती ही नहीं |बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है |
अभी ब्रिज का काम मिला है |वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं |सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून, बाटन में पल्टी मार के कहता है|मेरी बात सुने नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी |कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त |
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई |
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों लेते रहते हैं |उसके पीछे का मकसद ,शायद ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा |
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम अगर सब इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापो के अफलातून बेटों को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती |इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुह से बोल, फूलो की माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज का फरमान जारी |
मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश |यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन जरूरत होती है |वे मजे से बता सकते हैं कि प्याज, डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है |
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
दाहिने हाथ का जुल्म .....
बचपन से आज तक हिंदू देवी-देवताओं के अनेक फोटो के दर्शन किए |
सीधा-सादा एक नहीं मिला |
दस हाथों वाली देवी ,हरेक हाथ में कुछ न कुछ ,कोई हाथ खाली नहीं |
तीन सर वाला त्रिदेव ,ब्रम्हा ,विष्णु महेश…….
पांच सर के पंचमुखी हनुमान………. ,
दस सिरों वाला रावण ………|
कहीं मत्स्य ,कहीं गजराज ,तो कहीं सिंह अवतार वाले अनेको ‘पावरफुल’ प्रभु .....|
सब की अपनी–अपनी स्टाइलिस्ट सवारी ....मूषक से शेर तक ..... |
प्रभु की शक्ति के आगे हजारों हार्स –पावर वाले भीमकाय राक्षस बौने |उनकी जादुई शक्ति के सामने प्रकृति ,आग , पानी और हवा, अपना रुख कभी भी, कैसे भी बदल लेने तैय्यार रहती थी |
तब के ‘सहस्त्रब्बाहू’ की अलौकिक लीला के किस्सो को सुन कर, यूँ लगता है कि साऊथ-इंडियन फिल्मकारों ने ‘रौउडी’ टाईप फिल्मी संस्करण में ‘हीरो’ के रोल में उन्ही प्रभुओं को कापी कर लिया है |
फिल्मो का समाज पर जो बुरा प्रभाव पडना था वो इन्ही ‘राउडी-हीरो’ की बदौलत , आज के ‘बाहुबलियों’ के व्यवहार में स्पष्ट दिख जाता है |
ये स्वनामधन्य पप्पू, मुन्ना,मिर्ची ,डफर, सलीम कुर्ला मजहर सायन ,जैसे बाहूबली, बिना किसी क्लैप किए एक्शन को उतावले हुए ,सर्व-व्यापी तैयार होते हैं|
फर्क इतना कि ‘प्रभु’ संस्कार वाले होते हैं ,ये भक्त के बुलाए जाने पर ,या अगर मर्जी हुई तो स्वयं कृपा बरसाने के लिए, तीज-त्योहारों में भक्त के बीच, आस्था वाले चेनल के माध्यम से घुस आते हैं |
मगर बाहुबली, बिना बुलाए केवल वहीं पहुचते हैं जहाँ उनको, उनका ‘हित’ दिखता है |बगैर अपना ‘हित’ देखे वे तिनका भी उठाने को तैय्यार नहीं होते |
किसी टेंडर के खुलने-खुलाने का दिन हो तो वे ‘बैंड-बाक्स ड्राईक्लीनर्स’ से धुले हुए झक साफ कपडे पहन कर मोटी सी सोने के चैन और हाथ में रजनीगन्धा डिब्बा लिए कतार में पहले मिल जाते हैं |इनके कपड़ों के मिजाज को देखकर कभी ये नहीं लगता कि ये धुल-कीचड में लोटने वाले ‘दाग अच्छे हैं’ लोग होंगे|
इनके हाथों में ट्रांसपोर्ट-परमिट निकलवाने का जादुई करिश्मा ,रोड, सड़क,नाली ठेका पाने का जन्म सिद्ध अधिकार वाला हक या जंगल ,पानी, आग, हवा,बिजली,जैसे विभागों में दखल रखने –रखाने का झकास बंदोबस्त होता है|
इनका ‘दाहिना हाथ’ एक-बारगी सक्रिय हो जाता है |वो पूछता है भाई जी बताओ तो सही कहाँ फोडना है ?
अगर किसी टेंडर के कालम में एक्सपीरियंस की दरकार हुई, तो ये केवल इतना पूछते हैं ,क्या ,कहाँ, कितने दिन, किस कंपनी का ?
वे ला कर हाजिर कर देते हैं |या तो उनके पास ब्लेंक फार्म का जुगाड रहता है, जिसमे जैसा चाहे भर लें या तुरन्त एक और दाहिना हाथ टाइप, बन्दा वहीं पहुच कर बस इतना कहता है भाई ने एक्सपीरियंस की लिए कहा है|
बिना सेकंडों देर हुए ,साफ सुथरे प्रिंटेड लेटर हेड में अधिकारी द्वारा ,सर्टिफिकेट हाजिर |
बाहुबलियों के,अतिरिक्त‘दाहिना-हाथ-नुमा आदमी’,या आदमियों की फौज कह लो, कमांडो स्टाईल में फुर्तीला और सक्रिय होता है |
उनके ‘दाये-हाथ वाले लोग’ मरने-मारने में उस्ताद होते हैं| उनके पास रामपुरी से ए.के .५६ सब कुछ मौके के हिसाब से मिल जाते हैं |
वीभत्स चहरे वाले ये लोग जहाँ भी जाते हैं, माहौल में सन्नाटा पसर जाता है |ये कभी खाली हाथ वापस आने वालों में से नहीं होते |
जितना कहा गया है उतना तो वे करते ही हैं ,कही-कभी अपना विवेक लगा दिए, तो कुछ ज्यादा भी कर जाते हैं |
मसलन बॉस ने कहा कल शहर बंद करवाना है ,स्साले मुच्छड़ की बोलती बंद करनी है ,बहुत पिटपिटाए जा रहा है |दाहिने-हाथो ने, शहर तो बंद करवाया ही ,दो-चार बस भी फूक दिए ,दो-तीन को टपका आए सो अलग |
सहस्त्रबाहू, शहर-बंद से वापस आए अपने ‘दाहिने-हाथो’, के कंन्धों पर हाथ रख कर मजाक से कहते हैं ‘अबे चमचो ,जितना कहा जाए उतना ही किया करो’!
अपने थानेदार को ऊपर जवाब देते नहीं बनता !
फिर जेब से ‘दुअन्नी’ उछाल के कहते हैं ,लो ऐश करो , माहौल गर्म है , दो-तीन हप्ते, ‘इते मति अइयो’ |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
फेकू किस्म के लोग
जब से ‘नमो’ को, दिग्गी काका ने फेकू कहा है तब से हमने अपने आस-पास के फेकुओं की खबर लेने की सोची |
आम बोलचाल की डिक्शनरी में फेकू का मतलब वह, जो बात –बेबात लंबी –लंबी डींगे मारता हो | फेकने का मतलब ये कि ‘हवाई –फायर’ टाइप कुछ कह दो,कहीं न लगे तो बहुत अच्छा ,वरना मिस-फायर का भी अपना एक धौंस होता है ?
मुझे किसी के फेके हुए किसी चीज में कभी दिलचस्पी नहीं रही |अगले के बेकाम का रहा होगा ,फेक दिया |उधर क्या देखना ?फिर उसके फेके का हमारे यहाँ क्या काम ?हम फेके को कभी उठाने की सोचते भी नहीं |
हमने एक बार एक महंत से,जिन्हें लोग सिद्ध –पुरुष माफिक मानते थे अचानक बिना सन्दर्भ के एक सवाल पूछ लिया ,बाबा आपकी नजर में, जो बिना बात के बात को बढा-चढा कर बताते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे ?
बाबा ने सोचा ,हमने जरुर कोई गम्भीर धार्मिक विषय को छेडा है,वे तनिक बाबानुमा हरकत में आए और अपना प्रवचन प्रारंभ किया ,बोले संसार में सभी प्राणियों को बोलने का हक है |जब से ये दुनिया बनी है तब से ही प्राणी सवाक-वाचाल हो गया है |केवल मनुष्य मात्र को ये वरदान है कि वो बोलकर अपनी भावना को दूसरों तक पहुचा सकता है |अगर तुम्हारे मन में अच्छे विचार हैं तो अच्छी बाते सामने आएगी |सच कहने वाला बडबोला नहीं होता |केवल कम शब्दों में काम निकल जाता है|
मगर जहाँ असत्य जैसा कुछ है तो उसे समप्रेषित करने के लिए तर्कों पर निर्भर होना पडता है |ये तो आप सब जानते ही हैं कि, जहाँ तर्को की गुन्जाइश आरंभ हो जाती है वहाँ आपको, बातों की बेल को चढाने के लिए एक से बढ़ के एक सहारे की जरूरत होती है |इस सहारे को आप बिना बात के बात बोल लेते हैं, ये अच्छी बात नइ है |
हमारी ये आदत है कि बाबाओं को जब तक वे निरुत्तर न हो जाए नहीं छोडते| उनको , उनकी ही बातों में लोचा देख के लपेट लेते हैं|
हमने पूछा ,बाबाजी मनुष्य को ये वरदान किस प्रभु ने दिया है, कि वो बोलकर अपनी बात दूसरों तक पहुचा सकता है?
बाबा निरूत्तर थे बोले ;वत्स अगले सत्संग में तुम्हारे प्रश्न को उठाएंगे |वे अपना बाक़ी चौमासा मौन-व्रत में निकाल दिए |
मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिले जैसा नहीं लगा |मैंने आपने प्रोफेसर मित्र से घटना का जिक्र किया |
वे अपनी राय तुरंत दे डाले |पांच –छह बार ‘फेकू’ शब्द को जानी लीवर,राजकुमार स्टाइल में दुहराते रहे |फेकू .....?फेकू ..... फेकू यानी .....
क्या बताया? लोकल मीनिग क्या बताया था ,जो बात –बेबात लंबी डींगे हाकता हो ?
नहीं यार मेरे विचार से ऐसा कुछ नहीं है |वे दाशर्निक मुद्रा में आ गए |प्रोफेसर मित्र की यही खासियत है वे प्रचलित चीज को जैसी वो है वैसे नहीं लेते |वे तुरंत दार्शनिकता की तरफ बढ़ लेते हैं ,इससे उनकी छाप सुनने वाले पर पड़ती है |
वे हट के काम करने में विशवास रखते हैं, ऐसा उनका मानना है |
मुझे असहज बिलकुल नहीं लगा जब वे ‘फेकू-प्रजाति’ के प्राणियों का वर्गीकरण अपने हिसाब से करने में उतारू हो गए |
उन्होंने कहा देखो भाई अगर कोई आदमी अमेरिका में रह के आवे और अमेरिका का गुण गाने लगे, उसकी अच्छाइयों का डिंडोरा पीटने लगे तो तुम्हे लगेगा वो फेक रहा है |
नहीं ,गलत |
सचाई का सपाट बयान जब फेकने जैसा महसूस होने लगे तो इसमे फेकने वाले से ज्यादा कसूर, उठाने से इनकार करने वाले पर है |
है कि नहीं बोलो ?
प्रोफेसर के नए तर्क ने हमारी बोलती भले बंद कर दी, मगर फेकुओं पर से नजरिया नहीं बदला |
हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं समझो |
हमें फेकुओ का विश्वास न करना विरासत में मिला है |
बजाय इसके कि फेकुओ की बातों में दस –पचास परसेंट घटा कर विश्वास कर लेते, हम समूचे बयान को झूठा समझ लेते हैं |
अखबारों में रोज बयान छपता है ,एक रुपये में ,पांच रुपये में ,बारह रुपये में खाना |
हम फ्लेश-बेक में चले जाते हैं |पचास-साठ का दशक, आपके पास एक रुपया हो तो तोडने वाला नहीं होता था|मजे से छकते तक खाओ, एक का नोट दिखाओ होटल मालिक विनम्रता से कह देता ,कल ले लेगे जी आप ही का होटल है |वो एक रुपय्या आपको होटल का मालिकाना हक भी दे जाता था |आज तो हजार का नोट एक हज्जाम-धोबी, अपनी दूकान में खड़े-खड़े तोड़ देता है |
सत्तर के दशक में पांच रूपए में दो लोग जीम लेते थे |अस्सी-पचासी तक बारह रूपए हुए तो चिकन-मुर्ग-मुस्सल्लम की तरफ देखा जा सकता था |होटल वाला आपकी हैसियत के माफिक अपना बिल एडजेस्ट कर लेता था | वो एक-आध बोटी भले कम कर ले, अपना ग्राहक नहीं छोड़ता था |
आज कोई भूले से कोई कह दे कि इतने पैसों में कोई खा सकता है तो उन अमीरों के जैसा बयान लगता है कि, खाने को जिन्हें रोटी नहीं वे ब्रेड क्यों नहीं खा लेते ??
हमारे-उनके दादाजी/दादीजी वाला किस्सा, हर दो-तीन फेमली मेंबर के मिलने पर चालु हो जाता है |
हमारे दादाजी अंग्रजों के जमानी में लोहे के चने चबा लिया करते थे| अरे ये तो कुछ नहीं, हमारे दादाजी जिसमे वे बंधे रहते थे पूरे सांकल ही चबा डालते थे |बोलने वाले को शायद दादा के खुरापाती इतिहास का पता नहीं होता, कि किस कारण उनको सांकल में बाँध के रखना पड़ता था ? वे तो बस एक हिस्से को आगे बढाते रहते हैं |
हमारी दादीजी बटुए में चवन्नी ले के जाती थी और बैल गाड़ियों में उस जमाने में सब्जी ले आती थी |
उस ज़माने का उनका फेमली फटोग्राफ मेरा देखा हुआ है| सब के सब मरियल टी.बी पेशेंट माफिक लगते हैं ,अगर सही पोषण होता तो चार- छह पैक वाले भी एक-आध तो दिखते ?
ये लोग सुनी –सुनाई बातों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी फेकते हुए कभी थकेंगे या नहीं ? पता नहीं ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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बोलती बंद है.......
हमारी ‘बोलती-बंद’ करने के अनेक प्रयास हुए,मगर जब हम भिड जाते हैं तो किसी की नहीं सुनते |
शुरू –शुरू में गाव के सरपंच जी ने ये प्रयास किया |हम नए –नए गुरुजी बने थे , गाव में पोस्टिंग हुई |मन में फिल्मी-स्टाइल सपना बाँध बैठे थे कि गाव के सब बच्चो को अच्छी शिक्षा दे कर अच्छे नागरिक बनाने का प्रयास करेंगे |हमारे प्रयास को सरकार सराहेगी |हमारे स्कूल को आदर्श मानकर माडल की तरह पूरे राज्य में अपनाने पर जोर देगी |
हमारे सपनों का शीश –महल ज़रा सा तब हिला जब हम गाव के दो कमरे वाले जर्जर स्कूल में पहुंचे |
छत टपक रही थी ,बच्चे नदारद ,बड़े गुरुजी पन्द्रह दिन बासी, पुराने अखबार को बीसवीं बार पढ़ रहे थे |
हमें देखते ही बड़े गुरु जी खुद खड़े हो गए ,दुआ सलाम की |शहर से गाव तक आने में हुई तकलीफ का सदभावना के साथ जायजा-बयान लिया |
ज्वाइनिंग रिपोर्ट को तीन –चार बार पढ़ के दबे स्वर में पूछा आर्डर तो गए हप्ते का है ,चार-पांच दिनों का नुकसान क्यों कर रहे हैं ,आप कहें तो पिछली तारीख में रिपोर्ट ले लेते हैं |उनके सुझाव पर मैंने कहा अगर आपको कोई विभागीय दिक्कत नहीं है तो मुझे कोई इंकार नही|
बड़े गुरुजी को लगा मै आसानी से पटाने वालों में से हूँ |पिछले डेट पर ज्वाइनिंग हो गई |मुझे भी सिगनल मिल गया कि चलो आजादी खूब रहेगी |
बड़े गुरु जी से, बच्चो के बारे में दरियाफ्त करने पर पता चला कि कुल जमा पाचवी कक्षा तक 90 बच्चे हैं |यहाँ बारिश के चलते आज तो कोई आया ही नहीं ,अमूनन बीस–पच्चीस बच्चे स्कुल आ पाते हैं |
सब के माँ-बाप बच्चो को खेत खलिहानों में ले जाना ज्यादा पसंद करते हैं |ये बीस –पच्चीस भी मिड डे मील लेने में, पढ़ाई से ज्यादा रूचि रखते हैं |अभी तक तो हम अकेले सम्हालते रहे अब आप आ गए हैं तो हमारा काम हल्का होगा |
मैंने बड़े गुरुजी से पूछा .इस छोटे से स्कूल में क्या बड़ा काम है ?
उन्होंने बताया कि स्कुल की देख-रेख पंचायत के जिम्मे है |हमारे सरपंच जी बड़े टेढ़े किसम के हैं |उन्होंने पहले ही कह रखा है कि नए गुरुजी के आने पर फौरन उनसे मिलने को कहा जावे |सो आपको पहले वहीं जा कर मिला लाता हूँ |
मैंने मन ही मन कहा देखे किस खेत की मूली हैं सरपंच जी ?
मै खेत और मूली देखने की गरज से बड़े गुरुजी के संग चल दिया |दस पन्द्रह बचे हुए बच्चो को हिदायत दी गई, कि जाते समय वे दरवाजे को भिडाते जाएँ |कहीं गाय-बछरू न समा जाए |
बच्चो ने एक स्वर में हल्ला किया ,मानो उन्हें छूट्टी मिल गई हो |
रस्ते में बड़े गुरुजी, सरपंच के लोकल (मेरे हिसाब से लो-अक्कल ) धमाको का बखान करते रहे| बीच –बीच में उनके खेत-खलिहान दिखाते रहे अंत में हम एक बाडे में घुसे |गोबर से लिपे हुए बड़े से बरामदे में जहां एक ओर अनाज के कट्टे-बोरी दूसरी ओर किसानी औजार ,ट्रेक्टर के पार्ट ,डीजल के केन रखे हुए थे |तीन तरफ लकडी के बेंच डले थे और सामने सरपंच जी का आसान था |
उनको खबर दी गई, वे आए, हमारा मुआयना किया ,बैठने के इशारे पर हम बैठ गए |
सरपंच जी ने कहा ,तो गुरुजी नए मास्टर को सब बता दिए कि नहीं ?
हमे हमारा ‘मास्टर’ नामकरण अजब सा लगा ,एकाएक लगा कि बहुत बुजुर्ग से हो गए हैं |
बहरहाल उनने जो कहा ,उसका सार ये कि ;
मास्टर जी आपको स्कूल के समय में से हमारे काम के लिए समय निकालना होगा |हमारी सरपंची की लिखा-पढ़ी करनी होगी ,और हाँ स्कूल में पढाने –लिखाने का चक्कर तो बड़े गुरुजी देख लेंगे ,तुम तो हमारे घर में जो चार बच्चे हैं उनको देख लिया करो .समझे कि नइ?
हमने लौटते वक्त बड़े गुरुजी की तरफ, बहुत दूर की लंबी खामोशी के बाद देखा, वे नजर फिराते हुए बोले देख लीजिए ये गाव है ,सरपंच जी के कहे में रहोगे तो कहीं कुछ जवाब माँगने वाला नहीं है |
मर्जी से अप-डाउन करो |
बड़े गुरुजी की बात, हमारे हित में थी सो अच्छी लगी|आदमी को हर ऐसी बात जो उसका हित –साधती हो अच्छी ही लगती है |
बड़े गुरुजी से इतनी देर के परिचय में ही,बेतक्कलुफी
आ गई थी इसलिए पूछ लिया ,गुरुजी यहाँ ‘ऐ डी आई एस’ साहब नहीं आते ,जांच वगैरह नहीं होती क्या ?
अरे जांच –वाच सब होता है |ऐसे ही थोड़े स्कुल चला रहे हैं |
हर क्लास की पंजी देख लो,सब बच्चे सेंट-परसेंट अटेंडेंस वाले हैं|मिड डे मील का हिसाब देना पडता है न ?
गाव में साहब-लोग तीज-त्यौहार वाले दिन आते हैं |
कम उपस्थिति का हवाला तीज-त्यौहार के मत्थे चल देता है या सरपंच जी सम्हाल लेते हैं |
एक –आघ बोरी चावल देकर पीछा छूट जता है |
करार के मुताबिक़ मेरा सरपंच जी को रिपोर्ट करना जारी हो गया |
सरपंच जी का काम मेरे लेपटाप की वजह से घंटे भर में निपट जाता| वे काम की प्रिंटेड क्वालिटी देख के गदगद हो जाते|अक्सर पूछते कितना खर्चा हुआ ? मै मौखिक हिसाब देकर चुप हो जाता |उनका हिसाब मेरे चोपडे में फिट होने लगा था |
सरपंच जी का हर जगह गोलमाल |रोड ,सड़क ,नाली सब में ठेकेदारों से मेलजोल |मंनरेगा में उनकी ऊपर तक पहुच ,मिड डे मील में उनकी हिस्सेदारी| हर विभाग में उंनके पसंद के अधिकारी |
मुझे काम देखते –देखते ख़याल आता कि ये क्या हो रहा है ?
सरपंच जी, हमारे अतिरिक्त काम का भरपूर मुआवजा देते ,हमारी तनखाह डबल सी हो गई थी |
हमारे चुप रहने का,या उनके गदहे जैसे बच्चो को मुफ्त ट्युशन पढाने की भरपाई हो रही थी |दिन मजे में अच्छे कट रहे थे |
उन्ही दिनों एक पत्रकार अपनी जुगाड में गाव के चक्कर लगाया करता |
गाव के लोगों से सरपंची करनी-करतूत के किस्से लेकर छोटे-मोटे लेख लिख देता |
सरपंच जी बौखलाते ,मुझसे पूछते ये तुम्हारे शहर का है न ?
उन्हें धीरे-धीरे मुझ पर शक होने लगा |मैंने समझाने की कोशिशे की मगर काम बिगडते रहा |मैंने किसी तरह अपना अटैचमेंट शहर के शिक्षण विभाग में करवा लिया |
मुझे सरपंच जी की नासमझी पर गुस्सा बहुत आया लगा कि भलमनसाहत का ज़माना ही न रहा |
मुझे यार-दोस्तों ने उचकाया ,तू उसे सबक क्यों नहीं सिखाता ?जब तक ऐसे लोगों को उखाडा नहीं जाएगा देश की तरक्की कहाँ हो सकेगी?
मुझ पर एकाएक देशप्रेम का भूत सवार हुआ |
एक शिक्षक ही देश को सच्ची राह ,सही दिशा दे सकता है, जैसे फितरो ने मेरी सोच पर आक्रमण कर दिया |
मेरी बेचैनी तब तक बढते रही जब ता कि मैं ढूढ कर पत्रकार को नहीं पकड़ा| उससे पक्का करवा लिया कि वो खबर का कहीं किसी से सौदा नहीं करेगा और सारी बात बता दी |
उसने उन बातों में कितना नमक –मिर्च लगाया वही जाने? मगर हाँ, सरपंच पन्द्रह दिनों में रिश्वत लेते रंगे हाथ धर लिया गया, तब से आज तक उसकी बोलती बंद है.......
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
मुझे भी तो मनाओ....
मुझे रूठे या खपा हुए एक ज़माना लद गया |वो बहुत अच्छे दिन ठे जब हम रूठा करते थे और वो मनाने का जिद ठान के बैठी होती थी|
कालिज नही जाते थे तो खबर पे खबर भिजवाए रहती थी |
खबरची भरी दोपहरी में या भीगते –भागते बारिश में आ-आ के जाने क्या –क्या बयान करता कि मन कभी या तो खबरची के हालत पे या उसके बया किए हालात पे तरस खा जाता ,और उसे पसीजने का सॉलिड बहाना मिल जाता |
अपने रूठने से अगर वो खपा हो जाती तो, स्तिथी ‘समझौते’ के लिए ‘मध्यस्थो’ की मुहताज हो जाती |
एक-दो अपनी तरफ से एक- दो उनकी तरफ से भिड पड़ते |
दोनों पक्षों के मध्य ,गिले –शिकवों की गिनती कराई जाती | तू ने ये नहीं किया ,वो नहीं किया |
मेरी क्या बताती है ,वो अपनी कहे मेरी एक बात कभी मानी ?कहा था क्लास छोड़ दो ,बैठ गई पीरियड अटेंड करने |एक पीरियड ‘गोल’ कर देने से कोई ‘मार्क्स’ नहीं घट जाता |
‘मध्यस्थ’,इन तू-तू,मै-मै के तोड़ निकाल लेते | ‘
युद्ध –विराम’ की घोषणा हो जाती |
बहुत अच्छे दिन थे |हंसते -हंसाते गुजर गए |
बचपन में रूठ कर ,जिद करके , अपनी बात मनवा लेने का ख्याल करके, अब बाप बनने के बाद पता चल पाया कि हम दो बच्चो की जिद से परेशान रहते है ,वे बच्चो की फौज को कैसे सम्हालते रहे होंगे ?
हमारे पडौस के मिश्रा जी को दब्बू –पति का ‘खिताब’ हर होली में हर कोई दे डालता है |वे काबिल-तौर पे हक़दार भी हैं |पिछली होली के कपड़ों में होली मना लेते हैं |पत्नी को तिनका भर गुलाल ज्यादा लगा दें तो उनकी भंव तन जाती है | आखे दिख गई तो हाथ में ली हुई कचौरी छोड़ देते हैं | वाजिब बात पर भी उनके रूठने का हक बनते कभी नहीं देखा |
उनको मिसाल देके ,पत्नी ताने जरूर देती है| देखो मिश्रा जी को देखो ,कैसे सर झुकाए आफिस से घर और घर से आफिस आते –जाते हैं |एक आप हैं ,कोई अता-पता नहीं न रहता ?
मुझे पत्नी को हाबी होते देख ,खपा होने का भूत सवार हो जता है |
तुम लोगों के लिए जितना करो कम है |रोज-रोज दफ्तर में घिस-घिस के काम करो ,घडी भर सांस लेने का टाइम नही और यहाँ तुम्हारी बकवास |मुझसे उम्मीद न रखो कि मै ‘मिश्रा-जी’ हो जाऊ?
पत्नी इतनी सी बात पर काम रोको आंदोलन पर उतर कर ,बिस्तर में घुस जाती |मुझे मनाने का घडी –भर ख्याल नहीं आता |
उल्टे मुझे ‘मिश्रा-जी’ के रोल में पानए के बाद ही अपनी गाडी, पटरी पर ला खड़ा करती |
उनको ‘रूठे पति को मनाने के हजार तरीके’ वाली किताब शुरू-शुरू में जब लाकर दी थी, तो उनने उसे पढ़ने की ये शर्त रखी, कि जब मै ‘रूठी पत्नी को मनाने के लाख तरीके’ वाली किताब ला कर दूंगा तो वह पढना शुरू करेगी |
मुझे आज तक वो किताब मिली नहीं ,सो मेरे खपा हो के रूठने का हक मिल नहीं पाया |ऐसे रूठने का मकसद ही क्या जिसके मनाने वाले का आता-पता न हो |
मुझे उन रूठने वालो पर फक्र होता है जिसके लिए सरकार के मुहकमे बंदोबस्त में लग जाएँ |मंत्री-संतरी एयरपोर्ट में तैनात रहें |एक गिलास ज्यूस पिलाने के लिए मीडिया आठ-दस दिनों तक गुहार लगाती फिरे |
जूस के एक घूट भरते ही ऐसा लगे कि जनता की , महीनों की प्यास बुझ गई हो |जय-जयकार के नारों के बीच यूँ लगे कि किसी ‘जिद’ ने फतह पाई हो |
मुझे उन रूठने वालो पर भी फक्र होता है, जो खिचडी खा के कहते हैं ,बीमार हैं |
उडती ‘पतंग’ को और ढील देना गवारा नहीं समझते |
बिना मांजे के पतंग को उडाए रखने को बाध्य किए होते हैं |
‘चकरी’ लगभग इनके हाथ में होने का गुमान पार्टी को थोड़ा –थोड़ा होता है ,जिसकी वजह ,वो चिरौरी करते से लगते हैं |
“नीचे उतारो मेरे भइय्या तुम्हे मिठाई दूंगी ,
नए खिलौने ,माखन-मिश्री ,दूध मलाई दूंगी”
सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की उक्त पंक्तियों की तर्ज पर रूठने वाले ‘कन्हैय्या’ को उतारने के लिए अब ‘चार्टेड-प्लेन’ की व्यवस्था है, वे मीडिया के मार्फत बात उन तक पहुचाते हैं |क्या गजब का अंदाज है ?रूठे तो यूँ ...,खपा हों तो ऐसे.... |
हमे तो हमारी बारात में भी, “खाना है तो खाओ” के हाल पे छोड़ दिया गया था |
काश जीवन में एक बार , हमे भी कोई यूं मनाता ...?
सुशील यादव
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८-६-१३
रिश्वत लेने की तकनीक ....
इस लेख को पढ़ने वालो को ये वैधानिक चेतावनी ध्यान में रखना जरूरी है |
ये लेख किसी मर्द ,औरत , औरतनुमा मर्द या मर्द नुमाँ औरत को रिश्वत लेना कतई नहीं सिखाता |
इसमें दिए नुस्खे को यदि कोई आजमाता है या आजमाने का प्रयास करता है तो उसके अंजाम का वह खुद जिम्मेदार होगा |
यूं तो रिश्वत लेने –देने को सिखाने के लिए कोई कोचिंग क्लास मेरी जानकारी में अभी तक चालू नहीं हुई है |जहाँ तकनीकी ज्ञान प्राप्त हो सके |
आदमी भला सीखे कहाँ से ?
अनाप –शनाप ले लेते हैं |
जहाँ चार इंच मु खुलना चाहिए चालीस इंच खोल देते हैं |
चलो,गलती से खुल भी गया तो खपाने का,गुटकने का तरीका आना चाहिए |
ये क्या कम्पौडरी करते हैं और दो सौ करोड को टच कर लें ?भाई बुरा मानने का दूसरों का हक जायज है कि नहीं ?
विरोधियों को शांत रखने का गुर सीखना जरुरी है | घर में,घर के भेदी होते हैं ,पडौस वाले कुढते हैं ,मुहल्ले वाले जलते हैं, उनको पटाए रखने का तजुर्बा तो ये है कि ट्रांसफर लेते रहो एक जगह टिक के न बैठो |
मैंने टुटपुंजिया रिश्वत खाने वाले बहुत देखे हैं |सुबह मंजन घिसने से लेकर शाम गुड नाईट को हाथ हिलाते तक इनके बीच ही घिरा रहता हूँ |
सुबह –सुबह दो –दो किलो के दूध का केन लटकाए चार –छ: किलो दूध लाते श्रीवास्तव जी, बुलंद आवाज से ,जैसिया राम बोलते हैं |
बोलने के वजन से पता चलता है की दो किलो वे खुद पी जाते होंगे |
मैंने यूं ही पूछ लिया ,आप कुल जमा तीन प्राणी हैं इतना कहाँ खप जाता है?
वे बड़े गर्व से बताते हैं ,डेढ़-एक किलो तो सीसन (शेरू) पी जाता है |
मै मंजन की पीक जोर से थूकते हुए ,सोचता हूँ स्साला दो कौडी का बाबू कल तक छाता –बरसाती मांग कर ले जाता था ,आज किलो भर दूध शेरू के वास्ते लिए जाता है |
जम के दुह रहा है|
उससे रोज सामना न हो जाए इसलिए मै अपने मंजन का टाइम –टेबल बदल लेता हूँ या उसे दूर से आते हुए देख के मै घर के भीतर चला जाता हूँ |
उस दिन साहू जी पेपर लिए ,पेट्रोल के बढे दाम पर, चिंता और मातमपुर्सी के तर्ज पर तर्क कर रहे थे तभी श्रीवास्तव का गुजरना हुआ |
बहस में हल्के –फुल्के से हिस्सा लेकर यूं कहते आगे बढ़ गए ,कि ज्यादा इजाफा कहाँ है ?
सब चीजों के दाम तो बढ़ रहे हैं ,पेट्रोल भी बढ़ गया तो क्या ?
उसके जाने के बाद साहू जी फट पड़े ,इनको क्या.....? सब फोकट का मिल जाता है |
आफिस की गाडी से ड्राइवर जो पेट्रोल मारता है, उसे आधी कीमत में खरीद लेता है साला.... |
दाम बढ़ने से क्या फरक ?
आप को पता है , हर अर्जी पे दस –बीस का चढावा ,चढवा लेता है तब अपनी कलम घिसता है |दिन-भर में चार-पांच सौ कहीं नहीं गए |
मैंने कहा कोई अकडू नहीं टकराता क्या ?
साहू ने मेरी ओर इस नजरिए से देखा जैसे मुझे दुनियादारी का ज़रा भी इल्म नही हो |
अब भला इतने कम अमाउन्ट पे कौन को पडी है जो अपना काम बिगाड़े ?
इसी तर्ज अपना रामदीन सिपाही भी तो है |सबसे दो-दो,पांच –पांच ले के पूरे क्वाटर-अध्धी का इन्तिजाम कर लेता है और मस्ती में झूमते-झामते लुढका हुआ मिलता है |
मेरी बहुत इच्छा थी कि मेरे नाम के सामने डाक्टर जुड़े ,पी .एच.डी. करूँ |
सब्जेक्ट ढूढते-ढूढते साठ पार कर गया |
भला हो मेरी याददाश्त का,जिसने बताया कि एक डी.वाई .एस .पी ने बाकायदा पाकेटमार पर रिसर्च करने के लिए पाकेटमारो के संगत में कई दिन बिताए ,पाकेटमारी भी की |
मुझे लगा कि रिश्वतखोरो के साथ ये काम कर के देख लिया जाए |जहां चपरासी से लेकर मंत्री तक सब भ्रष्ट हों ,जहाँ कुछ अखबार ,कुछ टी.वी चेनल आड में इन्ही खबरों की कमाई कर रहे हैं वहाँ आकडे जुटाना कोई मशक्कत वाला काम नहीं है|बैठे-बिठाए पी एच डी हो जाएगी |
कहते हैं इश्क-मुश्क छुपाए नहीं छुपते|उस जमाने में रिश्वत का बोलबाला नहीं रहा होगा ,वरना इश्क-मुश्क के साथ इसका नाम भी जुडा होता |
रिश्वत में खुशबू अच्छी होती है |मेरे घर के पीछे रामनाथ रहता है |है तो वो मामूली सा नजूल आफिस में चपरासी मगर उसके घर से बासमती चावल ,हैदराबादी बिरयानी की खुशबू वक्त-बेवक्त उठते रहती है |कोई हिम्मत वाला वेजेटेरियन बाम्हन ही उसके पडौस में टिक पाता है |
रिश्वत में रोब-दाब खूब होता है| ट्रांसफर पोस्टिंग का भाव करोडो में हो गया है |”दबदबे- दार मामू” हो तो अगला विश्वास क्यों न करेगा भला?
वे मरियल से खाने वालो पर हसते होगे ?
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बात तब की है जब हिनुस्तान में रिश्वत नहीं होता था |
आजादी का जुनून होता था |जेल जाने वाले लोग , जमानत की गरज नहीं करते थे |अरेस्ट के नाम पर उनका दम फूलते किसी ने नहीं देखा, वे अटेक और हाई बी पी के बहाने हास्पिटिलाइज्ड भी न हुए |
ले दे कर छूटने –छुटाने की उनने कभी सोचा भी नहीं|जमाना लद गया |
लोकतंत्र ,पंचायत ,और आखिरी आदमी तक हक व् न्याय की बड़ी-बडी बातें कही जाने लगी |इन बडी बातो के चक्कर में, या यूं कहे कि दलदल में देश धंसते चला गया |
हर जगह मखौलबाजी ,मुखौटेबाज ,मसखरे बाज लोगो ने अपनी जड़ें जमा ली |
लोग हर काम में ,हिसाब –किताब और फायदा देखने लगे |जिसे जब जितना चूना लगाने का मौक़ा मिला, वे उसी दम तैय्यार दिखे |
मेरे बाप-दादे डरते थे ,बिना टिकट, कभी पास के स्टेशन तक भी कहीं गए नहीं |बिना टिकट चुनाव भी नहीं लड़े |कभी निर्दलीय नहीं बने|दल और पार्टी के लिए हमेशा निष्ठावान बने रहे , सो उनका मोल-भाव नहीं हुआ |वे एक पार्टी को जिताते रहे |
बेखौफ जीतते रहने के कारण,निष्ठावान पार्टी के लोग सत्ता को बपौती मानने लगे |वे अपनी टोपियां सहेज के रख दिए ,कि फिलहाल जरूरत तो नहीं ,कभी हुई तो निकाल पहन लेंगे |
टोपियां जब सर पे बोझ सी लगाने लगे ,जब टोपी बदलने के दाम मिलने लगे तो समझो राजनीतिक सुनामी कभी भी आ सकती है ?
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चुनरी में दाग ....
