Tuesday 20 August 2013

सन्मार्ग में चलने की सलाह


जितनी मेरी उमर है लगभग उतने सालों से (चलिए ,दो एक कम कर लीजिए) मै चलने-चलाने के नाम पर एक ही रिकार्ड सुनते आया हूँ ,सन्मार्ग में चलो ,सन्मार्ग में चलो |
सन्मार्ग क्या होता है, शुरू-शुरू में मै समझा भी नहीं करता था|
सन्मार्ग के नाम पर शहर कि गलियों के ख़ाक छानता कि किसी एक रास्ते में इस नाम का बोर्ड लिखा होगा |मगर वो बात बचपन की नासमझी के सिवा कुछ न था |
हाँ ,साफ–सुथरी गलियाँ, शहर के सिविल लाइन इलाके में दिख जाती|यहां शहर के सभ्रांत–जनो का निवास हुआ करता था |थोड़ा –बहुत इसे ही सन्मार्ग-टाइप समझ के, रोज एक चक्कर मार लिया करता |
इस चक्कर मारने के चक्कर में,सिविल लाइन्स के हर एक घर के नेमप्लेट,वहा रहने वालो के केरेक्टर -कुत्तों  को जानने लग गया था |   
जब कुछ बड़ा हुआ तो ये लगने लगा कि जिस रास्ते पर मै चल रहा हूँ वो किसी मायने में सन्मार्ग है ही नहीं  |केवल साफ सुथरे रास्ते को सन्मार्ग का पर्यायवाची मान लेना सरासर गलत था |
जैसे-जैसे  समझ बढ़ी हर राह  गलत लाने लगा  , यूँ महसूस होता कि हर रास्ता झूठा है , मिथ्या है ,शार्टकट  है| वो रास्ता जो आसान है, इसलिए भले ही किसी नाम से जाना जाए , सन्मार्ग–रोड जैसे नाम का  ‘टायटल-याप्ता’ हो नहीं सकता |
उन दिनों स्वयं से ये तर्क भी करता था कि  शायद कठिन रास्तों  को सन्मार्ग माना जाता होगा ?
सब लोगों के चलने वाला सहज राह, कभी सन्मार्ग नहीं हो सकता |ये किताबी ज्ञान, सामान्य-जन के माफिक  मन में भी जिस रस्ते आया उसका अंत मैंने किसी मंदिर के चौखट में होते देखा |
मैंने ये मह्सूस किया कि ,इक्का-दुक्का जिस पगडंडी को इस जिद से पकड़ लें, कि चलो कहीं तो जा के रास्ता खुलेगा,या वे जो अक्सर, दाढ़ी के चार –छ:-दस  इंच बढने तक,  फकत घूमते रहते हैं ,अपने –आप सन्मार्गी की श्रेणी में ले आते हैं |
मैंने ऐसा कभी, न देखा न सुना कि अमुक सन्मार्गी हुए और उधर  ही मर –खप गए |
नहीं,सभी सन्मार्गी ,बदले हुए छोले में  वापस आते हैं |
वे अपना चेला बनाते हैं  |
अपने गुरुत्व के गुरुत्वाकर्षण का बोध कराते हैं |
वे अब  सम्मान पाने के लिए , जुलूस में भाग लेने के लिए, ‘अगुवा टाइप’ प्रमुख ,सम्माननीय   बन गए होते हैं|
वे बने हुए मंच पर, ज्ञान का पिटारा खोलने के उस्ताद -माहिर हो गए होते हैं|
वे गुमे हुए कुत्ते से लेकर ,गड़े हुए धन का पता शर्तिया बता देने का दावा करते हैं |
वे आइन्सटाइन के ‘प्रकाश की गति’ से भी तेज गति से लोगो को ‘ब्रम्हान्ड’ की परिक्रमा करवा देते हैं |हर विज्ञान की पकड़ इन्ही के पास होती है|वे केंसर ,टी.बी.हार्ट, लंग, लीव्हर के पारखी होते हैं |इनके इलाज से मरीजो को स्वस्थ होते सुना जाता है |
