Thursday 23 February 2017

सवाल जो मुझसे नहीं पूछे गए .....

सवाल जो मुझसे नहीं पूछे गए .....

अच्छा हुआ ! मुझे किसी ने कोई पुरूस्कार से नहीं नवाजा ....|पुरूस्कार मिलता तो उस कहावत माफिक चोट लगती ,”बेटा न हो तो एक दुःख ,हो के मर जाए तो सौ दुख,और हो के निक्कमा,नकारा निकल जाए तो दुखों का अंबार नहीं” |
अपन इस आखिरी वाले बेटे की सोचें ,यदि पुरूस्कार मिला होता तो आज की परिस्तितियों में उसे वापस लौटाने की नैतिक या सामाजिक दायित्व के बोध से आत्मा में धिक्कार पैदा होती ....... लौटा ! .....लौटा ....! इस दुनिया में क्या ले के आया था ,नश्वर जहाँ से क्या ले के जाएगा .......जो सम्मान तुझे मिला था, वो तेरे अतीत के अनुभव का निचोड़ था ,आज वर्तमान में चारों ओर धर्म कुचला जा रहा है, विचारवानो की वाणी में ताले-जड़ने का उपक्रम हो रहा है ,समाज के कुलीन चेहरों पर कालिख मली जा रही है और तू है, कि तोले भर के सिक्के-नुमा पदक को  टाँगे फिर रहा है ....जिस दस बाई पन्द्रह के कांच वाले  फ्रेम में तेरे किये के, कशीदे कहे गए हैं उसमे अपनी पत्नी का फोटो जड़ दे |दीवार को साफ सुथरा रख ,आने-जाने वाले को जिस शान से उस फेम को पढवाता था उसके दिन लद गए |
    तकाजा है,जब-तक पुरूस्कार के तमगे को गले से उतार नहीं देता, गले में कुछ फांसी-जैसा चुभता महसूस  करता रहेगा |
अक्सर मुझे ये ख़्वाब आता है कि ‘अमुक जी’ के घर पत्रकार का छापा दल, टी वी वेन के साथ आ धमका  है  |
सी आई डी के खुरापाती ‘दया’ की लात से अमुक जी का कमजोर फाटक  धराशायी हुआ पडा है |अमुक जी दुबके से, सहमे हुए कोने में कंपकपा रहे हैं |अमुक जी के साथ ,सवालों की बौछार का, लाइव टेलीकास्ट किया जाने वाला  है |
“ये हैं अपने शहर के मशहूर साहित्यकार, अमुक जी ,इन्होने साहित्य जमात  में वही  मुकाम हासिल किया है, जो मुकाम शोले के भारी भरकम लेखको ने मिलकर हासिल किया था ,जी हाँ आप सलीम-जावेद का नाम कैसे भूल सकते हैं |उनकी लिखी कई पटकथाएं पुरूस्कार पाने के रिकार्ड तोड़ डाली हैं |हमारे अमुक जी इनसे कुछ मम नहीं ,इनको इतने पुरुस्कारों के बावजूद, आज आप जिस हाल में देख रहे हैं वो इनके पब्लिशर की देन है|वे इनकी रायल्टी नहीं चुकाते |कुछ इनकी रचनाओं के पूरे अधिकार मात्र चंद रुपयों में खरीदकर, भारी मुनाफा कमाए बैठे हैं |देखिये ,....हमारे अमुक जी के कमरे का पूरा ‘टांड’ पुरुस्कारों-ट्राफियों से अटा पड़ा है |मै केमरामेन को कहूंगा ज़रा इस टांड पर ज़ूम करे|
कौतूहलवश अमुक जी के घर में पहुचा ,अमुक जी , मुझे देखकर अपनी घबराहट से निजात पाए हुए दिखे |उनका मेरी तरफ देखना बिलकुल वैसा ही था जैसे पुलिस किसी निरपराध को सीखचों के हवाले कर दे तब कोई परिचित का दिख जाना यूँ लगता है की जमानत का इन्तिजाम हुआ ही समझो ...? एंकर की पैतरेबाजी शुरू हुई
अमुक जी इतने पुरुस्कारों को इकट्ठा करने में आपको कितने साल लगे ......?
मुझे पहले प्रश्न से ही एतराज हुआ मैंने इशारा किया ,वे कैमरा को ‘पाश मोड़’ में रख के घूरे, .... ये बीच में टोकने वाला कहाँ से आया ....?
अमुक जी ने परिचय करवाया ,यादव जी ! ....अपने अभिन्न पडौसी एवं मेरी रचनाओं के पहले पाठक हुआ करते हैं, लिहाजा मेरी पूरी साहित्यिक यात्रा के ये हमसफर हैं, जान लो....?बेहतर है आप  मेरे से पूछे जाने वाले सवालों का जवाब इन्ही से ले लेवे ...|आप इंट्रो में ये खुलासा करके बता दीजिये कि मै देश दुर्दशा  पर  ‘मौन-व्रत’ धारण किये हुए  हूँ |बीच-बीच में मै हामी भरता रहूंगा..... आप मुझ पर फोकस कर सकते हैं |
वे अपनी टी आर पी को तुरंत भांप कर  केल्कुलेट कर लिए और मेरे मौन का एक इंट्रो फटाफट बना डाला ...|.तो ये हैं अमुक जी ,देश की वर्त्तमान व्यवस्था से छुब्ध साहित्यकार  .....अभी मौनव्रत धारे हैं| उन्होंने लिखित में बताया कि उनके सवालों के जवाब उनके पडौसी जो उनकी साहित्यिक यात्रा  के  निकटदृष्टा हैं ,देगे ....
हाँ तो यादव जी ,ये बताइये अमुक जी साहित्य सेवा में कब से आये ....?