हमारे उस्ताद जी को दाग –धब्बों से बहुत चिढ सी थी |वे कतई बर्दाश्त नहीं करते थे कि उनका शागिर्द किसी किस्म के उलट –फेर में पड़ा रहे |उनमे खुद कोई बुरी आदत, सिवाय एक भांग खाने के नही थी |इसे भी वो शिव –भोले के प्रसाद के निमित्त मानते थे |आयुर्वेद में हाजमा दुरुस्त रखने के अनेकानेक उपायों में से एक जानकर अपना बैठे थे |
उस्ताद जी को अखाड़े से बाहर ,हमेशा साफ –सफेद वस्त्रों में लिपटे हुए देखा |कई साबुन-डिटर्जेंट वाले विज्ञापन देने-दिलाने के नाम पे चक्कर काट गए पर उस्ताद जी को ‘झागदार’ बनाने में सफल नहीं हुए |
उस्ताद जी का कहना था कि, लोग आपको ‘झागदार’ बनाते –बनाते कब ‘दागदार’ बना देंगे कह नहीं सकते ,यानी लालच से बचो |
कम खाओ ,’बनारस’ में रहो, इस सिद्धांत को पालते –पोसते वे कब ‘बनारसी’ हो गए पता नहीं ?
उस्ताद जी को गुजरे अरसा हो गए ,तब से आज तक हमने किसी हार-जीत पर दांव नहीं लगाया |
फुटबाल ,हाकी ,कैरम ,क्रिकेट हमने भी कई खेल खेले पर हमें खरीदने वाला कोई माई का लाल तब पैदा नहीं हुआ|हमें फक्र इस बात का भी है हमारी बोली नही लगी |
हम तक, झांकने को नीम-बबूल दातूनो का स्टाकिस्ट तक नहीं फटका कि आओ हमारे प्रोडक्ट के ब्रांड एम्बेसडर बन जाओ |
मजे की लाइफ थी ,खेलो और भूल जाओ |कोई रिकार्ड-विकार्ड का चक्कर नहीं |
करीब-करीब ,कबीरी जिंदगी जीने वालो का एक ज़माना था,..... गुजर गया |
’जस की तस धर दीन्ही चदरिया’...... वाले लोग अपनी-अपनी ,चादर को समेट के बेदाग़ बढ़ लिए|
जिसने ज्यादा यूज किया, वे ‘तार-तार’ होने तक भी चादर नहीं बदले |
कभी स्याही –चाय गिर गई तो बड़े-बूढों के डर से थोड़ी बहुत धो लिए|
एक परंपरा थी कि ज्यादा ‘दाग’ लगने नही देना है |’चरित्र’ के नाम पर राम-चरित मानस की तरह जगह –जगह प्रवचन चलता था |
मास्टर जी की क्लास में कूट-कूट कर बतलाया जाता था ,ये गया तो कुछ गया ,वो गया तो ‘कुछ और...; गया मगर ‘चरित्र’ गया.... तो समझो सब चला गया |
मास्टर जी की पकड़ से छूटते ही, दादा-बाबूजी की पकड़ में फिर वही सीख ,’चरित्र’ गया.... तो सब गया |
इन सीखो की वजह से गृहस्थाश्रम से आज तक किसी बलात्कार के कभी ब्रेकिंग न्यूज ही नहीं बने |
हमारी खानदानी ‘चादर’ बेदाग़ रह गई |हमारी खुद की भी बेदाग़ रह गई |
हमने ‘दाग अच्छे हैं’जब से सुना, हमारे होश गुम हो गए|माना कि तुम्हारे पास अच्छे डिटर्जेंट हैं, इसका ये मतलब नहीं कि तुम इतराओ ,‘दाग’ में सूअरों की तरह लोट जाओ |
धोने वालो का तो ख्याल रखो उनके पास और भी तो काम हैं तुम्हारे दाग छुडाने के |
ड्राई -क्लीन के जमाने में मिस्टर क्लीन कहलाना या हो जाना अलग मायने रखता है |हमारे जमाने में किसी गलती से, चरित्र पर शंका उत्पन्न हो जाती थी तो अग्नि परीक्षा ,सामाजिक बहिस्कार,तिरस्कार ,गंगा स्नान और न जाने क्या –क्या उपाए किए-सुझाए जाते थे|
लोग स्वस्फूर्त साधू बन के गायब हो जाया करते थे ,वे तब बाहर आते थे जब ज्ञान का अकूत भंडार उनके पास हो जाता था |प्रवचन वे तब भी ‘चरित्र’ के मुद्दे पर ही किया करते थे |
ढीले-करेक्टर वालों के आंकड़े सुनते–सुनते अब तो मानो कान पक जाते हैं |दो-चार साल के बच्चो पर रेप,मनमाना घूस ,पुलसिया इन्काउंटर ,नेताओं के बहके –बहके बयान, खेल के भीतर खेल |
इमान्दारी से देखा जाए तो आज जितने जेल हैं ,उतने की ही और जरूरत है |
इन ढीले-करेक्टर वालो को, हम लोगो ने बहुत सहा है |मूक दर्शक बन के करोडो लोग अपना धन और समय की बर्बादी कर रहे हैं |बहिस्कार –तिरस्कार की भाषा में निपटने की बजाय चेनल वाले अपनी रोटी सेक रहे हैं ?अखबार वाले जगह दे रहे हैं ?
यों नहीं होना चाहिए कि इनकी ‘चादर’ इनसे छिन ली जाए ?बिना दाग- धब्बे की इनकी केवल नंगी पहचान बनी रह जाए?......
सुशील यादव
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लाल बत्ती वाले लोग
हम लोग निपट देहात में रहा करते थे |सुविधा के साधन कम हुआ करते थे | न रेडियो न फोन |
पचास साल पहले ,टी वी ,मोबाईल के बारे में कोई जानने की सोच भी न सकता था |
मास्टर जी गाव के सर्वेसर्वा सुचना व् प्रसारण का काम सम्हालते थे|
वैसे उस जमाने में रोज की दिनचर्या में, खबरों की कोई जगह नही थी |लोग कमाने निकलते थे ,दिनभर की रोजी में थक हार के लौटते |अन्धेरा घिरते ही पूरा गाव सो जाता था |अब ऐसे में खबर्रो का भला क्या अचार डालते ?
खबरों से ज्यादा,गांव में किस्से-कहानियों का प्रचलन था|चौपाल में कहीं दुबक के बैठ जाओ तो पिछले चालीस –पचास सालों का इतिहास समझ में आने लगता |कैसे १०० रु में तोला भर सोना,एकड भर खेत |
पन्द्रह रु महीने की पगार और चार आने की तरकारी में बड़े से बड़ा परिवार आराम से जीम लेता था |उस जमाने में किसी सी ए ,पी ए की पैदाइश नही हुई थी , कोई तहलकेदार इकानामिस्ट नही हुआ करता था |
बुजुर्गों की पूछ –परख वाला वो जमाना धीरे –धीरे मनो लद सा गया|
मास्टर जी को देख, पेशाब कर देने वाले लोग अब लाल बत्ती लगाए घूमने लगे |किस्सा कुछ यूं है ;
कंछेदीलाल और मै साथ-साथ पढते थे |
वो एक कमजोर सा दुबला –पतला ,स्कूल से हमेशा गोल रहने वाला, या यूँ कहें कि मास्टर जी के डर से स्कूल से दूर –दूर भागने वाला, कम अकल का साधारण सा बालक था |वो मेरे ठीक पीछे बैठता था |उसकी अनुपस्थिति का खामियाजा मुझे झेलना होता था |मास्टर जी उन दिनों के रिवाज के मुताबिक उसे बुलाने ,उसके घर मुझे भेज देते |कभी मिलता तो उसे पकड़ लाता |वरना मुझे भी पढ़ने से कुछ राहत मिल जाती| स्कूल ज़रा देर से पहुच कर कन्छेदी की जगह –जगह तलाशी का ब्योरे वार विवरण देकर वाहवाही पा लेता |इस बहाने ,मास्टर जी से और भे कई छूट मिल जाया करती थी |
कभी कन्छेदी को लगातार स्कूल आए देखता तो मन ही मन मुझे उस पर गुस्सा सा आया करता था|
कन्छेदी प्राय: हर क्लास में मेरे करीब ही बैठता |उसे अघोषित रूप से मेरे स्लेट –कापी से देख के लिखने की आदत सी थी |
एक दिन खराब तबीयत के चलते मैं स्कूल नहीं जा सका |कन्छेदी पर आफत आ गई |मास्टर जी, परीक्षा की तैयारियों करवा रहे थे ,कंन्छेदी सब गलत कर बैठा |मास्टर जी बौखला के दो-चार जमा दिए|कन्छेदी मूत मारे था |क्लास के उत्पाती बच्चो के लिए कन्छेदी को चिढाने का नया जुमला मिल गया |उसका नया नामकरण ‘मुतरा’ हो गया| सहपाठी उसका जिक्र आने पर इसी नाम से जानने लगे थे ,मगर सीधे उसके मुह पर कोई नहीं कह पाता था |
कन्छेदी का, मास्टर से डर का पारा यूँ बढ़ गया कि ,वो परीक्षा तक तो स्कूल ही नही आया |
आगे के क्लास में हमारे सेक्शन बदल गए |
कन्छेदी का पढाई से इतना ही वास्ता था कि वो पास हो जाया करता था|
उसकी दोस्ती मोहल्ले के एक –दो पहलवानों से हो गई | पहलवानी में उसका जी क्या लगा , देखते –देखते उसकी काया बदल गई |मस्त सांड की तरह बदन का हर हिस्सा गुब्बारे की तरह तन गया |
कन्छेदी मोहल्ले के टपोरियों का उस्ताद हो गया |टपोरी उससे संगत बढ़ाने के लिए हमेशा घेरे रहते |पान की दुकान , सेलून , चौराहे पर चाय-भजिए के होटल में उसका जमवाडा या पाया जाना लगभग तय रहता था |उसके खबरी आ-आ कर गाव ,मोहल्ले,पडौस की खबर उसे पास-आन किया करते थे | उसे गाँव की हिस्ट्री-जिओग्राफी ,बच्चे से बूढों तक की सेहत,यहाँ तक कि, जनानी बातों की जानकारी भी उसे मिल जाती थी|
उसके तजुर्बे दिनों-दिन बढ़ रहे थे |नौकरी की उम्र में पहुँच कर बहुत हाथ पैर मारे ,मगर मार्क-शीट देख सब मुह फेर लेते थे |यों नौकरी के नाम पर बस खाली जूता घिसना ही हुआ|
हताश हो कर कन्छेदी से बैठा न रहा गया |उसके टपोरी –विंग ने पैसा कमाने के कई नुस्खे बताए |कन्छेदी कन्विंस न हो पाया |बस आखिर में उसे दलाली वाला आइडिया ही जमा |इसमे जोखम कम ,लागत कम और जब तक दिल करे , काम करो वाली बात ने , उसे अट्रेक्ट किया | उसकी दलाली जम गई |कई लोग संपर्क में आते गए |सुझाव दर सुझाव ,सलाह-दर सलाह करवट बदल –बदल के, कन्छेदी गाँव का मुखिया , सरपंच , जिला पंचायत का अध्यक्ष ,विधायक और अंत में मंत्री तक बन गया |
कन्छेदी की तरक्की के ग्राफ को, किस्से कहानी की जुबानी कहे तो, “जैसे उनके दिन फिरे “ वाली बात हो जाती है |हम लोग इसे किस्मत का नाम देकर,बस ठंडी आहें भर लेते हैं |जलने-भुनने –कुढने की बात नही होती वरन कन्छेदी जैसे ‘लो आई-क्यू’ वाले लोग कहीं कम नही पाए जाते |
कन्छेदी की मिनिस्ट्री ठाठ से चल रही है |कछेदी के विचार –व्यवहार में जमीन –आसमान का फर्क आ गया है|वो तोल-मोल के अच्छा बोलने लगा है|किसी दार्शनिक के बतौर तर्कसंगत बातें सुन कर गाव वाले,उसे अगला और उससे भी अगला चुनाव अवश्य जीता देंगे |अभी तक तो यही माहौल है |
कई सालो बाद, मेरे नाम से मुझे ढूढते-ढाढ़ते मास्टर जी आए |कहने लगे ,तुम्हारे दोस्त कन्च्छेदी से ज़रा काम था |मैंने कहा मास्टर जी आपने तो उसे भी पढ़ाया है |मास्टर जी कहने लगे- हाँ , मगर सीधे –सीधे कहना जमता नहीं |मेरे बेटे का ट्रान्सफर दूर के देहात में हो गया है सो उसे रुकवाना है , ये उन्ही के मंत्रालय का काम है वे शिक्षा –सचिव साहब को बोल देगे तो तुरंत काम हो जाएगा |मास्टर जी की कातरता से मुझे लगा कि गुरु-दक्षिणा का मौक़ा बिन मांगे मिल गया है |मै उॠण होने की तैय्यारी में लग गया |
वैसे मेरी मुलाक़ात कन्च्छेदी से कई सालो से नही हुई थी |मुझे खुद नहीं मालुम कि वो मुझे कितना वजन दे पाएगा ?मगर मास्टर जी ने पहली बार किसी बात के लिए कहा है तो इंकार की कोई गुंजाइश भी नही थी ,वो भी तब जब मास्टर जी गाँव से चल कर राजधानी मुझसे मिलाने आए थे|मैंने कहा चलिए |काम हो जाएगा |मास्टर जी स्कूटर पर पीछे बैठ गए |
कन्च्छेदी का भव्य मंत्री वाला बंगला ,सेक्युरिटी ने रोका ,गांव का वास्ता देने पर जाने दिया |आगे पर्सनल सेक्रेटरी ने कई सवाल दागे|कहने लगा ,सब गांव का रिफरेंस दे के मिलने चले आते हैं साहब का बहुत टाइम खोटा होता है|आप लोग पहली बार दिख रहे हो |
मैंने पी.एस.से मास्टर जी से परिचय कराया , अपने को उसका अभिन्न मित्र बताया |सेक्रेटरी ने कहा साहब गुस्सा होते हैं |हर किसी को मत भेज दिया करो |
मेरे कहने पर, कि आप ये चिट भेज भर दो |नहीं मिलते तो हम गाव में मिल लेंगे |सेक्रेटरी राजी हुआ |चिट के जाते ही बुलावा आ गया |
कन्च्छेदी के कमरे ,उसकी बैठक, उसका रोब-दाब, ठसन देख कर पहली बार यों लगा कि मै अपनी स्लेट–कापी कन्च्छेदी से छुपा लूँ ,उसे बिना मेहनत के सब सही हल क्यों मिले ?
मेरे सहज होने से पहले कन्च्छेदी ने बहुत उत्साह के साथ हाथ मिलाया , मास्टर जी को प्रणाम किया |इधर-उधर की बातें हुई |उनके पास आने के बारे में हम बता पाते इससे पहले दो –चार फोन आ गए |उनकी व्यस्तता थी |वे कुछ सुनते , कुछ फाइल उलट-पुलट लेते |स्टेनो को बुला के हिदायत देते| सहज होने की कोशिश करते –करते वो हांफने लग गया | बस एक मिनट , बस दो मिनट, बस हो गया , की बात दुहराए जा रहा था |
उसे एक छोटा सा अंतराल मिलते ही , मैंने आने का मकसद, एक सांस में कह सुनाया |मास्टर जी खामोश श्रोता की तरह मेरी बात में सर हिलाते रहे | मेरी बात पूरी होते ही , कन्च्छेदी कुर्सी से उछल के खड़े हो गए , वे सीधे बाथरूम में घुस गए |निकलने के बाद उनके चहरे पर एक ताजगी दिख रही थी |
मुझे मास्टर जी की,स्कूल के दिनों में कन्च्छेदी की, की गई कथित पिटाई का ख्याल आ गया |मैंने बेखयाली में मास्टर जी की तरफ देखा|मास्टर जी बेखबर दिखे ,उन्हें शायद याद भी न हो |सैकड़ों को पीटे हैं|मेरे जेहन में एक जुमला मन ही मन उतर गया ‘मुतारा’ |मुझे हँसी आते –आते रह गई |
कन्छेदी बाथरूम से आ कर फोन मिलाने में व्यस्त हो गया , शायद सेक्रेटरी को मास्टर जी के बाबत बता रहा था |
उधर से सेक्रेटरी ने कहा ,सर अच्छा हुआ आपने फोन लगा लिया ,आपको सी.एम्. साहब ने अभी तलब किया है|
वे तत्काल उठ खड़े हुए |फिर बाथरूम गए |
निकल कर सीधे लाल –बत्ती की गाडी से रवाना हो गए |
मुझे लगा ,हो न हो ‘मुतरे’ ने खुद ही मास्टर जी के बेटे का ट्रांसफर किया हो |
सुशील यादव ,न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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वे पीट रहे हैं ......
ये पढ़ के आपको लगा होगा कि वे कहीं मास्टर जी होंगे ,बच्चो से नाराजगी निकाल रहे होंगे|
दूसरा ख्याल गुंडा-मवाली को लेकर आया होगा ,हो न हो , हप्ता वसूली के विवाद में पिटने –पिटाने वाला खेल खेल रहे होंगे |
आपने ये भी सोच लिया होगा कि सांप निकल जाने पर कोई लकीर पीट रहा होगा |
ना भाई ना आप, कदाचित सर्वथा गलत हैं|
वे जम के पीट रहे हैं, बोलते ही आप समझ जाएगे, कि उनकी नम्बर दो की कमाई जम के हो रही है |
रिश्वत के छोटे –मोटे संस्करणों की जानकारी मुझे बचपन से थी |
पडौसी रामदीन ,जो नजूल दफ्तर में चपरासी था ,के घर से चिकन बिरयानी ,बासमती चावल की आए दिन खुशबू आया करती थी |अम्मा –बापू बतियाते थे ,अच्छी कमाई कर रहा है |
बापू को अम्मा कोसते हुए कहती ,ये मास्टरी वगैरह छोडो ,ढंग की कोई नौकरी कर लो |
बापू बस में कुछ और करने का रहा क्या था सो करते ?बस कुछ और बच्चे ट्यूशन पढाने बटोर लाते | अम्मा चांदी के गहनों में इजाफा कर लेती और खुश हो जाती |
लखन मास्टर के बेटे ने ओव्ह्र्सीयर बन के खूब कमाई की|दुमंजिला बनाते तक तो वो ठीक-ठाक रहा |फिर बाद में अक्सर झूमते –झुमाते घर आने लगा |
रिश्वत की ‘खुशबू’ के बाद रिश्वत का ‘झूमना’ देखा |
शादी –ब्याह की पार्टी में मिश्राइन भाभी का ‘ज्वेलरी- शो ‘,शर्माइन का साडी कलेक्शन पर व्याख्यान, सब को अपनी ओर खिचे रहता था |क्या ठाठ थे उनके |
वे अपने-अपने पति के मेहनत(रिश्वतखोरी) का गुणगान करते नहीं अघाती थी |चन्नू के पापा , जब भी कोई नया टेंडर खुलता है ,मुझसे पूछ जाते हैं,कोई सेट चाहिए क्या?
हमारे शर्मा जी दौरे से लौटते हुए कुछ न कुछ उठा लाते हैं |मै इंनपे बिगडती हूँ ,ये क्या वही-वही फिरोजी कलर ,मै तो उकता गई हूँ |
वो पार्टी में मजे से रस-झोल गिराते –गिराते खाती ,दुबारा वो साडी या तो काम वाली बाई के हत्थे चढती या उनके बदले कटोरी –गिलास-बाल्टी खरीद लेती |
सुबह-सुबह ,मार्निग वाक् में हम लोग पिछले चौबीस घंटों की घटनाओं का जिक्र कर ही लेते थे |रविवार की सुबह तो सविस्तार बहस हो जाती थी |रिपीट टेलीकास्ट की नौबत बन जाती थी |
हाँ तो बद्रीधर जी ,जो आप क्या –क्या कह रहे थे परसों ,कि हमने शहर के चमचमाते नेमप्लेट ,कुत्तों से सावधान वाले घरों को देख के कभी सफेद -काली कमाई का आकलन किया है ?
ये तो वाकई सोचने वाली बात है ,कि जिस घर के सामने कलफदार कपड़ों में दरबान हो ,खुशबूदार फूल ,कारीने से कटे पौधे , हरे-भरे लान हो , ये सब सेठ –मारवाड़ियों के ठाठ नहीं होते|
वे अपनी कमाई की नुमाइश लगाने की बजाय शाप या फेक्ट्री में खपा देते हैं |
ये ठाठ तो यकीनन अफसर या मंत्री के होते हैं |
दीवाली –होली तो ये लोग ही खूब मनाते हैं |
रात में नियत समय बाद पटाखे छुटाने की मनाही के बावजूद दो-तीन बजे तक धमाल किए रहते हैं |पता नहीं इनके कौन से आका-काका पटाखों का जखीरा छोड़ गए होते हैं ?
ताश की तीन-पत्ती में इनको ‘ब्लाईंड’ खेलते देख के तो यूं लगता है कि इनका बस चले तो , पूरे देश का बजट यहीं झोंक दें|
होली में इनको पक्का रंग मिलता है |इनके यहाँ रंगे जाने का मतलब हप्ते –दस दिन के लिए कलरफुल बने रहना |
सब ओर ‘ड्राई’ रहते हुए, इनके तरफ बाल्टियाँ भरी होती हैं |इनके इन्तिजाम मास्टर अचूक होते हैं |इनको कहीं से कोई आदेश नहीं होता, स्वस्फूर्त संचालित हुए से रहते हैं |
जो पीट रहे होते हैं ,उनसे ‘पिटने-वाले’ बकायदा बहुत खुश रहते हैं |
ऐसा अजूबा, ऐसे सम्बन्ध, बाप-बेटे ,मजदूर –मालिक या दुनिया के किसी रिश्ते में नहीं मिलता |
ये दो-धारी तलवार, जहाँ धार के एक ओर ‘नोक से लेकर पकड’ तक -चपरासी ,बाबू ,क्लर्क ,मुंसिफ ,दरोगा ,डाक्टर,इंजिनीयर ,संतरी-मंत्री हैं ,वहीं दूसरी ओर इनसे फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और ले-दे कर काम करवाने वाले लोग होते हैं |
इन दोनों ‘धार’ की मार आखिर में येंन-केन प्रकारेण जनता झेलती है |
किसी शहर के सुपर सिविल लाइंस के किसी भी घर का इतिहास झाँक लो , जो आज् दस-बीस-पचास –सौ ,हजार करोड के मालिक हैं ,कल तक वे टूटे स्कूटर में घूमते पाए जाते थे |
पंचर बनाने के जिनके पास पैसे न थे वे आज चार –छ: गाडियां लिए फिरते हैं |
इन्होंने ,जंगल बेच दिए ,जमीन बेच दी, खदान लुटा दिए,टेंडर में घपला किए ,खरीद में, दलाली में हर लेन-देन में गफलत, कमीशन |
चाल-चरित्र और चेहरे में मासूमियत लिए, हर पांच साल बाद आ फटकने वाले लोग कब देश बेच खाएं कुछ कहा नहीं जा सकता ? **सुशील यादव ,श्रिम सृष्टि, अटलादरा,सन फार्मा रोड ,वडोदरा (गुज)
समान विचार-धारा के कुत्ते
शुरू शुरू में जब इस कालोनी में रहने आया तो बहुत तकलीफ हुई |सीसेन(शेरू) को भी नया माहौल अटपटा लगा |
अपने देहात में, जो ‘आजादी’ कुत्ते और आदमी को है, वो काबिले तारीफ है |
कुत्तों को खम्बे हैं आदमी को झाड –झंखार ,खेत-मेड,तालाब, गढ्ढे हैं |पूरी मस्ती से, जहाँ जो चाहे करो |
आदमी को,देहात में समान विचार-वाले लोग, गली-गली मिलते रहते हैं |जय -जोहार और खेती –किसानी के अतिरिक्त विचारों का आदान –प्रदान कम होता है |
गाँव के आदमी और कुत्ते में ,वैचारिक-खिचाव लगभग नही के बराबर होता है, कारण कि अगर वे आदमी हैं तो बारिश होने, न होने ,कम होने की चिंता से वे ग्रसित रहते हैं| अगर कुत्ते हैं तो पिछले बरस महाजन के यहाँ शादी में खाए हुए दोने पत्तलों के चटकारे लेने में मशगूल रहते हैं |वे इसी को बहस के मुद्दों को लंबे –लंबे खीचते रहते हैं |अब भला इन बातों से, टकराव का वायरस कहाँ तक पनपे ?और टकराव हो भी जाए तो, वो तो बारिश है उसे एक ही के खेत में कब गिरना है ,वो अपनी मर्जी से ,अपने हिसाब से ,अपने तरीके से भरपूर गिरेगा |जिसे जो चाहे करना हो कर ले |
गाव के शांत माहौल को ‘बाहरी-हवा’ से निपटने में दम फूल सा जाता है| एक बाहिरी ‘हवा’ है , जो गाव के शांत माहौल को कभी –कभार बिगाड़ के रख देती है |चुनाव आते ही गाव दो खेमो में बट जाता है |
’बाहरी-हवा’ ,ज्ञान का पाम्पलेट, जहां –जहाँ बाँट के चल देती है,लोग मौसम को भूल जाते हैं |कुत्ते पोस्टरों में टाग उठाने की कोशिश करते हैं मगर उस तक पहुच नहीं पाते |
सामान विचारों वाले देहात में खलल पैदा हो जाती है |
बाहरी हवा के कारनामे,गाँव के कुत्ते भी बखूबी समझते हैं|माहौल बिगडते देख ,वे इतने जोर -जोर से भौकने लग जाते हैं कि पडौस के गाव भी झांकने आ जायें |
‘बाहरी-हवा’ ने गांव में एक दिन कुहराम मचा दिया ,सर –फुटौव्वल का माहौल बना दिया |
वे अपने नेता को ‘सेकुलर’बताने के चक्कर में हरेक कौम के लोग इक्कठा करने लगे |
लठैत के सहारे उनके नेता सेकुलर हो गए |भाषण पर तालियाँ पिटी,टी.व्ही कवरेज मिला ,माहौल पर सेकुलर की हवा मानो छा सी गई |
देहातियों को बहस का नया शब्द ‘सेकुलर’ मिल गया |
वे आए दिन बहस करने लगे |
सेकुलर दिखाने के लिए ,आपस में टोपियां बदलने लगे |
वे टोपी बदलते-बदलते, कब सर के बाल नोचने लगे ,कब सर को धडाम से वजनदार लोहे की टोपी पहनाने लगे ?
पता ही नहीं चला |
गाव में सामान-विचारों के मुद्दे पर लोग बटने लगे,विचारों का पोस्टमार्टम होने लगा ,तर्क हाशिए पर जाने लगा ,कुतर्क वालो के पास भीड़ जुटाने लगी |बातो की इतनी छीछालेदर गाँव ने कभी देखी न थी |
कुत्ते हरेक को कुतर्की समझ ,दूर –दूर तक भौकते -पछियाने लगे |गाव अब रहने लायक रह नहीं गया |
माहौल इतना बिगडते चला कि, मुझ जैसे समझदार लोग गाव छोड़ देने में समझदारी देखने लगे |
सो गाँव से शहर के सभ्रांत कालोनी में आ बसा हूँ |
कुत्ता साथ में लाना पड़ा,वहाँ किसके भरोसे छोड़ता ?
मगर सीसेन जब से आया है ,खुले में घूमने की उसकी आजादी छिन गई है |
उसके भौकने पर कालोनी की सभ्रान्तता को देखते हुए लगाम लगाए रखना पडता है |वरना लोग हमें असभ्य –देहाती न समझें |
दिशा-मैदान के लिए उसे घर वालों का मुह ताकना पडता है |
हमारी पूरी कोशिश होती है कि उसे बुरा न लगे उअसका फील –गुड हिट न हो|
हमारी तरफ से ,घर के एक अशक्त को जो सेवा दी जा सकती है, वही ‘सिसेन’(शेरू) इन दिनों, पा रहा है|बावजूद इसके ,वो बहुत दुखी है |
उसे इस नए माहौल में अपने सामान –विचार धारा वाले दोस्त की तलाश है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर,Zone 1 street 3 , दुर्ग (छ ग)’
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हमारा (भी) मुह मत खुलवाओ
उनको मुह बंद रखने का दाम मिलता है |कमाई का अच्छा रोजगार इन्ही दिनों इजाद हुआ है|
सुबह ठीक समय पर वे दफ्तर चले जाते हैं |खास मातहतों को केबिन में बुलवाते हैं ,प्यून को चाय लाने भेजते हैं |
गपशप का सिलसिला चलता है|
केदारनाथ के जलविप्लव,लोगों की त्रासदी ,बाढ के खतरे ,सरकार की व्यवस्था-अव्यवस्था ,देश में हेलीकाफ्टर की कम संख्या ,सब पर चर्चा करते लंच का समय नजदीक आने पर, एक-एक कर मातहत खिसकने लगते हैं|
अंत में शर्मा जी बच पाते हैं ,वे उनसे पिछले सप्ताह भर की जानकारी शाम की बैठक का दावत देकर ,मिनटों में उगलवा लेते हैं |
शर्मा जी की दी गई जानकारी, उनके लिए,एक मुखबिर द्वारा ‘ठोले’ को दी गई जानकारी के तुल्य होती है |
वे इसे पाकर अपनी पीठ थपथपाना नहीं भूलते |
वाहः रे मै ? वाले अंदाज में वे साहब के केबिन की ओर बढ़कर, ‘नाक’ करते हैं | वे ‘में आई कम इन सर’ की घोषणा इस अंदाज में करते है जैसे केवल औपचारिकता का निर्वाह मात्र कर रहे हों वरना साधिकार अंदर घुस कर कुर्सी हथिया लेना उनका हक है | और ये हक उंनको, साहब को ‘वैतरणी’ पार कराने का, नुस्खा देने के एवज में सहज मिला हुआ है |
साहब आपत्ति लेने का अपना अधिकार मानो खोए बैठे हैं,वे पूछ लेते हैं ,कैसा चल रहा है ?
उनके पूछने मात्र से, वे शर्मा जी वाला टेप स्लो साउंड में चला देते हैं|साहब जी क्या कहें ,सारा स्टाफ करप्ट है|
वे स्टाफ के साथ –साथ ,साहब को भी जगह-जगह लपेटने से बाज नहीं आते |
साहब, पेंट की जेब से रुमाल निकाल कर ,पसीना पोछ-पोछ कर ,घंटी बजाते हैं ,प्यून के घुसते ही कहते हैं –थोड़ा ए .सी .बढाओ |
ए.सी. से राहत पाकर वे पूछते हैं ,कोई खतरा तो नहीं है ?
सी.बी.आई. वालों से तुम्हारी कोई पहचान नहीं निकल सकती क्या ?
यों करो इस हप्ते इसी अभियान में लगे रहो ,देखो किसी से कुछ कहना मत ,बिलकुल चुप रहना |
तुम्हारा पहुच जाएगा |
वे इत्मिनान से आफिस की गाडी ले के अपनी फेमली ट्रिप में दूर निकल जाते |शर्मा जी को खास हिदायत दे के रखते कि मोबाइल स्विच आफ न रखे |
उनका तर्क है कि कौन कितना खाता है ,कब खाता है ,किससे खाता है ,इतनी जानकारी आपके पास हो, तो आप अच्छे-अच्छो को हिला सकते हैं |
वे इसे समाज सेवा के बरोबर मानते हैं |
आपके नजर रखने मात्र से कोई अगर इस राह का राही नहीं बनाता तो हुई न देश की सेवा ?
वे वापस आकार दिल्ली ट्रिप का, जुबानी खर्चा-बिल साहब को बता जाते हैं|
वे साहब पर भारी पडने वाले अंदाज में कहते हैं ,फिलहाल सर आप फाइल-वायल को ठीक–ठाक कर लें|
दो-चार ठेकों को बिना लिए निपटा दें|आपकी छवि बनेगी |घर में नगदी वगैरा न रखें तो बेहतर होगा |बेनामी के कागज़-पत्तर को ठिकाने लगा ले|पता नहीं वे कब आ धमकें ?
साहब जी प्यून को बुला के ए.सी. बढ़वा लेते हैं |
वे साहब जी पर एहसान किए टाइप ,अपनी कुर्सी पर आकार ,स्वस्फूर्त फुसफुसाते हैं,बहुत अंधेरगर्दी मची है पूरे दफ्तर में |
सुशील यादव
रोम वाज नाट बिल्ट इन ए डे / सुशील यादव
तब अंग्रेजी का अपना एक अलग रूतबा हुआ करता था, एक सख्त किसम के टीचर हमें पढाते थे, क्लास में उनके घुसते ही एक वीरानी, सन्नाटा या सच कहें तो मनहूसियत का माहौल हो जाता था।
पता नहीं उनकी याददाश्त या डिक्शनरी में कम शब्द या प्रोवर्भ थे .जो आए दिन कहा करते थे ;
“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”......।
इस वाक्य के बोलते समय, उनका चेहरा एक अलग किस्म के तनाव से भर जाता था, टीचर जी पढ़ाते –पढाते कहीं खो जाते थे। उनकी वापसी तब होती थी जब कोई प्यून रजिस्टर ले के आता, या छात्रों की गपशप की आवाज ऊँची गूंजती .या स्कूल में पिरीयड बदलने की टन्न बजती।
मैं उन दिनों अखबार पढ़ लिया करता था, इसलिए मुझे अतिरिक्त ज्ञान हो गया था, मसलन मै,घपलो-घोटालो, राजनीतिक पहुँच, उपरी लेन-देन, पैसों के लिए बाबू से मंत्री तक के,चारित्रिक स्तर के बारे में जानने लग गया था।
टीचर जी के उस वाक्य के मायने कि, “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे .....” यू लगता था कि, “रोम” चाहे चार दिन में बना हो या चार सौ सालों में, हमारा क्या वास्ता? दूसरी बात ये खटकती कि, रोम के ठेकेदार, कारीगर ज्यादा सुस्त रहे होंगे, या “रोम” में वो कौम नहीं रही होगी जो ‘स्पीड- मनी’ पर विश्वास करती थी?
शायद रोम में अच्छे ‘बाबू –इंजीनियर-नेता’ लोग पैदा होना भूल गए थे , कि ‘रोम’ को बनने-बनाने में बरसो लग गए?
कौतुहल के और अनेक कारण भी थे, जो रोम को एक बार देखने की वजह आज भी बने हुए हैं ।
हमारे तरफ की बात अलग है,इधर आर्डर हुआ नही कि रातो-रात “रोम” बस जाता है।
पूरी की पूरी राजधानी बन जाती है।
ठेकेदार, इंजीनियर जेब में एक से एक डिजाइन का ‘रोम-रोमियो’ का नक्शा लिए घूमते रहते हैं।
एक-एक दिन की खबर रहा करती है, कब केबिनेट की मीटिंग हो रही है, फाइल किस टेबल तक पहुची है।
किसने रोड़ा डाला।रोड़ा डालने वाले की कितनी औकात है।कितना वजन डालना होगा। कितने तक में मामला सेट होगा। उन तक पहुचने का अप्रोच रोड क्या है?
वो सब के सब टकटकी लगाए बस ये देखते रहते हैं कि, कब साहब का फरमान हो, रोम की लेन लगा दें।
स्वीमिंग –पुल, रोड, नाहर बिजली –पानी सब का दुरुस्त इन्तिजाम। मिनटों में जहाँ कहे रोम-रोम में फिट कर दें।
डिस्काउंट के बतौर, मेम साहिबानों के लिए छोटे-छोटे रोम की अलग से भेट।
कहते हैं, पैसा बोलता है। इन इन्तिजमो को देख के लगता है, पैसा लाउडस्पीकर की आवाज भी रखता है .तभी तो इसकी आवाज क्लर्क –बाबू . ठेकेदार, इंजीनियर, सांसद-विधायक, मंत्री –संतरी सभी एक साथ सुनकर “रोम”,बनाने में हाथ बंटाते हैं।
कुछ पत्रकार अडंगेबाज होकर, रोकने की मुद्रा में खड़े होते हैं।
नए रोम के बारे में वे अनाप-शनाप लिखते हैं, बताते है नया रोम संस्कृति के खिलाप है। कई खामियां गिनाते हैं।
उधर विधायक विपक्ष, सांसद विपक्ष अकड़े हुए से आंकड़े फेकते हैं, थू-थू से माहौल थर्राया सा लगता है।
लगता है ये सब रोम के पाए को कहीं भी, कभी भी जमने नही देंगे। जिस-जिस ने रोम के पाए पर अपना कंधा दिया है, वे उनको ही दफना के डीएम लेंगे।
सरकार सोते से जागती है, वो रोम निर्माण में अनर्थ ढूढने की जी तोड़ कोशिश करती है।उंनसे अनर्थ ढूढा ही नही जा पाता। वो थक-हार के निर्णय लेती है, ‘निगरानी-आयोग” के हवाले मामला दे दिया जाए। सरकार के पास और भी काम है वो अगले इलेक्शन की तैय्यारी में लग जाती है। सरकार की उपलब्ध्दियो में रोम -कथा, कम समय, कम खर्च में बना हुआ बताया जाता है। गरीबों से इसे जोड़ते हुए श्रम उपलब्ध कराने का जरुरी तरीका बताया जाता है। ये कहा जाता है कि मंनरेगा के तहत काम उपलब्ध कराए गए। पक्ष वालो को वोट की फसल लहलहाते दिखती है।
एक ठेकेदार को मै करीब से जानता हूँ, हमेशा बड़े दुखी मन से मिलते रहे। वो पर्यावरण, स्वास्थ्य परिवार-नियोजन, जेल इत्यादि सभी मंत्रालयों की विस्तृत जानकारी रखते हैं, भले वे अपने लड़के का फोन नंबर भूल जाए. तमाम दूसरो के नम्बर तात्कालिक –मौखिक याद रखते हैं।
वे मिल कर, इस बात का रोना –रोते हैं ... कि अब की बार अच्छी बारिश हो गई है, नहर का काम शायद रुक जाए...।बाजार में अच्छे टीके आ रहे हैं लोग बीमार नहीं पड़ेंगे...। अगला सप्लाई आर्डर केंसिल हो न जाए।... बच्चे कम पैदा हो रहे हैं, लोग घरो में दुबक गए हैं, आगे काम कम हो जाएगा।
मै उनको आश्वस्त कर कहता हूँ, ऐसा कुछ नहीं होने वाला, यहाँ तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं।
ऊपर से खुद –ब-खुद फरमान आएगा, फलां पुल जर्जर हो गया है, तोड़ के बना दो,/ कही से मेट्रो निकाल दो, इंटरनेश्नल स्वास्थ्य का हवाला देकर, गरीबो के लिए आलीशान फाइव-स्टार नुमा हास्पिटल बना दो। कसाब की सुरक्षा खतरे में है, जेल को सद्दाम के बख्तरबंद –नुमा महल में तब्दील कर दो।
हम उस जगह है जहां काम की कमी ही नही?
