कहानी ........ सुशील यादव
,,,,एक चिता अचानक ......
पता नहीं किस टेलीपेथी से, बरसों बाद मै अपने पुराने पुश्तैनी मकान की तरफ चला गया, जिसे बरसों पहले बेचकर, हम भाई लोग अलग-अलग शहर में अपनी सुविधानुसार बस गए थे|
पुराने इलाके के, टपोरी होटल में चाय पीने की तलब और पुराने लोगों से कुछ मेल-मुलाक़ात हो जाए, इस मकसद से गया | खपरैल के छप्पर वाले होटल की जगह,कंक्रीट छत के नीचे , दो कमरे का कस्बा-नुमा बिना प्लास्टर का , गोडपारा का मराखन होटल आज भी उसी नाम से जाना जाता है|
तकरीबन सब नए नये चहरे दिखे, जो बीस-पच्चीस साल पहले पैदा हुए, नई पीढी के पौध लग रहे थे | इन सब को शायद मै पहली बार देख रहा था | वे लोग मुझे अजनबी जैसी निगाह में कनखियों से देख रहे थे| मेरी निगाह किसी पर ठहरती इससे पहले ,किसी कोने में बैठे , थोड़े से बुजुर्ग जैसे शख्स ने मेरे बचपन के नाम से पुकारा ,कैसे अनिल ,बहुत दिन बाद दिखे ....?बस मुझे बैठने का ठिकाना मिल गया |उससे बतियाने का ,पुराने मोहल्ले की भूली-बिसरी यादों को ताजा करने का मुझे मौक़ा मिल गया |एक-एक लोगों के घर-परिवार की लंबी तहकीकात मैंने शुरू कर दी| उस होटल में ताजा बने समोसे ,भजिये के दो-दो प्लेट आर्डर कर बैसाखू के सामने परसवा दिया |वो मुझे आश्चर्य मिश्रित झिझकती नजर से देखने लगा|उसकी झिझक को शांत करते हुए मैंने कहा सब तुम्हारे लिए है ,मै तो एक आध खा पाउँगा |हाँ यहाँ की चाय तब गजब की होती थी वही पीने रुक गया था |पता नहीं ये नए लोग अब वैसा बना पाते हैं या नहीं ?
दो स्पेशल चाय बनाने को बोला,चाय के काउंटर में बैठे नौजवान से मुखातिब होकर बताया तुम लोग मुझे नहीं पहचानते होगे |ये पीछे ठेठवार गली में हम लोगों का पुश्तैनी मकान होता था |समझ लो इस होटल में मेट्रिक-कालेज पढ़ते तक घंटों चाय पीने का मजमा दोस्तों के साथ लगाए रहते थे|तुम्हारे बाबूजी हम लोगो को बहुत उधारी देते थे |
मैंने बैसाखू से पूछा क्या बात है ,इस मोहल्ले में अब पहले जैसी रौनक नहीं रही ?कहाँ तो...... इस चबूतरे पर, पासा खेलते लोग ,उस पर दर्शकों की भीड़ ,हल्लागुल्ला,किसी कोने में सटोरियों की अलग चौपाल ,शाम को टुन्न होकर गरियाते लोगों के,मा- बहनों वाले अंतहीन संवाद |सब अभी जी रहे हैं या.......?
बैसाखू ने कहा ,किया बताएं बाबू सा ,पहले जैसी मस्ती तो, आजकल के ये लड़के कहाँ पायेंगे ? लोग,.... उस जमाने में कम कमाते थे, मगर जीते शान से थे ?