  लोग सन्मार्गी बनाए जाते हैं ,ऐसी मेरी धारणा थी  |ये भी सोचता था कि सन्मार्ग धारण करने में पाँव में कंकर –कांटे चुभते हैं ,यहाँ शोर्टकट वाला कोई फार्मूला नहीं होता|
ऐसे महा-अवतारीयों के इंटरव्यू पढने- सुनने के लिए मै अक्सर ,मेक्जीन-टी.व्ही खंगालते रहता हूँ |
स्कुल के दिनों से मै उत्पाती किस्म का था|बस्ता फ़ेंक के सीधे खेलने  बच्चो के बीच जा घुसता |
हमें खिलाव, नहीं तो खेल बिगाड़ देंगे वाले तर्ज पर, अड जाते |हमे अड़ा देख, वे मजबूरन हमें, किसी दाम देने वाले, पाले की तरफ धकिया देते |
पिताजी को हमारे उछल-कूद की ,दिन–भर की रिपोर्ट जाने कहाँ से मिल जाया करती, वे मेरे भविष्य को लेकर चिंतित दीखते |अम्मा के कहने पर, कि इनके कदम बहक रहे हैं ,मुझे अच्छे से अच्छा जूता ला के देते, कि चलो ,बेटा अच्छी संगत में अच्छे रास्ते चल निकलेगा |
मै उन जूतों को पहन के हप्ते –भर बाद मंदिर जाता और बिना जुते  के वापस लौटना पडता,क्योकि  कोई न कोई अच्छे जुते देख के अपना पैर घुसा ही  दिया होता ?
साम्यवाद का तडका कहीं भीतर लगा था, सब साथ के बच्चे या तो नंगे पैर या स्लीपर –चप्पल वाले थे,उनके बीच मै मिस-फिट हो जाउंगा? ये अटपटापन कहाँ चल पाएगा ?इस इच्छा के चलते जुते  गंवाने का अफसोस कभी हुआ हो ऐसा नहीं लगा|सो अच्छी तरह ,आदत ही नहीं बनी, जूता पहन के चलने की |
बिना जुता ‘पहने-खाए’ आदमी  की औकात पता नहीं लगती ?अच्छे जुते पहने हैं, तो बड़े आदमी-अफसर हो सकने का गुमान होता है|ज्यादा जूते खाए हों तो आपके दुरुस्त हाजमे,अच्छी  सहन शक्ति और पहुचे हुए ‘भाई’ होने का बयान किसी से पूछना नहीं पडता |
    हमारे बगैर जूतों के पैर ,हवाई चप्पल में अपना इम्प्रेशन कभी नहीं छोड़ पाई है , अक्सर शापिंग –माल  ,सिविल –लाइंसऔर राजपथ में ,  धकिया दिए जाते हैं |
किसी भी इंटरव्यु में हमारे  दो-चार नम्बर,जूता-विहीन असंस्कृत,असभ्यता के नाम पर ,यूं ही कट जाते रहे |
बिना जूतों के ,मानो हम, बीच में फंसे त्रिशंकू हो गए|
कभी-कभी ये मलाल होता है कि पिताजी के दिए ‘जूतों’ को सर-माथे लगा के पहन लिए होते तो अवश्य ही  कहीं, साहिबी कर रहे होते |
अगर जुता परहेजी ही थे ,तो कम से कम ,चप्पल भी नहीं पहनते , नंगे  पैर किसी पगडंडी पकड के घूम –घाम के लौट आए होते, तो यकीनन आज  एक सन्मार्गी  दढियल सिद्ध-पुरुष होते |
इस  हालत में, कम से कम इतनी तो क्षमता होती कि, देश को सन्मार्ग की पटरी पर लाने का भुलावा देकर किसी ‘मरणासन्न-पार्टी’,को कुछ वोट बटोर के दे पाते ?
सुशील यादव

वड़ोदरा

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