वो एक गहरी सांस में, ‘आमीन की मुद्रा’ लेकर मुझसे बिदा ले चल देता है ।
मुझे उनसे रोम-टाइप के कई डिटेल –अपडेट मिलते रहने का सिलसिला बरसों तक चला।
मै भी करीब-करीब ठेकेदार जैसा हो गया था। किसी बनते हुए पुल या रोड को देखकर, घंटों वहीं खड़े होकर, उसके बनाने वालो की हैसियत का अंदाजा लगाने लगता।
निर्माणाधीन –स्थल को देखकर, यह भी बताने की स्तिथि में रहता कि, फाइल कहाँ होनी चाहिए?
मेरे तजुर्बे से कई लोग फ़ायदा उठाने की कोशिश में रहते कोई फ़ायदा उठा भी लेते, कहते आपकी वहां पहुंच है, ये काम करवा दीजिए, एहसान मानेंगे, वो एहसान से कभी आगे बढ़े नहीं और मै वही का वहीं रह गया......।
अरे हाँ, टीचर जी का ‘रोम’ वाला वाकिया “नाट बिल्ट इन अ डे” पीछे छुट गया...। बहरहाल, उन दिनों, हम छात्रो की जुबान में भी रोम चढने लग गया था।बात –बात में हम लोग भी कहने लग गए थे “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”।
हमारी जुबान का ये ‘तकिया-कलाम’ हो, इससे पहले, भला हो हमारे क्लास के, विवेक नाम के एक लड़के का, जिसने पता लगा कर बताया कि, यार अपने अंग्रजी वाले सर जी कई दिनों से अपना मकान बनवा रहे हैं। सस्ताहा टाइप ठेकेदार –मिस्त्री को काम दे रखे हैं। किसी के पास पूरा सेंट्रिंग-मटेरियल नहीं तो कोई मजदूर होली मनाने गया तो लौटा नहीं। काम कई महीनो से रुक-रुक कर धीरे–धीरे चलने से टीचर जी परेशान से रहे। कर्जा भी ख़ूब हो गया, लगता है। मगर हाँ, गनीमत समझो, कल छत की ढलाई हो गई। शायद टीचर जी अब चैन की सांस लें।अब रोम के बनने –बिगड़ने का असर उन पर न पड़े। और सच ही, वो उसके बाद ‘रोम-विहीन’ हो गए।
हम ‘रोम’ की गली से गुजर कर कब अगली क्लास में पहुँच गए? पता ही नहीं चला।
मेरे हिस्से का (सर) दर्द / सुशील यादव
इस मायावी संसार में जो आया है वो अपना–अपना सर और अपना–अपना दर्द ले के आया है। कई लोग अपवाद के तौर पर पैदा हो जाते हैं। पैदा होते तो पूरे पुर्जे के साथ हैं मगर किसी-किसी का पुर्जा, काम के बोझ से,या हैसियत से कहीं ज्यादा मिल जाने पर अनाप-शनाप काम करने लगता है।
मेरे एक साहब हुआ करते थे, पता नही अब हैं या नहीं, अगर कहीं जिन्दा हैं तो भगवान से उनके लिए सदबुद्धि मांग कर उनके घर –परिवार का सरदर्द बढ़ाना नहीं चाहता।
अजब खब्ती किस्म के सरके हुए से थे। उनसे एक कागज पर दस्तखत कराना मानो एक जंग जीतने के बराबर था। अपने को अंगरेजी में शेक्सपियर के बाद का संस्करण मानते थे।
अनुसंधान वाली किसी भी फाइल पर, छापा मार कर आए अफसरों को वो अनाप-शनाप सवाल पूछते थे कि पहले ही लाख प्रिपेयर हो के आए रहे हो, बिखर जाते थे। सर झुकाए अफसरों को वो, शर्लाक्स होम्स, और जेम्स हेडली चेईज की तरह, बात की जड में, घुसने की हिदायत दे कर, ऐसी झिडकी पिलाते थे कि दुबारा केस बुक करने के बारे में सोचे। कभी तुरंत अपने ड्रोवर से एक कोरी फाइल निकाल कर, अफसर के खिलाप, अफसर के सामने, तहकीकात में खामी गिनाते खोल देते थे। अनुँसंधान दल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। ये दीगर बात थी कि उन्ही खामियों की आड में वे ‘पार्टी’ का शिकार कर लेते थे।
किसी की औकात नही थी कि, वो अपने तजुर्बे, अपने बल-बूते पर कुछ काम कर लें,या ‘सर’ के अति पर, उपर फरियादी बनकर खड़े हो जाएँ। बाद में वे चार-छह दफ्तर के चाटुकार अफसर और लेडी-स्टेनो से घिर कर यूँ हाँकते थे, देखा कैसे हडकाया?
सब खींसे निपोर कर हिनहिनाते थे।
साहब के गुड-बुक्स में रहने का सबसे आसान सा तरीका होता है इन चाटुकारों की तरह हिनहिनाना।
तंग करने में वे माहिर इतने थे कि अगले को रुला के दम लें। आपके ब्रांच से टाइपिस्ट,कंप्यूटर-आपरेटर को हटा कर, आपको, पांच सालो का डाटा मांग लेना,ब्रीफ लिखे हो तो थीसिस मांग लेना, थीसिस लिख ले जाओ तो कहें, क्या समझते हो? उपर वाला कोई इतना पढ़ने के फुरसत में बैठा है। छोटा करो, छोटा करो।
वे अपने गोपनीय ब्रांच को, शस्त्रागार समझने में कभी भूल नहीं किए। चार की जगह आठ लोग बिठा रखे थे। छुट्टियों में बुला कर, प्रचारित करते थे कि फलां-फलां की फाइल रंगी जा रही है|स्टाफ की नाक में दम कर रखा था। स्टेनगन की जद में कौन कब आ जाए कहा नहीं जा सकता था।
ऐसो के खिलाफ़ कौन उठे?
स्टाफ, गंडे-ताबीज बंधवाता, मिन्नत–मनौती माँगता। उसके ट्रांसफर हो जाने पर भगवान को प्रसाद बदता। आठ घंटे की सरकारी नौकरी के लिए चौबीसों घंटे का बोझ लिए फिरता। दफ्तर टाइम पे पहुचता। बिना सी. एल. के कोई गायब नहीं रहता। लेडी-स्टाफ को देख के सर झुका लेता। कोई राजनैतिक बहस नही होती थी। बाबू –अफसर, क्लाइन्ट का काम बिना किसी उम्मीद के निपटा रहे थे। क्रिकेट में इंडिया पिटे या पीट दे सब भावना शून्य से हो गर थे। वे ट्रांसफर एप्लीकेशंस लिख ले जाते मगर देने की हिम्मत न जुटा पाते। एक किस्म की इमरजेंसी लद गया था दफ्तर में।
माहौल से नाराज अफसरों का एक विद्रोही दल, आजादी की जंग वाले अभियान की तरह छुपे-छुपे एकजुट होने लगे। वे एहतियात भी बरत रखते कि कोई भेदिया न घुस पाए नहीं तो लेने के देने पड जाए।
शुरू-शुरू में एनानिमस कम्प्लेंट करके, एक-दूसरे को तसल्ली देते रहे। ‘बोर्ड’ में माहौल बनाने का काम जारी था कि पता चला किसी दूसरी जगह के किसी बदनीयती के लफड़े में साहब को सस्पेंड कर दिया है।
दफ्तर का बहुत बड़ा ‘सर’ अब स्वयं दर्द के हवाले हो गया जानकार, दफ्तर में मिठाई बंट गई।
मेरे सर से भी रोज उठने वाला दर्द जाता रहा।
फुरसतिया लोगों की जमघट / सुशील यादव
अपने शहर में लोग बड़े फुर्सत में मिलते हैं| उन्हें आप किसी भी काम में लगा सकते हैं|
प्रवचन-भाषण, बकवास सुनने के लिए वे हरदम तैय्यार रहते हैं|
बाबा लोगों का लूज केरेक्टर, चोर-उचक्का, उठाईगिरी-टपोरी होने की उनकी पास्ट हिस्ट्री कोई मायने नही रखती|
वे चौरासी-कोसी यात्रा तो क्या भारत-भ्रमण भी कराओ तो अपने-आप को झोक देते हैं|
आपने राम का नाम लिया नहीं कि वे, भक्त हनुमान की भूमिका में अपने को फिट कर लेते हैं| उन्हें लगता है, ‘प्रभु ने’ किसी बहाने उसे पुकारा है| वो नइ गया तो परलोक में क्या मुह दिखायेगा?
राम की नैय्या सामने आ रुकी है तो बैठने में हर्जा ही क्या ?यूँ तो अपने बूते, एक ईंट खरीद के दान देना कंटालता है, अगर चलते-चलते भक्तों की ईंट से प्रभु की इमारत बन जाए तो अहोभाग्य ?
इन्हें पैदल जितना चाहे चलवा लो, वैसे ये घर के लिए, धनिया लेने के लिए भी न निकलें|
एक अलग टाइप के सुस्त फुरसतिये आपको जंतर-मंतर, रामलीला में दिख जाते हैं, ये अनशन में बैठे हुओ को या सरकार को गाली –गलौज करने वालों को, भीड़ बनके ‘मारल-सपोर्ट’ देने के वास्ते अवतरित हुए होते हैं| इनका बस चले तो डाइपर-स्टेज से जिंदाबाद-मुर्दाबाद बोलने लग जाते|
ये ऐसी भीड होते हैं, जो किसी का भी दिमाग खराब कर दें| इन्हें थोक में देखकर कोई भी आर्गेनाइजर, एम एल ए या एम् पी बनने या चुनाव जीतने का मुगालता पाल ले| हप्तेभर तक कोई लाख आदमी की आमद हो जाए तो ‘किंग-मेकर’या ‘ला- मेकर’ जैसे ख़्वाब आने लगते हैं| अमिताभ-बच्च्नीय करेक्टर डेवलप हो जाता है, कि हम जहाँ खड़े है लाइन वहीं से शुरू होती है|
फुर्सतिया लोग, योगासन की सभा में उसी मुस्तैदी से जाते हैं, जिस मुस्तैदी से सडक जाम के लिए निकले होते हैं|
प्याज, पेट्रोल, महंगाई के नाम पर इनका दैनिक कार्यक्रम है कि धरना-प्रदर्शन में भाग लें|
मिल्खा सिग ने जितनी तेजी न दिखाई हो, उस गति से तेज, ये दौड सकते हैं, बशर्ते इनके पीछे विपक्ष का कोई ‘दिमागदार-चीता’ लगा हो ?
वैसे इस देश को कुछ दिमागदार चीता लोग ही गति दे रहे हैं, वरना चूके हुए घोड़े की तरह, ये कब का बैठ गया होता| कभी आपने घोड़े को बैठे देखा है ?
एक फुरसतिया कन्छेदी मुझसे जब भी टकराता है, देश का रोना रोता है| वो मुझे, पहले बकायदा लेखक जी कहता था, अब लेखू जी कहके काम चलाता है| लेखू जी देख रहे हैं डालर ?मैंने कहा कौन सा?सत्तर वाला ?वे खीज के बोले, शुभ-शुभ बोलिए, आप तो खामोखां सत्तर पहुचा दे रहे हैं ?क्या हाल होगा देश का ?पेट्रोल, डीजल खरीद पायेगा देश ?
वो इकानामिस्ट की तरह गहन सोच की मुद्रा में ध्यान मग्न हो जाता है| मुझे फुरसतिया लोगों का ध्यानस्थ हो जाना, गहन खोजबीन प्रवित्ति से ‘स्टिंगयाना’, अर्थशास्त्री बनके देश के पाई-पाई का हिसाब लगाना, जरूरत से कुछ ज्यादा लगता है| मैं इंनसे पीछा छुडाने की तरकीब ढूढने लग जाता हूँ| मुझे मालुम है कि अगर उनकी बातों के समुंदर में डूबकी लगाने उतर गया, तो ये मुझे बीच मझधार में ले जा के छोड़ देंगे| लेखक जीव, देश के नाम पर घुलता रहेगा बेचारा| रात-भर डालर की चिंता में सो न पायेगा|
मैंने टालने की गरज से और माहौल को हल्का करने के नाम पे, कन्छेदी को कहा, दिल पे मत ले यार| देश का मामला है, सरकार निपट लेगी| कुछ न कुछ कड़े कदम उठा के रुपय्या को सम्हाल लेगी|
वो दार्शनिकता की जकड से उबर के, ज्योतिष-शास्त्रीय तर्क पे उतर आया, कुछ भी कहो, जब से हमने रुपये का ‘सेम्बाल’ बदला है, तब से हमारा रुपया लुढकते जा रहा है| आर एस(Rs) में क्या परेशानी थी, अच्छा-खासा पैंतालीस पे टिका था, उठा के बदल दिया| ये मद्रास से ‘चेन्नई’ नाम बदलने जैसा सार्थक होता तो मजा आ जाता| लेखू जी आप क्या समझते हैं अगर डाइरेक्टर, ’मद्रास एक्सप्रेस’ नाम की पिक्चर बनाता तो, दो –ढाई सौ करोड कमा पाती ?है न सेम्बाल या नाम का कमाल ?
मुझे लगा कि कन्छेदी नाम के, दो-चार जोक नुमा तर्क और हो जाए तो हमारा तो पूरा खून ही निचुड जाएगा| क्या-क्या बकवास तर्क लिए फिरता है स्साला ?वैसे टाइम –पास के लिए आदमी बुरा भी नहीं|
लेखू जी, प्याज एक्सपोर्ट वालों की तो चांदी है ?डालर में पेमेंट, अपने यहाँ डालर भुनाओ तो मजे ही मजे ?आपको नहीं लगता, प्याज वाले लोगों को, शुरू से निर्मल-बाबू टाइप ईंट्युशन हो गया था, प्याज को बाहर भेजो, कम रहेगा तो इडिया में दाम बढ़ेंगे, बाहर भेजो तो बढे डालर से कमाई होगी| प्याज वालों को अपने देहस की अर्थ-व्यवस्था नहीं सौपी जा सकती क्या ?
मैंने कहा, कन्छेदी, आप जल्दी घबरा जाते हो| आपको खाने को मिल रहा है न ?सरकार ने खाने की ग्यारंटी ले रखी है| वे हमारे मिड-डे से लेकर मिड नाईट ‘मील’ को दिल्ली से देख रही है| हमारे चूल्हे के लिए जिसने गैस दे रखा है, उसपे तपेली चढाने का जिम्मा भी उसी का है| आपको ज़रा सा तो भरोसा रखना चाहिए कि नहीं ?
वे जरा आश्वस्त हुए|
कन्छेदी का चुप रहना तो बुलबुले की तरह क्षण भर का होता है| उसके पास स्टेनगन माफिक बातों का अनंत कारतूस होता है| ट्रिगर दबाते रहो, निशाने पे लगा तो ठीक, न लगा तो बात ही तो है खाली गया तो क्या, कोई राजपूताने की जुबान तो नहीं ?
वे अपना अगला दुःख, सास बहु सीरीयल कहने लगे, लेखू जी हम निरे बुध्धू थे, मैंने मन में सोचा, कितनी सहजता से वे, अपनी जग-जाहिर कमजोरी बता रहे हैं| मैंने कहा भला आप, ये क्यूँ सोचते हैं ?वे घूर कर मेरी तरफ देखने लगे| मैंने असहज होते हुए कहा, वैसी कोई बात नहीं, हाँ तो आप कह रहे थे आप निरे बुध्धू थे, क्यूँ ?
कोई दस साल पहले हमें भू-माफियाओं ने यूँ घेरा, वे अखबारों में पत्रकारों को इंटरव्यू देकर, बताने लगे कि हमारे खेत और आस-पास की जमीन का सर्वे, रोड बनाने के लिए हुआ है| सरकार, सरकारी-दर पे मुआवजा देके जमीन कब्जा लेगी| वे आये, लालच दिए, हमे जमीन बेच दो, वरना सरकार सस्ते में ले जायेगी| हम लोगो ने जमीने बेच दी| जिस जमीन को हमने दो लाख में बेची थी, उसे उन लोगों ने शापिंग माल वालों को, दो करोड में बेची है| शुध्ध एक करोड अनठानबे लाख का घाटा|
मुझे कन्छेदी के इस बयान के बाद लगाने लगा कि, एक करोड अनठानबे लाख का सदमा उस पर बहुत जोरो से हाबी है|
उसे फुर्सत में रहते-रहते, आने वाले हर खतरे को सूंघ के जान लेने की जबरदस्त प्रेक्टिस सी हो गई है|
मगर, डालर के मुकाबले गिरते रूपये को सम्हालने के लिए, उसके जैसे देश के करोड़ों हाथों को लकवा मार गया है ?
मै मानता हूँ कि, कोई बीमारी ला-ईलाज नहीं होती| दुआ से, दवा से, धैर्य से, परहेज से, मेहनत से, अभ्यास से मर्ज को काबू किया जा सकता है|
अगर फुरसतिया लोगों में ज़रा सा भी, देश के लिए सोच है तो वे नौसिखिया बाबाओं, आडम्बर वाले योगियों, झांसा देने वाले ठगों, तम्बू लगाने वाले तान्त्रिको, लुज करेक्टर के बलात्कारियों, चोर-उच्चके किस्म के टपोरियों से बचें|
क्रान्ति अगर आनी है तो जंतर -मंतर, राम-लीला मैदान की भीड़ नही लाएगी|
क्रांति, पैदल यात्रा, अनशन, सायकल, लेपटाप बाटने से नहीं आयेगी|
क्रांति ग़रीबों को मुफ्त अनाज देने से नही आएगी|
देश में भाषण, भाषणबाजों की कमी नहीं| पिछड़े हुओ को प्रलोभन कब तक दिया जा सकेगा ?
देश की तरक्की का सूत्रधार बनना है तो अपना वोट किसी कीमत पर, किसी को मत बेचिये| सूरते-हाल अवश्य बदलेगी, आपका खालीपन बहलता रहेगा|
पावर ऑफ कामन मैन / सुशील यादव
उस दिन आम आदमी को बगीचे में टहलते हुए देखा। आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा आप इधर? वो बोला हाँ, तफरी का मूड हुआ चला आया। आप और तफरी? दाल में जरूर कुछ काला है? उसने कहा हम लोग ज़रा सा मन बहलाने क्या निकलते हैं आप लोगों को मिर्ची लग जाती है? अब तफरी पर भी टैक्स लगाने का इरादा है, तो हद ही हो जायेगी।
मैं सहज पीछा छोडने वाला जीव नहीं हूँ। मामले की तह तक जाना,मैं पत्रकारिता का उसूल ही नहीं सामाजिक दायित्व भी समझता हूँ। सो उससे भिड गया। उसे छेडते हुए, जैसा कि आम पत्रकार भीतर की बात निकलवाने के लिए, करते हैं, उसे पहले चने की कमजोर सी ड़ाल पर चढाया, पूछा भाई आम आदमी, इश्क-मुश्क का मामला है क्या?
आदमी का बगीचे में पाया जाना, करीब-करीब इधर का इशारा करता है। वो बोला नइ भाई,इस उमर में इश्क ! चालीस पार किये बैठे हैं, आप तो लगता है पिटवाओगे? मैंने कहा, लो इसमें पिटने-पीटाने की क्या बात हुई? लोग तो सरे आम सत्तर-अस्सी वाले, संत से लेकर मंत्री सभी रसियाये हुए, एश कर रहे हैं। और तो और वे इश्क से ऊपर की चीज कर रहे हैं, और आप इसके नाम से तौबा पाल रहे हैं?
क्या कमी है आप में जो इश्क की छोटी-मोटी ख्वाहिश नहीं पाल सकते?
वो गालिबाना अंदाज में कहने लगा “और भी गम हैं, दुनिया में मुहब्बत के सिवा”...
मुझे उसकी शायरी को विराम देने के लिए चुप सा हो जाना पडा|
बहस जारी रखने में हम दोनों की दिलचस्पी थी। हम दोनों फुर्सद में थे। संवाद आगे बढाने की गरज से मैं मौसम में उतर आया, अब हवा में थोड़ी सी नमी आ गई है न?
अरे नमी-वमी कहाँ? आगे देखो गरमी ही गरमी है।
अपने स्टेट में हर पाचवे साल यूँ गरमाता है माहौल। अलगू चौधरी को टिकट दो तो जुम्मन शेख नाराज, जुम्मन मिया को दो तो मुखालफत, बहिस्कार?
टिकट देने वाले हलाकान हैं। शहरों को भिंड –मुरैना का बीहड़ बना दिया है बागियों ने। जिसे टिकट न दो वही बागी बनाने की धमकी दिए जा रहा है।
मैंने बीच में काटते हुए कहा, आपकी बात भी तो चल रही थी.क्या हुआ?
उसने मेरी तरफ खुफिया निगाह से फेकी , उसे लगा मैं इधर की उधर लगाने वालों में से हूँ।
मैंने आश्वश्त किया, कहा मेरे को बस, मन में ये ख्याल आया, कहीं पढ़ा था, आपका नाम उछल रहा है, सो जिज्ञासावश पूछ रहां हूँ, अगर नहीं बताना है तो कोई बात नहीं।
उसे कुछ भरोसा हुआ। वैसे आदमी भरोसे में सब उगल देता है। बड़े से बड़ा अपराधी भी पुलिसिया धमकी के बीच, एक-आध पुचकार पर भरोसा करके, कि उसे आगे कुछ नहीं होगा, सब बता देता है। दुनिया भरोसे पर टिकी है। वो मायूस सा गहरी सांस लेकर रह गया। अनुलोम-विलोम के दो-तीन अभ्यास के बाद कहा, हम आम आदमी को भला पूछता कौन है? किसी ने मजाक में हमारा नाम उछाल दिया था। पालिटिक्स में बड़े खेल होते हैं, किसी ने हमारे नाम के साथ खेल लिया। दरअसल दो दिग्गजो के बीच टसल चल रहा था,कोई पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था, टिकट बाटने वाले अपना सिक्का चलाना चाह रहे थे। उन्होंने हमारे नाम का बाईपास निकाला, दोनों धराशायी हुए।
हमारे नाम का गुणगान यूँ किया कि हम आम –आदमी हैं, राशन की लाइन में लगते हैं, भाजी के साथ भात खा लेते हैं, सच्चे हैं ईमानदार हैं, पार्टी को हम जैसे लोग ही आगे ले जा सकते हैं|हमारी जय-जयकार हुई, हमारे नाम के चर्चे हुए। मीडिया ने घेरा। दोनों दिग्गजों को आश्वाशन-ए-लालबत्ती मिला, वे दुबक गए।
पत्रकार जी, हम भले, आम आदमी हैं, मगर थोड़ा दिमाग भी खर्चते हैं। हमने मन में गणित बिठाया कि जिस टिकट के लिए चिल्ल-पो मची है, वो हमारे नाम खैरात में डालने की जो जुगत कर रहा है वो बहुत चालु चीज है। जो दिख रहा है, वैसा तो कदापि नहीं है। जरूर कुछ लोचा है। हमने अपने सर के हरेक जूँ को रेगने से मना कर दिया, जो जहाँ है वहीं रहे कोई हरकत की जरूरत नहीं। रात को पार्टी मुखिया लोग आये, कहने लगे, आपके पास राशन कार्ड है,मतदाता परिचय पत्र गुमाए तो नहीं बैठे, दिखाओ, अब तक आधार कार्ड बनवाया कि नहीं? सरकार से कर्जा-वर्जा लिया है क्या? चुनाव में खूब खर्चा होगा कर सकोगे? आजकल करोड़ों में निकल पाता है एक सीट। कुछ तो पार्टी लगा देती है,मगर नही-नही में बाटते –बाटते चुनाव हरने वाला सड़क पे आ जाता है, सोच लो।
हमे लगा ये पालिटिक्स वाले हमें सपना दिखा -दिखा के कर मार देंगे। हमने उनसे पीछा छुडा लिया या यूँ कहें उनके मन के मुताबिक़ उन लोगों ने अपनी चला ली।
आम आदमी को पूछ भी लिया और मख्खी की तरह लिकाल बाहर फ़ेंक दिया। वैसे हमे भी मानते हैं, चुनाव लड़ना आम आदमी के बस की बात नहीं। पैसे का बोल-बाला रहता है। पार्टी आपको हरवा कर भी कहीं-कहीं जीत जाती है, वो किसके हाथ आपको बेच दे कह नहीं सकते।
आम आदमी, एक दार्शनिक मुद्रा में मेरी तरफ देख के फिर आसमान ताकने लगा, मुझे लगा कि वो मानो कह रहा है, देखा पावर-लेस ‘मेन’ का पावर?
सस्पेंडेड थानेदार का इंटरव्यू / सुशील यादव
वो थानेदार इंटरव्यू देने के नाम पे बहुत काइयां है| बड़े से बड़ा कॉड हो जाए वो मुह नई खोलता| ऐसे कारनामो में भी जिसमे उसे श्रेय लेने का हक होता है वहाँ भी चुप्पी लगा जाता है|
पत्रकार लोग मनाते हैं, उसके थाने वाली जगह में कोई भी ‘दारोमदार’ वाला वाकया न घटे, कारण कि चटपटी खबरों का पूरा सत्यानाश हो जाता है|
उसकी थानेदारी में सुबह-सुबह सब की शामत आए रहती है| नाइ को थाने में तलब करके,थानेदार साहब की शेविंग-ट्रीमिंग से दिन की शुरुआत होती है| एक अर्दली जूते को पालिश करवाने ले जाता है| दूसरा ड्राइक्लीनिर्स से ड्रेस उठाने जाता है| तीसरा, घंटे भर की मशक्कत के बाद बुलेट के एक-एक पुर्जे को साफ कर के तैयार करता है| उसे कडक ड्रेस और चमचमाते बुलेट से बेंइंतिहा प्यार है| बुलेट की आवाज में ज़रा सा भी चेंज हुआ तो मेकेनिक की खिचाई हो जाती है|
उनकी सोच है कि, कडकपन और रुतबे को, यही बाहरी तामझाम, ही तो पुख्ता बनाते हैं| जब तक फरियादी-अपराधी थाने की सीढियां चढते काँप न जाएँ तो थाने और पोस्ट-आफिस में भला फर्क क्या हुआ?
वे जिस थाने के इंचार्ज बनाए जाते हैं, चार रात बिना सोए, गस्ती में गुजार देते हैं|
’गस्ती’ को वे शहर-बस्ती की स्टडी का सबसे खास मापदंड मानते हैं|
उनका कहना है कि अपराध सर्वव्यापी है| जहाँ अन्धेरा है वहाँ अपराध ,जहाँ सुनसान है वहीं उठाईगिरी ,जहाँ भीड़-भाड है वहीं पाकिटमारी ,और तो और, जहां भजन –कीर्तन है, वहाँ भी बाबाओं की धोखाधडी है|
एक पुलसिया सोच में हर जगह लोचा है, बस लोचन घुमाने की देर है सब सामने आ जता है|
सरकार ने ला एंड आर्डर का डंडा पुलसिया हाथ में जिस आदि-काल से दे रखा है, तब से लेकर आज तक जर, जोरू ,जिस्म ,जान ,माल-एहबाब की हिफाजत ही हिफाजत हो रही है| थानेदार इसे बिलकुल वैसा ही बताते हैं कि, महाभारत में सारथी मधुसूदन के रहने –न रहने का क्या फर्क पडता ?यकीनन ,बिना सारथी-मारुती , के रथ की धज्जियां ही उड़ गई होती| प्रभु ने अपनी अलौकिक शक्ति को जैसे ही अलग कर बताया, धुरंधर धनुर्धारी अर्जुन के पाँव के नीचे की धरती खिसक गई|
वे अपनी ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से निभाते रहे| पंगा तब तक न हुआ जब तक बकायदा जुए के फड वाले ,सटोरिये ,उठाईगीर,बुटलेगर सभी तय रिवाइज्ड रेट पर हप्ता पहुचाते रहे|
इधर कुछ दिनों से नए इलेक्शन बाद, दादा किस्म के विधायक के पालतू लोग, उभर आए| सब के सब नेता के ‘दाहिना हाथ’ होने की धमकी देने लगे|
‘हप्ता-महीना’ के व्यावहारिक लेन-देन के बदले कोइ थानेदार से ठेंगा बताए तो अव्यवहारिक स्तिथी का पैदा होना तो बनता ही है ?
थानेदार के पास लम्बे हाथ वाले कानून भी होते हैं,जिसे वे प्राय: जेब में घुसाए रहते हैं| जेब से हाथ निकला तो सामने वाले को खामियाजा तो भुगतना पडता है न ?
थानेदार ने बेरियर लगा दिया ,गस्ती बढ़ा दी| एक-एक ‘दाहिने हाथ के दावेदारों’ को चुन-चुन के घरों से उठाने लगे| सब की कमाई का जरिया बंद होने की नौबत देख, ‘आका’ लोग मौक़ा ए अपराध में कूदे|
उन सबों को ‘उपर के आदेश की मजबूरी बता कर हाथ खड़े कर देना थानेदार का आजमाया हुआ नुस्खा था|
नेताओं में तहलका मचा, वे भाग कर मुखिया की शरण में गए|
मुखिया ने कहा ,जहां तक हमारे थानेदार का एक्शन है ,उस पर तो हम कुछ करने से रहे| सब ‘टू द पॉइंट’ वाला मामला है|
तुम लोग थानेदार को किसी दूसरे तरीके से घेर-फंसा सको तो मामला बनेगा| नेता लोग अपना सा चेहरा लिए लौट आए|
थानेदार का छुट-भइयों के स्टाइल में स्टिंग की कइ कोशिशे हुई| काइयां लोग पकड़ में कब आते हैं भला?वे भी पकड़ से दूर थे|
कहते हैं हर कुते का एक दिन जरूर आता है ,हुआ भी वैसा ,एक मरियल सी गाय को एक समुदाय विशेष ने बाइक से ठोक डाला| गउ-माता परलोक चली गई| इस लोक में कुहराम मच गया| दंगे भडक गए| थानेदार को हवाई फायर करने की नौबत आ गई|
कलेक्टर का दौरा हुआ| फरमान निकला, ला एंड आर्डर, का ठीक से अनुपालन नहीं हुआ ,शहर में दंगे भडक जाने के पूरे आसार थे, थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित क्र दिए गये|
केवल हमारा चेनल, पहली खबर देने का ठेका लिए फिरता है, सो हम हालात का जायजा लेने पहुचे| हमारे बाद दुसरे चेनल वाले भी कूद-कूद कर बताने लगे ,थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित|
हमने सस्पेंडेड थानेदार की ओर माइक किया|
हम लोग की इंटरव्यू लेने के पहले, इंटरव्यू देने वाले को खूब चढाते हैं| हमने उसकी प्रसंशा में कहा ,जनाब आपके थाने का एक बेहतरीन रिकार्ड है| सभी कस्बों से कम चोरी -डकैती ,लूट-मारपीट ,ह्त्या-आगजनी ,बलात्कार –किडनेपिंग के केस, आपके यहाँ पाए जाते हैं ऐसा क्यं,इसकी कोई खास वजह ?
थानदार ने अपने डंडे को ऊपर की तरफ इशारा करते हुए कहा, सब ‘ऊपर वाले’ की मेहरबानी है जनाब| एक काइयां-पन से लबरेज जवाब हमारे सामने था,जिसके दो-तीन मायने तो लग ही सकते थे| ,
हमने पूछा ,आपको एक सख्त थानेदार के रूप में जाना जाता है| अपराधियों की पतलून आपके थाने में आपके डर से गीली हो जाती है ?
नहीं जी ,ये सरासर गलत है| हम तो बड़े प्यार से पुचकार के तहकीकात करते हैं| अब हमारे छूने मात्र से कोई अपने अधोवस्त्र को गीला होने से न रोक सके तो हम क्या कर सकते हैं ?
एक बात कहे ?...... लोगों में जो कानून का भय होता है वही उनके पतलून को गीला करता है जी| वे अपनी मुछो पर हाथ फिराने लग गये|
अच्छा आखिरी सवाल ,आपको सस्पेंड होने में कैसा लग रहा है ?
बहुत बढिया लग रहा है जी|
थानेदार हो, और सस्पेंशन-वस्पेशंन न हो, ये तो कोई बात न हुई जी|
बारी-बारी से प्रोग्राम बना होता है| ये अंदरूनी बात है|
हम ला-आर्डर वाले लोगो के ऊपर, ‘पबलिक के लिए मेसेज वाला कार्यक्रम’ भी चलता है| अभी सस्पेंशन हुआ है ,चार्ज –शीट मिलेगा ,इन्क्वारी होगी ,रुटीन है जी रुटीन ?
हमने देखा थानेदार के न तो चहरे की हवाईया उडी .न शिकन आया ,न कहीं जू के रेगने का निशाँ मिला ,वे सर को तनिक भी नहीं खुजलाए|
ये हमारा पहला इंटरव्यू था, जिसमे थनदार के सामने ,हम ज्यादा घबराए लग रहे थे|
दांत निपोरने की कला ....
बहुत कम लोग इस कला के बारे में जानते हैं |और जो जानते हैं वे इसके मर्म को बताने के लिए सीधे –सीधे तैयार नहीं होते |
वे जानते हैं की इस कला के कदरदान बढ़ गए, तो उनकी पूछ –परख में कमी आ जायेगी |
दांत का निपोरा जाना अपने-अपने स्टाइल का अलग-अलग होता है |घर के नौकर, पति ,आफिस के बाबू –चपरासी ,हेड क्लर्क , साहब ,बड़े साहब,संतरी-मंत्री सभी, अपने से एक ओहदे उचे वालों से, घबराते नजर आते हैं या परिस्थितिवश उनके सामने दंत-प्रदर्शन के लिए कभी न कभी बाध्य होते हैं |
घबराहट में ,’एलाटेड’ काम के प्रति की गई लापरवाही से, जो बिगड़ा परिणाम सामने आता है उसी से कर्ता की घिघी बंध जाती है|
दन्त-निपोरन का बस इतना ही इतिहास है |
इस विषय में आगे शोध करने वालो को बताये देता हूँ निराशा हाथ लगेगी ,वे ज्यादा अन्दर तक घुस नहीं पायेंगे|उनके गाइड उनको इधर उधर भटकाते रहेंगे औरर अंत में दांत को इस्तमाल करते हुए आपसे कहेंगे कोई और सब्जेक्ट लेते हैं ,यहाँ स्कोप नहीं है |
हाँ ये अलग बात है कि वे इतिहास के, दांत निपोरने वाले पात्रो या परिस्थियों पर, आपके ज्ञान में कुछ वृद्धी कर सकें ,मसलन शकुनी का पासा जब दुर्योधन के पक्ष में पड़ रहा था, तो पांडव हक्के-बक्के बगले झांक रहे थे ,सब कुछ हार के, जब दांत निपोराई की रस्म अदायगी होनी थी, तभी द्रोपदी-दु:शासन का चीर-हरण प्रकरण शुरू हो गया| सभासदों का ध्यान हट गया |कहते हैं ,हारे हुए जुआडियों को कोई फरियाद की जगह नहीं बचती ,अपील का कोई मौक़ा नहीं मिलता |वो तो द्रोपदी की पुकार थी जिसे आराध्य कृष्ण ने सुन ली, और लाज सभी की बच गई |
उन दिनों ,“युद्ध न करना पड़े के लाख बहाने” जैसी किताब तब छपा नहीं करती थी|
हमारे हीरो ‘अर्जुन’, अपने सारथी कृष्ण को, तर्क देकर टाल नहीं पाए |उलटे प्रभु के तर्क उन पर हाबी रहे |लगभग वे युद्ध-भूमि में हें` हें,~खी खी करके दांत निपोरने की अवस्था में पीछे हटने की रट लिए थे, मगर प्रभु-लीला ने बुध्धि फेर दी|युद्ध हुआ ,कौरव जीते और हमको पीढ़ी-दर पीढी पढने के लिए उपदेशों की हमको ‘गीता’ मिल गई|
सार संक्षेप ये कि उन दिनों युद्ध में पीठ दिखाना. भरी सभा में गिडगिडाना,घिघयाना या दांत- निपोरना अक्षम्य अपराध जैसा था |आजकल ये राजनीति कहाती है |इसके जानकार प्रकांड पंडित लोगों को चाणक्य की उपाधी से विभूषित होते भी देखा जाता है |
वैसे अपवाद स्वरूप कुछ क्षत्रिय धर्म मानने वालों के लिए आज भी ये सब अपराध है| मगर कलयुग में ‘सब चलता है’ पर आस्था रखने वालों की कमी भी नहीं है |वे न केवल पीठ दिखा आते हैं, वरन पीछे पोस्टर भी टाँगे रहते हैं, हमें मत मारो हम कभी आपके काम आयेंगे |
दूसरे शब्दों में ये कहना कि भाई ,हमारी मजबूरी है,कि सामने आपको चेहरा नहीं दिखा पा रहे हैं वरना दांत निपोर के खेद प्रकट कर आपका सम्मान रख देते |
सतयुग के इन किस्सों को कुदेरने में एक और महाकाव्य लिख जाएगा |हमें मालुम है आप पढ़ नहीं पायेंगे ?