किसी भी तीज त्यौहार में जिस गली से गुजर लो, अच्छे-अच्छे पकवानों की देशी खुशबु आती थी |
‘पुलिस-सक्ती’ करने लायक अपराध होते नहीं थे......., तो पुलिस भी झाकती न थी|
देर रात के बारह-एक बजे तक बड़े धूम से होटल चालु रहता था |सट्टे के ‘क्लोसिंग नम्बर’ जो बाढ़ बजे खुलते थे , सुनने वाले उताव्लियों से मोहल्ला गुलजार होता था |
‘मुण्डा-मुछड’,जानते हैं न आप ....? हाँ हाँ ...टकलू को अच्छे से जानता था ,क्या बेदम पीता था बाप रे ......|वही, क्लोस का नबर, फर्राटे से साइकिल में चिल्लाते निकलता था दो सौ चालीस .....छक्का.......उस स्टाइल की नकल आज तक कोई नहीं कर पाया | संयोग देखिये जिस दिन उसका हजार रूपये का आकडा फंसा, उसी दिन जगह-जगह, ज्यादा पी के मर गया|
वैसे बाबू सा......!,अच्छा हुआ आप लोग इस मुहल्ले से निकल लिए |ये मुहल्ला आज भी किसी घर के बच्चों पर, अच्छे संस्कार पड़ने नहीं देता |चपरासी की नौकरी से आगे कोई निकल ही नहीं पाता |पता नही क्या अभिशाप है इधर.........? सुना है आपके बच्चे विदेश में हैं ....? हाँ बैसाखू ,तुमने सही सुना है ,बच्चो को विदेश में नौकरी मिल गई,वे लोग निकल गए |बाबू आप लोग बच्चों को, इतनी दूर भेजने की हिम्मत कैसे कर लेते हो |हम लोग तो बच्चे के ससुराल से वापिस आने तक में उपर-नीचे होते रहते हैं|
मैंने कहा, आजकल मोबाइल-कम्प्यूटर का जमाना है ,रोज हालचाल जान लेते हैं,और क्या चाहिए ?उन लोगो को खुश जानकार तसल्ली हो जाती है | मैंने कहा और सुनाओ .....?
मैंने गौर किया कि, उसकी निगाह होटल के दीवार-घड़ी की ओर कनखियों से गई ,मैंने पूछा ,कहीं जल्दी है क्या ....?
वो झेपते हुए बोला ,अभी मंगली भैया....खैर .....आप नहीं जानते होंगे शायद ,पंचानबे साल की उम्र में, कल रात ख़तम हो गए |इस मोहल्ले के सबसे बुजुर्ग में से थे |उनकी ‘काठी’(अंत्येष्टि) में जाना था .....|
मेरा मुह खुला का खुला रह गया ....!
मंगली दादा...... , जिसे वो सोचता था मै नहीं जानता,इनको पता नहीं मै कितने करीब से जानता था उन्हें |मैंने होटल में बिल देकर बैसाखू से कहा चलो मै भी श्मशान चलता हूँ |उसे अपनी कार ने बिठा के, श्मशान की तरफ निकल चला |पांच किलो मीटर के फासले को, अनगिनत यादों के साथ बैसाखू के साथ शेयर करते रहा |
बैसाखू ,मैंने मंगली दादा को हमेशा खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट में देखा है |हम लोग यहाँ से जब दूसरे शहर शिफ्ट हुए , तब तक वे मुनिस्पेलटी की चौथे दर्जे की नौकरी से रिटायर हो गए थे |अभी जिस होटल में बैठे थे, उसी के करीब उनका खपरैल वाला कच्चा मगर साफ सुथरा लिपा पुता घर होता था |उसकी ड्यूटी, सन साठ के दशक में, जब इस शहर में बिजली की लाइन नहीं खिची थी ,जगह- जगह, सात-आठ फीट के लेम्प-पोस्ट पर, लेम्प को जला कर रखने की होती थी |
इस काम में मगर, उसे दोपहर से मशगूल हो जाना पड़ता था |उसके जिम्मे पच्चीस लेम्प पोस्ट होते थे ,हम लोगो की उम्र सात-आठ साल की रही होगी, हमें उसे काम करते देखें में आनन्द आता था |स्कूल से छूटते ही हम कुछ बच्चे उसके घर पहुच जाते |उसे बीती रात ,लेम्प के काच में लगे कालिख को बड़े सावधानी से साफ करते देखते |वे इस नफासत से एक-एक दाग धब्बों को रगड़ कर साफ करते कि, लेम्प जलाने के बाद, काच लग जाए तो रोशनी दस-गुनी अधिक लगती थी |वे बार- बार हम लोगो को लेम्प के कांच, और मिटटी तेल की कुप्पी से दूर रहने की हिदायत देते रहते |
