Tuesday, 20 August 2013

पक्के उसूल वाले



मुझे उन लोगों से बहुत डर लगता है ,जो उसूल के पक्के होते हैं |ये वो लोग होते हैं जो हर काम नियत समय , नियत तरीके से, निश्चित रूप से करते हैं |पीछे हटने का सवाल नहीं होता |
ये राजनीति में घुसना इनके बस की बात नही |इनका कहना होता है कि ‘राजनीति और उसूल’ दो ध्रुव हैं ,रेल की दो पटरियां हैं  जो आपस में कभी मिला नहीं करती |
                  ये समय के पाबन्द होते हैं|आफिस समय से पहुचना ,वहाँ का काम वहीं निपटाना इन्हें बखूबी आता है|
लंच टाइम के बीच में या आफिस टाइम के बाद ,लाख सर पटक लो, ये टस के मस नहीं होते|
आपका कैसा भी जरूरी काम हो अगले काम वाले दिन के लिए, टल जाएगा |
आफिस की एक सुई भी चुराने का  पाप लग जाए तो गंगा नहाने चले जाते  हैं | 
                  आओ आपको ,मेरे मोहल्ले के उसूल के पाबन्द कुछ निठ्ठलो से मिलवा दूं,
एक तो हुबहू वही हैं जिनका जिक्र उपर होते-होते रह गया |श्रीवास्तव बाबू ,आर टी ओ आफिस  में क्लर्क हैं |पूरे का पूरा मुहकमा  कमाने में मस्त है ,और ये हैं कि  उसूल का गमछा लटकाए, मुह और पसीना पोछते रहते हैं |
ये लोग  क्लाईंट को क्लाईंट नहीं समझते , इनके सामने जर्सी गाय बाँध दो तो  पाव-भर   दुह नहीं  सकते |अच्छी सी भैंस , खम्भा तोड़ के भाग जाए मगर इनको चम्मच भर दूध न दे |
ये हैं ही उस किस्म के |
 कायदे क़ानून के सख्त |
किताब में जो लिख गया है, वही चाहिए, वरना टेस्ट में फेल |
डाक्यूमेंट परफेक्ट हो, वरना रजिस्ट्रेशन की किताब मिलना मुश्किल |
सब, इनसे बच निकलने की सलाह देते हैं |
किसी की किस्मत ही खराब हो तो इनके पास ड्राइविंग लाइसेन्स ,रूट-परमिट के लिए जाए ,वरना इसी मुहकमे में यूं भी काम होते देखा गया है ,कि बाराती, स्पेशल बाराती-बस में बैठ गए  होते है, और क्लीनर, खूसट से खूसट आर टी ओ बाबू से , रूट-परमिट निकलवा लाता है |
यों श्रीवास्तव बाबू के घर, उनकी लड़की के लिए ,आर टी ओ ,लेबल के नाम पर रिश्ते जरूर आते हैं, पर घर को देख सगा लोग  बिचक जाते हैं|वे कहते हैं ,उनने कमाया ही क्या है जो उनका घर आर टी ओ लेबल का लगे |
श्रीवास्तव के घर से अगली गली में सिन्हा जी रहते हैं |रेलवे में टी.टी ई ,|अनगिनत बेटिकट पकडे ,किसी को नहीं बक्शा |बाकायदा अपनी पूरी सर्विस भर,पूरे पैसे का रशीद काट-काट के  बेटिकटों को थमा दिया |रेलवे का खजाना कैसे भरे बस इसी जुगाड में लगे रहते हैं |
जो पैसे नहीं दिए होते, उनका चालान बना देना एक पुनीत कर्तव्य मानते हैं |उनको लगता है रेलवे की तीसरी आँख उसे देख रही है अगर किसी को छोड़ दिया तो फंस जायेगे|सस्पेंड होना बहुत बडी बेइज्जती होगी वे इस डर को पता नहीं किसी कोने में अंदर तक ले गए हैं |बहरहाल चालान बनाए हुए बेटिकटों के खिलाप , आए दिन वे पेशी में जाते दिखते हैं |
वे इतने सख्त और पक्के हैं कि ,उनके घर वाले भी,जिस ट्रेन में वे हैं , दो-एक स्टेशन तक,किसी को छोड़ने –लिवाने , मुफ्त में जा नहीं सकते|