आज के एस एम् एस युग में, बस छोटे-मोटे किस्से ही चल सकते हैं बड़े किस्से पढने की फुर्सद किसको है ?सो बेहतर है कलयुग में लौटें चलें ....
रामू ,प्रेस करवा लाया ...?
-वो साब जी क्या है कि, बीबी जी ने मुझे एडी-घिसने का पत्थर मंगवा लिया था| पूरे बाजार में ढूढ़ते –ढूढ़ते थक गया ,कहीं न मिला ,इसी में आपका काम भूल गया |
रामू के हाथ यकबयक कान खुजलाने में लग जाते हैं, जो इशारा करता है आइन्दा गलती नहीं होगी स्साब्जी...... |
साहब ,मेम पर भडास निकालते हैं ,ये क्या...? कल बाहर के डेलीगेट्स आ रहे हैं....... तुम्हे एडी केयर की पड़ी है |ढंग से एक जोडी कपडे तैयार नहीं करवा पाती ?शाम खाने में क्या बना रही हो .....?करेला ....?कल मीटिंग है ना ....? बहुत तैयारी करनी है |रात-भर डाक्यूमेंट्स तैयार करने हैं ,करेला खा के ,करेला सा जवाब दिया तो अपनी तो कम्पनी बैठ जायेगी ?
मेम साब, साबजी के , इस चिडचिडाने वाले टेप को सिरे से खारिज कर देती हैं |
~देखो आफिस का टेशन घर में तो लाया मत करो |
वैसे कौन सा तीर मार लोगे अच्छे –अच्छे जवाब देके ?
प्रमोशन तो होना नहीं है ?
मल्होत्रा साहब को देखो ,साहबों के आगे खी-खी करके दांत काढ़ते रहते हैं ,सभी साहब खुश रहते हैं |चापलूसी तो आपको ज़रा सी भी आती नहीं |क्या घर क्या आफिस हर जगह ‘रुखंडे’ रहते हो |चहरे में दो इंच मुस्कान लाओ मिस्टर..... सब काम बनाता नजर आयेगा |
ओय रामू जा साहब के सूट को अर्जेंट में ड्राई-क्लीनर्स से प्रेस करवा ला (देखें क्या तीर मारते हैं,वाले अंदाज में )
-हाँ बताइये कौन –कौन ,कहाँ –कहाँ से आ रहे हैं |
-उनके लंच –डिनर ,रुकने –ठहरने की अच्छी व्यवस्था है या नहीं ?
दुनिया के डेलीगेट्स लोग इन्हीं बातों से ज्यादा प्रभावित होते हैं |
अपने ‘चाइना वाले स्टाइल’ को अमल में लाओ भई,देखा कैसा ‘ढोकला,पूरी छोले में निपटा दिया ?प्रेक्टिकल बनो .....|दुनियादारी इसी का नाम है |
डेलीगेट्स का क्या है , पर्सनल काम होता है, वही निपटाने के लिए टूर पे आ जाते हैं |इन्सपेक्शन तो बस बहाना होता है समझे साब्जी....... |
आपका प्लान, आपका प्रोजेक्ट, रात~रात भर घिस~घिस के तैयार किया डिस्प्ले कोई काम आने का नहीं........ |उनके पास आंकड़े –प्लानिग सब मौजूद रहता हैं,रट के आये रहते हैं |
ये अलग बात है कि ,आपको काम में लगाए रखने की, यही ऊपर वालो की टेक्नीक होती है |वे काम न परोसेंगे तो आप लोगो की बुद्धि में जंग न लग जायेगी .... ..? ऐसा उनका मानना होता है |
खाना खाईये ,मजे से सोइये ,सुबह –सुबह,आफिस पहुचते ही कड़क गुड-मार्निंग बोलिए |वे आपके गुड-मार्निग बोलने के तरीके से भांप लेगे की आपकी तैयारी कैसी है|फिर चाहे आप उनके, किसी भी प्रश्न के एवज दांत निपोरें सब जायज |
साबजी ,कल के लिए ,आई विश यू गुड लक......इत्मीनान से ...मजे से सोइए .....और हाँ ....
बड़े लोगों को, ऐसे लोग भी अच्छे लगते हैं जो अपनी कमजोरियों को छुपाते नहीं ,बत्तीसी निकाल के जग जाहिर कर देते हैं |
चहरे पर हवाइयां उड़ते मातहत उन्हें अपने काम के आदमी लगते हैं |
***
ये हर मिडिल क्लास घर के, रोजमर्रा की बातें हैं |
पति,बड़े से बड़ा ओहदेदार हो, घर में उसकी क्लास पत्नियां ही लेती हैं |
रहम वो बस इतना करती है कि, मुर्गा बना के उनका सामाजिक प्रदर्शन नहीं किया जाता |
एक और फील्ड है जिसका जिक्र किये बिना, दांत-निपोरने वालों के आगे हमें दांत-निपोरना पड जाएगा |
आजकल आप रोज टी वी में खुद देख रहे हैं | सरकार बनाने के लिए कैसे –कैसे जुगाड़ भिडाये जा रहे हैं |
हमारे देश के कर्मठ लोग , कबाड़ में से काम की चीज बनाने में माहिर हैं |जुगाड़ के छकडे गाँव –देहात में मजे से चल निकलते हैं |
इसी तर्ज में , कुछ बुजुर्ग कबाड़ी ,उन देहाती विधायको को तव्वजो देते दिख रहे हैं , जो कहीं मीडिया के एक प्रश्न झेलने के काबिल नहीं |
नए-नए विधायक घेरे जा रहे हैं |घेरे जायेंगे |
उनके लिए मीडिया के मार्फत ,प्रलोभन का पहाड़ खड़ा किया जाता है |
ये कबाडिये, वो जुगाडिये होते हैं, जो कभी खुद मेट्रिक,बी ए, एम ए , पास न किये मगर आलाकमान के इशारों में ,बड़े-बड़े आई ए एस,आई पी एस को डांट पिला देते हैं |
अपने आप को किग मेकर की भूमिका में फिट किये ये स्वयंभू नेता, उसी भाँति बहते हुए किनारे लगे हैं,जैसे बाढ़ में ,शहर का जमा कूड़ा करकट किनारे लग जाता है |
चूँकि शास्त्र अनुसार, आत्मा अविनाशी है, विज्ञान अनुसार तत्व अविनाशी है अत; दोनों अविनाशी ,नष्ट होने से बचे रहते हैं |
जनता से ऐसे झांसे-दार वादे कर लेते हैं ,जैसे ट्रेन में बिदाउट टिकट चलने वाला प्रेमी अपनी प्रेमिका से कर लेता है|”मै तेरे लिए चाँद तोड़ लाऊगा” |सही मानो में अगर चाँद का एक पोस्टर भी ला के देने की हैसियत होती तो ट्रेन का टिकिट न लिया जाता ?
ये चूहे , क़ानून की हर उस लाइन को कुतर लेते हैं जो इनके मकसद के आड़े आता है |
जिन्दगी भर कानून के दांव~पेचों को कुतरना इन चूहों की बाध्यता है|अगरचे,ये अपना दांत कुतरने में इस्तेमाल न करें या , बेवजह न घिसें तो , इनके दांत अनवरत बढ़ते रहेंगे |
जो , खी-खी करने में बदसूरत,
स्माइल प्लीज के लिए एकदम बेकार और
निपोरने में नाम पर बेडौल नजर आयेंगे .....?
सुशील यादव
व्यंग
शक की सुई
आदमी के पास दिमाग नाम की एक चीज होती है |
इस दिमाग में सोच के साथ, ‘शौच’ के लिए दिशा मैदान को पहचानने की क्षमता होती है |हर दिमाग में कहें तो एक कम्पास फिट रहता है जो ये तय करता है कि आप सही जा रहे हैं या नहीं ?
इसी कम्पास के अगल बगल, एक और कम्पास होता है जिसकी ‘सुई’ ‘शक’ नाम के भारी मेटल से बना होता है |
यों तो ये शक की सुई हर ख़ास ओ आम में पाई जाती है, मगर आम तौर पर वहमी आदमी औरतों में ,खुफिया डिपार्टमेंट के खुखारों में ,.पुलिसिया खोजबीन करने वाले काइयां किसम के अकडू लोगो में , इन्कौन्टर स्पेशलिस्ट खुर्राटों में और आजकल के घाघ नेताओं में इसका पाया जाना आम सा हो गया है |
इस सुई के , ऊपर बताये लोगों के अतिरिक्त अन्य जगह पाए जाने की जो संभावित और खास जगह है, तो वो है आपके पडौसी का दिमाग |
हर एक पडौसी अपने बगल में रहने वालों की गतिविधियों को बहुत ही गहराई से सालों सदियों से परखते रहता है |परखने के बाद चिपकाने लायक खामियों बुराइयों को ढिढोरा पीटने लायक शकल में ढालता है |
आप स्रीलिग़ में अगर इंन बातों को गौर फरमाएं तो समझाने में ज्यादा सहूलियtत होगी |
इसी से ‘चुगली;जैसे शब्दों का चलन शुरू हुआ हो, ऐसा फौरी तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है |
जब हम चाल में रहते थे, बड़े सादगी का जीवन था |
सात्विक विचारधारा वाले शर्मा जी, सीधे सादे वर्मा जी, और अपने काम से काम रखने वाले अन्य जैसे श्रीवास्तव बाबू ,झा ,ओझा, आदि जैसे लोग थे |क्या बिहारी क्या यु पी ,मराठी ,बंगाली तेलगु तमिल सब में भाई चारा जैसा माहौल था |
सुबह शाम घरों में घंटी घंटा और शंखनाद जैसा गूंजते रहता था |
किस किस घर से क्या क्या बन के नहीं आता था ....?
कहाँ मती मारी गई थी हमारी ,,? प्रसाद आरती के माहौल को छोड़कर थ्री बी एच के वाले प्लेट में आ गए |
ऊपर वाला नीचे वालों को नहीं पहचानते |
लगता है सब लोगों को काले धन की बारिश हो रही है|
दिन रात कार घुमाए रहते हैं |
इनके स्कूटर स्कूटी मानो पानी में चलते हैं |बेहिसाब चलाते हैं |
कितना देती है .....? जैसे तुच्छ सवाल अगर कर दो तो हमेशा के लिए इन लोगों की नजर से गिर जाओ |
‘स्टेटस सेम्बाल’ को मेंटेन करना है तो यहाँ चुप्पी सबसे अच्छी जीज है|
ये हिदायत अपने श्रीमती जी को हमने मौक़ा मुआयना करने के बाद सबसे बड़ी और पहली सावधानी के रूप में दे रखी है |
गाँठ बाधने लायक कुछ और तजुर्बों के निचोड़ से, वाकिफ करा दिया है |किसी ग्रुप में ज्यादा घुसो मत |एक की सुन के दूसरे को बताओ मत |काम वाली बाइयों से किसी पडौसी महिला के रहन सहन, बात व्यवहार पर टीका टिप्पणी मत करो|इतना कर सको ,तभी इधर टिक पाओगे वरना फ्लेट में रहने के अरमान को गोली मारना पड़ेगा |
हमने देखा है कि,यहाँ रहने वालों के एक पैर तो फकत शापिंग माल में थिरकते रहता है |दूसरा पैर अगर शाम को लड़खडा न रहा हो तो महंगे होटल या थियेटर में मय फेमिली के टिका होता हैं |
हमने अपने शक की सुई, जगह जगह आदमी दर आदमी ,घुसा घुसा के देख ली, सुई ही भोथरी होने को आ गई, मगर ‘करेक्टर’ खत्म होने के नाम नहीं लेते |
यो तो शक्की सुई को इजाद हुए तो सदियों बीत गए |
मगर ,हम सतयुग के पीछे जाने की चेष्टा खुद अपनी अज्ञानतावश नहीं कर रहे |
महाभारत काल में कौरवो द्वारा सुई के नोक बराबर जमीन न देने की घोषणा के साथ पाडवों के बदन में सैकड़ों सुइयां चुभ गई होगी |
कौरव के कुछ एक चहेतों ने पांडवों पर नमक मिर्च लगी सुइयों का प्रयोग किया होगा ....?
कहा होगा ...!..देखते क्या हो .....हक़ से मागो ....मिलेगा कैसे नहीं .....?
ये छोटे छोटे दृष्टांत महाविनाश के बीज बो देते हैं युद्ध अवश्यंभावी हो जाता है |
रामायण वाले स्क्रिप्ट उठाइये |
मंथरा बहिनजी की सुई माता कैकई को कैसे चुभी...... आप सब जानते हैं|शक ये कि राम को गद्दी मिलने के बाद भरत की जाने क्या दुर्गति हो ....?
राज भारत को मिले.....! ,मिलना ही चाहिए |एक तरफा जिद .....|
‘जहाँ प्राण जाए पर वचन न जाए’ वाले शासक हों, वहां आप हलकी फुल्की सुई की जगह, दिए हुए वचनों का ‘सूजा’ चुभा दो..... |आपका काम निष्कंटक हो जाएगा |
माता ने वही किया |
फूल से कोमल राजकुमार का देश निकाला हो गया |
पत्नी और भाई विछोह के दंश , और सेवा भाव में संग हो लिए |
मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपने जिस पराक्रम से दंभी रावण का वध किया ,उतनी ही क्षुद्रता के साथ किसी गैर के लगाए आरोप पर सीता मैया के उन तलुओं में शक की सुई चुभा दी,जिन तलुओं ने उन्हें जंगल, झाडी, कंकर,पत्थर, कांटे भरे रास्तों में साथ दिया था |
उस अबला का अपराध क्या था ....?जो उसे जमीन के दरारों में, समाने को विवश होना पड़ा .....?वो तो राम के खिलाप सुसाइडल नोट भी न छोड़ सकी |
यों होती हैं भाई जान........ शक वाली सुई ....!
हमारे पडौसी देश वाले, काश्मीर का दावा लिए फिरते हैं |
यो करते करते उनहोंने अपनी जमीन, अपने देश का, एक बड़ा हिस्सा ‘बंगला देश’ के नाम से खो दिया |बेचारों का चवन्नी बचाने के फेर में लाखों का नुकसान हो गया फिर भी न चेते ....|
वे हमेशा शक के घेरे में रहते हैं .....?कौन समझाए ......?
शायद यही उनके देश में ,उनकी राजनीति की, रोजी रोटी चलाने का जरिया ~ नजरिया हो |
अपने तरफ ‘मन्दिर‘ को जरिया~नजरिया बना के चलाने की कोशिशे कई देनों तक हुई |
लोगों में शक या खौफ पैदा करके राज करने का फार्मूला कब तक चलेगा कह नहीं सकते |
कभी ~कभी यूँ लगता है ,अपनी सरकार जितना बेहिसाब पैसा मिलेट्री और नताओं की सिक्युरिटी में लगा देती है उसकी चौथाई अगर पडौसी मुल्क को दान दे दे , वहां स्कुल कालेज उद्योंग धंधे खुलवा दे तो दोनों तरफ अमन चैन का माहौल अपने आप ,व्याप्त हो जाएगा |
मुझे कालिज के दिनों पदाने वाले ,अपने एक ‘सर’ की याद आ रही है |हर वक्त बात बेबात , बौखलाए हुए से रहते थे |
शोरगुल वाले क्लास में आ धमकते ही, रोबदार लहजे में गरजते ..... ,हल्ला नइ.......हल्ला बिलकुल नाइ..... चोप ......एकदम चोप्प.......|
हम लोगो ने उनका नाम ‘अल्ला~सर’ रख दिया था |
वे आते ही कहते ,’आई वांट पिन ड्राप साइलेंस ....,एकदम शान्ति ,,,,,,,,यु नो पिन ड्राप .........|मालुम है इसका मतलब .....?
फिर ,कमीज के तीसरे बटन के पास खुरसे हुए दो तीन पिन में से एक निकाल के फर्श पर गिराते .....उनके इस करिश्मे को देखने और सुनने में ही माहौल सन्नाटे वाला हो जाता था .......डेड साईंलेन्स मेंटेन हो जाने पर, वे उत्साहित होते |
उन्हें लगता लगाम उनके कब्जे में है |
सुई का ऐसा अनोखा प्रयोग आपने किसी मुहावरे के साथ, शायद ही कभी सूना हो ............?
इस जगह, हालाकि ये चुभने वाली चीज , शक की कतई नहीं हुआ करती थी | .
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सुशील यादव
भावना को समझो..... व्यंग
वे आदमी बुरे नहीं हैं |
जुबान फिसल जाती है |उनकी फिसली जुबान को, पटरी पर चढा दी जावे या उनके कहे के मर्म को समझ लिया जावे, तो कोई दिक्कत पेश नहीं आती |
अभी~अभी उनने कह दिया, जो डाक्टर काम नहीं करते उनके हाथ काट देनी चाहिए |
क्रोधित स्टेथेस्कोप ने काम बंद करने की धमकी दे डाली|
उन्होंने सफाई दी, हमने तो कहावतों. मुहावरों का इस्तेमाल किया था बस |
अब उनके जैसे विद्वान को सफाई देने की नौबत आ जाए, तो प्रशासन कौन नत्थू खैरे सम्हालेगा ?
बातों के सफाई अभियान में, पांच साल कब निकल जायेंगे, बेचारे को पता ही न चल पायेगा ?
बेचारा ठीक से अपने धूप~ बदली~ बरसात के लिए, इन्तिजाम भी न कर पायें रहेंगे ? उनकी तरफ से चलो हमी, माफी~साफी की औपचारिकताएं पूरी किये देते हैं ,भाई सा ,भैन जियो , भावनाओं को समझो .....?
ये भी मान के गम खा लो, की वे अभी देहात के हैं |ज़रा शहरी मैल जम जाए, तब किसी अच्छे डिटर्जेंट से चाहे तो जी भर, धो डालियेगा |
एक उलट बात और.....|
मुझे ऐसे समाचार पढने में खूब मजा आता है ....|
मै इन धमकी भरे समाचारों का अचार, “दो सौ साल पहले की मटकी में” डाल के कल्पना के खूब चटकारे लेता हूँ |
यदि सचमुच कोई सुलतान~ बादशाह अपनी रियासत में “....ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर....” वाला हुक्म सुनाये,चलाए तो क्या नजारा होगा ...?
~ओय खबीस का बच्चा ....तुम किधर की डाक्टरी पास किया है ....?
ढोर का इजेक्शन आदमी को दिए फिरेला है ....?
हमारे राज में ढोर बिना इंजेक्शन के बेमौत मर रहे हैं ,कुछ खबर तुसी है कि नइ....?आदमी की जान अलग लिए फिरता है ,यानी हमारे राज में एअक हाथ से दो दो वारदात ......|बहुत नाइंसाफी है.....
दरबान ! सिपाहियों से कहो ,इस जुर्म करने वाले डाक्टर को ले जाएँ |इनके हाथ यूँ काट दें , कि किसी दूसरे को, जुर्म करने का साहस न हो | इनके कटे हाथ को देख कर ...लोग हमारे न्याय को याद रखें |इस मनहूस को हमारी नज़रों से इसी दम ओझल करो.....
अगला मुजरिम पेश हो .....बुलंद आवाज दरबान की गूजती है
पेशकार द्वारा चार्ज पढ़ा जता है |हुजूरे आला ,मुजरिम पेशे से आपकी रियायत के एक कसबे की म्युनिस्पेलटी में डाक्टर का ओहदा रखता है|ये अपने सेनापति जी का साला है |उनकी ही सिफारिश पर आपने नजदीक के, खटीक गाव की म्युनिस्पेलटी में इन्हें नरेगा के तहत स्पेशल अपॉइंटमेंट दे के , दो इन्क्रीमेंट के साथ रखा है |हुजूर... मुजरिम की गुस्ताखी ये है कि इनने, बी पी के पेशेंट को ‘आयोडीन साल्ट’ नाम की दवाई लिख मारी | सुगर वालो को ‘पार्ले जी’,खीर पूड़ी भरपूर खा के हेल्थ बनाने का ये मशवरा दे डालते हैं |
हुजुर.... ! मरीजों के ‘टे’ बोलने की नौबत आ गई|वो तो अच्छा ये हुआ कि अपने हकीम साहब तालाब में दातुन करतेकरते इस मरीज की हरकत पर गौर फरमा लिए |सेम्प्टनदेख के वे ताड़ गए की हो न हो ये मुनेस्पेलटी हास्पिटल के मरीज हैं | वे सैकड़ों बिगड़े केस वहीं तालाब किनारे निपटा देते हैं हुजुर| वे ही इन मरीजों को बचा पाए वरना राम नाम सत्य है हो जाता ....मरीज की ,’लाई’ लुट जाती जनाब |
महामहिम से फरियाद है, इस ‘झोला छाप’ को सख्त से सख्त सजा दी जावे |अपने हकीम साहब को हुजुर जो इअनाम इअकर्म बख्शना चाहे वो अलग मर्जी ......
अपने राज में इस जुर्म की सजा, महामहिम ने हाथ काटने की मुकर्रर की है जनाबे आला .....
पेशकार को ध्यान से सुनाने बाद ,शहंशाह ,सेनापति को तलब करते हैं जो उनके साले हैं| |सेनापति जी .हम ये क्या सुन रहे हैं.....? आपके साले होनहार नहीं थे तो....आपको बताना चाहिए था न हमें ? हम कहीं और फिट कर देते ...|अब इस मुसीबत से कैसे निपटें ..? ..अगर सजा देते हैं तो मुसीबत ! नही देते तो जनता का विशास हमारे न्याय से उठ जाएगा ....|
सेनापति ने, तत्काल दरबारी को तलब किया|वो जो पहला केस अभी ~अभी निपटा है जिस पर हाथ काटने की सजा हुई है , उस पर तत्काल सजा मुल्तवी रखो कहना की ये जनाबे आला की आसंदी से फरमान है |हम यहाँ से अगला आदेश बिना विलम्ब के भिजवाते हैं |
सेनापति ने न्याय की पुस्तक मंगवाई |
सभासदों को इस विषय को गहराई से पढ़ , नई व्याख्या करके, सुझाव देने को कहा गया |
सभासदों ने एक स्वर में स्वीकार किया कि ‘हाथ काट दो’ का शाब्दिक अर्थ; पढ़े लिखे विद्वान डाक्टरों के सन्दर्भ में,ज्यो का त्यों लगाना न्यायोचित नहीं है|
इसे मुहावरे या कहावत के रूप में इस्तमाल हुआ समझा जावे |
इस किसम के आरोपी को ‘सांकेतिक फटकार’ की सजा काफी है |
अस्तु हमारी स्तुति ये है की आरोपी को फटकार लगा कर छोड़ दिया जाये |
सांकेतिक फटकार वाला ,ये ‘प्रयोग’, आप भी ,किसी भी समाचार पर प्रतिक्रिया स्वरूप करके, आए दिन के नीरस समाचार को रोचक बनाए रखने में कर सकते हैं |आप अपने रिटायरमेंट के ‘टाइम~पास’ वाली भावना को इससे जोड़ देखो मजा आयेगा ...? चलिए आगे जुड़ते हैं ....
आजकल मीडिया वालों को खोया~पाया या भूल सुधार के लिए एक ‘टाइम स्लाट’ अलग से फिक्स कर देना चाहिए |किसने कल क्या कहा ....? जो दबाव पड़ने पर, कैसे यूं टर्न वाली सफाई दिए फिर रहे हैं....... |
अपनी पुरानी भावना को, किन नये शब्दों की चाशनी में डुबो के, आपके गले उतारने की कोशिश में लगे हैं .....?
ये वाकया राजनीति के अलावा और कहीं देखने को नहीं मिलता |
कोई स्कूल टीचर, कभी विस्तार से नहीं समझाता , कल जो हमने न्यूटन के सिध्धांत बताये थे कि हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है,सेब ऊपर से नीचे गिरता है ,ये विज्ञान में तो सही है |मगर राजनीति में कुछ कह नहीं सकते .....
वो चाह के भी इस अकाट्य सत्य को झुठला नहीं पाता|
उसे मालुम होता है कि राजनीतिज्ञ लोग आज के सच को कल झूट, कल के झूठ को आज सच कर डालते हैं|दोस्ती ~दुश्मनी का भी यहाँ कोई फिक्स रुल नहीं है |
उनके पास गुरुत्वाकर्षण की अलग थ्योरी, अलग ताकत लिए होती है|
जनता के हाथ रखे सेब को छीन के, वे अपनी सबसे उंची शाख पर रख दे सकते हैं |उसे हर पांच साल में इसी सेब के बूते फिर से वोट की राजनीती जो करनी है |उनका सेब कभी टपकता नहीं |
वे अपने ‘चुम्बक बल’ सहारे विरोधियों को खीच लेते हैं |सरकार कचरे में गिरे ‘अणुओ’ को धो पोछ के अपने काम के लायक बनाने में बड़े माहिर होते हैं |फायदे के लिए समझौते की भावना स्वत: पैदा हो जाती है |
इनसे पंगा ले के देखो,’बेजामिन के करेंट’ वाले गाव की सैर करा देंगे |
जनता इनकी मासूमियत से वाकिफ होते होते सालों लगा देती है | निरीह जनता की भावना को समझो , .....
बचपन से मेरी भावनाओं को किसी ने नहीं समझा |
मेरी शिक्षा का लेबल उतना ही रखा गया, जिससे क्लर्की मिल जाए |ट्यूशन पढने की इच्छा होती थी, घर वालों के .हाथ तंग होने ,पिछले महीने के बिजली बिल, जो सात या आठ रुपये होते थे, अदा नहीं कर पाने से अवगत कर दिया जाता |मुझे भी उन भावनाओं के साथ जुड़ते~जुड़ते दुनियादारी के हिसाब~ किताब समझ में आने लग गए थे | लिहाजा चुप किये रहता |
आज की नई पीढी की भावनाओं को समझते ~समझाते रीढ़ की हड्डियों में बेइंतिहा दर्द होता है |डाक्टरों के पास जाने से घबराते हैं ,क्यों बेकार किसी के हाथ को कटने ,कटाने या तोड़ने तुडाने की सजा दी जाए ....?
सुशील यादव
बुरा जो देखन मै चला
एक दिन इच्छा हुई चलो अपने से ज्यादा बुरे लोगों को देखा जाय |
यह अपने आप में, आस पास के लोगों को परखने की,अन्दर से उपजी हुई , एक सात्विक इच्छा भर थी|इसमें न किसी पार्टी की दखल थी न किसी आलाकमान का दबाव .....बस कबीर ताऊ . अचानक याद आ गए |
अगर मै, ये कहता कि “बुरे लोगों को देख लिया जाय” तो मेरी तामसिक प्रवित्ति का रहस्य उदघाटित होता |
”देख लिया जाय में” कहीं न कहीं ,बाकायदा बांह चढाने का स्थायी भाव छुपा होता है,| इस भाव के संग लठैत लिए चलने की परंपरा का, विलंबित ख़याल अपने आप जुड़ जाता है |”देख लिया जाय” में पुरानी रंजिश की बू आती है |
देखने ~दिखाने के चक्कर में अपना राष्ट्रीय पडौसी ,अरे क्या कहते हैं ,वही काश्मीर के नीचे वाला ज्यादातर लगा रहता है |
समय समय पर उनको जावाब न दो तो,’हुदहुद’ जैसा विकराल तूफान मचाने से वे बाज नहीं आते |
उनके तरफ लावारिस लोगों की फौज , इतने सारे हो गए हैं कि, आए दिन दो चार अपने इलाके में टपकते रहते हैं |
अगर उधर, संस्कार वाले माँ बाप होते, तो पूछते बेटे कहाँ जा रहे हो ?शाम~ रात तक लौटोगे या नहीं ?अगले हफ्ते तुम्हारी सगाई है, ऐसे में यार दोस्तों के साथ ज्यादा भटका मत करो ज़माना खराब है | और हाँ छुरी~ तमंचा वालों के संगत में तो पड़ना मत ,कहे देते हैं |
पुराने जमाने में लोग खाली~खाली बैठे होते थे |
उन्हें काम के नाम पर आज जैसी चीजें मुहैया न थी आज के लोगों को टी व्ही देखना, चेटिंग करना,पार्टी के झंडे`~चंदे का इन्तिजाम करना ,रैली के लिए आदमी जुगाडना जैसे कई काम हो गए हैं |शिक्षक और सरकारी मुलाजिमो को मतदाता सूची बनाना ,जनगणना के आंकड़े इक्क्कट्ठे करना ,और न जाने कई ज्ञात~अज्ञात बेगारी के कामो में बिधना पड़ता है |
पहले के लोग सिर्फ गपियाने के और कुछ न जानते थे |
खेती किसानी के बाद बचे समय में वे किस टापिक पर वार्ता करते रहे होंगे पता नहीं ?
न ओबामा, न ओसामा ,न चाइना न पाक की लड़ाई ,न पुल ठेके का घपला .....?न भाई भतीजा को लेकर बहस......... न राजनीतिक विरासत के चर्चे,,न इलेक्शन और न ही कोयला, खनिज,टू जी थ्री जी के बंदरबाट में पैसा कमाने के आरोप ....?
वहां उस जमाने में चर्चा हो तो किस पर .....?
लिहाजा ,वे हर सातवे दिन आत्म मंथन के रज्जू को, हाथों ~हथेलियों में लिए अगल बगल में पूछने निकल जाते थे|
ऐ भाई .... मुझमे कोई ऐब है क्या ....? बता न ......?
इसे ही मथते रहते थे |
दस~बीस लोग जब बोल देते की नहीं आपमें कोई ऐब नहीं तो वे आकर तसल्ली से तरकारी में नान वेज खा लेते थे चलो कहने को कुछ तो एब रहे |
बुरा जो देखन मै चला का, निचोड़ निकल आता था ,नानवेज वाला पार्ट, तुम्हे बुरा बनाए दे रहा है| वे स्वीकार करते हुए सो जाते थे ,प्रभु .....! मुझसा बुरा न कोय ....?
हमने विज्ञापन में देखा है, दूध के साथ बोर्नवीटा~हार्लिक्स मिला दो तो दूध की शक्ति बढ़ जाने का दावा होता है |’शक्ति युक्त’ दूध पीने से तंदरुस्ती, और तंदरुस्ती से, अकल बढ़ जाती है |
अपने देश में इनकी फेक्टरी जरूरत से ज्यादा हो गई लगती है|इसे पी~पी कर बहुत से अकल वाले पनपने लग गए हैं |
इंनकी बदौलत कहीं~कहीं राजनीतिक लुटिया भी डूबाई जा रही है |ऐसी कुछ फेक्टरी को उनके देश में खोलने में अपने तरफ से सरकारी मुआवजा मिल जावे, तो दोनों तरफ अमन चैन कायम हो जाए |
शक्ति का शक्ति से मिलन ,अकल से अकल की लड़ाई |यानी बराबर की अदावत का इन्तिजाम |खूब जमेगी जब मिल बैठेंगे बिछुड़े यार दो ....|खैर ये सब राष्ट्रीय स्तर के मजाक की बातें हैं |
अपन देशी स्तर के बुरे लोग,यानी कबिरा वाला बुरा आदमी ,
........यानी ‘इन कम्पेरिजन टू मी’ वाले बुरे आदमी की तलाश में थे ?
पात्र और स्थान बदल बदल के देखें तो हर जगह ये अपनी उपस्तिथि दर्ज कराये रहते हैं |
मसलन एक छोटे से दफ्तर में रामलाल अदना सा एल डी सी,बच्चों के रफ वर्क के लिए एक तरफ यूज किये कागज़ उठा लाता है ,कभी कभार दो चार आलपिन टूटे बटन की जगह टांक के घर लेता है |बस इतनी सी बात, उसको, उसके नजर से गिराए रहती है |वो अपनी नजर का बुरा आदमी बना रहता है |
वैसे वो, आस पास के माहौल को मुआइअना करने पर पाता है, कि सिन्हा जी पेसील ,रबर शार्पनर की इंडेंट~फरमाइश हर दूसरे तीसरे दिन लगा देता है|
उसके बच्चों को स्टेशनरी की दूकान, उनके इलाके में कहाँ है पता नहीं होता |
मोतीबाबू रजिस्टर ‘रिकास्ट’ करने के नाम पर शुरू के दो पेज लिखते हैं बाद में वहीं पूरा रजिस्टर घर लिए जाते हैं|
बड़े बाबू की तो पूछो मती, यूँ मानो, खाने पीने पचाने के मामले में वे ‘डाइनासोर’ हैं |कब क्या चट कर जाए.....? पता नहीं? वे बिल में जितना मंगवाते हैं, अपना दफ्तर उससे आधे सामानों में बखूबी चल सकता है |
मिस्टर कबीर के जमाने में, ये टुच्ची हरकतें करने वाला मुहकमा पैदा नहीं हुआ था|
न ही उन्होंने किसी सरकारी दफ्तर की क्लर्की की थी लिहाजा वे अपने अडौस~ पडौस के लोगों के मनोविज्ञान को समझने में कन्फ्यूज रहे | झकास धुले हुए कपडे पहने लोगो से मिलते रहे |अपनी कम धुलाई वाली कमीज की हीनता में कह गए हों कि मुझसा बुरा न कोय ?
बुरा देखने की मेरी दृष्टि व्यापक कभी नहीं बनी|
अपनी संगत धासू लोगों के साथ न होना इसका बड़ा कारण रहा |
आज जमाने में धासू होने का मतलब किसी गाव का मुखिया हो जाना ,सरपंच चुन जाना ,मुनिस्पेलटी इलेक्शन में पार्षद बन जाना या शहरी इलाके में टपोरी गिरी करना से लगाया जा सकता है |
ये लोग फंड मेनेजमेंट का फंडा बखूबी जानते हैं |
किस काम में फंड है कहाँ नहीं .....ये काम की घोषणा के साथ ही केल्कुलेट कर लेते हैं |हर काम के लिए ये ‘अपने बुरे आदमी’ का इन्तिजाम रखे होते हैं |इनको अपने से ज्यादा बुरा आदमी देखने के लिए अपने घर की देहरी भी नहीं लांघनी पड़ती,|
उलटे ये जहाँ से गुजरते हैं बुरा आदमी इनके कदमो में लोट~लोट जाता है ,हुजुर हमे भूल गए का .....?कोई खता भई का हमसे ? ,जो हमसे काम नइ करवाने का मन बनाए फिर रहे हैं ...?
लो बुरे की सोचो, बुरा हाजिर |
देश के लिए ,तात्कालिक सेवा लो,और भूल जाओ कि तुम कभी बुरा ढूढने भी निकले थे |
छोटी~छोटी विसंगतियों पर लोग न जाने कैसे लम्बी लम्बी बहस कर लेते हैं ?
ताज्जुब होता है |
५० पैसे डीजल घट गया ,अखबारों में सुर्खियाँ ..|चमचे ...!.सरकार की नेक नियती के कसीदे पढने में देर नहीं लगाते |
सरकार की पीठ थपथपाने वाले ,चेनल के माध्यम से कयास लगाने लग जाते हैं| इससे हमारी इकानामी पर जबरदस्त असर पड़ेगा ,सब्जी के रेट परिवहन सस्ता होने पर गिरेगा ,रेलभाड़ा में कमी आयेगी ,सेंसेक्स में कमी देखेगी ,प्लाट के रेट सस्ते होंगे..... ,यानी हवाई किले के हजार मंसूबे ,जिसे जो सूझता है बाँध देते हैं |
उन्हें इकानामिक्स का एक भी सिद्धांत का पता नहीं होता |कामन सेन्स वाले सिद्धांत भी कोसो दूर होते है |भाईसा, ... होता तो ये है कि एक बार जिन चीजों के दाम आसमान छू लिए , वे धरती पर लौटने की बजाय त्रिशंकु हो के उपर ही उपर रहते हैं |
कोई माई का लाल या ‘माइक पकड़ा हुआ लाल’ भी उसे वापस नहीं ला सकता |अब ऐसे नासमझों को क्या अक्ल दें ...?माथा ठोक लेते हैं |
हम समझे बैठे थे तीन बार मेट्रिक फेल होंने से हमारे दिमाग की बत्तियां गुल हैं ,हमी निपट देहाती ,ढपोरशंख बुरे केटेगरी के हैं |
मगर यहाँ तो लगता है ‘दिमाग वालों’ का पूरा ‘पावर हाउस’ ही उड़ा हुआ है....?
आज के युग में खुद पे इल्जाम लगाने का न फैशन है, न रिवाज , अत: दावे के साथ हम खुद नहीं कहते.......
बुरा जो देखन मै चला,............,बुरा न मिलिया कोय ,जो दिल खोजा आपनो, मुझसा बुरा न कोय ........