वो हममे से किसी एक को , एक लेम्प के जल जाने के बाद,बहुत हिदायत से ,दो फीट की लकड़ी के डंडे के एक सिरे में, मिटटी तेल में भिगोये कपड़े को जलाकर छोटा मशाल पकड़ा देते |हमे बारी-बारी से सभी लेम्प्स को जलाने की कहते |
इस श्रेय को लेने की, हम सब बच्चो में होड़ रहती |वे दर्याफ्त कर लेते, कि कल किसने ,परसों किसने जलाया था ,फिर अगले नये को मौक़ा देते |
उस जमाने में, पन्द्रह-वाट के बल्ब जितनी रौशनी के लेम्प का , बीस-पच्चीस के समूह में एक साथ देखना,नजारा ही कुछ और होता था..... और अपना मजा अलग ही देता था |
शाम के छ या गरमी के दिनों में सात बजे तक उनको हरेक लेम्प पोस्ट में लेम्प रखना होता था |
वे एक कंधे में छोटी हलकी सीढ़ी, और दूसरे कंधे में कांवर जिसके दोनों पासंग, बांस की बनी बड़े परातनुमा टोकरी होती थी,जगमगाते लेम्प को लिए चलते देखना तो मानो लोगों को अचंभित कर देता था |आने-जाने वाले रूककर या कहे कि उस ख़ास नजारे को देखने की कवायद में गली-गली जमा हुए रहते थे |हम बच्चों का भी शगल था, कि उसके पांच-दस लेम्प पोस्ट तक उनका साथ दें |
हम लोग चलते-चलते तरह-तरह के सवाल करते, मसलन कि ये कब तक जलता है ?सुबह बुझाने कौन आता है ?इसे इकठ्ठा कौन वापस ले कर जाता है ?
वो किस्से-कहानी मिलाकर, हम लोगों को बताता कि, कैसे पिछली रात उस नुक्कड़ पर भूत- प्रेत से पाला पड गया था |बमुश्किल जान बचा कर भागा |एक लेम्प का कांच तभी टूट पड़ी |प्रमाण में वो टूटा कांच दिखा देता |हम लोगों की अन्धेरा घिरते देख हिम्मत नहीं होती कि उसके पूरे लेम्प – पोस्ट में लेम्प रखने में आगे साथ दें | हम झुण्ड में घरों की तरफ दौड़ लगा के, भाग निकलते|
परीक्षा के दिनों में, हमने अपने बड़े भाइयों को इन्ही लेम्प पोस्ट से लेम्प को उतारकर फट्टी बिछा के पढ़ते देखा है |या कहे कि ‘मगली दादा’ की सद्भावना के चलते बड़े भाइयों ने मेट्रिक बड़े आराम से निकाल लिया |वे पढने वाले लड़कों को कुछ न कह के एक तरह से अपनी ‘सहमति’ के सर हिलाये रहते |
बैसाखू ! मेरी बातों को किस्से-कहानी की तरह मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था |मंगली दादा के इस गुण का बखान उसने आज से पहिले कभी से नहीं सूना था, कारण कि बैसाखू ने पाचवी से आगे की पढ़ाई की नहीं थी,और न ही उसे लेम्प-पोस्ट से लेम्प उतारने की जरूरत पड़ी थी |
श्मशान पहुचते ही, रास्ते में ली हुई माला और पीताम्बरी जमीन में रखी उसकी अर्थी पर श्रद्धा से अर्पित किया |
परिवार जन, मोहल्ले के जमा लोग मुझे हैरत से देख रहे थे| श्मशान के एक कोने में, उसकी वर्दी, वही खाकी हाफ-पेंट और बुश्शर्ट फिकी पड़ी थी | लाश को चिता पर रख दिया गया था |
उसका कोई नजदीकी, आग को हाथ में लिए परिक्रमा कर रहा था तभी न जाने मुझे क्यों लगा ‘मंगली दादा’ मुझसे कह रहे हो, अनिल ,आज तेरी बारी है चल झटपट सब लेम्प को मशाल ले के जला तो दे......?
मै फूट-फूट कर रो पडा ..... सुशील यादव २५/९/१५