वे इन दिनों ,एक ट्रेन से उतर कर बिना काम के ,अगली गाडी का इंतिजार करते मिल जाते हैं |
सिन्हा जी के पीछे वाली लाइन में मास्टर-जी रहते हैं ,वे अपने  नाम से ज्यादा अपने काम ‘मास्टरी’ से जाने जाते हैं |सब उनकी इज्जत करते हैं |
वे सब को डाट-डपट के पढ़ने के लिए टाईट किए रहते हैं मगर दिया तले अन्धेरा की कहावत इन्ही के घर के लिए बनी लगती है, उनका खुद का बेटा मिडिल में जहाँ वे हेड-मास्टर हैं फेल हो जाता है |
वे पास कराने का जोखम कभी नहीं उठाये ,उसूल आड़े आ जाता है |
वे महाभारत पढ़ के संतोष कर लेते हैं ,कई गलती किए हुए पात्रों  को ,नीति से भटके हुओं को पढ़ कर अपनी तरफ से गलती न दुहराने का फिर संकल्प ले लेते हैं |पत्नी को महाभारत सुना-सुना के अपनी  ‘रक्षा –कवच’ मजबूत किए रहते हैं |
उनके लड़के के फेल हो जाने पर, उनकी इज्जत में इजाफा हुआ मिलता है |लोग उन्हें दूर से पहचान लेते हैं ,ये मास्टर जी वही  हैं, जिनका लड़का इस  साल फेल हो गया |
मास्टर –जी के दुर्दिन देख के, मुझे धर्म –सभा जाने में ,अगरबत्ती का बड़ा पैकेट खरीदने में ,बड़े-बड़े धर्म-ग्रन्थ घर में रखने में दर सा लगने लगा है |खैर ,...ये अलग सी बात है |  
  एक पंडित जी हैं, उन्हें बुलाओ तो वे कथा वाचन के विस्तार में डूबकी लगाने लग  जाते हैं| उनका बस चले तो वे कथा-विस्तार की खाई में उतरते चले  जाएँ| उनका उसूल कहता है, जजमान को पैसे के मुताबिक मिलना चाहिए |भक्त-जन ,जो कभी-कभी पकड़ में आते हैं , इतना सुनाओ कि वे या तो उनके  भक्त बन जाए. या भक्ति छोड़ दें |
                  कभी-कभी मुझे लगता है कि इस गली का नाम बदल कर ‘उसूल वाली गली’ कर दिया जाता तो बेहतर होता|
करीब-करीब, उसूलों के झोपड़े नुमा घरों के बीचो-बीच इस मुहल्ले में ,एक भव्य लान और डायनासोर- टाइप कुत्तों वाला घर भी है|
इस घर का स्वामी भी पक्का उसूलों वाला, इंजीनियर है|वे किसी ठेकेदार को नहीं बख्शते |रोड हो ,इमारत हो ,पुल हो कि पुलिया, वे कहीं  नहीं खाते |
हर जगह खाने में अपच हो जाती है ऐसा उनका मानना है ,वे हाजमोला साथ लिए फिरते हैं |
थोड़ा खाओ लेकिन बढिया खाओ के सिद्धांत पर वे बीस –पच्चीस से नीचे को हाथ नहीं लगाते |अपना-अपना उसूल है|
वे अपने उसूल को हालाकि माइ़क पकड़ कर किसी इंटरव्यू में शेयर तो नहीं करते मगर चौथे  पेग के बाद तहे दिल से के साथ ये क़ुबूल करते हैं ,भाई मै एक ईमानदार इंजिनियर था कभी कुछ लेता नहीं था फिर भी मेरा नाम  ठेकेदारों की डायरी में बकायदा लिखा होता था |
इमानदारी से बनाया हुआ पुल टूटते मैंने देखा है|मैंने इंक्वारी पे इंक्वारी फेस की है,जगह –जगह पैसे दे के बच पाया हूँ  |फिर क्या फ़ायदा ?
पीना सीख लिया| इमान को नशे में डूबा दिया |
चखने का एक बड़ा सा टुकड़ा अपने डाइनासोर की तरफ वो उछाल के अक्सर कहता है ,
आखिर डाइनासोरों की खुराक का भी तो ख्याल रखना पडता है न ?
सुशील यादव
वडोदरा (गुजरात)      




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