***
सुशील यादव
खुलती हुई कलई
बात उन दिनों की है जब बर्तन ताम्बे या पीतल के हुआ करते थे |इन बर्तनों को धोने –सम्हालने या रख –रखाव में परेशानियों के कारण अक्सर इनमें कलई करवा लिया जाता था |
कलाई करने वाला मोहल्ले-मोहल्ले जा कर अपनी सेवायें देने के लिए आवाज लगाता ‘बर्तन कलई करा लो’”…….| गृहणियां घर से बर्तन निकाल लाती |कलई करने वाला बिना नगद लिए पीपे –भर कोयला के बदले , बर्तन चमका देता |हम बच्चे घेर कर कलई करने वाले का चमकदार जादू देखते रहते |
अब वो कारीगर लुप्त हो गए |कलइ करने-कराने का ज़माना लद गया |स्टील के चमकीले बर्तनों ने वो पुराना ज़माना पीछे छोड़ दिया |
पाठक जी को जब भी कोई पुराना इतिहास बताओ, तो वे इसमे कुछ न कुछ जोड़ देते हैं |उनकी बातो से लगता है कि ,उन्हें पूरे शहर के इतिहास की एवं शहर के तमाम भूले –बिसरे लोगों की मौखिक जानकारी है|
पाठक जी की ,शनीचरी बाजार में हार्डवेयर लाइन में एक छोटी सी हार्डवेयर की दूकान है| वे बताते हैं कि कल्लू-कलई उनकी दूकान से ही जस्ता –सीसा या कलई करने का दीगर सामान ले जाता था | कलइ किए जाने का धंधा जब से मंद हुआ कल्लू का लोप होने लगा, मगर दुआ-सलाम बनी रही |
पाठक जी बताते हैं कि कल्लू जब भी किसी बहाने संपर्क में आता, अपना प्रोगेस रिपोर्ट जरुर बताता|
कल्लू अपनी कलई पाठक के सामने बेखौफ खोलता कि कैसे कलाई करते –करते जमाँ हुए कोयले को,शुरू –शुरू में इस्त्री करने वालों को बेचता रहा|कोयले के काम में ज्यादा रम जाने की वजह से ,धीरे-धीरे हुए जमे-जमाए ग्राहको के सुझाव दिए जाने पर कब कोयला-टाल का मालिक और कब कोल-माइनिग के ट्रांसपोर्ट धंधे में लग गया , पता नहीं चला ?
शुरू-शुरू में ट्रांसपोर्ट धंधे में बहुत परेशानी आई ,ट्रक का परिमट लेना ,उसे कोयला माफिया –यूनियन से पास करवाना,जंगल-माइनिग इलाके से ट्रक निकालना कोई आसान काम नहीं था |जगह –जगह रोडे ,जगह –जगह चढावा |
कल्लू –कलई , चढाने की कला में माहिर उस्ताद था ,पर एक दिन जब उसके ट्रक की बिना-वजह जब्ती बन गई तो वह फनफना गया |आफिसों-अफसरों के चक्कर लगाते-लगाते इतना घिस गया कि उसे लगा अब इन अधिकारियों पर कलइ चढाने की नौबत आ गई है |
कलई चढाने से पहले जैसे बर्तन को गरम करने की जरूरत होती है वैसे ही कल्लू ने गर्मागर्म बहस कर अफसरों को तपा दिया |
किसी दफ्तर का नाम भर ले दो,कल्लू वहाँ के पूरे बाबू से अफसर की कुंडली बखान कर देने में माहिर होते गया |
उसे अब कलई उतारने के खेल में मजा आने लगा |
एक शिष्टाचार सप्ताह ....
नत्थू ,रोनी सी सूरत लिए मेरे पास आया ,मैंने पूछा, क्या परजाई जी से खटपट हो गई है.....?
.....वो, .....,आप तो अन्तर्यामी है प्रभु, के भाव लिए ....’सही पकडे हैं’ के अंदाज में मेरे निकट कालीन पर बैठ गया |
मैंने कहा वत्स ....सविस्तार बयान करो ,बेखौफ कहो ....पत्नी की चढ़ी त्योरी को ध्यान में लाओगे तो सब कुछ ‘भीतर धरा’ रह जायगा |
यहाँ मै ‘प्रभु’ की भूमिका में खुद को रखकर टी वी से मिले अधकचरे धर्म ज्ञान की पोटली में से कुछ निकाल के, उसको देने की प्रक्रिया में लग जाता हूँ |.
यों तो ......”भीतर धरा रह जाएगा” ,केवल इस एक वाक्य के तहत पोथी भर का ज्ञान दिया जा सकता है परन्तु इसके लिए समय और सुपात्र की तलाश करनी पड़ेगी ,हर लाईट सब्जेक्ट पर ज्ञान को लुटाना लिटरेरी ठीक भी नहीं ......?
मेरी जगह दूसरा भी होवे तो, इस लाभ को दुल्लत्ती मारने की बेवकूफी नहीं कर सकता |
‘पत्नी-प्रताड़ित’ कम लोग ही खुल कर बयान देते देखे गए हैं|मन-मसोस कर रहने वाले घुटते- घुट जायेंगे, मगर जी से पत्नी के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटा पाने में, एक अघोषित-शर्मिन्दगी से दो-चार होते रहते हैं |
मगर नत्थू के साथ ऐसा नहीं था |उसका अडिग विश्वास मुझ पर था, कि इधर की बात उधर करने वाला ‘वायरस’ मुझमे नहीं है |
बोलो भी,चुप रहना था तो ,मेरा समय खराब करने काहे चले आये .....?
उसने, धरावाहिक ‘सास-बहु सीरियल’ में से , बहु वाला पार्ट रिलीज किया |
आपकी परजाई, पिछले कुछ दिनों से,अखबार में सोने के भाव कम होने की खबर क्या पढ़ रही है ,हाय-तौबा मचाये रहती है .....|
नत्थू जी,सिम्पल सी बात है ,आप अखबार लेना बंद काहे नहीं करवा देते ....?
आप भी.... सर जी .....? अखबार बंद करवाने से रोग मिटाता तो मिटा लेते ,ये टी वी और उनकी सहेलियों के व्हाट्स ऐप और सोशियल मीडिया का क्या करे.... पल-पल की खबरें ब्रेकिंग-न्यज माफिक चलाते फिरते हैं |
बीस-तीस रूपये दाम भी सोने के , गिरते-बढ़ते हैं, तो आफिस में मोबाइल घनघना दे हैं |बोलो सोने में बीस-तीस मायने रखता है भला .....?
आफिस से थके-हारे जो वापस आओ, तो चाय काफी के पहले ‘सराफा’ के उठाए चढाव पर तप्सरा चालु हो जाता है |
किस बहनजी के घर कितना ग्राम,.कितना तोला आया ,उन्हें एक-एक माशा-रत्ती का हिसाब मालुम होता है |
वे हमसे मुखातिब कहती हैं , मालुम .....शर्मा जी के यहाँ पुरषोंत्तम मॉस के बाद,किलो के हिसाब से खरीदा जाने वाला है, ऐसा अपनी कालोनी की लेडीज क्लब में चर्चा है .....?
मै साश्चर्य पूछता हूँ .....साले की नम्बर दो की कमाई अब छलकने को आई ....|
मुझे बताना कब खरीदने वाले हैं ......ऐ सी बी .....वालो का रेड डलवा दूंगा .....?शरीफों की बस्ती में,तमीज नहीं है , रहने चले हैं ...नंबर दो वाले .....|
ये ल्लो ...आपको सही बात बताओ तो मिर्ची लग जाती है|जिनके पास है ,भाव गिरे तो हम आप कौन हैं रोकने वाले .....?
दूसरों के साथ लड़ने-भिड़ने की जुगाड़ चौबीसों घंटे लगाये रहते हैं आप |कहे देती हूँ ऐसे बहाने से मै डिगने वाली नहीं......?शादी के बाद एक रत्ती भर लिवाये हो तो कहो ....आपको जब भी बोलो कान की दिला दो,हाथ की खरीदो ,गला सूना लगता है ....तो अपनी शेरो शायरी में घुस जाते हो .....कहे देती हूँ सब आग में झोक दूंगी .....एक दिन ....बहुत हो गया देखेगे-देखेगे की सुनते ....|
सर जी ,पानी तो बादल फटने जैसा सर से उप्पर होने को है ...आपके पास ,’सोना नहीं खरीदने के हजार बहाने’; जैसी कोई किताब हो तो बताओ.....
नत्थू जी ,गृहस्थी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पति का स्वर्ण-दान समारोह भी समय-समय पर होते रहना चहिये....समझदार पति इसे इन्कार करके कभी सुखी नहीं रह सकता ....|खैर ये सब तो सक्षम पति के चोचले हैं|तुम्हारे साथ अभी पत्नी-जिद से निपटने वाली समस्या का निदान होना पहली प्राथमिकता है ....?बोलो ऐसा ही है या ......
ठीक है ,दोनों तरफ देखते हैं .....|
तुमने परजाई से पूछा कितनी रकम है....?
हाँ पूछ देखा.... हमने कहा पैसे निकालो.... ,तो कहने लगी रकम,पैसा, तनखा कभी हाथ में दिए जो हिसाब मांग रहे हो ....?ठनठन गोपाल रखा है .....?आज तक मेरी हर ख्वाहिश मायके से पूरी होते रही .....होश है आपको .....?
जितने गिनवा के लाए थे, उसका चौथाई भी चढाये होते तो पाँव-आध किलो बदन पर फबते रहता ....|चार लोगो में शान से उठती-बैठती....... |
सर जी उनके मायका पुराण चालु हो जाने के बाद मेरे पास डिफेंसिव शाट खेलने के अलावा कोई दूसरा विकल्प बचता नहीं ....?
सर दर्द,आफिस में ज्यादा काम ,थकावट जैसे आम-आदमी वाले बहाने सूझते हैं |
डाईनिग टेबल पर रखी दवाइयों के डिब्बे से एक-आध गोली दिखाने के नाम पर यूँ ही गटक लेता हूँ |
मेरे तरफ से घोषित मौन पर, युद्ध-विराम पर, रात, दस बजे समझौता-वार्ता की पहल के तहत खिचडी परसी जाती है मै चुपचाप खा के सो जाता हूँ .....|
नत्थू जी , नारी-हठ का गंभीर मामला है|
ये सोना जो है ना ,युगों से अपना खेल खेलते आया है |सीता मैय्या भी स्वर्ण मोह से बच नहीं सकी थी ,उनने न केवल अपने लिए, वरन अपने पति के लिए भी विपत्ति को बुलावा भेज दी |
न प्रभु स्वर्ण-मृग के पीछे भागे होते,न रावण सीता-मैय्या को उठा ले गए होते |खैर वे सब तो जैसे-तैसे मार-काट के निपट लिए ...अभी समस्या आपकी है .....?
कितनी रकम है आपके खाते में .....?उधर ख्वाहिश किस चीज की हो रही है ....?कितने तक आ जाएगी .......?
सर जी, डिमांड पाच-तोले की है ,लगभग डेढ़ लाख तक आ जायेगी ....|मै चाहता हूँ वो अपनी चादर की हैसियत से पांव फैलाना जाने ......
ऐसा करो, तुम्हारी कार की सेकंड हेंड वेल्यु भी इतनी ही होगी, उसे मेरे गैराज में डाल दो ,कहना कि हार के लिए बेच दी....|पैसा दो तीन दिनों में मिलेगा ,फिर हार ले लेगे ....|
और हाँ ...कल से शिष्टाचार सप्ताह मनाना शुरू कर दो .....?
मतलब .....?
मतलब ये कि खाने में एक-आध रोटी कम कर दो|रात को आफिस का काम फैला लो |सुबह मार्निग वाक् चले जाओ ,अगर घूमना पसंद नही तो सौ कदम दूर, चाय की दूकान में बैठ के अखबार पढ़ के वापस चल दो ......आफिस मोटर सायकल से आने जाने लगो .....एक जी तोड़ के चाहने वाले धासु पति की छवि बनेगी जो बीबी की इच्छाओं के पीछे अपने तन-मन-धन को जी जान से लगाये देये जा रहा है .....
सर जी,..... इन सबसे होगा क्या .....?
वो सारी...... कहके आगे-पीछे चक्कर लगाएगी .... जिद करेगी ,कार वापस ले आओ ....बिना कार के नाक कटती है .....जी .....|जब पैसे आ जायेगे, नेकलेस की तब सोच्चेंगे ......|
भाई नत्थू ,,,,मेरे इस सुझाव को अमल में लाने के बाद संकट टल गया की मुद्रा में निश्चिन्त मत हो जाना ....|
वैसे, परजाई जी, का हक़ बनता है ,कहो तो आज ही किसी ज्वेलरी शाप चलें ,कल सोने का कहीं भाव न बढ़ जाएँ ....?
कार और ज्वेलरी दोनों पाके,उधर से अगाध प्रेम उमड़ेगा.... ,उसकी साक्षी बनने मै चाय पर जरुर आउंगा ,तब तुम्हारी काबलियत की तारीफ करके, सोने में सुहागा कर दूंगा ....
चमक किस-किस की दुगनी होती है ....देखें .......
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
विलक्षण प्रतिभा के 'लोकल' धनी
यूँ तो राष्ट्रीय अंतर-राष्ट्रीय प्रतिभाएं अनेकों विद्यमान हैं ।
अपने- अपने फील्ड के महारथियों ने अपने-अपने इलाके में धूम-धडाका भी जबरदस्त किया होगा, परन्तु जिन लोगों ने किसी फील्ड में ‘जुगाड़’ की इजाद की उन्हें भूलना, उनके प्रति असहिष्णुता है ।हम इतने गये-बीते नहीं की उनको याद न करें ।
सबसे पहले मुहल्ले के नुक्कड़ में दस बाई दस के कमरे में अस्त-व्यस्त कबाड़-बिखरे सामान के साथ दिमागे-दुरुस्त में जो कौधता है, वो है ‘अर्जुन सोनी’ ....।इन्हें पिछले ४० सालों से इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रानिक्स की दुनिया में व्यस्त देखा हूँ ।दिल्ली मेड रेडियो ,टेप ,रिकार्ड प्लेयर और बाद में टी वी ,वी. सी .आर. के किसी भी माडल और मेक को सुधारने का जबर्दस्त दम और हुनर उसके पास है ।मुहल्ले का ऐसा कोई एंटीना नहीं था , जिसे बिना उसकी जानकारी के किसी ने फिट करवाया हो | उसे रिपेयरिंग के काम में परफेक्शन, जरुरी की हद तक, पसंद होने के चक्कर में, ग्राहकों को महीनों घुमा देता ।
जहाँ लोग टरकाऊ छाप कम करके लाखों पीट लिए,अफसोस वहां ये आर्कमिडीज 'यूरेका' की खोज में समय से पहले बुढापा बुला बैठा ।
दूसरा , एक समय था जब अपने शहर में जुए-सट्टे का जबरदस्त चलन था ।इसी लत में आकंठ व्यस्त रहने वाले जिस इंसान का जिक्र कर रहा हूँ ,वो है सुनील 'चोरहा'।उस्का नाम सुनील श्रीवास्तव था ,'चोरहा' खिताब उसकी उठाईगिरी प्रवित्ति के खुलासा होने के कारण खुद ब खुद बाद में लोगो ने जोड़ दिया ।उन दिनों सायकिलों को किराया में दे कर चलवाने का धंधा जोरों पर होता था | नये-नये सायकल स्टोर खुलते थे ।पचीस-पचास नई सायकलें किराए से दे दी जाती थी ।
सुनील की 'माडस-ओपेरेंडी' यूँ थी, कि आपने जिस स्टोर से सायकल उठायी ,वो भी किराए पर वहीं से सायकल ले लेता ।वो आपके गंतव्य का पीछा करता | आपका जहाँ सायकल लाक करके किसी होटल या दूकान में घुसना होता , वो अपनी सायकल आसपास रखकर 'मास्टर की' से खोल के , आपकी सायकल पार कर देता । पकड़े जाने पर सफाई के लिए , एक ही स्टोर की हुबहू सायकल में, शिनाख्ती भूल का हवाला देकर बचने की भरपूर एल्बी या गुजाइश होती थी ।घर आकर इत्मीनान से सिर्फ सायकल के मडगार्ड को जिसमे सायकल स्टोर का नाम नम्बर होता , बदल कर औने पौने कीमत में बेच देता ।बदले मडगार्ड को नदी तालाब के हवाले कर देता |सायकल की धडाधड होती चोरियों ने, लोगों को चौकन्ना कर दिया।तमाम सायकल स्टोर के किराया-रजिस्टर में वारदात के दिनों की एंट्री की जाँच हुई |सूत्र सिवाय एक श्रीवास्तव सरनेम कामन मिलने के, अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा ।पुलिस ने स्टोर मालिको को चौकन्ना कर दिया कि किराए पर सायकल उठाने वालों के नाम को गौर से चेहरा देख लिखा जावे ।इसी के बूते अपने श्रीवास्तव जी ,जो मोहल्ले से दूर के किसी सायकल स्टोर में, जहाँ कभी रोहन- सोहन नाम के साथ श्रीवास्तव उठा लेता था , किसी दिन रोहन की जगह श्रीवास्तव सरनेम के साथ सोहन लिखवा बैठा| उसकी चोरी की दुनिया की अक्लमंदी में मंदी शुरू हो गई ।सबूत के अभाव में वह छोट तो गया मगर लोग उसे इलाके में देख भर ले अपनी-अपनी सौकल से चिपक जाने लगे |
तीसरा चरित्र उन दिनों के ख्यातनाम कवि और अदब से ताल्लुक रखने वालों से बावस्ता है |इनमे से कुछ अब दिवंगत हैं|,उन सब की रूह जन्नत में आराम नशीं हो |आमीन |
कवी महोदय , नई पौध के लेखन को प्रोत्साहन के नाम पर नुक्कड़ के किसी चाय के टपरे में मजमा लगाए रहते थे |खाली समय व्यतीत करने के लिए, उनकी जन्दगी में, ताश और जुआ, शगल आदत और मजबूरी का मिला-जुला, दखल रखता था |यूँ कहें जब ताश नहीं तो बस शायरी, गजब का विरोधाभास लिए उस इंसान को हम लोगों ने जीते हुए देखा है |
उनकी शायरी का जबरदस्त लोहा मानने वालों में दो तीन नाम याद हैं| एक नत्थू साहू व्यंगकार ,दूसरा कौशल कुमार उभरता गीतकार ,तीसरा राम चरण कहानी कार ....|आगे चल के ये लोग कुछ बने या नहीं पता नहीं चला |
नत्थू उन दिनों सेवादार की भूमिका होता |’गुरुजी’,इस आदरणीय संबोधन से बात शुरू करता | इस गणेश उत्सव ,और नव-रात्री की जबरदस्त तैय्यारी करवा दीजिये बस |दस बीस कवी- सम्मेल्लन निपटाने लायक तगादा मसाला हो अपने पास |मजा आ जाएगा |आपने शायद किसी कवी के मुह से ये बात न सुनी हो तो अटपटा लग सकता है|जाने भी दो |
गुरुजी घर में ख़ास आपके लिए चिकन बनवाया है ,कहते हुए पुराने अखबार रखकर टिफिन सजाने लगता |मुर्गे की टांग के साथ, शेर कहते हुए गुरुजी को देखके, नत्थू धन्य हो जाता |उसी टांग खिचाई में गुरुजी अपनी किसी पुरानी रचना को यूँ सुनाते जैसे मुर्गे की प्रेरणा से इस रचना का सद्य निसरण हुआ है |मुर्गा-प्रेरित रचना को नत्थू नोट करके अपनी डायरी को धन्य कर लेता |दस-पन्द्रह मुर्गों की बलि से नत्थू का कवि-सम्मलेन भारी वाहवाही की उचाई को छू लेता |अखिल भारतीय स्तर के एक कवी-स्म्मेल्लन का जिक्र कई बार उनके मुह से सुना है |गुरुजी क्या भीड़ थी ,खचाखच ,अपन ने ”इतने हम बदनाम हो गए” वाली रचना सुनाई| क्या दाद मिला गुरूजी कह नहीं सकते |’माया रानी’ जो ख्याति लब्ध मानती थी सन्न रह गई |यहाँ तक कि लोगों ने हूट करके अगले दौर में बिठा तक दिया |
उन दिनों , लाइव टेलीकास्ट और सेल्फी युग नहीं था वरना नथ्थू के छा जाने वाली बात की तस्दीक हो जाती|
खैर यूँ गुरु-चेले की निभती रही| नत्थू की दुकानदारी को देख के कई नौसिखिये इस मौसम के उपयोग हेतु आने लगे |गुरुजी बाकायदा दस-दस रुपयों की बोली में रचनाएँ बाँटते| जिसे नव-लेखक उत्साह से दूर दराज के गाँव में जाकर पढ़ते |चूँकि गुरुजी शहर से बाहर कभी निकल के कभी कविता पाठ नहीं किये थे अत: उनकी सख्त मनाही थी, कि दुर्ग-शहरी क्षेत्र में कोई रचना न पढ़ी जावे |मूल लेखक के उजागर हो जाने का खतरा है |अगर इस इलाके में पढना है तो बाकायदा ताजी रचना लिखवाना | लोग ख़ास मौको पर ताजी रचना भी गुरुजी का मूड बना-बना कर हलाल करने लगे |
एक दिन हमने गुरुजी से यूँ ही पूछ लिया आप जानते हैं ,आप साहित्य को बदनाम करने लगे हैं |वो कहते जब पेट की आग धधकती है तो ये मान के चलो ,कोई नज्म ,गजल या कविता आग बुझाने नहीं आयेगी |केवल रोटी से ही ये आग बुझेगी |नौकरी पेशा तो हम हैं नहीं कैसे चल-चला पाते हैं,हमी को पता है |वैसे भी आजकल, मानो साहित्य मर सा गया है ,इसका स्तर कितना गिरने लगा है |मुझे मालुम है ये जिस सम्मेलन में जाते हैं मुश्किल से इन्हें सुना जाता होगा| लतीफे-बाज, चुटकुले-बाज मंच छोड़ते नहीं|चिपके रहते हैं |उनका अपना ग्रुप होता है |तू मुझे बुला मै तुझे बुलाउंगा | जब ये चुटकुले-बाज पी के धुत्त होकर पढने लायक नहीं होते तब हमारे साहित्यिक रचना की बारी आती है |
कुछ विद्रोही रचनाओं को अखबार में .पत्रिका में छापने वाले भी, सरकारी विज्ञापन कट जाने के भय से दरकिनार कर देते हैं |सर पटक लो वे नहीं छापते |
ऐसे में साहित्य का कहाँ से सर उठाये और साहित्यकार किस बूते जिए.....? बताओ ......?
ये लोग जो हमारा लिखा पढ़ रहे हैं, उसे किसी समय हमने उत्साह से लिखा था| चलो , किसी बहाने लोगो तक अपनी रचना पहुच तो रही है ....यही संतोष है ......|उनकी बेचारगी मुझे झझकोर कर रख दी| उनकी आत्मा को प्रभु शांति दे .....
उनका गमगीन चेहरा, इन शब्दों के साथ जब भी मुझे याद आता है ,मुझे साहित्य से यक-ब-यक अरुचि और विरक्ति सी होने लगती है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२० //१०.०२.१६
व्यंग,....... सुशील यादव ......
अधर्मी लोगों का धर्म-संकट
धर्म-संकट की घड़ी बहुत ही सात्विक, धार्मिक,अहिसावादी और कभी-कभी समाजवादी लोगों को आये-दिन आते रहती है |धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है |
यूँ तो मैंने अपने घर में केवल बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ |’
बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ,ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई | अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के करीब ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती |
मेरे जानकार लोग आ कर राय-मशवरा कर लेते हैं |
शर्मा जी ने कुत्ता पाला ,प्यार से उस दबंग का नाम ‘सल्लू’ रखा |दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि सलमान से भी तुलना किये जाने के काबिल था तो शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते |
रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते |उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के स्वत: हो गया था ,इस मजबूरी के चलते किसी ने उसे सलाह डी कि एरे गैरों पर लुटाने में बाद में वे लोग ज्यादा की इच्छा रखते हैं और खून –मर्डर तक करने से नहीं चूकते |बेहतर हो कि आप कोई मूक बेजुबान मगर गुराने भौकने वाल जीव कुत्ता पाल लो |इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज पाए जाते हैं |बी पी टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी होते हैं यी दावा विदेशों के खोजकर्ताओं ने अपनी रिपूर्त में दिए हैं |इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से सल्लू को खरीद लाये |कुत्ता ,डागी फिर सल्लू बनते बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर सेवारत है |
एक वे बाम्हन उपर से सल्लू की डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?
ये तो इस संकट की महज शुरुआत थी,उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज डबल मार करता था |
शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा अपने आँगन और लान तक सीमित रहेगा | मगर दागी कह देने मात्र से कुत्ते-लोग नस्ल विरासत को त्यागते नहीं| सूघने के माहिर होते हैं| उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता |शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले महराज ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही छापा दल की कार्यवाही होगी| वे सल्लू की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे |वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिद्काने का भाव जागृत करता,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद या ज्वेलरी को बिना देरी किये हटा लेते |शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सल्लू की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते |महाराज के बताये तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता |पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते| वे अपने क्लाइंट को महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात करने और लेन-देन का आग्रह करते|
शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है |शर्मा जी नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत सल्लू को भेजते |नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर श्रीवास्तव जी की लाइन में सल्लू को, सड़क किनारे निपटवा देते|श्रीवास्तव जी बहुत कोफ्ताते ,वे दबी जुबान नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते| वह मुहफट तपाक से कह देता कि सल्लू को गन्दी और केवल गंदी जगह में निपटने की आदत है| इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं नहीं है |सल्लू भी इस बात की हामी में गुर्रा देता |श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते |किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत बात, बॉस के कानो तक पहुचती तो वे आफिस में अलग गुर्राते |बाद में कंसोल भी करते कि,देखिये श्रीवास्तव जी आप तो जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते |श्रीवास्तव जी का ‘सल्लू’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था |
“सल्लू साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?
सल्लू की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते |कहते कि सल्लू अकेले बोर हो जाएगा |
सबेरे के वाक् में सल्लू और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से खीचते, नजर आती थी|
पता नहीं चलता था, कौन किसके कमाड में है ?
जब किसी पर ‘सल्लू’ गुर्राता, तो लोगों को शर्मा जी बाकायदा आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है |
वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?
वे दुविधा यानी धर्म-संकट में दिखे ...|बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जा रहे थे |
मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?
वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...|मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं |किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है| तुमको पांच साल पहले, कुर्सी सौप के सेवा से निवृत हुए थे |
सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है |हमारा सल्लू १४-१५ साल का हो गया| सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था |हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है |अब बीमार सा रहता है |कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता |पैर में फाजिल हो गया है चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है |शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा आये |जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया |फ़ायदा नहीं दिखा |
मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे ,किसी सगे को केंसर हो गया हो| बस दिन गिनने की देर है |उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया | सल्लू के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते |आजकल वो नानवेज छूता नहीं |उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे नान वेज खाने लग गए थे| अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन हप्तो से नहीं बना |
एक तरह से,वेज खाते-खाते सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं |पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?मेरे सामने वफादारी का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था |
वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे| मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”
“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी .....?
ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में मैंने कहा ,शर्मा जी ,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हो”, उनको सोच के, परमात्मा से ‘सल्लू’ के लिए बस दुआ ही माग सकते हैं |
मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया | पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता सामने रखने को कहा |नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से आग्रह किया, कुछ खा लें | वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए |
महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये, शर्मा जी को सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था|वे फ्रोजन चिकन खरीद रहे थे| मुझे लगा वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सल्लू’ की तेरहीं भी कर डाली हो |
मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये,
बाहर निकल आया |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
५.२.१६
सठियाये हुओ का बसंत .....
सठियाने की एक उम्र होती है।
बुढढा सठिया गया है कहने मात्र से किसी पुल्लिंग के साठ क्रास किये जाने की जानकारी ही नहीं मिलती, वरन कुछ हद तक उसके सनकी हो जाने,या दिमाग के 'वन बी. एच. के छाप ' हो जाने का अंदाजा भी होने लगता है ।
मै आम आदमी के तजुर्बे की बात कह रहा हूँ ।'राजनीती के धुरंधरों' को इस रचना-परिधि से दूर रखता हूँ क्यों कि इने-गिनो को छोड़ , वे आजीवन नहीं सठियाते ।
अपनी कालोनी में रिटायर्ड लोगो का ठलुआ-क्लब है।बसंत में उनकी खिली-बाछों को देखने का लुफ्त आसानी से पार्क में सुबहो-शाम उठाया जा सकता है |आठ -दस को मै बहुत करीब से जानता हूँ । शर्मा ,चक्रवर्ती, राणा ,सक्सेना ,दुबे ,असगर अली ,भिड़े,सुब्बाराव, ये लोग जब मिलते हैं तो करेंट-टापिक पर इनकी तपसरा या टिप्पणी से , बसंत में खिले हुए सैकड़ों फूलो का एहसास होता है।
राणा की बल्ले-बल्ले में दिल्ली ,चक्रवर्ती बंगाल ,शर्मा हरियाणा असगर अली यू पी दुबे बिहार ,भिड़े महाराष्ट्र,सुब्बाराव जी साउथ सम्हालते हैं ।रात को देखे हुए न्यज या सुबह की अखबारों की कतरन ही उनके बीच आपस में तू -तू, मै-मै करने का इन्तिजाम करवा देता है ।
दिल्ली वाले ने छेड़ दिया कि ये 'मफलर-बाबा' को किसी ने समझाइश दे दी है कि दिल्ली की बेशुमार गाड़ियों में हवा ही हवा है ,इसी को लेकर ,आगे वे दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने की मुहीम में योजनारत हैं। सप्ताह में एक दिन सब गाड़ियों की हवा निकाल दी जावे तो इससे वातावरण को हवा मिल जायेगी ।यदि कहीं लोगों के बीच से अल्टरनेट आड- इवन के फार्मूला का सुझाव आता है तो उस पर भी गौर किया जा सकता है ।
राणा जी के उदघोष पर पार्क के बुजुर्गों की सामूहिक हो- हो से पार्क गुजायमान हो गया ।कुछ आदतन छीछालेदर करने वाले , धीरे- धीरे इसके अंदरुनी पहलू की काट-छांट में, अपनी पुश्तैनी आदत के अनुसार लग गये ।
अपने इधर एक परंपरा है,तथ्य और तर्क के पेंदे को उल्ट के देखना हम जरुरी समझते हैं ।
इस पुनीत परंपरा के निर्वाह में लोग घुसते रहे । जानते नइ ! आड-इवन के फार्मूले में जनता को कितनी तकलीफ हुई थी। जिनके घरों में दो आड या दो इवन की गाड़ियाँ थी, वे बेचारे बेबस हो गए थे।इमरजेंसी में किसी को हास्पिटल ले जाने की नौबत आई तो पडौसियो ने कह दिया,भाई साहब हमारे मिस्टर खुद कार शेयर करके गये हैं ।हम लोग जिनसे शेयर-बंध हैं उनसे शेयर-धर्म तो निभाना पड़ता है ।आप हमारे पूल में होते तो आफिस टाइम में एडजस्ट कर लेते ।यही जवाब आम है ।
आदनी को इन दिनों 'पूल' में होना जरुरी हो गया है ।
राज्ञीतिक लोग इसे 'गुट' सामाजिक लोग 'पार' और गुंडे मवाली 'गेंग' कहते है।साहित्यिक बिरादरी में भी यह आम है ,तू मेरी फिकर कर मै तेरी सुध लेता हूँ ।
इस पूल, गुट, पार, गेग में होने के अलग-अलग फायदे हैं।आपकी नैया सहज पार लगती है ,इलेक्शन टिकट की गैरंटी होती है ,ब्याह-मंगनी में सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार घर-वर मिलते हैं और गेंग के रुतबे के क्या कहने ‘भाई’ का नाम लेते ही सब काम, हुकुम मेरे आका की तर्ज पर तुरंत हो जाते हैं ।
चलो बुढाऊ लोगों के दुसरे सत्र की बात देखे ...
भाई साब ये गलत बात है ,आप वोट अलग तर्ज पर मांगते हो और वाहवाही बटोरने के लिए अलग फार्मूला ले आते हो ,कहाँ की शराफत है .....? अरे दूबे जी आप वहीँ अटक गए वो टापिक तो सुबह ख़त्म हो गया था |
बुढउ लोगों के दिमाग की केतली से,दफ्तर के प्यून से लेकर बराक ओबामा तक सबकुछ गर्मागर्म बाहर निकलता है ।
एक न्यूज की कतरन दिखाता है ,देखो साला है तो महज चपरासी मगर एक करोड़ की नगदी ,गहना ,बेनामी संपत्ति ,कार और जमीन के कागज मिले हैं ।
पीछे से , हामी देने वाला कहता है,ये हाल चपरासी का है तो साहब की पूछोइ मत। साहब लोगों की कोई खबर ले तो इनसे सौ गुना ज्यादा की रेकव्हरी की जा सकती है ।
वे लोग जब तक ,भारतीय अर्थ व्यवस्था पर अपने आक्रोश जी खोल के व्यक्त करते तब तक ,बिरादरी के कुछ लोग बहाने से खिसकने लगे | खिसके हुओं के, जाने के बाद बातों का गेयर व्यक्तिगत आक्षेप पर चलने लगता है ।जनाब क्या खा के फेस करेंगे ,अपने जमाने में नंबर-दो का इनने कम नहीं कमाया है ।चुपचाप खिसक लिए ।कुछ विरोध दर्ज कराते हुए कहते हैं ,हमे अपनों के बीच ये सब नहीं कहना चाहिए।सब अपनी अपनी तकदीर का खाते हैं ।पीछे जो हुआ सो हुआ आगे की बात करे.|ये कभी पकडे ही नहीं गए तो हम आप बेकार ल्कीअर क्यों पीत रहे हैं |
आप तो हमेशा उनका पक्ष लेते हैं ,और लें भी क्यों नही .....?
.देखिये शर्मा जी ,हम कुछ बोल नहीं रहे इसके माने ये नहीं की हमे कुछ मालुम नहीं ।अगर शुरू हो गये तो .....?
बीच -बचाव बाद, करीब-करीब हुडदंगी हडकंप में तब्दील हो जाने वाली सभा समाप्त हो जाती है ।
ऐसे मौको में ,दो-चार दिन कुछ लोग खिचे-खिचे देखेगे| ये अघोषित तथ्य है |
शर्मा जी , जिनका बचाव कर रहे थे वो शख्श , भनक लगते ही आगबबुला हो गए |वे उस दिन के प्रखर वक्ता के तत्कालिक विरोध में उनके घर की ओर रुख किये ।उस नाचीज पर अपने राजनीतिक प्रभाव यानी गुट का वास्ता देने लगे ।हम आपसी बिरादरी होने की वजह से,तुम्हारे सामाजिक पहलुओं को पंचर करना भी खूब जानते हैं | उन्हें सामाजिल तौर पर तिरस्कृत करने का संकल्प गाली गलौज की मुद्रा में उठा लेते हैं ।अगर इससे भी आइन्दा बाज न आयें तो चेतावनी है ,मवाली- कुत्ते से कटवाया नहीं तो कहान्ना |उस दिन इस सरे-आम चेलेंज ने बुधु पार्टी से एक मेंबर खो दिया |
बरसों तक पार्क में मिल जुल के रहने वाले बुढढो की, जाते समय की मिल- जुल कर की जाने वाली योग की खोखली हंसी आजकल नदारद है ।
शायद अब पतझड़ के बाद मौसम के मिजाज में तब्दीली आये ......?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com 2. ०९४०८८०७४२० //11.16
बातों का आतंकवाद .....
