Tuesday 20 August 2013

पीर पराई जान रे ...



वैष्णव जन तो तेने कहिए,जो पीर-पराई जाने रे ...
पर दुखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न माने रे ...
वो ज़माना हमारे देखे हुए सतयुग यानी गांधी बाबा के समय का था |
‘पराई-पीर’ जबरदस्त हुआ करती थी,सताए हुए लोग होते थे ,तो उनकी बेचैनी को पीड़ा को समझने वाले लोग भी हुआ करते थे |डाक्टर किसी मरीज को देख के आए  तो रत भर सो नहीं पाटा था |वकील मुकदमा  हर जाए तो सजा उसे खुद को मिल गई हो ऐसा महसूस करता था |एक के घर में मातम हुआ तो उन दिनों क्रियाकर्म होते तक पूरे मोहल्ले में चूल्हा नहीं जलता था |
अब तो ये हाल है कि कोई मारता हुआ दिख जाए तो लोग कन्नी काट के चल देते हैं |कौन बेकार पुलिस –कछेरी के चक्कर में पड़े ?कुछ जाने बच सकती है पर बचाई नहीं जाती |कोई हिम्मत से ले भी  जाए तो अस्पताल में डाक्टर तत्परता दिखाने में दिलचस्पी कहाँ लेते हैं?वे वहीं पुलिस-कछेरी के फेर में पडकर ,पुलिस के आने का इंतिजार करवा देते हैं | 
‘पराई-पीर’ को जानने के लिए आजकल  एन .जी, ओ. बनाने का फैशन शुरू हो गया है |आपरेशन पराई पीर  आजकल कमाई का नया सेक्टर बन के उभर रहा है |
श्रीवास्तव जी पहले ऐसे न थे |सब की मदद के लिए हाजिर रहते थे |बच्चे का स्कूल में एडमिशन हो ,बिजली का बिल ज्यादा आ जाए या बैंक में ड्राफ्ट बनवाना हो ,किसी को कालिज ,हास्पिटल आना-जाना हो, सब का बुलावा श्रीवास्तव जी के लिए होता था |
 वो समय मोबाइल का नहीं था , हास्पिटल से बिजली आफीस ,फिर कालेज और न जाने कहाँ –कहाँ उसे अपना  पेट्रोल जलाना पडता |वो सबकी पीर हरने में अपनी काबलियत का लोहा मनवा लिए थे |
उनका कहना था कि आदमी किसी की मदद करे इससे अच्छी बात क्या होगी?
मदद करते-करते वे अपना बजट बिगाड़ लेते थे |दो जोडी हाफ बुश-शर्ट,एक चलने-चलाने लायक स्कूटर ,घर में मामूली सा क्लर्क की हैसियत वाला फर्नीचर-क्राकरी बस|
बीबी के ताने सुन के अनसुना कर देना उनकी दिन-चर्या में अनिवार्यत: शामिल सा हो गया था |
  मदद का जुनून इस हद तक कि ,बीबी की बुखार से ज्यादा पडौसी की छीक उसे परेशान करती थी |
ऐसे मददगार ,सर्व-सुलभ आदमी की भला जरुरत किसे नही होती ?
सो उसकी मदद के लिए लोग मंडराने लगे | वे उसके मार्फत ऍन जी ओ बनाने का प्लान बनाने लगे |प्रथम- दृष्टिया,साफ सुथरी छवि जो ऍन जी ओ चलाने के काबिल हो ,वो श्रीवास्तव जी में विद्यमान थी |
सलाह देने में माहिर विशेषज्ञ की फौज ,फार्मूला ,प्लान ,रोडमेप के नाम से न जाने क्या –क्या उनको परोसने लगे |
उन्हें ये बतलाने में कतई चूक नही किए कि अपना समय –धन और श्रम को व्यर्थ न जाने दो |पराई –पीर को समझना ,दूर करना बहुत  हो गया|
माहिरों ने, ये बात श्रीवास्तव जी के दिमाग में ठूस-ठूस के घुसेड दिया कि तुम्हारे पास ‘सदकाम’का एक ब्लेंक चेक है |
लोगों का तुमपे विश्वास है |तुम्हारे जन-हित कार्यों से जनता प्रभावित है |तुम्हारी बातों में वजन है |तुम्हारी  सलाह से बेटे-बेटीयो के रिश्ते तय हो रहे हैं |तुम कुछ नया तो  करो |
दुःख-भंजक श्रीवस्तव् जी हाड़ –मांस के बने थे वे  हामी भ्रर गए | 
उनके हामी भरते ही , लोगो ने झंडू –बाम मलहम नुमा, एक ‘पीड़ा-हर्ता’ लेबल का ऍन .जी.,ओ रजिस्टर करवा लिया |
मदद के बड़े –बड़े दावे किए जाने लगे |
ला-ईलाज बीमारी से  ग्रस्त लोगों को जगह-जगह ढूँढा जाने लगा |
अपाहिजो को पैर,बैसाखी,ट्राइसिकल बाटे जाने लगे |
अन्धों को आँखे मिलने लगी|गरीबो-दुखियों की नय्या पार लगने की ओर रूख करने लगी |
एन जी ओ पर दानियो के रहम और  सरकार की मेहरबानी के चलते अंधाधुंध पैसों की बारिश होने लगी |
श्रीवास्तव जी के पैरों तले की जमीन के नीचे अब मार्बल,टाइल्स या कालीन के अलावा कुछ नही होता |स्कूटर का ज़माना कब का लद गया|कब कबाडी के हवाले गया ,पता नहीं ?
एयर-कंडीशन महंगी गाड़ियों से नीचे चलने में उनको अटपटा सा लगने लगा  |
अब वे बीबी की छींक पड जाए तो घर से नहीं निकलते ,भले ही पडौसी का कहीं  दम निकल रहा होवे  |
पराई-पीर के ईलाज में , देखते-देखते उनने बेवक्त अपना बुढापा बेवजह जल्दी बुला लिया ऐसा इन दिनों वे सोचने लगे हैं|
फिर ये सोच कर कि ऐसा खुशहाल बुढापा भगवान  सब को दे,वे खुश हो लेते हैं |
अखबार में छपी त्रासदी भरी उत्तराखंड की खबर को वे मोड कर एक तरफ रख देते हैं |

सुशील यादव 

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