मैंने कहा ,यही कोई आठ-दस  बरस की उम्र रही  होगी ....दरअसल जिस पाठशाला में हम लोग पढ़ा करते थे अमुक जी हमसे दो दर्जा आगे थे |तब पाठशालाओं में गणेशोत्स्व होता था |गुरुजी अपनी स्क्रिप्ट पर नाटक खिलवाते थे |अपने अमुक जी उनकी चार लाइनों पर एक दो अपनी घुसेड देते थे |अच्छी होने पर माट सा लोग, कुछ नही बोल पाते थे |प्रोत्सान मिलते गया |दसवीं  क्लास में उनको किसी समाजी संगठन द्वारा,अंतर-स्कूली,  निबन्ध प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिला |तब से वे निरंतर अनवरत साहित्यिक झुकाव वाले हो गए |शहर की काव्य गोष्ठियां ,कविसम्मेलन सब में छाए रहने लगे |
क्या उन्होंने आजीविका के लिए कोई नौकरी वगैरा की .....?
जहाँ तक मेरी जानकारी है, वे एक प्राइवेट  कालेज में लाइब्रेरी में ‘बुक लिफ्टर’ बतौर रख लिए गए |वहां उन्हें एक फ़ायदा यह हुआ कि लाइब्रेरी की तमाम साहित्यिक पुस्तको को पढ़ डाला |प्रमचंद ,मुक्तिबोध,निराला ,प्रसाद ,चतुरसेन शास्त्री ,विमलमित्र आदि नामी लेखको की छाप उनके मानस-पटल पर अंकित होते गई .....|
उनके लिखने के अंदाज में, दिनों-दिन निखार आते गया |तभी कालेज की लाइब्रेरी छात्र हिसा की शिकार हुई, और आग के हवाले कर दी गई|यूँ उनके आर्थिक पहलू का सहारा-समापन हो गया |उनके पास ऊँची कोई डिग्री नहीं थी लिहाजा अन्य काम न मिल पाया ,मगर उनके लिखने में कमी नहीं आई वे लिखते रहे और समान पुरूस्कार पाते रहे |स्तिथी यूँ भी हुई कि कभी कालिज का पढाई के नाम पर  मुह नहीं देखे,पर उनके लिखे को कोर्स बुक में रखा जाने लगा |
एंकर , क्या आज वे अपने सम्मान या मै कहूंगा सम्मानों को लौटाने का कदम ,जैसा की अन्य ख्यातिनाम साहित्यकार उठा रहे हैं,अमुक जी भी  उठाएंगे .....?
देखिये पुरूस्कार के नाम पर जो भी उनको देय राशि मिली थी, एक भी न बची |यहाँ गुजर-बसर के लाले पड़े रहते हैं |कभी-कभी, मै जब दौरे पर चल देता हूँ, तो कहना अच्छा नहीं होगा ,इनके खाने के भी  लाले पड जाते हैं|मैंने अमुक जी से इस बाबत बहुत ही अंतर्मुखी जीव पाया है ,वे खुल के अपने साहित्य के सिवा और कहीं मुखरित नहीं होते |मैंने प्रसंगवश    पिछले हप्ते,इसी बात की  चर्चा की थी| वे बोले थे , ये सब मेरे किस काम के हैं....? रद्दी में बेचूं तो भी हफ्ते भर का राशन नहीं आ पायेगा ,जिसे जहाँ लौटाना हो लौटा दो .मेरे पास  तो इन्हें ले जाकर कहीं देने या लौटाने के लिए ऑटो लायक पैसे भी नहीं ....देख लो ....
इत्तिफाकन आज आप लोग आ गए .....|मै अमुक जी का मुख्त्यार, आपको उन्ही के सामने, ये टांड भर, रखा पुरूस्कार वापस लौटाता हूँ ...अमुक जी ने अपनी सहमती में गर्दन झुला कर हामी कह दी |कैमरा ज़ूम हो के कभी अमुक जी की हामी में झूलती गर्दन दिखाता तो भी पुरुस्कारों से भरे हुए  टांड .की तरफ चल देता ....
मै चाहता था, एंकर मुझसे निजी तौर पर  पूछता ....आपने अमुक जी इतनी सेवा की ....आप अमुक जी की मुफलिसी को, साहित्य बिरादरी में प्रचारित करके, उनकी सहायता के  लिए कुछ किया क्यों नहीं ....?
मै ये कहने वाला होता कि अमुक जी अपने संकोच को, अपनी असुविधा को, अपनी फटेहाली को जीना बर्दाश्त कर लेते हैं वे सहायता के नाम पर असहाय हो के  मागते हुए दिखना नहीं चाहते ....?उनकी खुद्दारी है की अगर उसकी कलम में कभी ताकत रही होगी तो शासन उसे स्वयं आँक के मेरे पास आयेगा ...|
वे अक्सर ,मेरी अकिचंन से भेट या चढावे को , कभी संकोच या कभी उलाहना के साथ ग्रहण करते रहे हैं |
सर्दी में  ठिठुरते,गरमी में झुलसते ,बरसात में, चुहते हुए कोठारी में, इस कोने से उस कोने भीगते हुए उसे करीब से मैंने देखा है |कागज़ का कोई कोरा पुर्जा थमा दो वे अविस्मर्णीय कोई चीज लिख कर रख देते हैं|  
उनके जैसे बुद्दिजीवी का क्षरण,सहनशील आदमी का ह्रास या निरपेक्ष जीव का  तिल-तिल मौत के मुह की ओर  समाज के द्वारा  धकेला जाना,या उपेक्षित किया जाना  मुझसे कतई बर्दाश्त नहीं होता |                      
सुशील यादव


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