हमारे देश में टी वी युग के आरंभ से एक नए आतंकवाद का जन्म हो गया है, वो है ‘बातों का आतंकवाद’ ....|
चेनल वाले बड़-बोलों का, पेनल बना के रोज-रोज नया तमाशा परोसने में लगे हैं |अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में भड़काऊ वाद-विवाद आये दिन जनतांत्रिक देश में, तांत्रिक रूपी एंकर द्वारा चीख-चीख कर कहा जाता है कि ‘चैन से सोना है तो जाग जाओ’......?ये कैसी जागृति का ढिढोरा है ....?जो जनता के कान खाए जा रही है |शायद ही इतना विस्फोटक और विनाशकारी ‘वार्ता-बम’ किसी भी देश के, मीडिया-वालों के हाथ अब तक लग पाया हो जो अपने यहाँ रोज विस्फोटित होते रहता है |
दुश्मनी भाजने में इन चेंल्बाजों का कोई सानी नहीं|सब एकतरफा एक सुर में हमला बोलते हैं |जिस किसी का ये गुणगान कर दें उन्हें देश की गद्दी पकड़ा के दम लेते हैं |एक बार हादी चढाने का तजुर्बा हो गया तो प्रयोग दुहराया जाने लगा |
पर दिल्ली बिहार राज्य के मामले में,उनकी हांडी दुबारा चढाने की बस हसरत ही रह गई |उन्होंने अपनी तरफ से , भरपूर कोशिश की मगर जनता को बना-मना नहीं पाये |
पुराने जमाने में , इस ‘बातूनी आतंकवाद’ का अंडर करंट, सामन्ती-राजसी व्यवस्था में देखने को मिलता था |किसी जगह राजा ,कहीं मालगुजार कहीं का सूबेदार तो कहीं सूदखोर बनिया जमात की बातें ‘दबंगई’ लिए होती थी |उनका कहा एक मायने में, कानून या फतवा से कम नहीं आंका जाता था |
जनता को इनका सामना करने के बाद मुक्ति मिल जाती रही हो, ऐसा भी नहीं था |वे इनके अलावा , दीगर आतताइयों से भी निपटते थे ,निपटते क्या थे अपने आप को पिटवाने के लिए परस देते थे |वे जाति के नाम, मजहब के नाम खुद को नोचवाने -खसोटवाने के लिए बाध्य होने की श्रेणी में गिने जाते थे |
उनकी डिक्शनरी में,या उनकी सोच में ,इन आकाओं के प्रति कभी कोई असहिष्णुता का भाव दूर दूर तक पैदा नहीं हुआ | ‘माई-बाप’ के लिए ,विद्रोह या बगावत की कभी सपने में भी सोचा जाना पाप की केटेगरी का हुआ करता था |वे दयनीय से दयनीय किसी हालात में भी गुजरे उनकी पत्नियों का मनोबल कभी टूटता सा नहीं दिखा करता |अपने पतियों के सामने कभी मुह नहीं खोलने वाली स्त्रियाँ, घर या गाँव छोड़ के जाने की बात कभी कर या कह भी नहीं पाती थी ....?
अब हालात बदले हैं |अच्छी बात है कि आज आप, जी-भर के किसी को भी कोस सकते हैं |किसी को इस मुल्क में रहने या उसका तंबू उखाड़ने की बात क्र सकते हैं |किसी को तमाचा जड़ने के लिए खुलेआम इनाम इकराम की व्यवस्था किया जा सकता है |किसी टार्गेट को उसके बयान और गतिविधियों के इतिहास का बखान करके, कालिख पोतने और पोछने की राजनैतिक कवायद की जा सकती है |एक से एक बोल-बचन,चेनल के माध्यम से हाईलाईट हुआ करते हैं |सुबह अखबार की सुर्ख़ियों में कमजोर दिल वाले पढ़ कर दुआ मनाते हैं कि फिलहाल आंच उन तक नहीं पहुच पाई है |
मान हानि के दावे , यदि फिफ्टी परसेंट केस में ‘बुक’ होने लगे तो फरियाद में लगने वाले कागज़ की पूर्ती हेतु एक इंडस्ट्री लग सकती है |टाइपिस्ट की इफरात मांग बढ़ सकती है ,नौकरी के नये सेक्टर बन सकते हैं |लेपटाप की बिक्री जोर पकड़ सकती है| तरफदारी करने वाले हिमायती, या विरोध पक्ष के वकीलों का अकाल पड सकता है |
दरअसल ,इस देश में “लघु शंकाओं का निवारण” ठीक से नहीं हो पा रहा है |सरकार सोचती है की एयर- कंडीशन-शौचालय बना देने से बात बन जाएगी |वे गलत हैं |ये लघुशंका, किडनी उत्सर्जित ताज्य अवशेषों का नहीं है,वरन , जनता की दिमाग उत्सर्जित विष्ठा है |इसे हटाने के लिए,फकत चार पेनलिस्टबीच अपना एक प्रवक्ता मात्र , टी वी में बिठा देने से मामला बनने की जगह बिगड़ता दिखता है |ये लोग ताबड़तोड़ बातों की गोलियां, स्टेनगन माफिक चलाने लग जाते हैं |इन्हें कोई भी टापिक दे दो, ये सभी इस मुस्तैदी से डट जाते हैं कि सालुशन केवल उनकी बात में है |ये कभी किसी बलात्कारी संत का बचाव करते दीखते हैं तो कभी मांस के नाम पर मारे गए व्यक्ति के, हत्यारों की पैरवी कर डालते हैं |ये लोग अपने फैब्रिकेटेड-आंकड़ों पर महीनों बहस बेवजह करवा लेते हैं कि, अमुक पार्टी क्लीन स्वीप कर रही है, जबकि परिणाम एकदम विपरीत आता है |यानी जिसका ये दम भरे होते हैं, वही धाराशायी हुआ दिखता है |टी आर पी का खेल गजब का है .....?
जनता बेचारी इडियट बाक्स के एक और आतंक से रूबरू हो रही है ,वो है इनका बाजार भाव में अपनी टाग घुसेड़ना |
होता ये है कि जो अनाज- सब्जी आपके स्थानीय बाजार में कम कीमतों में मिल रही होती है, एक बार दिल्ली की कीमत सुनते ही अपने-आप उछल जाती है |आप बाजार में टमाटर बीस रुपये किलो में तुलवा रहे हैं, तभी दूकानदार की टी व्ही में, अस्सी रूपये किलो का एलान होता है ,दूकानदार वापस अपनी तौल खीच लेता है |कभी दालें सत्तर-अस्सी रूपये किलो की हुआ करती थी ,इनकी बातों ने कीमतों में जहर घोल दिया |ये लोग ,बकायदा रिपोर्ट दिखा देते हैं, फलाने स्टेट में इस साल कम बारिश के चलते दलहन तिलहन फसल चौपट होने के आसार हैं,लो बढ़ गए दाम |
कभी-कभी तो यूँ भी लगता है,कि किसी सटोरिये-लाबी वालों की चल रही है वे इधर स्टाक जमा किये, उधर दाम बढ़ने की बात कह दी |
सरकार कहाँ होती है या कहाँ सोती है......पता नहीं चलता ?
किसी को सुध लेने की जरूरत नहीं महसूस होती |
जनता बेचारी तंग आ के मन बहलाव् की दीगर खबरों में, अपनी (अल्प) बुद्धि खर्च करने में लग जाती हैं|
पसंद न हो तो, चेनल बदलने का अधिकार अभी सब के पास बरकरार है,यही काफी है .....| ........ .?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२० //२७.११.१५
आओ बच्चो तुम्हे दिखायें......
इस धर्मनिरपेक्ष देश के बूढ़े-अधबूढ़े बच्चो,
टी वी के, घटिया न्यूज से सठियाये बुजुर्गो ,
सास-बहू सीरियल से, घबराई माओं,बुआओ ,बहनों.....
कभी तफरी का जी करता होगा ....?
बेटे-बहू आपकी बुजुर्गियत पर पीठ-पीछे तंज कसते होंगे| आपको जानकार, जाने कैसा लगता हो .... |
आपके हलके-फुल्के टाइम-पास का, ‘पाप-कॉर्न’(पाप का कारण ) चलो ढूढ़ते हैं |
सबसे पहले ‘बच्चो’ ,ये बताना मेरा नैतिक धर्म बनता है कि आप अपनी परसी हुई थाली को गौर से देखें |ज्यादा चिकनाई तो नहीं है ....?चिकनाई सेहत के लिए हानिकर होता है |आपकी रोटी में घी मख्खन चुपड़े होने का सीधा-सीधा मतलब, कहीं आपके पेंशन को दान में मागे जाने की तय्यारी तो नहीं हो रही है |
बेटा या बहु का ड्रामा , आपके पोते-पोतियों के भविष्य’,या उनकी अच्छी शिक्षा का वास्ता देकर ,इस खजाने से आपको वंचित करने का, प्लान तो नहीं बना रहे हैं |या हो सकता है आपके फिक्स्ड डिपाजिट एकाउंट से कोई बड़ा अमाउंट हथियाने के चक्कर या फिराक में वे सेंध लगाने के चक्कर में हों |
यूँ, सुनने में बहुत अच्छा लगता है ,बाबूजी ,ये अपना मकान है न ,जर्जर ,खंडहर सा हो रहा है ,इस इलाके में अभी कीमत अच्छी मिल रही है |हो सकता है कल मेट्रो या सड़क चौडीकरण में अपना मकान फंस जाए , फिर तो इसके औने-पौने दाम ही मिलेंगे क्यूँ न इसे फटाफट निकालकर, सिविल लैंन की तरफ, फ्लेट ले लिया जाए ,यही आज के समय की अक्लमंदी हैं |वे आपको ,’कन्फयुज्ड’ करके रख देंगे |कहाँ आप बाड़े-नुमा, हवेली माफिक मकान के स्वामी, और कहाँ ‘थ्री बी एच के’ का दंदकता, कुंद सा मुर्गी खाना ....? वे अपने सुझाव के पक्ष में ,चार यार-दोस्तों का हवाला देते हैं कि कैसे सस्ते में सब लोग फ्लेट एप्रोच लगा-लगा के ‘कबाड़’ रहे हैं|अगर अभी चुक गए तो आने वाले दिनों में जिनके दाम निशित आसमा छूने वाले होगे |और आने वाली सात पीढियां पानी पी-पी के अपन को कोसेगी .....कहाँ दादा जी की ‘मति’ मारी गई थी |आपका ‘ब्रेनवाश’ बिना डिटर्जेंट के होने से, अब भगवान रोक्के तो रोके ....|वरना ,इस उम्र में सरेंडर करने का पहाला पाठ यहीं से शुरू हो जाता है |
अगर आपके पास इस कान से सुनो और दूसरी से निकाल दो की ‘प्रेकटीस’ तगड़ी है, जैसा अपनी पत्नी के साथ अमूमन करते रहे हैं ,तब तो आप उस मकान में बरसो टिके रह सकते हैं वरना लालच और दबाव के आगे आपको अपनी मर्जी के खिलाप घुटने टेकना ही पड़ेगा |
आपने, अपने सरकारी ओहदे में कितने फरमान जारी किये होगे ...कितनो का अनुपालंन होते पाया होगा |जिसने फरमान के माफिक नही किया उसके ‘ऐ सी आर’ ,रंगे होगे ,वे तब के दिन थे |हो सकता है कई मातहत घुटने टेकने को भी बाध्य हुए हों ,मगर वो सब आपका सरकारी रुतबा ,दबदबा था ,अब इन सब की कहीं पूछ नहीं | इन सरकारी ‘ठाठ के दिनों को’ गमछे में लपेट के कहीं बाहर टांग दो,इसी में भलाई है |इससे कम सठियाये तो दिखोगे..... |
आप दो-तीन बच्चो वाले बुजुर्ग हैं, तो आपके के साथ ,’बागबान’ टाइप का खेल-खेला जा सकता है |फ़िल्म बागबान के ट्रेलर को याद कर लो, किस्से का खुलासा आप ही आप हो जाएगा कि कैसे बुजुर्ग-दंपत्ति का करवा-चौथ, दिल दहलाने वाला दृश्य उपस्थित करता है |
हम तो कहते हैं ‘दुनिया के बुजुर्गो एक हो’........
कहने को तो ये कह लिए,मगर तत्काल दिमाग में आता है कि, ये एक हो के... क्या भाडं झोक सकते हैं ?
‘भाड झोकने’ का डिटेल आपको बताएं |’भाड’ एक मिटटी का बहुत बड़ा, ऊपर चौड़े मुह का तपेला होता है |लकड़ी की जलती भट्टी या तेज आंच की आग में, रखा जाता है|इसमें रेत को तपा कर गर्म करके ,भीगे,पर सुखाए चनो को फूटने के लिए डाला जाता है |यूँ समझिये पुराने जमाने की तंदूर भट्टी ....|इसे आपरेट करने वालों को भडभुन्जिये कहते हैं | हमे लगता है इतनी उम्र देखते ये काम इनके ‘बस’ का नहीं |वरना सबसे पुराना, कम लागत वाला बिना दिमाग खर्च किये चलाने वाला ,यही सीधा- सादा धंधा था |
चलो ,आपको और काम में लगाते हैं |थैला ले के बाजार जाने का सिस्टम, जिससे आपको चाय -सिगरेट के लिए , दो पैसों की आमदनी हो जाती थी, आजकल बड़े-बड़े शापिंग-माल ने छीन लिया है |बाकायदा बिल प्रिंट हो के हाथ में दे दिया जाता है,मसलन , घपले का कोई चांस नहीं |
एक टी वी है जो आपके बुढापे का सहारा है |इंटरनेट ,फेसबुक,मोबाइल को बहु के दिए सीमित सेन्क्शंड बजट में चलाना होता है |
तो बच्चो ,यही टी वी आपको,समय समय पर , ‘तिहाड़-दर्शन’ करवाता है ,जहाँ फर्जी-डिग्री वाले अन्दर जाते दिखते हैं |ये आपको सात-समुंदर दूर, ‘लमो’ के पास भी ले जाता है जो सात सौ करोड़ के घपले-घोटाले की वजह से अपने देश के ‘इ डी’ तांत्रिकों द्वारा ढूढा जा रहा है,|दुनिया उनसे मिल लेती है मगर ‘न्याय’ की देखरेख करने वालों की, नजर नहीं जाती |ये वही लोग होते हैं, जिसका साथ, आपके वोट पर चुने हुए, आपके जन प्रतिनिधि,देते नजर आते हैं|
अपने कानों पर कलयुग में विश्वास कर लेना भी संदेहास्पद है |एक राज्य है ,पत्रकार की मौत का मुआवजा दे रही है,उसके मंत्री पर ,मरते हुए पत्रकार का बयान उसे मौत का जिम्मेदार ठहरा रहां है ,मंत्री को ढूढने में पुलिस मुहकमा अजीब सी सुस्ती में काम कर रहा है ,आम-जन का कानून अलग, मंत्री का कानून मानो अलग..... |
अब मंत्रियों को शपथ लेते हुए हूँ भी दिखाया जाना चाहिए ,मै इश्वर की शपथ लेता हूँ कि अगर किसी काण्ड में मेरा लिप्त होना आरोपित हुआ तो ,अविलंब पदत्याग करुगा |यदि ऐसा न कर सका तो भगोड़ा होने की दशा में मेरी सारी संपत्ति जो इलेक्शन लड़ते समय बताई गई है जब्त कर ली जावे |मै शपथ पूर्वक कहता हूँ की मेरी डिग्री के दस्तावेज फर्जी नहीं है |मुझपर बलात्कार ,चोरी ,खून डकैती के कोई आरोप नहीं है और न ही किसी अदालत में मेरी पेशी,इन आरोपी के तौर पर चल रही है |
आपने, योग-उत्सव का, तमाशा बतौर अलग आनन्द लिया होगा |अपने भी हाथ पैर इधर उधर जरुर फेके-फटकाए होंगे|चार बुजुर्ग मिलकर,आप लोगों ने लानत भी भेजा होगा..... क्या जरूरत थी इतना खर्चा करने की....... |ये लोग जनता के पैसों से, अपना वोट बेंक बढाने की ‘शाजिश’ को नए- नये नाम और लेबल देते रहते हैं |वाह री दुनिया ....इंसान में कितनी चालाकी भर दी है | इनके थिंक-टेंक को इनाम-शिनाम का इन्तिजाम भी हो जाए ,गुजरने से पहले वो भी देख लें |
.....और बुजुर्ग बच्चो .....!, आपने देखा ,अपने पी-एम् सतत लगे हुए हैं ,बाहर देशों के दौरे पर दौरे मार रहे हैं ,अभी जगह-जगह काला-धन ‘सूघने’ का प्रयास जारी है,जरूरत पड़ी तो ,छापा बाद में मारेंगे ,वे अपने प्रयास में सफल हो तो ,थोड़ा अपना जी इधर भी हल्का हो जाए .....?
सुशील यादव
ज़रा मन की किवडिया खोल ......
आप फेल तो हुए होंगे ,रायचन्दों का तांता लग जाता है |गलतियां गिनाने वाले हर गली मोहल्ले में रोक रोक के अपनी राय जाहिर करते हैं | पीठ पीछे वाले भी होते हैं, जो आपको छोड़ते नहीं |वे जनमत में यह फैलाते हैं की काश वे आपकी माने होते तो ये दुर्दिन देखने की नौबत उन्हें आई नहीं होती |
क्या कहूँ !
इन्हीं रायचन्दों में से मै भी एक हूँ |
बन्दा हाड माँस का जीव है और खुदा के रहमो करम ने, इसे दिल दिमाग से भी नवाज दिया है |ये दैनिक अखबार और मीडिया में चकल्लस रूपी बकवास प्रसारण में, चार लोगों की चौपाल वाली किच किच भी सुन लेता है ,अत: इसे चुनाव का व्यवहारिक ज्ञान हो गया है |
यूँ कहे, जनता की नब्ज टटोलने की चुनावी बीमारी सी लग गई है |
वैसे तो रिजल्ट आने के बाद हर कोई एक्सपर्ट ओपिनियन के तहत यह बताने से नहीं चुकता की हमने तो पहले ही कहा था.............,वे माने ही नहीं ,वरना परिणाम दूसरा होता |
खैर ! बीत गई सो बात गई ,यानी बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुधि लेय.....|एक ट्रेन छूटने का गम न कर यहाँ हर घंटे में तेरे ‘मकसद गाव’ की ओर एक ट्रेन जाने को है |बस तू टिकट कटाए रख ,लपक के अगली में घुसने की कोशिश कर |बच्चा ,कामयाबी जरुर मिलेगी |
इतना जान ,अगली ट्रेन जो लगने वाली है ,वो धार्मिक यात्रा वालों की सात्विक ट्रेन है|
मुसाफिर भोले भाले हैं |
इनसे किसी भी प्रकार से असात्विक बातें न कर |मांस मटन से ये कोसों दूर रहते हैं |इन्हें लौटती ट्रेन का आरक्षण जरुर मिले,यह व्यवस्था कर , ये भगवान से तेरे लिए दुआ मांगेंगे |किसी स्टेशन में इनको चाय पिला के देख, भूखी जनता ,और परेशान पेसेंजर ज्यादा न मिले तो थोड़े से संतोष कर लेने के आदी पाए जाते हैं |
इस ट्रेन में मागने वाले गवईए,फेरी वाले,डुप्लीकेट माल बेचने वाले जगह जगह से चढ़ेंगे |इनकी सच्ची पहचान मुसाफिरों से करवा के, वाहवाही लूट |ये उघते हुए मुसाफिर, जिस जगह जाग गए ,तुझे शुभकामनाओं से साराबोर कर देंगे |
तुम इस डिब्बे में खिडकी के पास बैठे , उन्तालिस्वे नम्बर के बर्थ वाले, “तत्व ग्यानी” महाराज से नहीं टकराए, वरना वो ललाट देख कर ही बता दिए होते कि तुम आगामी चुनाव में अपनी पार्टी के प्रचारक की हैसियत से जगह जगह सैकड़ों भाषण सभाएं करोगे |तुम्हारी वाणी से एक ओर करोड़ों के दान की घोषणाएं होंगी तो दूसरी तरफ तुम्हारी जिव्हा से, मजहबी दंगा फसाद में मारे गए व्यक्ति के विषय में एक भी शब्द कई दिनों तक नहीं निकलेगा|
तुम गौ माता के सेवक बतौर अच्छे हो मगर इसे “फायदे की माता” समझना भूल होगी |तुम्हारी ‘महंगी दाल’ गलाने वाला आदमी तुमको ढूढने से भी नहीं मिलेगा |तुम कितना भी प्रेशर लगाओ ,कुकर की सीटी तो बोलेगी मगर अच्छा व्यंजन परोस नहीं पाओगे|
तुममे अहंकार की जो चिगारी थी, वो अब ज्वाला बन गई है |उसे ज्वालामुखी बनने से पेश्तर, तुरंत रोको |
अपने ढहते घर को सम्हालो, फिर दूसरों के रंग रोगन दीवाली को देखने बाहर निकालो|ग़रीबों के पैसों को बाहर लुटाने की बजाये, मरते किसानों को ढूढ़ निकालने वालों पर इनाम की घोषणा करो |
आर्थिक उपलब्धियां गिनाने की बजाय,उपजाऊ जमीन में आ रही गिरावट की समीक्षा हो |मेक इन इंडिया की जगह ग्रो इन इंडिया के लिए विदेशी मजदूर बुलवाओ, क्योकि एक रुपये में अनाज बाँट कर, आपने सभी मजदूरों को काम के लिए अपंग निक्कम्मा कर दिया है |
प्रचारक भाई ! खोल सको तो “मन की किवडिया” खोलो ,देर अभी भी नहीं हुई है |
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
दृष्टिकोण चांगला पाहिजे .....
वे प्रबुद्ध हैं |उन्हें देश की चिंता रहती है|
वैसे आजकल प्रबुद्ध कहाने का शार्टकट भी यही है कि, एक स्वस्थ आदमी देश के बारे में सोचें |
वैसे तो पर्यावरण वाले भी देश के मौसम ,मिजाज ,हरारत ,सर्दी की दिनरात सोचते रहते हैं,अनुमान लगाते रहते हैं , मगर उन्हें प्रबुद्ध की श्रेणी में इसलिए नहीं रख सकते कि वे ‘पेड़’ इम्प्लाई हैं |इसकी, नजर-खबर रखने की , वे तनखा पाते हैं |
बिना तनखा कमाए, जो देश की सोचे सो प्रबुद्ध .....|
पुराने जमाने में जनहित की सोच रखने वाले विरले मिलते थे |मगर जो मिलते थे वो एकदम सॉलिड .....|आंधी-तूफान से टक्कर लेने वाले......|
वे अधिक माथा-पच्ची नहीं करते थे |उनका ‘सब्जेक्ट- टार्गेट’ आजादी के इर्द-गिर्द घूमता था |उन महान लोगों को इस लेख परिधि से अलग रखते हुए, श्रधा सुमन अर्पित है |
अब आइये ,आजकल के चिंतन-मनन करने वालों की तरफ रुख करें |
इनकी तादात देखते-देखते इन दिनों करोड़ों से ऊपर की हो गई है|इनकी आबादी दिनों दिन बढ़ने-बढाने के पीछे, शोध पर पाया गया की ये सब मीडिया की नई उपज हैं |वार्तालाप की मंडी में, जगह-जगह उतर रहे हैं |
मार्निग वाक् वाले बुजुर्ग ,धोबी ,नाइ ,मोची ,ड्राइवर ,भिस्ती ,बावर्ची सभी करंट राजनीति के विश्लेषक बन गए हैं |
सरकारी मुहकमो में, एक चौथाई समय सरकार के कार्यकलापो और पिछली रात, इडियट बाक्स में दिखाए छम्मक छल्लो माँ ,कथित हत्यारिन माँ ,और पी एम ,सी एम संवाद में निकल जाता है |
जिसके पास बखान करने का ज्यादा मसाला होता है उसकी दिन भर के चाय-समोसे का इन्तिजाम पक्का हो जाता है |प्रवचन सुनाने वाला,श्रोता जमात और जजमान को देखकर गदगद रहता है |पूरे स्टाफ में प्रबुद्ध का खिताब धारी होना अलग मायने रखता है |
कुछ वे लोग भी हैं जो ,देश में गिरती अर्थ व्यवस्था पर मनन कर अपना वजन घटाए रहते हैं |सेंसेक्स नीचे चला जाता है तो रात भर बेचारे सो नहीं पाते|बच्ची,लड़की या बुजुर्ग महिला पर अमानुष कृत्य हो जाए तो खुद को अपराधी महसूस करते हैं |
झासा देकर कोई राजनीतिक दल मतदाताओं से वोट ऐठ लेता है, तो लुटा हुआ महसूस करते हैं |
भ्रस्टाचार उन्मूलन की मुहीम में उन्हें सबसे आगे रहने वाले जीव होने का दावा करते देखा जा सकता हैं |
वे महज निगेटिव सोच पालते तो, मुहाल्ले पडौस से उखड़ गए होते |उन्हें समय सापेक्ष पाला बदलने का भी खासा तजुर्बा रहता है |उनके किसी क्रियाकलापों से आप कांग्रेसी या संघी की मुहर नहीं लगा सकते |सफाई अभियान की बात हो तो चार झाड़ू के पैसे अपनी जेब से ढीली कर देते हैं |कलफदार कुरते-पैजामे में उनको देक्खकर लगता है, पूरे दिन की सफाई का श्रेय वही लूट ले जायेंगे |’आप’ की सीट दिल्ली में बढती है तो बाछे खिल जाती है |उन्हें प्रजातंत्र का अवतार पुरुष कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी |
उनका मत है कि,कोई प्रबुद्ध हो और देश के प्रति चिंता न रखे, ऐसे प्रबुद्धों को लानत है|वे दिन में ‘अमरवाणी’ बनाने लायक कई सूक्ति वाक्य बोल चुके होते हैं ,उनको मलाल रहता है कि कोई इन्हें नोट करने वाला आसपास नहीं रहता |
उनकी ‘चिंतामणी’ छवि मोहल्ला पड़ोस के स्तर पर भी गौर करने लायक है|किसी की भैस गुम जाए तो बाकायदा पडौस के गाव तक खोजने निकल पड़ते हैं,वहां के पञ्च सरपंच को आगाह करना ,इत्तिला देना पहली फुरसत का काम जानते हैं|बदले में उधर, चाय ,और राजनीतिक घुसपैठ की गुजाइश पैदा हो जाती है |
किसी परिचित की, कम दूध देती गाय का इलाज जब तक किसी वेटनरी डाक्टर से न करवा दे,वे अघोषित, अन्न जल त्यागे की श्रेणी में होते हैं |
वे अखबार में छपी, छोटी-छोटी खबरों से भी चिंता उठा लेते हैं|इसे उनका अखबार प्रेम कहें ,निठल्लापन कहे,काम-काजी बेटे-बहुओं द्वारा उपेक्षित बुढापा कहें या देश के प्रति बुझते दिए की टिमटिमाहट कहे ....?समझ नहीं आता ....बहरहाल वे छोटी-छोटी चिंताओं को लिए मन ही मन तलवार भांजते रहते हैं | कोफ्त में दीखते हैं .....|
मैंने एक दिन उनसे यू ही पूछ लिया ,ताऊ जी ये मोहल्ले भर का झमेला क्यूँ लिए रहते हैं ?
वे बोले ,सुकून मिलता है|दिल से बोझ उतरा हुआ सा महसूस होता है |
अगर मुहल्ले की न सोचूं तो देश हाबी हो जाता है ,और तुम तो जानते हो देश के बारे में इन दिनों सोचना कितना भयंकर सा काम है |अच्छा खासा आदमी अनिद्रा-रोगी बन जाए ...?
ताऊ जी को नये-नये हाबी बदलते भी देखा गया है|उसे ब्यान करने में लगता है की वे सठियाने लग गये हैं |एक दिन मार्निग वाक् के दौरान देखा कि गय्या की रस्सी पकड़े आ रहे हैं ...?हमने पूछा सुबह सुबह गौ माता को कहा लिए जा रहे हैं ....?वेटनरी अस्पताल तो अभी खुला न होगा |वे संजीदा हो के मेरी तरफ देखे ......तुम लोगों की नजर संकीर्ण क्यों हो गई है,वो जो सामने श्रीवास्तव जी अपने कुत्ते का पट्टा पकड़े हैं उन्हें माडर्न समझोगे ,हम जो अपनी गाय को चराने निकल गये तो आफत आन पड़ी ....?
मुझे बगले झाकने, और जल्दी खिसक लेने में एकबारगी बुद्धिमानी लगी |मेरे कदम वाक् से जागिग केटेगरी के कब हो गए ,पता न चला |
वे हाई-बी-पी वाले डिटेक्ट हो गए हैं ,उनके हित में डाक्टरों ने अनर्गल टी वी में प्रसारित समाचारों और आजकल दिखाए जा रहे बेकार की मुद्दों पर बहस से बचने की सख्त हिदायत दे रखी है |
वे मानने वालो में से हों मुझे नहीं लगता ......?
सुशील यादव
पत्नी की मिडिल क्लास ,’मंगल-परीक्षा’
आफिस से लौट कर जूते-मोज़े,खोलते हुए बेटर-हाफ को आवाज लगाया ,सुनती हो ......?
ये नासपिटो (नासा के पिटे हुए) ने हमारा सलेक्शन मंगल-ग्रह जाने के अभियान में कर लिया है |इसरो -बॉस ने हमें खुशखबरी सुनाते हुए मुबारकबाद दिया है ....|
पहले तो बीबी गर्व से साराबोर हुई ....|फिर आर्ट-विषय से एम. ए. पास के भेजे में, भूगोल और साइंस की मिली-जुली खिचडी, पक कर, कूकर-वाली लंबी सीटी बजी, तो यकायक ख्याल आया ,ये मंगल-गढ़ की बोल रहे हैं क्या .....?
उनने फिर स-अवाक पूछा.... क्या कहा ,,,,,मंगल-ग्रह यानी अन्तरिक्ष वाला ......? जाना है.....?
ये, अपने टीकमगढ़ से तो, करोडो मील की दूरी पर है, बतावे हैं ....?
हाँ ...करोड़ों मील दूर..... बिलकुल सही सुना है |लाखों की स्पीड वाला शटल भी, साल-भर में पहुचाता है |
तो बताओ आप ही को, काहे भेज रहे हैं ,आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे,होशियार सक्सेना जी ,श्रीवास्तव जी को कहे नहीं भेज रहे .......?
मैंने कहा, पगली उन लोगों का फील्ड अलग है| वे लोग पर्चेस में हैं ,श्रीवास्तव जी एकाउंट सम्हालते हैं ,वे लोग क्या करेंगे .... क्या कहती हो वो तुम्हारे मंगल गढ़ में?
तो आप कौन से खेत में मूली बोने जा रहे हैं ....?नासा वालो को ,आप जैसे भुल्लकड की क्या दरकार पड गई .?
हम वहां ‘एनालिस्ट’ हैं.....|.एनालिस्ट माने..... तुम्हे क्या समझाएं ...?.समझो हम लिक्विड-चीज में क्या- क्या, मिला-घुला है, इसकी जाँच करके बताते हैं ?
आप क्या जाँच करते होगे.....हमें शक होता है कोई आपकी कहे को मानते भी होंगे ....? हम जो फिछले दो माह से,दूधवाले को समझने समझाने की कह रहे हिन् उस पर तो जूं नहीं रेंगती , दूधवाला निपट पानी जैसा दूध दे के पूरे पैसे गिनवा ले जाता है |उसकी जाँच कभी आफिस में कर आते कि नहीं .....?
खैर छोड़ो.... मंगल गढ़ में क्या जंचवाना है, नाश पीटो को......
मैंने कहा ,तुम टाइम निकाल के, टी वी में सास बहु सीरियल के अलावा और कुछ भी देख लिया करो| ....कई दिनों से वे चिल्ला चिल्ला के बखान रहे हैं ....मंगल-ग्रह में पानी की खोज कर ली गई है|ये नासा वाले उसी पानी को,इस धरती में लाकर यहाँ जाँच-वाच करना चाहते हैं |वहां के पानी में, और यहाँ के पानी में क्या क्या समानता और असमानताये हैं ?
देखो उधर जा रहे हो तो, अपने घर के लिए भी एक ‘कुप्पी’ रख लेना |एक-एक चम्मच प्रसाद जैसे, मोहल्ले में और किटी वाली जतालाऊ औरतों में बाट दूंगी....?
क्या मतलब ....?
वैसे ही,जैसे लोग ‘गंगा-जी’ जाते हैं, तो अडौस-पडौस वाले बाटल में अपने लिए गंगाजल की फरमाइश कर देते हैं ....|
पगली !तुमने नासा-इसरो वालों को घास छिलने वाले घसियारों की केटेगरी में समझ रखा है ....?बहुत हुआ तो हम चोरी-छिपे, पेन के इंक को, उधर फेक के थोड़ा-बहुत तुम्हारे प्यार की खातिर ला सकेंगे ज्यादा की मत सोचना |आगे-पीछे सब देखना पड़ता है .... सी सी टी वी की जद में चौबीस घंटे रहना पड़ता है ,समझी .... |
लौकी,सेम-वेम के बीज तो, छोड़ के आ सकते हो......मंगल में बसने वाली पीढियां अपने बच्चो को कहेगी कि ये लौकी जो देख रहे हो साकू के पापा सालों पहले अपने साथ लाये थे ...?
ना ...... वो भी नहीं....?फिर वहां पानी मिलाने का क्या फ़ायदा
हमने समझा पानी मिल गया है तो फसलें भी उगेगी |
आपके दीगर जरूरत की चीजों का बंदोबस्त भी करना होगा ,आप तो एक चड्डी भी धो निचोड़ नही सकते पता नहीं उधर कैसे मेनेज करेंगे ....?कल से बैगेज तैय्यार करने में भिड़ती हूँ ...?कब जाना है ..आखिर ...?
चार छ: सेट ,कच्छा, बनियान, टाई,मोज़े सब नये लेने पड़ेंगे |घिसे-घिसे को चलाए जा रहे हैं ....?दो तीन जोडी शर्ट-पेंट भी कल माल से ले लेंगे| अभी उधर, फिफ्टी पर्सेट आफ का आफर चल रहा है |
मैंने कहा आराम से ,.....वे लोग तैय्यारी के लिए हप्ते भर का टाइम देते हैं|
आपको मठरी-खुर्मी बहुत पसंद है ,कल से जितना ले जाना है ,बनाए देती हूँ ...|
मैंने जोर देकर कहा वे लोग ये सब कुछ अलाऊ नहीं करते....|सब दस्त बीन में दाल देंगे ....?और हाँ .... वहा बाहर कहीं किसी को कुछ दिखाने का नहीं, बरमुडा ही काफी रहता है |हाँ ठंडी बहुत रहती है ..मगर .वे लोग उसका भी इन्तिजाम कर रखे होते हैं तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं |
वैसे डार्लिंग ! ये मेरा पहला टूर होगा जहाँ से तुम अपने लिए कुछ भी नहीं मंगवा सकती .....?
आप बीबी लोगों को नहीं जानते ....हम कुछ भी मंगवा सकती हैं ...|.कम से कम एकाध पत्थर, एडी घिसने ले लिए तो लेते ही आना|बड़े फक्र से किटी-बहनों को बता सकूंगी की मंगलग्रह के पत्थर से अपना रूप-रंग निखारती हूँ |
देखो अब, हप्ते दो हप्ते का मेहमान हूँ तुम्हारा ...!
.जी भर के खिलाओ-पिलाओ,प्यार-व्यार कर लो ..?
वो सकते में आ गई ...कैसी अशुभ बाते कहते हैं .....?बताओ वापस कब तक आना होगा ....?
शायद साल भर तो जाने का ही लगता है अब सोच लो ....
तो फिर आपको मै जाने नहीं दूगी ....भाड में जाए ऐसी नौकरी .....|पत्नी का भूगोल ज्ञान में अचानक भूकंप सा आने लगा जो धीरे-धीरे, सात-आठ डेसीबल की तरफ बढ़ने लगा |
बड़े साइंटिस्ट बने फिरते हैं नासा वाले, नाश पिटे ! मशीन काहे नहीं बना सकते ....?इतनी बड़ी-बड़ी खोज किया करते हैं ,एक छोटी सी ‘पानी-जांच मशीन’ बनाने के लिए कंजूसी क्यों कर रहे हैं .....?उनको हमारा ही मर्द दिखा.... जो आर्डर फार्मा रहे हैं ...?
और मै पूछती हूँ तुम कैसे मर्द हो जी ......?जो कोई भी आदेश पा के खुशी-खुशी चहकते घर में आकर उंची नाक करके अपनी बीबी को बहादुरी के किस्से बखान कर रहे हो ....?
मै कल सुबह ही, ‘झा अंकल’ से कहके आपके इसरो आर्डर को केसिल करवाने के लिए पी एम से बात करने को कहूंगी |अपने सांसद आड़े समय में काम न आये तो क्या फ़ायदा .....?मै तुम्हे किसी कीमत में मंगल ग्रह में जाने नहीं दूगी |
मुझे अनजाने ही अपनी बेटर हाफ का, बेटर वाला, यानी सती-सावित्री रूप का साक्षात दर्शन हो गया |
चुपचाप शर्ट की उपरी जेब से कोई बिल नुमा कागज़ निकाल के ........टुकडे-टुकड़े कर दिया और कहा लो ,मेरा जाना केंसिल ......|
इसरो बॉस को समझो मै कल मना लूंगा |हाँ नासा वालों का हर प्रोग्राम बेहद टॉप सीक्रेट होता है अडौस-पडौस में मेरे दौरे की चर्चा नहीं करना वरना लेने के देने पड सकते हैं ......
वो लजाते हुए बोली मुझे आप एकदम भोली समझे हैं क्या ....इतना दिमाग तो कम से कम है ही ....?
मै मुस्कुरा दिया ....
मुझे लगा इस फर्जी एहसान तले, मेडम ‘सावित्री’ को लाकर कम से कम कुछ दिनों के लिए अच्छा खाने- पीने और मस्ती का लाईट इन्तिजाम बखूबी कर लिया |
सुशील यादव
मन चंगा तो .....
एक बार संत रैदास के पास उसका दुखी मित्र आया,कहने लगा आज गंगा में स्नान करते समय उसका सोने की अंगूठी गिर गई |लाख ढूढने पर मिल नहीं सकी |संत रैदास ने पास में रखे कठौते (काष्ट के बड़े भगोने, जिसमे चमड़े को भिगो कर काम किया जाता था ) को उठा लाये , उसमे पानी भरा और अपने आगन्तुक मित्र से बोला ,चलो अपने हाथ को डुबाओ |मित्र की अंगूठी उस कठौते में थोड़ी देर हाथ घुमाने पर मिल गई |अब ये चमत्कार संत का था, कठौते का था,या चंगे मन का था, कहा नहीं जा सकता मगर तब से, ये कहावत जारी है “मन चंगा तो कठौते में गंगा”
आदमी के मन में अगर कहीं खोट नहीं है,असीमित आत्मसंतोष है, तो सीमित साधनों में भी उसे सब कुछ उपलब्ध हो सकता है |पाप धोने के लिए गंगा जाना जरुरी है, ये हिन्दू के अलावा किसी दूसरे मजहब में प्रचारित नहीं दीख पड़ती |
कठौते से, गंगा में खोए सोने का मिल जाना वास्तविकता के आसपास यूँ भी हो सकता है कि, संत-सखा को सोने से ज्यादा कीमती, रैदास के उपदेश लगे हों .....?वो उसी पे संतोष कर लौट गया हो .......पता नहीं......?
कई बार यूँ भी होता है की हम जिस चीज को गंवा बैठते हैं उससे ज्यादा हमें उस पर बोल-वचन सुनने को मिल जाते हैं |जो चला गया...... वापस कब आता है....?’आत्मा’ या ‘चीज’ के संबंध में सामान रूप से लागू हो जाता है |आदमी अपने धैर्य को मर्यादा में रहने की सीख यहीं से देना शुरू कर देता है |
सब्र की बाँध को टूटने से बचाने के लिए जरुरी है हम किसी संत की शरण में यदा-कदा झांक लें|
शहर के ,’मर्यादा- बार’ में अपने बगल की टेबल से पहले पेग का प्रवचन, एक इकानामिस्ट चतुर्वेदी की तरफ से जारी था |बगल में तीन चार नव-सिखिया,बिल्डर,वकील,नेता लेखक जमे बैठे थे |अपना उनसे केजुअल हाय-हेलो जैसा था|आमने-सामने पीने- पिलाने में दोनों पार्टी को कोई परहेज नहीं था |
वे दूसरे पेग में देश की सोचने पे उतारू हो गए |यार इस दिल्ली को बचाओ .....?
मफलर भाई क्या चाहता है आखिर ....?
दिल्ली के ‘कठौते’ पर काबिज हो गया है |
पूरी दिल्ली खंगाल लिया ,पता नहीं इनका क्या खोया है जो मिल नहीं रहा .....?
बेचारी जनता ने ६७ रत्नों से जडित कुर्सी से दी, इतनी इनायत कभी किसी पर नहीं की ....?
जनाब और दिखाओ ....और दिखाओ की रटी लगाए बैठे हैं.......?बिल्डर ने सिप लेते हुए कहा, .....है खुछ और दिखाने को नेता जी ,क्या कहते हो ....?
नेता ने, ‘बाबा जी का ठुल्लू’ वाला मुह बना कर, अपने ‘चखने’ पर बिजी हो गये |
वकील ने इकानामिस्ट से पूछा ,ये एल जी और केंद्र से काहे टकरा रहे हैं ......?
जनता से जो वादा किये उधर धियान काहे नहीं दे रहे बताव ....?
इकानामिस्ट ने अपनी बुजुर्गियत झाड़ते हुए कहा ,तुम लोगों को पालिटिक्स अभी सीखनी पड़ेगी |जनता से वादे निभाने के अपने दिन अलग से आते हैं|ये नहीं कि वादों के एजेंडे वाली कापी, शुरू-दिन से खोल बैठें |तुम लोगों ने एक्जाम तो खूब दिए होंगे,जुलाई से कभी पढने बैठ जाते थे क्या ....,?पढाई की तैय्यारी तभी होती है न .... जब एक्जाम के डेट सामने आ जाएँ |ये लोग भी तब कर लेगे|
ये लोग और किस पावर की बात कर रहे हैं .....?ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पुलिस पर कंट्रोल .....?लेखक ने सोचा तीसरी लेने के पहले उसे कुछ कह लेना चाहिए,वो जानता है....,दमदार वार्ता उसी की रहने वाली है ....|वो प्रबुद्ध है .....पिए-बिन पिए हरदम निचोड़ वाली बात कहता है ....
भाई सा ....देखो ये ‘पावर’ ‘कुत्ती’ चीज है,कुत्ती समझते हैं ना .... अच्छे-अच्छो का दिमाग खराब कर देती है|चुन के आ गए ,रुतबा नहीं है .....क्या ख़ाक कर लेंगे .....?
लेखक द्वारा भाई सा, को ‘भैसा’ बनाने में,दो ढाई पेग की ‘लिमिटेड’ जरूरत होती है|हाँ तो मैं क्या कह रहा था ‘भैसा’.... पावर न हो तो क्या अंडे छिल्वाओगे .....६७ लोगो के लीडर से ?
दो ,इनको भी मौक़ा ,करें ट्रांसफर ,बिठाए अपना आदमी ........’जरिया’ खुलने का ‘नजरिया’ साफ जब तक नहीं दिखेगा ये खंभा नोच डालेंगे ....?
ओय ,राइटर महराज ,ये ‘जरिया’ ,’नजरिया’ क्या लगा रखा है ,तू खुल के बोल नहीं पा रहा है आखिर चाहता क्या है बोलना ....,बिल्डर बोतल उसकी गिलास के मुहाने रख देता है .......|अरे यार मरवाओगे क्या ....चढ़ जायेगी .....|
चढती है तो चढ़ जाने दो राइटर जी ,पीने का मजा ही क्या, जब दिल की बात दिल में रह जाए ......?बोल क्या जरिया चाहिए ,ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पोलिस दहशत ....क्या लेगा दिल्ली के लिए ....?वे दिल्ली के मास्टर-प्लान बनाने में जुटे थे ......
मुझे लगा ,इनकी बातों का कुतुबमीनार अब-तब कहीं मुझ पर जोरो से न आन गिरे ....|
..मैं वेटर को आवाज देता हूँ ,ऐ सुनो .....बिल ले आओ फटाफट ......
.न जाने बियर मुझे एकाएक कसैला क्यों लगने लगा ......|
सुशील यादव
सवाल जो मुझसे नहीं पूछे गए .....
अच्छा हुआ ! मुझे किसी ने कोई पुरूस्कार से नहीं नवाजा ....|पुरूस्कार मिलता तो उस कहावत माफिक चोट लगती ,”बेटा न हो तो एक दुःख ,हो के मर जाए तो सौ दुख,और हो के निक्कमा,नकारा निकल जाए तो दुखों का अंबार नहीं” |
अपन इस आखिरी वाले बेटे की सोचें ,यदि पुरूस्कार मिला होता तो आज की परिस्तितियों में उसे वापस लौटाने की नैतिक या सामाजिक दायित्व के बोध से आत्मा में धिक्कार पैदा होती ....... लौटा ! .....लौटा ....! इस दुनिया में क्या ले के आया था ,नश्वर जहाँ से क्या ले के जाएगा .......जो सम्मान तुझे मिला था, वो तेरे अतीत के अनुभव का निचोड़ था ,आज वर्तमान में चारों ओर धर्म कुचला जा रहा है, विचारवानो की वाणी में ताले-जड़ने का उपक्रम हो रहा है ,समाज के कुलीन चेहरों पर कालिख मली जा रही है और तू है, कि तोले भर के सिक्के-नुमा पदक को टाँगे फिर रहा है ....जिस दस बाई पन्द्रह के कांच वाले फ्रेम में तेरे किये के, कशीदे कहे गए हैं उसमे अपनी पत्नी का फोटो जड़ दे |दीवार को साफ सुथरा रख ,आने-जाने वाले को जिस शान से उस फेम को पढवाता था उसके दिन लद गए |
तकाजा है,जब-तक पुरूस्कार के तमगे को गले से उतार नहीं देता, गले में कुछ फांसी-जैसा चुभता महसूस करता रहेगा |
अक्सर मुझे ये ख़्वाब आता है कि ‘अमुक जी’ के घर पत्रकार का छापा दल, टी वी वेन के साथ आ धमका है |
सी आई डी के खुरापाती ‘दया’ की लात से अमुक जी का कमजोर फाटक धराशायी हुआ पडा है |अमुक जी दुबके से, सहमे हुए कोने में कंपकपा रहे हैं |अमुक जी के साथ ,सवालों की बौछार का, लाइव टेलीकास्ट किया जाने वाला है |
“ये हैं अपने शहर के मशहूर साहित्यकार, अमुक जी ,इन्होने साहित्य जमात में वही मुकाम हासिल किया है, जो मुकाम शोले के भारी भरकम लेखको ने मिलकर हासिल किया था ,जी हाँ आप सलीम-जावेद का नाम कैसे भूल सकते हैं |उनकी लिखी कई पटकथाएं पुरूस्कार पाने के रिकार्ड तोड़ डाली हैं |हमारे अमुक जी इनसे कुछ मम नहीं ,इनको इतने पुरुस्कारों के बावजूद, आज आप जिस हाल में देख रहे हैं वो इनके पब्लिशर की देन है|वे इनकी रायल्टी नहीं चुकाते |कुछ इनकी रचनाओं के पूरे अधिकार मात्र चंद रुपयों में खरीदकर, भारी मुनाफा कमाए बैठे हैं |देखिये ,....हमारे अमुक जी के कमरे का पूरा ‘टांड’ पुरुस्कारों-ट्राफियों से अटा पड़ा है |मै केमरामेन को कहूंगा ज़रा इस टांड पर ज़ूम करे|
कौतूहलवश अमुक जी के घर में पहुचा ,अमुक जी , मुझे देखकर अपनी घबराहट से निजात पाए हुए दिखे |उनका मेरी तरफ देखना बिलकुल वैसा ही था जैसे पुलिस किसी निरपराध को सीखचों के हवाले कर दे तब कोई परिचित का दिख जाना यूँ लगता है की जमानत का इन्तिजाम हुआ ही समझो ...? एंकर की पैतरेबाजी शुरू हुई
अमुक जी इतने पुरुस्कारों को इकट्ठा करने में आपको कितने साल लगे ......?
मुझे पहले प्रश्न से ही एतराज हुआ मैंने इशारा किया ,वे कैमरा को ‘पाश मोड़’ में रख के घूरे, .... ये बीच में टोकने वाला कहाँ से आया ....?
अमुक जी ने परिचय करवाया ,यादव जी ! ....अपने अभिन्न पडौसी एवं मेरी रचनाओं के पहले पाठक हुआ करते हैं, लिहाजा मेरी पूरी साहित्यिक यात्रा के ये हमसफर हैं, जान लो....?बेहतर है आप मेरे से पूछे जाने वाले सवालों का जवाब इन्ही से ले लेवे ...|आप इंट्रो में ये खुलासा करके बता दीजिये कि मै देश दुर्दशा पर ‘मौन-व्रत’ धारण किये हुए हूँ |बीच-बीच में मै हामी भरता रहूंगा..... आप मुझ पर फोकस कर सकते हैं |
वे अपनी टी आर पी को तुरंत भांप कर केल्कुलेट कर लिए और मेरे मौन का एक इंट्रो फटाफट बना डाला ...|.तो ये हैं अमुक जी ,देश की वर्त्तमान व्यवस्था से छुब्ध साहित्यकार .....अभी मौनव्रत धारे हैं| उन्होंने लिखित में बताया कि उनके सवालों के जवाब उनके पडौसी जो उनकी साहित्यिक यात्रा के निकटदृष्टा हैं ,देगे ....
हाँ तो यादव जी ,ये बताइये अमुक जी साहित्य सेवा में कब से आये ....?
मैंने कहा ,यही कोई आठ-दस बरस की उम्र रही होगी ....दरअसल जिस पाठशाला में हम लोग पढ़ा करते थे अमुक जी हमसे दो दर्जा आगे थे |तब पाठशालाओं में गणेशोत्स्व होता था |गुरुजी अपनी स्क्रिप्ट पर नाटक खिलवाते थे |अपने अमुक जी उनकी चार लाइनों पर एक दो अपनी घुसेड देते थे |अच्छी होने पर माट सा लोग, कुछ नही बोल पाते थे |प्रोत्सान मिलते गया |दसवीं क्लास में उनको किसी समाजी संगठन द्वारा,अंतर-स्कूली, निबन्ध प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिला |तब से वे निरंतर अनवरत साहित्यिक झुकाव वाले हो गए |शहर की काव्य गोष्ठियां ,कविसम्मेलन सब में छाए रहने लगे |
क्या उन्होंने आजीविका के लिए कोई नौकरी वगैरा की .....?
जहाँ तक मेरी जानकारी है, वे एक प्राइवेट कालेज में लाइब्रेरी में ‘बुक लिफ्टर’ बतौर रख लिए गए |वहां उन्हें एक फ़ायदा यह हुआ कि लाइब्रेरी की तमाम साहित्यिक पुस्तको को पढ़ डाला |प्रमचंद ,मुक्तिबोध,निराला ,प्रसाद ,चतुरसेन शास्त्री ,विमलमित्र आदि नामी लेखको की छाप उनके मानस-पटल पर अंकित होते गई .....|
उनके लिखने के अंदाज में, दिनों-दिन निखार आते गया |तभी कालेज की लाइब्रेरी छात्र हिसा की शिकार हुई, और आग के हवाले कर दी गई|यूँ उनके आर्थिक पहलू का सहारा-समापन हो गया |उनके पास ऊँची कोई डिग्री नहीं थी लिहाजा अन्य काम न मिल पाया ,मगर उनके लिखने में कमी नहीं आई वे लिखते रहे और समान पुरूस्कार पाते रहे |स्तिथी यूँ भी हुई कि कभी कालिज का पढाई के नाम पर मुह नहीं देखे,पर उनके लिखे को कोर्स बुक में रखा जाने लगा |
एंकर , क्या आज वे अपने सम्मान या मै कहूंगा सम्मानों को लौटाने का कदम ,जैसा की अन्य ख्यातिनाम साहित्यकार उठा रहे हैं,अमुक जी भी उठाएंगे .....?
देखिये पुरूस्कार के नाम पर जो भी उनको देय राशि मिली थी, एक भी न बची |यहाँ गुजर-बसर के लाले पड़े रहते हैं |कभी-कभी, मै जब दौरे पर चल देता हूँ, तो कहना अच्छा नहीं होगा ,इनके खाने के भी लाले पड जाते हैं|मैंने अमुक जी से इस बाबत बहुत ही अंतर्मुखी जीव पाया है ,वे खुल के अपने साहित्य के सिवा और कहीं मुखरित नहीं होते |मैंने प्रसंगवश पिछले हप्ते,इसी बात की चर्चा की थी| वे बोले थे , ये सब मेरे किस काम के हैं....? रद्दी में बेचूं तो भी हफ्ते भर का राशन नहीं आ पायेगा ,जिसे जहाँ लौटाना हो लौटा दो .मेरे पास तो इन्हें ले जाकर कहीं देने या लौटाने के लिए ऑटो लायक पैसे भी नहीं ....देख लो ....
इत्तिफाकन आज आप लोग आ गए .....|मै अमुक जी का मुख्त्यार, आपको उन्ही के सामने, ये टांड भर, रखा पुरूस्कार वापस लौटाता हूँ ...अमुक जी ने अपनी सहमती में गर्दन झुला कर हामी कह दी |कैमरा ज़ूम हो के कभी अमुक जी की हामी में झूलती गर्दन दिखाता तो भी पुरुस्कारों से भरे हुए टांड .की तरफ चल देता ....
मै चाहता था, एंकर मुझसे निजी तौर पर पूछता ....आपने अमुक जी इतनी सेवा की ....आप अमुक जी की मुफलिसी को, साहित्य बिरादरी में प्रचारित करके, उनकी सहायता के लिए कुछ किया क्यों नहीं ....?
मै ये कहने वाला होता कि अमुक जी अपने संकोच को, अपनी असुविधा को, अपनी फटेहाली को जीना बर्दाश्त कर लेते हैं वे सहायता के नाम पर असहाय हो के मागते हुए दिखना नहीं चाहते ....?उनकी खुद्दारी है की अगर उसकी कलम में कभी ताकत रही होगी तो शासन उसे स्वयं आँक के मेरे पास आयेगा ...|
वे अक्सर ,मेरी अकिचंन से भेट या चढावे को , कभी संकोच या कभी उलाहना के साथ ग्रहण करते रहे हैं |
सर्दी में ठिठुरते,गरमी में झुलसते ,बरसात में, चुहते हुए कोठारी में, इस कोने से उस कोने भीगते हुए उसे करीब से मैंने देखा है |कागज़ का कोई कोरा पुर्जा थमा दो वे अविस्मर्णीय कोई चीज लिख कर रख देते हैं|
उनके जैसे बुद्दिजीवी का क्षरण,सहनशील आदमी का ह्रास या निरपेक्ष जीव का तिल-तिल मौत के मुह की ओर समाज के द्वारा धकेला जाना,या उपेक्षित किया जाना मुझसे कतई बर्दाश्त नहीं होता |
सुशील यादव
साधू न ही सर्वत्र ....
जैसे हर पहाड़ में माणिक, हरेक गज के मस्तक मोती, हर जंगल में चन्दन का पेड़ नहीं मिलता, वैसे ही हर कहीं साधू मिल जाए, संभव नहीं है |
वे जो साधू होने का स्वांग रचते हैं, विशुद्ध बनिए या याचक के बीच के जीव होते हैं |साधू का अपना घर-बार नहीं होता|घर नहीं होता इसलिए वे कहीं भी, रमता-जोगी के रोल में पाए जाते हैं |’बार’ नहीं होता इसलिए वे पीने की, अपनी खुद की व्यवस्था पर डिपेंड रहते हैं|
टुच्चे साधू, कभी-कभी ,जजमान की कन्याओं को ‘बार-बाला’ दृष्टि से देहने की हिमाकत कर लेते हैं |अपनी निगाह में उनको चढाये-बिठाए रखने की लोलुपता में नहीं करने लायक कृत्य कर बैठते हैं |
साधू का राजनीति-करण हो जाए, तो बल्ले-बल्ले हो जाता है | शराब-माफिया ,ठेका-परमिट के खेल से पैसा पीटते इन्हें देर नहीं लगती|रातों-रात आश्रम की जमीन में भव्य-महल खडा हो जाता है |लग्जरी-कारों का काफिला .नेशनल परमिट की बसे. आश्रम के पास की नजूल जमीनों में खड़ी होने लगती हैं |
देने-वाला जब भी देता, पूरा छप्पर फाड़ के देता, वाली कहावत का पीटने वाला डंका इनके हत्थे लग जाता है |
सर्वत्र नहीं मिलाने वाले, साधू की तलाश में मै बरसों से हूँ |
जंगलों में ,पहाड़ों पर ,गुफाओं में सैकड़ो लीटर पेट्रोल फुक कर ढूढ़ डाला |जबरदस्ती, कई साधुनुमा चेहरों के सामने हथेली रख कर भविष्य पढवाया| वे लोग आम तौर पर एक कामन वाक्य बोलते रहे, बच्चा तू सबका भला करता है मगर तेरा भला सोचने वाला कोई नहीं है|तेरे मन में ऊपर वाले के प्रति बहुत आस्था है |तू खाते पीते घर का चिराग है |मुझे लगता ,मेरे कपडे व गाडी को देख के वे सहज अनुमान में कह देते रहे होंगे | तेरे पार धन वैभव की कोई कमी नहीं तू हर किसी के मदद के लिए अपने आसपास की जगह में जाना जाता है |मै उनसे कहता ,बाबा मै एक सच्चे साधू की तलाश में भटक रहा हूँ मेरी कोई मदद करो .....?वे कहते अब तू हमारी शरण में आ गया तेरी तलाश पूरी हुई भक्त जन |
मुझे कभी लगता था कि एकाध साधू ,किसी दिन मुझे हातिमताई- नुमा आदमी समझ कर निर्देशित करेगा कि बच्चा यहाँ से हजारों मील दूर, सात समुन्दर पार, एक ‘मुल्क ऐ अदम’ है ,वहां हजारों साल से एक योगी ध्यान लगाए बैठा है जो भी उसके पास फटकता है वह अपनी तीसरी आँख से जान लेता है और या तो उसे भस्म कर देता है या उससे रीझ कर, खुश हो कर, इस संसार के सभी एशो आराम से नवाज देता है...... |
इस अज्ञात साधू के वचन से एक साथ दो छवियाँ मेरे सामने हटात उभरती है ,एक ओसामा दूसरा बगदादी .....|दोनों पहुचे साधू जमात के बिरादरी वाले लगते हैं |इनकी ध्यान मुद्रा में खलल डालने का मतलब है खुद को भस्म हो जाने के लिए पेश कर देना |और इनके कृपापात्र बनने का, भगनान न करे कोई नौबत आये ....चाहे लाख सुख आराम वाले घर मिले या , एयर-कंडीशन शौचालय में, कल्पना की उड़ान का अपशिष्ट, त्याग करने की व्यापक सुविधा हो|
वैसे दोनों संत समुंदर-पार हजारों मील दूर रहते हैं |
मै ‘कल्पना-बाबा’ से देशी-उपाय, बाबत आग्रह करता हूँ |कोई देशी- टाइप साधू जिसकी पहुच,आत्मा-परमात्मा तक भले न हो कम से कम परलोक सुधारने का नुस्खा या टिप ही दे दे |
‘कल्पना बाबा’ ने गूगल स्रोत पर विश्वास किया और आजमाया |बहुत खोज-ढूढ़ के बाद एक, त्रिगुण नाथ शास्त्री नामक गेरुआ वस्त्र धारी का संक्षिप्त परिचय मिला,
वे तीन गुणों के कारक कहे-समझे जाते थे पहला गुण वे निरामिष, निराहार ज्यूस पर टिके होने का दवा करते थे |दूसरा लगातार पांच इलेक्शन लाखों-मत के अंतर से जीतते रहे |वे अनेकों बार मंत्रिपद ठुकरा चुके थे |उनके पास आदमी को पढने की दिव्य शक्ति थी |
ऐसे दिव्य पुरुष के नजदीक फटकने का कोई सीधा-सरल उपाय सूझते न देख, हमने पत्रकार वाला चोला पहना |इस देश में यही एक सुविधा है कि, जब चाहे आप अपनी सुविधा के अनुसार अपना डील-डौल ,हील-हवाले चुन -बदल सकते हो |
मै एक माइक लिए उनके सामने था |
शास्त्री जी ,आप गृहस्थ-साधू के रूप में जाने जाते हैं ,आपमें आदमी को पढने की दिव्य शक्ति है ,आप इलेक्सन कभी नहीं हारते .....इन सब का कारण क्या है .....?
देखिये श्रीमान ...! आपने बहुत सारे प्रश्नों को एक साथ रख दिया है ,मै एक-एक कर के उत्तर देने का प्रयास करूंगा ...
जहाँ तक ‘आदमी को पढने’ की बात है, मै ज्यादा तो कुछ दावा नहीं करता बस मीडिया वाले यूँ ही उछाले बैठे हैं ,वैसे आपको सामने पा कर लगता है कि आप बहुत दिनों से किसी ‘ख़ास-आदमी’ की तलाश में भटक रहे हैं |मेरा मनोविज्ञान कहता है की आपको इस मोह-माया वाले संसार से कुछ लेने-देने का मोह भंग हो गया है |जिस व्यक्ति या वस्तु की आप बरसों से तलाश कर रहे हैं, उसे विलुप्त हुए तो सदियाँ बीत गई |इस मायावी संसार में ,भगवान पर सच्ची आस्था रखने वालों की अचानक कमी हो गई है, बस मजीरा-घंटी पीटने-हिलाने वाले, कुछ लोग बच गए हैं |मेरा इशारा तुम समझ गए होगे .....?
मै चकित हुआ, चकराया ! एकबारगी लगा क्या घाघ आदमी है, मगर दुसरे ही पल अपने गलत सिचार को विराम दे, उनके प्रति श्रधा के कई सुमन अपने आप खिल आये |
वे आगे कहने लगे ,जहाँ तक इलेक्शन जीतने का सवाल है ,मै अपने इलेक्शन-सभाओं में विरोधियों की जमकर तारीफ करता हूँ ,इनकी एक -एक खूबियों को जनता को गिनवाता हूँ, उनसे आग्रह करता हूँ कि, मुझसे सक्षम उम्मीदवार, वे लोग ही हैं| कृपया आप उनको चुन-कर .जिता लाइए| वे आपका भला करंगे |अकारण सारे वोट मुझ पर आ गिरते हैं |
आज नाली-सडक बनवा देने मात्र से जनता खुश होने वाली नहीं उन्हें मानसिक सुकून की तलाश है, जो गुंडा-मवाली किस्म का कैंडिडेट नहीं दे सकता इसलिए उनका झुकाव मेरी तरफ आप ही आप हो जाता है|
रही बात, मेरे गृहस्थ-साधु-रूपी छवि की, तो बतला दूं मै सेवागाम में पहले, अपने पिता जी के साथ सेवा-टहल में लगा रहता था |वहां के संस्कारों की अमित छवि है | आचार्य जी का, रहना, उठाना, बैठना पास से देखा है, सो वही दिलो दिमाग में काबिज है |
मुझे लगा मेरी तलाश लगभग ख़त्म हो चुकी है ,एक सच्चा साधू जरूरी नहीं कि वन-कंदराओं में भटकता फिरे ....उससे ,वो ज्यादा सच्चा है जो दुनियादारी में फंसकर भी बेदाग़ निष्कलंक रहे |
सुशील यादव
अधर्मी लोगों का धर्म-संकट व्यंग,....... सुशील यादव ......
धर्म-संकट की घड़ी बहुत ही सात्विक, धार्मिक,अहिसावादी और कभी-कभी समाजवादी लोगों को आये-दिन आते रहती है |धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है |
यूँ तो मैंने अपने घर में केवल बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ |’
बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ,ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई | अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के करीब ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती |
मेरे जानकार लोग आ कर राय-मशवरा कर लेते हैं |
शर्मा जी ने कुत्ता पाला ,प्यार से उस दबंग का नाम ‘सल्लू’ रखा |दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि सलमान से भी तुलना किये जाने के काबिल था तो शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते |
रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते |उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के स्वत: हो गया था ,इस मजबूरी के चलते किसी ने उसे सलाह डी कि एरे गैरों पर लुटाने में बाद में वे लोग ज्यादा की इच्छा रखते हैं और खून –मर्डर तक करने से नहीं चूकते |बेहतर हो कि आप कोई मूक बेजुबान मगर गुराने भौकने वाल जीव कुत्ता पाल लो |इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज पाए जाते हैं |बी पी टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी होते हैं यी दावा विदेशों के खोजकर्ताओं ने अपनी रिपूर्त में दिए हैं |इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से सल्लू को खरीद लाये |कुत्ता ,डागी फिर सल्लू बनते बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर सेवारत है |
एक वे बाम्हन उपर से सल्लू की डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?
ये तो इस संकट की महज शुरुआत थी,उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज डबल मार करता था |
शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा अपने आँगन और लान तक सीमित रहेगा | मगर दागी कह देने मात्र से कुत्ते-लोग नस्ल विरासत को त्यागते नहीं| सूघने के माहिर होते हैं| उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता |शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले महराज ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही छापा दल की कार्यवाही होगी| वे सल्लू की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे |वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिद्काने का भाव जागृत करता,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद या ज्वेलरी को बिना देरी किये हटा लेते |शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सल्लू की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते |महाराज के बताये तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता |पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते| वे अपने क्लाइंट को महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात करने और लेन-देन का आग्रह करते|
शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है |शर्मा जी नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत सल्लू को भेजते |नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर श्रीवास्तव जी की लाइन में सल्लू को, सड़क किनारे निपटवा देते|श्रीवास्तव जी बहुत कोफ्ताते ,वे दबी जुबान नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते| वह मुहफट तपाक से कह देता कि सल्लू को गन्दी और केवल गंदी जगह में निपटने की आदत है| इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं नहीं है |सल्लू भी इस बात की हामी में गुर्रा देता |श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते |किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत बात, बॉस के कानो तक पहुचती तो वे आफिस में अलग गुर्राते |बाद में कंसोल भी करते कि,देखिये श्रीवास्तव जी आप तो जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते |श्रीवास्तव जी का ‘सल्लू’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था |
“सल्लू साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?
सल्लू की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते |कहते कि सल्लू अकेले बोर हो जाएगा |
सबेरे के वाक् में सल्लू और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से खीचते, नजर आती थी|
पता नहीं चलता था, कौन किसके कमाड में है ?
जब किसी पर ‘सल्लू’ गुर्राता, तो लोगों को शर्मा जी बाकायदा आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है |
वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?
वे दुविधा यानी धर्म-संकट में दिखे. ..|बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जारहे थे | मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?
वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...|मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं |किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है| तुमको पांच साल पहले, कुर्सी सौप के सेवा से निवृत हुए थे |
सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है |हमारा सल्लू १४-१५ साल का हो गया| सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था |हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है |अब बीमार सा रहता है |कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता |पैर में फाजिल हो गया है चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है |शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा आये |जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया |फ़ायदा नहीं दिखा |
मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे ,किसी सगे को केंसर हो गया हो| बस दिन गिनने की देर है |उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया | सल्लू के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते |आजकल वो नानवेज छूता नहीं |उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे नान वेज खाने लग गए थे| अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन हप्तो से नहीं बना |
एक तरह से,वेज खाते-खाते सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं |पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?मेरे सामने वफादारी का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था |
वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे| मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”
“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी .....?
ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में मैंने कहा ,शर्मा जी ,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हो”, उनको सोच के, परमात्मा से ‘सल्लू’ के लिए बस दुआ ही माग सकते हैं |
मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया | पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता सामने रखने को कहा |नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से आग्रह किया, कुछ खा लें | वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए |
महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये, शर्मा जी को सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था|वे फ्रोजन चिकन खरीद रहे थे| मुझे लगा वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सल्लू’ की तेरहीं भी कर डाली हो |
मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये,
बाहर निकल आया |
सुशील यादव
हम आपके ‘डील’ में रहते हैं....
सूर्य-पुत्र कर्ण के बाद, आपने दूसरा दानी देखा है ....?
वे एक लाख पच्चीस हजार करोड़ ,दान में दे आये ....|
बिना योजना के, बिना प्लानिग के, बिना आगा पीछा देखे, दान देने वाले बहुत कम लोग इस धरती पर अवतार लेते हैं |
एक गरीब राज्य की भूमिका बांधी गई, और उस भूमिका में, देने वाले को बहाना मिल गया |
हम लोग स्टेशन में किसी भिखारी को आते देख मुह फिरा लेते हैं| कहीं कुछ देना न पड जाए के भाव हमारे दिल में बरबस उतर आता है, और वे हैं कि, बुला के देते हैं ,बोलो कितना चाहिए ,दस ,बीस ,पचास ,सौ ....फिर नोट की पूरी गडडी पकड़ा देते हैं ....|लेने वाला एक बार भौचक्क हो के मुह निहारता है .कहीं पगला तो नही गया .....?
अरे भाई वे पगलाए नहीं हैं, बस खुश हैं .....|बीबी के अनिश्चित काल के लिए मायके जाने को सेलीब्रेट कर रहे हैं |ये उनके खुश होने का स्टाइल है..... भला आप क्या कर लेंगे ....?
किसी को अगर एक सौ पच्चीस लाख करोड़ को डीजीटली लिखने को कहा जाए तो बन्दा फेल हो जाएगा ,अंदाजन ये रकम १२५,०००,०००००००००० जितनी होगी ....आकडे गलत हो तो पाठक सुधार के पढ़ लें, काहे कि इतनी बड़ी रकम अपनी नजर से कभी गुजरी नहीं और न ही कभी गुजरेगी ?
दुबारा इतनी रकम के नहीं दिखने की वजह पूछो तो बताये ......?
वो ये है कि वहां उनके पुराने प्रतिद्वंदी खेमे का राज है जिन्होंने पांच करोड़ के दान को लौटा दिया था |उनके जी में आया ,पांच ठुकराने वाले ,ले एक सौ पच्चीस लाख करोड़ ले .....?जी भर के कुलाचे मार .....फिर न कहना कि देने वाले ने कजुसी की ...
इस रकम को आप दिल्ली से बिहार तक हाथ ठेले से, चुनावी रैली की शक्ल में भिजवायें तो ,इलेक्शन के खत्म होते तक का समय, जरुर लगेगा |याद रहे, यहाँ स्कुल में पढाये जाने वाले काम ,घंटा, समय, मजदूरी को केल्कुलेट करने के लिए इकानामिस्टों और गणितज्ञो की सलाह लेनी पड़ेगी|सेक्युरिटी का जबरदस्त बन्दोबस्त, बिहार होने के नाते करना पड़ेगा | खाली, इस रकम को भिजवाने में ही गरीबों,इकानामिस्टों,गणित ज्ञाताओ,सिक्युरिटी जवानो और चेनल के रिपोर्टर को अच्छा खासा ‘मंनरेगा जाब’ मुहय्या हो जाएगा |
एक अच्छे शासक की तूती, इतने जोरो से बोलेगी कि पार्टी फंड से,इलेक्शन जीतने के बाबत एक पैसा खर्च करने की नौबत ही न आये|
अपोजीशन को यह एक सीख है, देखो तुम खजाना लुटाना नहीं जानते |सात पुस्तों तक बैठे-बैठे खाएं, इस हिसाब से जोड़े रहते हो, कौन आके खायेगा ....?
इस्तेमाल करो ....का वर्षा जब कृषि सुखानी ......?
उधर मुझे रकम पाने वालो की भी फिक्र है|वे इतनी बड़ी रकम रखेंगे कहाँ ....?
देने वाला एक दिन हिसाब लेने आयेगा ....बताओ क्या किये ....?
तुम हमे वो पुल दिखाओगे ,ब्रिज दिखाओगे ,सरकारी इमारत दिखाओ जिसे कहते हो कि भेजे हुए पैसो से नया बनवाया है......?आप जोड़ घटा के भी खर्च न कर पाए....?रकम ज्यो की त्यों ९० परसेंट बची है ....?
तुम जनता में बुला बुला के सायकल ,लेपटाप ,लालटेन ,साडी ,घड़ी ,फ्री मोबाइल ,रिचार्ज ,फ्री वाईफाई बाटने का दावा करोगे .....?रकम फिर भी ८० परसेंट बची है .....|इतना किया तो भी ठीक ....जनता का पैसा ,जनता की जेब में गिरे,हमें कोई तकलीफ नहीं ....|
बाकी बचे पैसों के लिए, अभी मारकाट मचेगी|
हम आपके ‘डील’ में रहते हैं, के दावा करने वाले, सीधे दलाल स्ट्रीट से बोरिया बिस्तर समेट कर, बंटती हुई रेवड़ी हथियाने के चक्कर में दौड़ लगायेंगे |
यूँ लगता है ,वहां के लोग तो रेलवे रिजेवेशंन काउंटर की लाइन में, अब तक लग के धक्का मुक्की कर रहे होगे ?क्या दिल्ली ,क्या मुंबई, चेन्नई कलकात्ता ...सब जगह के बिहारी बन्धु जो खाने कमाने निकले रहे वापस बिहार लौटने की तैयारी में होंगे|
अच्छे दिन बाले भइय्या ने अच्छे दिन की शुरुआत बिहार से कर दी है,ये डुगडुगी ज़रा जोर से पिटवाओ |मगर इस बात की ताकीद जरुर कर लो कि रकम का भुगतान अवश्य होवे, वरना किसी ‘जुमले’ का बहाना लेकर, देने वाले की नीयत देर सबेर कब बदल जाए कह नहीं सकते |
इस रकम पर माफिया सरगनाओं की नजर भी टिकी रहेगी |
एक सौ पच्चीस करोड़ में पाए जाने वाले आर्यभट्टिय-जीरो को, जब तक वे, पीछे की तरफ से कुतर न लेवे, उनकी भूख शांत नहीं होने की ..... |
उनके बिजनेस में बहुत मंदी आ गई थी|जिसे किडनेप करो, एक रोना रोता था....... भाई बाप .सारा नम्बर दो का पैसा तो विदेशों में पडा है, लाने को मिल नहीं रहा तुम्हे क्या दें ...?हाँ ये एकाउंट नम्बर है ,वहां जा के सेफली, कुछ ला सको तो अपनी फिरौती काट के बाकी नगद हमें पकड़ा दो आपका एहसान रहेगा |उस डूबे पैसों से भागते भूत को लंगोटी और हमें पजामा जैसा , कुछ तो मिलेगा |
माफिया सरगना लोग केवल किडनेपिंग-फिरौती के बल ज़िंदा नहीं रहते |इसके अलावा, उनके दीगर ब्रांच, मसलन सरकारी ठेका उठाने या ठेका पाए ठेकेदारों को उठाने धमकाने का भी होता है |अब इतनी बड़ी रकम आ रही है तो काम के बड़े-बड़े दरवाजे खुलेंगे |छोटी-मोटी खिडकियों की धूल साफ करने के दिन बिदा होते दिख रहे हैं |
बिहार के कुत्ते भी उचक-उचक के एक दूसरे की बधाईयाँ दे रहे हैं|एक ने पूछा आदमी खुश हो रहे हैं ये तो समझ में आता है भाई ,तुम लोग क्यों जश्न मना रहे हो.....?एक मरियल सा कुत्ता, पूछने वाले की नादानी पर कहता है ,साफ है ,बिहार में बिजली की कमी थी ,नए प्रोजेक्ट में बिजली के तार खिचे जायेंगे ,तार खीचने के लिए खंभे गड़ेंगे ...और खंभों से हमारी एक नम्बर वाली सुलभ शौचालय की समस्या दूर होगी कि नहीं...... ?
सबने अपने-अपने जुगाड़ ढूढने शुरू कर दिए |चलो थोड़ा आम-आदमी से भी पूछ लें ....
क्यों भाई आम आदमी ......भाषण-वाषण सुने बा .....?
आम-आदमी में आजकल सियासी-खुजली भी पाई जाने लगी है |छूटते ही कह देता है ,ये सब चुनावी चोचले हैं ....साहब .|अपने दुश्मन नंबर एक को पटखनी देने के सियासी दावपेंच खेले जा रहे हैं बिहार को बीमारू कह-कह के वे चारागर बने फिरते हैं, नब्ज टटोल रहे हैं .......ये हम सब नइ जानते का .....?वे लाठी इतनी जोर से भांजना सीख गए हैं कि अगले की कमर ही तोड़ के रख दो ,जिन्दगी भर उठने न पाए.....|ये जनता को बिकाऊ समझने वाले लोग ,प्रलोभन का मायाजाल बिछा के,हमारा रेड कारपेट वेलकम करने की, तकनीक विदेशों से सीख-सीख आये हैं |
देक्खते हैं... कब मिलता है...कितना मिलता है ,.कहाँ और कैसे जाता है, इतना पैसा ......?
सुशील यादव
पुरूस्कार व्यथा
धिक्कार है सुशील ! ,लेखक जमात, अपने -अपने पुरूस्कार लौटा रहे है तेरे पास लौटाने के लिए कुछ भी नहीं है ....?
तुमने क्या ख़ाक लिखा..... जो साहित्य-बिरादरी में स्थापित नहीं हुए ?
तेरे लिखे पर पुरुस्स्कार देने वालो की नजर ही नहीं गई ...?कम से कम ,एक अदद छोटे-मोटे पुरूस्कार मिलने की गुंजाइश तो पैदा हुई होती ......?साहित्य-बिरादरी के, घुंघराले-बालों में ‘जूं’ तक नहीं रेंगी ...?लगता है, मिडिल-क्लास वाली वेशभूषा ,रहन-सहन, ने तेरी गति, झोला लटकाए, टपोरी-राइटर से आगे बढ़ने न दिया, वरना ‘तोड़ती-पत्थर’ के टक्कर का साहित्य तू ने भी, मंनरेगा में काम करने वाली अधेड़ औरत पर लिखा था। ’कुकुरमुत्ता’ के काव्य सौन्दर्य बोध ने, तेरे लिखे में भी अपना घर बनाया था। कालिदास माफिक, मेघों को तूने जेठ-बैसाख की तपती दोपहरिया में लाकर, मोहल्ले-पडौस की, सुगढ़-कन्याओं को अपने बारे में सोचने पर मजबूर किया था। पंच-परमेश्वर जैसी धांसू न्याय-प्रियता, तेरे साहित्य के इर्द-गिर्द हुआ करती थी। आलोचक को, कुछ कहते नहीं बनता था। तुमने ‘गोरे लाल आवारा’ के छद्म नाम से सडक -छाप साहित्य लिखने में अपनी जवानी के कुछ साल नहीं बिताये होते तो साहित्य के आकाशदीप बन के छा गए होते। तुझे ऍन गरीबी की मार उस वक्त झेलनी पड़ी जब तेरी कलम से आग उगलने का समय था। तुमने नई-कविता ,नई-कहानी को, पचास सौ बरस पहले लिख कर मानो कूड़े-करकट के बीच फेक दिया ,लोगो की तब, नई-चीजों को समझने की समझ ही पैदा नहीं हुई थी।
पुरूस्कार देने वालों की ‘पलटन’ भी बेचारे बेबस थे। वे तुझे टंच करते और एक कोने, जिसे साहित्य में ‘हाशिया’ कहते हैं डाल देते।
तुझे गर पुरूस्कार मिला होता तो,यही आज आड़े वक्त में सम्मान पाने का एक और मौक़ा दे जाता है.... तू उससे खासा वंचित है ,शर्म कर....।
मुझे अपने आप को धिक्कारने का, ज्यादा मौक़ा नहीं मिला ,नत्थू सामने आ बैठा। मैं बिना वजह खुद को, अखबार समेटते हुए, दिखाने की चेष्टा में ,अखबार सेंटर-टेबल में रखते हुए उसे बैठने का इशारा किया।
नत्थू के आने के बाद, अखबार पढने की जरूरत, वैसे भी नहीं रहती।
वो ‘कालम बाई कालम’,तीन-चार अखबारों का निचोड़ , जिसे नुक्कड़ के ग्रामीण ‘चा- समोसा’ सेंटर में, आधी-चाय की कीमत चुका कर पढ़ा होता है ,मुझे हुबहू , पूरा, किस्से -कहानियों की तरह सुना डालता है।
अगर चश्मे को ‘रिचार्जे’ करवाने की कोई बात रहती, तो नत्थू बदौलत, मेरे काफी पैसे जो अखबार पढने में जाया होते, बचा करते।
नत्थू का खबर वाचन ,स्वत: की त्वरित टिप्पणियों पर, मेरी सविस्तार व्याख्या की अपेक्षा में सदैव रहता।
कभी वो कालिख-कांड में कालिख पोतने वाले ‘कुपात्रजन’ की, व्याख्या करने लेने के बाद ,कालिख पुतने वाले के प्रति, सहानुभूति का प्रदर्शन करने लगाता तो कभी दिल्ली बिहार की सैर बेटिकट घर बैठे करवा देता।
वो पहले कालिख-पोतने की घटना को शर्मनाक,प्रजातंत्र पर प्रहार ,अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात आदि-आदि बोल के, मेरी ओर यूँ देखता, जैसे रंग का डिब्बा मै हाथ में लिए खड़ा हूँ .....। फिर अपनी बात में बेलेंस बनाने के लिए दूसरे पक्ष की ओर मुड़ जाता।
इंन दिनों नत्थू को प्राय: असमंजस की स्थिति में देखता हूँ। उसने कहा ,गुरुजी ये पडौसी मुल्क वाले भी गजब करते हैं ,मूली अपने मुल्क में उगा कर, बेचने इधर आ जाते हैं ,हवा खराब हो जाती है।
उधर हमारे जवान को बन्दूक की नोक में रखते हैं इधर लेखक-गवयै भेज कर सांस्कृतिक -चोचले की मरहम-पट्टी की बात करते हैं। अपना मुल्क ये सब सहेगा भला .....?
बिहार-चुनाव ,में क्या हो रहा है जानिये .....!जिनने महागठ्बन्धन का ठेका लिया था वो सीट बटवारे के फले दौर से ही उखड गया। वहां केम्पेन के दौरान चारा-किंग ,आरक्षण ,नरभक्षी ,विकास, बीमारू-राज,सरकारी-अनुदान, महादान ,जैसे जुमलों के बीच अचानक ‘धार्मिक पवित्र नानवेज’ जैसे मुद्दे उछल गए।
अपने तरफ एक लोकोक्ति है
“बाम्हन बाम्हन जात के, कुकरी पूजे रात के
कुकरी सिरा गे ,बाम्हन रसा गे “
ये नानवेज का मामला बस ऐसे ही दिखता है ,बाम्हन जो रात को मुर्गे को पका लेता है और किसी कारण उसे खाने से वंचित होना पड़ता है तो बाम्हन के ‘रिसा’ जाने से कोई नहीं रोक सकता।
अपना लोकतंत्र बाम्हन है। कब किस बात से रूठ जाए कह नहीं सकते। एक चिंगारी अगर जोरों से सुलग गई तो खतरा परमाणु विस्फोट के बराबर का होगा।
कुछ ने इस ‘नानवेज’ मसले पर बढ़-चढ़ के बोला तो किसी ने एकदम दम-साध लिया, कि अपन को बोलना ही नहीं है। उनके न बोलने के कई मतलब थे ,बड़ा मतलब सामने चुनाव से ताल्लुक रखे था।
जनता कहती है ,वे बड़-बोले हैं मगर लगाम कहाँ लगाना है, बखूबी जानते हैं।
नत्थू,देशव्यापी चर्चा को आगे बढाने के मूड में दिख रहा था।
मुझे बातों का गेयर बदलना अच्छे से आता है सो मैंने कहा ,नत्थू मैं लेखकों के सम्मान बाबत सोच रहा था। आये दिन पढ़ रहे हैं आज इस साहित्यकार ने अपना पुरूस्कार लौटाया कल उसने ...सिलसिला थम नहीं रहा है ?
राजनीतिग्य तबके में इसे आडंबर ,उथली वाह-वाही पाने का नाटक करार दिया जा रहा है। मैं सोचता हूँ उनके साथ नाइंसाफी है। वे किस विरोध में हैं पहले वो तो जानो .....?
सत्ता काबिजों को लगता है कि पिछली सरकार के ये ‘ढिंढोरची’ हैं। मगर एक पहलू ये है कि लेखक कितनी मेहनत के बाद ये सम्मान का हक़ पाता है उसे उसके सिवा कोई नहीं जानता। वह किसी उथले कारणों से अपने सम्मान को त्याग नहीं देगा ....?समझो वे अपनी जीवन भर की पूंजी को तज रहा है। सत्ता काबिजों को ये महज मखौल लगता है। तरह-तरह के तंज किये जा रहे हैं ,मशवरे दिए जा रहे हैं। उनका मानना है ,पानी सर से ऊपर अभी नहीं हुआ जा रहा है ......?
नत्थू ! आज बड़ी इच्छा हो रही है ,मै भी अपना सम्मान-पुरस्कार लौटा दूँ। इस अदने लेखक को, लिखने के शुरुआती दिनों में , किसी गाव के ‘सरपंच’ ने ,उसकी चाटुकारिता में लिखे चार-लाइन की बदौलत शाल-श्रीफल और एक सिक्के से नवाजा था।
नत्थू अब वो बुजुर्ग तो इस जहाँ से कूच कर गए हो .....?,पंचायत में ये जमा करवा देना और हाँ, अपने ‘हरिभूमि’ वाले पत्रकार बाबू को ये खबर जरुर कर देना।
अपोजीशन की होली ....
नत्थू,! इस देश में गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले चुनाव के बाद गहन सन्नाटा पसर गया है। होली जैसे हुडदंग वाले त्यौहार में रंग-भेद ,मन-भेद ,मतभेद की काली छाया कैसे आ गई? ज़रा विस्तार से बता।
सेक्युलर इंडिया के ढोल-नगाड़े किधर बिलम गए ?
घनश्याम ,ब्रज ,गोपी ,गोरियां जो होली के हप्ते भर पहले से रंग-अबीर से सराबोर हुआ करती थी,उनका क्या हुआ ?
अद्धी ,पव्वा,भंग की गोलियां ,भांग घोटने वाले सिद्ध पुरुष कहाँ लुढ़क गए ज़रा खोज खबर तो ले।
नत्थू उवाच ......।
महराज ,कलियुग आई गवा है ?का बताई ....?
जउन इलेक्शन की आप कही रहे हो ,हम इशारा समझत हैं ......।
तनिक लड़ियाने के बाद नत्थू ने हुलियारा-स्वांग को छोड़ कर सीधे-सीधे कहना यूँ आरंभ किया ;
इसी पिछले दो-तीन इलेक्शन ने गुड गोबर किया है।जनता ने गद्दी वालों को अपोजीशन और अपोजीशन वालो को गद्दी दे के कह दिया है , लो इस होली में पकवान की जगा गुड खाओ ,गोबर लगाव-लीपो बहुत कर लिए राज-काज ।
इनकी पार्टी आजादी के बाद से जो दुर्गति न कराई थी, सो हो गई।
हस्तिनापुर-कुरुक्षेत्र के पराजित योद्धा, मुह लटकाए खेमे में लौट गए हैं।
कहाँ तो वे लकदक लाव-लस्कर के साथ चलते थे ,सफेद वस्त्रों पर सिवाय होली के दिन के, कभी दाग न लगते थे।
इनकी पार्टी के कुछ लोग, वेलेंटाइन,न्यू इयर के दिन के,शुरू से दाग-दाग कपड़ों में धूमते नजर आने के आदी होते गए।
कुछ के कपड़ों में, दाग कहीं मलाई चाट के हाथ पोछने के थे ,कहीं वेळ इन टाइम काम करने के चक्कर में, किसी की पंचर हुई गाड़ी को धक्के लगाने के थे।
किसी-किसी के दामन ,इक्जाम पास कराने में, स्याही के बाटल खुद पर लुढकाऐ दिखे।सब अपने-अपने स्टाइल की होली साल भर अपनी मस्ती में मनाते रहे।
महाराज !सच्ची कहूँ ! जनता बड़ी चालाक हो गई है ,वे किसे कब कहाँ निपटाना है,लुढकाना है ,लतियाना है, बिलकुल उस ऊपर वाले की तरह जानती है ,जो हर किसी के सांस की डोरी या नथ अपने हाथ में लिए रहता है।
महराज ,हम जानते हैं आप उन दिनों की याद को मरते दम तक बिसरा नहीं पायेंगे, जब आप होली के हो-हुड़दंग से पहले,गाँव के बड़े-बुजुर्गों के पाँव छूने ,चंदन-अबीर का टीका लगाने निकल पड़ते थे।
हर घर से तर घी के मालपुए ,पुरी-कचौरीकी खुशबू उड़ा करती थी। बड़े मनुहार से परोसे-खिलाए जाते थे।
फिर दोस्तों के संग, भांग छानना-पीना,मस्ती की उमंगों में बहक-बहक जाना अलग मजा देता था। नगाड़े पीट-पीट कर जो फाग की स्वर लहरियां गुजती थी जो राह चलती कन्याओं पर फब्तियां की जाती थी .....”.पहिरे हरा रंग के सारी, वो लोटा वाली दोनों बहनी” सरा रा रा ररर .......
काय महाराज ! जवानी की छोटी लाइन वाली ट्रेन पकड़ लिए का ......?सुन रहे हैं ......?
नहीं नाथू ,तुम सुनाव अच्छा लग रहा है। ऐसा लग रहा है हम मनी-मन होलिका की लकडिया लूटने के लिए निकल पड़े हों।
नत्थू याद है, कैसे पंचू भाऊ को तंगाए थे, .होली चंदा देने में जो आना- कानी की थी ....। बेचारा अधबने मकान के सेंट्रिंग की लकड़ी की रखवाली में खाट लगाए सोया था,हम लोगो ने , खाट सहित उसे उठा लिया। ‘राम नाम सत’ बोलते जो उसे होलिका तक उठा लाए, बेचारा हडबडा के गिडगिडाते हुए दौड़ लगा दिया था।
महाराज जी! पंचू भाऊ की आत्मा को शान्ति मिले।
अब के बच्चे, ये जो स्कूलों में ‘मिड-डे मील’ खाने वाले हैं ,ऐसे हुडदंग करने करने की सोच भी नहीं सकते ?ऐसा ‘किक’ थ्रिल जो ‘होली’ बिना मांगे दे जाता था वो आज के किसी तीन-चार सौ करोड़ कमाने वाली मूवी न दे सकेगी।
हाँ नत्थू , ये अपोजीशन वाले होली-सोली मान मना रहे हैं या ठंडे पड गए,?पहले , इनके मोहल्ले से निकल भर जाओ रंग की हौदी-टंकी में डुबो कर हालत खराब कर देते थे। नाच गानों में, हिजड़े अपना रंग अलग जामाए रहते। सिर्फ इकलौते, अपने नेता जी बैंड-बाक्स ड्राईक्लीनर्स से धुली कलफ-दार झकास सफेद पैजाम-कुरता पहने टीका लगवा के पैर छूने वाले वोट बेंको को मजे से निहारा करते थे। किसी में हिम्मत न होती थी की सिवाय माथे के किसी और बाजू रंग-गुलाल लीपे-पोते।
महाराज,अपने तरफ की कहावत माफिक कि “तइहा के दिन बईहा लेगे’ (यानी पुराने अतीत को कोई पागल ले के चला गया) नेता जी के यहाँ, इस साल न तंबू गडा है,न डी जे वालो को कोई आर्डर गया है और न ही लंच डिनर मीठाई बनाने वाले बुलवाए गए हैं। उनके घर की कामवाली बाई कह रही थी,भूले-भटके मिलने-जुलने के नाम. आने वालों के लिए आधा किलो अबीर और दो तीन किली मिठाई मंगवा ली गई है बस।
और महाराज जी, ये भी खबर उड़ के आई है की नेता जी होली पर यहाँ रहे ही नहीं ,बहुत दिनों से काम से छुट्टी न मिली सो वे कहीं बाहर छुट्टियाँ बिता कर त्यौहार बाद लौटें ?
आप बताएं. होली शुभकामना वाले कार्ड पोस्ट कर दें या उनके वापस आने पर आप खुद मिलने जायंगे ?
सुशील यादव
नन्द लाल छेड़ गयो रे
उस जमाने में नंदलालों को छेड़ने के सिवा कोई काम नहीं था |सरकारी दफ्तर ही नहीं होते थे, जहाँ बेगारी कर ली जाए |अगर ये दफ्तर भी होते तो चैन की बंसी बजईय्या टाईप लोग, कुछ देर काम करते और ‘एक नम्बर’ के बहाने साहब को अर्जेंसी का वास्ता देकर, तालाब पोखर की तरफ खिसक लेते |उस ‘खुले शौच’ के जमाने में इतनी छूट तो मिल ही जाती थी |वे पनघट-ब्रांड लड़कियों को इशारे-विशारे करना खूब जानते थे | उन दिनों इत्मीनान इस बात का होता कि; किसी प्रकार के एक्ट का चलन नहीं था; सो खतरा भी बिलकुल नहीं होता था |एफ आई आर,, नाम की कोई चिड़िया खुले आकाश में दूर-दूर तक उड़ा नहीं करती थी |खाखी,-खद्दर वाले लोग भी किसी बात को ‘इशु’ बनानें के नाम पर ,गली-गली ‘मुद्दे’ सुघियाते नहीं फिरते थे| क्या मजे का जमाना था ......?
बाद के दिनों में ,खाखी, खद्दर, टोपी, झंडे ने देश की ‘वाट’ लगा दी....!
आपने इस ‘वाट’ को ‘जेम्स वाट’ की तरह, दिमागी रेल इंजन दौडाने के फिराक में, अब पकड़ ही लिया, तो तफसील भी जानिये |
ये आपका बुनियादी ,प्रजातंत्रीय हक़ भी है, कि जिसने ‘वाट’ कहा है उसे वह एक्सप्लेन भी करे|
‘वाट’ को इधर मै छोटे-मोटे उठाईगिरी टाईप के लफड़ों में इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो राजनीति के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा बन गया है मसलन ,|नेता वादा करके वादाखिलाफी न करे ,’खाखी’ अगर माँ बहनों वाली डिक्शनरी न खोले ,’टोपी’ अगर झांसा न दे ,’झंडे’ को कोई लाठी के बतौर, उसे उठाने वाला, चलाना न जाने तो आजकल प्रजातंत्र के पाए डगमगाए से लगते हैं |’बड़े वाट’ पर बात करने का जमाना ,दिन-बादर हैं नहीं |मुफ्लिसिये पर दस करोड़ की मानहानि वाली बिजली गिर गई तो, अपना कुनबा ही साफ हो जाएगा... ?
नब्बू एक दिन मायूस सा आया |भइय्या जी मजा नहीं आ रहा है .....|उसके इस कथन के पीछे मुझे किसी नए किस्म की खुराफात के पर्दाफाश होने का आभास, छटी इन्द्रिय के मार्फत , तुरन्त हुआ सा लगा |मैंने खीचने के अंदाज में कहा, जिन्दगी के ‘तिरसठ -पूस’ ठंडाये रहे, तुम्हे भुर्री तापते कभी न देखा आज कौन सी आफत आ गई जो कंडा सकेलने निकल गए .... बोलो .....?
भइय्या जी, बात ये है कि आजकल की राजनीति में दम नहीं है | हम रोज अखबार पढ़ते हैं ,आप भी देखे होंगे ....न छीन झपट,न जूतम पैजार .... न किसी के अन्गदिया पैर उखाड़े जाते ,न एक दूसरों की सरे आम वस्त्र उतारने की बात होती |सब सन्नाटे में बीत जाता है |अपने मुनिस्पेलटी इलेक्शन में ही देखो लोग खड़े हुए, न झगड़े न सर-गला कटा|कोई पेटी उठाने का दम भरते नहीं दिख पाता |किसी जमाने का वो सीन भी याद है जब मवाली, कोठे में नोट लुटाने की तर्ज और स्टाइल में, बेलेट को धडाधड छापता और कह देता, बता देना ‘छेनू’ आया था|छेनू नाम का सिक्का चला के जीत-हार हो जाती थी |मतदाता को दस-बीस जो मिल जाता ,उसे वह पाच सालाना बोनस बतौर स्वीकार कर लेता |कोई शिकायत या उलाहना देने की नौबत कब आती थी ? वैसे भी उन दिनों पानी लोग कम इस्तेमाल करते थे ,शौच-नहाना-धोना तालाब किनारे हो जाता था इस वजह घरों में पानी बहने बहाने या नाली की समस्या न थी |बच्चों को स्कूल में इतना पढ़ा दिया जाता कि रात को उनको सबक-होमवर्क करने की जरुरत न पड़ती थी, इसलिए बिजली की भी दरकार नहीं थी| नेता की चरण-पूजाई का स्कोप कम या नहीं के लगभग था |उन्हें कोई हारे या जीते से सारोकार नहीं होता था |
नब्बू ने आगे बताया ,भइय्या खबर है, अपने धासु बेनर्जी जो बड़े डाइरेक्टरों में गिना जाता है, अपने मिस्टर आजीवन कुआरे कन्हईया को लेकर पुरानी और नई तहजीब पर फ़िल्म बना रहे हैं |पांच हजार साल पहले की याददाश्त अपने हीरो को दिला बैठे हैं |उसका दिल नदी नालों पोखरों के आसपास मंडराते रहता है|हर नदी में फ्लेश्बेक है|रईस बाप हर कीमत पर अपने बेटे को इस फ्लेश्बेकिया बीमारी से निजात दिलाने के लिए उसके मुरादों वाली सीन एक्ट्रेस लंगोटिया कामेडियन सेट बनवा के रखता है, किसी ने उसे सुझाया यूँ तो आप पैसा पानी की तरह बहा ही रहे हैं तो क्यों न इसे शूट करके साउथ डब वाली फ़िल्म की शकल दे दी जाए |रईस को सुझाव उम्दा लगा सो पहले उसके बीमार लड़के के शौक का रिह्ल्सल होता है फिर उसी सेट में आजीवन कुआरा फिट हो जाते |
“कंकरिया मार के जगाया’ इस गाने के बोल फिल्माने के लिए बुलडोजर से कई किलोमीटर कांक्रीट रास्ते को उखाड़ कर, बजरी-पत्थर-कंकर डाले गए|हीरो ने एक कंकर उठा के मटकी फोडी सब निशाने की वाह-वाह में लग गए |हिरोइन इसी पलो की याद में, फूटे-मटके पर सर रख के अपने सोये(प्रेम में अज्ञानी) होने का प्रलाप कर रही है |
इंटर तक, पाच हजार पुराने मटका फोडू को तत्व-ज्ञान मिल जाता है |अक्सर ये अचानक बिना साइंटिफिक रीजन के तत्व-ज्ञान मिलाने वाला अक्षम्य-अपराध अनेकों फिल्मी-स्क्रिप्ट की जान है और बाक्स आफिस में हजार करोड़ कमाने का नुस्खा भी है अत: किसी के पापी पेट को लात न मारते हुए आगे बढ़ते हैं|
मटका फोडू हीरो, पहले मटका-किंग फिर बाद में, बाप की अंडर वर्ड वाली रियासत को सम्हालता है | उसे घेरे रहने वाले उसे किग-मेकर बा जाने की सलाह दे डालते हैं, जिसे पूरी तन्मयता के साथ वो निभाता है |डाइरेक्टर उसे ग़रीबों के साथ हंसना-खेलना सिखलाने के लिए विदेश ले जाता है |किसी के घर मातम में कौन सा मुखौटा होना चाहिये, इसकी बाकायदा तालीम दिलवाता है |भाषण के बीच लोगों से प्रश्न क्या पूछे कि, जवाब ‘हाँ’ में निकले,कब बाह चढा कर भाषण में अपनी भुजा दिखाना है, इन छोटी-छोटी हरकतों पर गौर करने को कहता है |
‘नन्दलाल’ जिसे आधुनिक हीरो बनाया अपनी पुरानी यादों को अचानक संसद में ताजी कर लेता है |बड़े-बड़े सांसदों मंत्री-मंत्राणी, किसी को नहीं छोड़ता |सबकी मटकी में उसे माखन होने का संदेह रहता है |मलाई खाते हुए वे लोग जो अब तालाब पोखर की ओर आना भूल गए उनके लिए वो खुद इन्साफ का कंकर लिए छेदने-छेड़ने के लिए तैयार दिखता है |
इति फ़िल्म पटकथा समाप्त |डाइरेक्टर, राइटर, हीरो हजार करोड़ की उम्मीद में |कुछ अति उत्साही आस्कर में ले जाने के लिए फार्म भी खरीदे लाये है |भगवान जाने आगे क्या हो ....?
नब्बू की बेसिरपैर की कथा का विस्तार, अगले एपीसोड में फिर कभी ...तब तक आप सेफ रहें ......
सुशील यादव
कहानी ........ सुशील यादव ,,,,एक चिता अचानक ......
पता नहीं किस टेलीपेथी से, बरसों बाद मै अपने पुराने पुश्तैनी मकान की तरफ चला गया, जिसे बरसों पहले बेचकर, हम भाई लोग अलग-अलग शहर में अपनी सुविधानुसार बस गए थे|
पुराने इलाके के, टपोरी होटल में चाय पीने की तलब और पुराने लोगों से कुछ मेल-मुलाक़ात हो जाए, इस मकसद से गया | खपरैल के छप्पर वाले होटल की जगह,कंक्रीट छत के नीचे , दो कमरे का कस्बा-नुमा बिना प्लास्टर का , गोडपारा का मराखन होटल आज भी उसी नाम से जाना जाता है|
तकरीबन सब नए नये चहरे दिखे, जो बीस-पच्चीस साल पहले पैदा हुए, नई पीढी के पौध लग रहे थे | इन सब को शायद मै पहली बार देख रहा था | वे लोग मुझे अजनबी जैसी निगाह में कनखियों से देख रहे थे| मेरी निगाह किसी पर ठहरती इससे पहले ,किसी कोने में बैठे , थोड़े से बुजुर्ग जैसे शख्स ने मेरे बचपन के नाम से पुकारा ,कैसे अनिल ,बहुत दिन बाद दिखे ....?बस मुझे बैठने का ठिकाना मिल गया |उससे बतियाने का ,पुराने मोहल्ले की भूली-बिसरी यादों को ताजा करने का मुझे मौक़ा मिल गया |एक-एक लोगों के घर-परिवार की लंबी तहकीकात मैंने शुरू कर दी| उस होटल में ताजा बने समोसे ,भजिये के दो-दो प्लेट आर्डर कर बैसाखू के सामने परसवा दिया |वो मुझे आश्चर्य मिश्रित झिझकती नजर से देखने लगा|उसकी झिझक को शांत करते हुए मैंने कहा सब तुम्हारे लिए है ,मै तो एक आध खा पाउँगा |हाँ यहाँ की चाय तब गजब की होती थी वही पीने रुक गया था |पता नहीं ये नए लोग अब वैसा बना पाते हैं या नहीं ?
दो स्पेशल चाय बनाने को बोला,चाय के काउंटर में बैठे नौजवान से मुखातिब होकर बताया तुम लोग मुझे नहीं पहचानते होगे |ये पीछे ठेठवार गली में हम लोगों का पुश्तैनी मकान होता था |समझ लो इस होटल में मेट्रिक-कालेज पढ़ते तक घंटों चाय पीने का मजमा दोस्तों के साथ लगाए रहते थे|तुम्हारे बाबूजी हम लोगो को बहुत उधारी देते थे |
मैंने बैसाखू से पूछा क्या बात है ,इस मोहल्ले में अब पहले जैसी रौनक नहीं रही ?कहाँ तो...... इस चबूतरे पर, पासा खेलते लोग ,उस पर दर्शकों की भीड़ ,हल्लागुल्ला,किसी कोने में सटोरियों की अलग चौपाल ,शाम को टुन्न होकर गरियाते लोगों के,मा- बहनों वाले अंतहीन संवाद |सब अभी जी रहे हैं या.......?
बैसाखू ने कहा ,किया बताएं बाबू सा ,पहले जैसी मस्ती तो, आजकल के ये लड़के कहाँ पायेंगे ? लोग,.... उस जमाने में कम कमाते थे, मगर जीते शान से थे ?
किसी भी तीज त्यौहार में जिस गली से गुजर लो, अच्छे-अच्छे पकवानों की देशी खुशबु आती थी |
‘पुलिस-सक्ती’ करने लायक अपराध होते नहीं थे......., तो पुलिस भी झाकती न थी|
देर रात के बारह-एक बजे तक बड़े धूम से होटल चालु रहता था |सट्टे के ‘क्लोसिंग नम्बर’ जो बाढ़ बजे खुलते थे , सुनने वाले उताव्लियों से मोहल्ला गुलजार होता था |
‘मुण्डा-मुछड’,जानते हैं न आप ....? हाँ हाँ ...टकलू को अच्छे से जानता था ,क्या बेदम पीता था बाप रे ......|वही, क्लोस का नबर, फर्राटे से साइकिल में चिल्लाते निकलता था दो सौ चालीस .....छक्का.......उस स्टाइल की नकल आज तक कोई नहीं कर पाया | संयोग देखिये जिस दिन उसका हजार रूपये का आकडा फंसा, उसी दिन जगह-जगह, ज्यादा पी के मर गया|
वैसे बाबू सा......!,अच्छा हुआ आप लोग इस मुहल्ले से निकल लिए |ये मुहल्ला आज भी किसी घर के बच्चों पर, अच्छे संस्कार पड़ने नहीं देता |चपरासी की नौकरी से आगे कोई निकल ही नहीं पाता |पता नही क्या अभिशाप है इधर.........? सुना है आपके बच्चे विदेश में हैं ....? हाँ बैसाखू ,तुमने सही सुना है ,बच्चो को विदेश में नौकरी मिल गई,वे लोग निकल गए |बाबू आप लोग बच्चों को, इतनी दूर भेजने की हिम्मत कैसे कर लेते हो |हम लोग तो बच्चे के ससुराल से वापिस आने तक में उपर-नीचे होते रहते हैं|
मैंने कहा, आजकल मोबाइल-कम्प्यूटर का जमाना है ,रोज हालचाल जान लेते हैं,और क्या चाहिए ?उन लोगो को खुश जानकार तसल्ली हो जाती है | मैंने कहा और सुनाओ .....?
मैंने गौर किया कि, उसकी निगाह होटल के दीवार-घड़ी की ओर कनखियों से गई ,मैंने पूछा ,कहीं जल्दी है क्या ....?
वो झेपते हुए बोला ,अभी मंगली भैया....खैर .....आप नहीं जानते होंगे शायद ,पंचानबे साल की उम्र में, कल रात ख़तम हो गए |इस मोहल्ले के सबसे बुजुर्ग में से थे |उनकी ‘काठी’(अंत्येष्टि) में जाना था .....|
मेरा मुह खुला का खुला रह गया ....!
मंगली दादा...... , जिसे वो सोचता था मै नहीं जानता,इनको पता नहीं मै कितने करीब से जानता था उन्हें |मैंने होटल में बिल देकर बैसाखू से कहा चलो मै भी श्मशान चलता हूँ |उसे अपनी कार ने बिठा के, श्मशान की तरफ निकल चला |पांच किलो मीटर के फासले को, अनगिनत यादों के साथ बैसाखू के साथ शेयर करते रहा |
बैसाखू ,मैंने मंगली दादा को हमेशा खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट में देखा है |हम लोग यहाँ से जब दूसरे शहर शिफ्ट हुए , तब तक वे मुनिस्पेलटी की चौथे दर्जे की नौकरी से रिटायर हो गए थे |अभी जिस होटल में बैठे थे, उसी के करीब उनका खपरैल वाला कच्चा मगर साफ सुथरा लिपा पुता घर होता था |उसकी ड्यूटी, सन साठ के दशक में, जब इस शहर में बिजली की लाइन नहीं खिची थी ,जगह- जगह, सात-आठ फीट के लेम्प-पोस्ट पर, लेम्प को जला कर रखने की होती थी |
इस काम में मगर, उसे दोपहर से मशगूल हो जाना पड़ता था |उसके जिम्मे पच्चीस लेम्प पोस्ट होते थे ,हम लोगो की उम्र सात-आठ साल की रही होगी, हमें उसे काम करते देखें में आनन्द आता था |स्कूल से छूटते ही हम कुछ बच्चे उसके घर पहुच जाते |उसे बीती रात ,लेम्प के काच में लगे कालिख को बड़े सावधानी से साफ करते देखते |वे इस नफासत से एक-एक दाग धब्बों को रगड़ कर साफ करते कि, लेम्प जलाने के बाद, काच लग जाए तो रोशनी दस-गुनी अधिक लगती थी |वे बार- बार हम लोगो को लेम्प के कांच, और मिटटी तेल की कुप्पी से दूर रहने की हिदायत देते रहते |
वो हममे से किसी एक को , एक लेम्प के जल जाने के बाद,बहुत हिदायत से ,दो फीट की लकड़ी के डंडे के एक सिरे में, मिटटी तेल में भिगोये कपड़े को जलाकर छोटा मशाल पकड़ा देते |हमे बारी-बारी से सभी लेम्प्स को जलाने की कहते |
इस श्रेय को लेने की, हम सब बच्चो में होड़ रहती |वे दर्याफ्त कर लेते, कि कल किसने ,परसों किसने जलाया था ,फिर अगले नये को मौक़ा देते |
उस जमाने में, पन्द्रह-वाट के बल्ब जितनी रौशनी के लेम्प का , बीस-पच्चीस के समूह में एक साथ देखना,नजारा ही कुछ और होता था..... और अपना मजा अलग ही देता था |
शाम के छ या गरमी के दिनों में सात बजे तक उनको हरेक लेम्प पोस्ट में लेम्प रखना होता था |
वे एक कंधे में छोटी हलकी सीढ़ी, और दूसरे कंधे में कांवर जिसके दोनों पासंग, बांस की बनी बड़े परातनुमा टोकरी होती थी,जगमगाते लेम्प को लिए चलते देखना तो मानो लोगों को अचंभित कर देता था |आने-जाने वाले रूककर या कहे कि उस ख़ास नजारे को देखने की कवायद में गली-गली जमा हुए रहते थे |हम बच्चों का भी शगल था, कि उसके पांच-दस लेम्प पोस्ट तक उनका साथ दें |
हम लोग चलते-चलते तरह-तरह के सवाल करते, मसलन कि ये कब तक जलता है ?सुबह बुझाने कौन आता है ?इसे इकठ्ठा कौन वापस ले कर जाता है ?
वो किस्से-कहानी मिलाकर, हम लोगों को बताता कि, कैसे पिछली रात उस नुक्कड़ पर भूत- प्रेत से पाला पड गया था |बमुश्किल जान बचा कर भागा |एक लेम्प का कांच तभी टूट पड़ी |प्रमाण में वो टूटा कांच दिखा देता |हम लोगों की अन्धेरा घिरते देख हिम्मत नहीं होती कि उसके पूरे लेम्प – पोस्ट में लेम्प रखने में आगे साथ दें | हम झुण्ड में घरों की तरफ दौड़ लगा के, भाग निकलते|
परीक्षा के दिनों में, हमने अपने बड़े भाइयों को इन्ही लेम्प पोस्ट से लेम्प को उतारकर फट्टी बिछा के पढ़ते देखा है |या कहे कि ‘मगली दादा’ की सद्भावना के चलते बड़े भाइयों ने मेट्रिक बड़े आराम से निकाल लिया |वे पढने वाले लड़कों को कुछ न कह के एक तरह से अपनी ‘सहमति’ के सर हिलाये रहते |
बैसाखू ! मेरी बातों को किस्से-कहानी की तरह मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था |मंगली दादा के इस गुण का बखान उसने आज से पहिले कभी से नहीं सूना था, कारण कि बैसाखू ने पाचवी से आगे की पढ़ाई की नहीं थी,और न ही उसे लेम्प-पोस्ट से लेम्प उतारने की जरूरत पड़ी थी |
श्मशान पहुचते ही, रास्ते में ली हुई माला और पीताम्बरी जमीन में रखी उसकी अर्थी पर श्रद्धा से अर्पित किया |
परिवार जन, मोहल्ले के जमा लोग मुझे हैरत से देख रहे थे| श्मशान के एक कोने में, उसकी वर्दी, वही खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट फिकी पड़ी थी | लाश को चिता पर रख दिया गया था |
उसका कोई नजदीकी, आग को हाथ में लिए परिक्रमा कर रहा था तभी न जाने मुझे क्यों लगा ‘मंगली दादा’ मुझसे कह रहे हो, अनिल ,आज तेरी बारी है चल झटपट सब लेम्प को मशाल ले के जला तो दे......?
मै फूट-फूट कर रो पडा ..... सुशील यादव २५/९/१५
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