Tuesday, 20 August 2013

वे पीट रहे हैं ......


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ये पढ़ के आपको लगा होगा कि वे कहीं मास्टर जी होंगे ,बच्चो से नाराजगी निकाल रहे होंगे|
दूसरा ख्याल गुंडा-मवाली को लेकर आया होगा ,हो न हो , हप्ता वसूली के विवाद में पिटने –पिटाने वाला खेल खेल रहे होंगे |
आपने ये भी सोच लिया होगा कि सांप निकल जाने पर कोई लकीर पीट रहा होगा |
ना भाई ना  आप, कदाचित सर्वथा  गलत हैं|
वे जम के पीट रहे हैं, बोलते ही आप समझ जाएगे, कि उनकी नम्बर दो की कमाई जम के हो रही है |
रिश्वत के छोटे –मोटे संस्करणों की जानकारी मुझे बचपन से थी |
 पडौसी  रामदीन ,जो नजूल दफ्तर में चपरासी था ,के घर से चिकन बिरयानी ,बासमती चावल की आए दिन  खुशबू आया करती थी |अम्मा –बापू बतियाते थे ,अच्छी कमाई कर रहा है |
बापू को अम्मा कोसते हुए कहती ,ये मास्टरी वगैरह छोडो ,ढंग की कोई नौकरी कर लो |
बापू बस में कुछ और करने का रहा क्या था सो करते ?बस  कुछ और बच्चे ट्यूशन पढाने बटोर लाते | अम्मा  चांदी के गहनों में इजाफा कर  लेती और खुश हो जाती |
लखन मास्टर के बेटे ने ओव्ह्र्सीयर बन के खूब कमाई की|दुमंजिला बनाते तक तो वो ठीक-ठाक  रहा |फिर बाद में अक्सर झूमते –झुमाते घर आने लगा |
रिश्वत की ‘खुशबू’ के बाद रिश्वत का ‘झूमना’ देखा |
शादी –ब्याह की पार्टी में मिश्राइन भाभी का ‘ज्वेलरी- शो ‘,शर्माइन का साडी कलेक्शन पर व्याख्यान, सब को अपनी ओर खिचे रहता था |क्या ठाठ थे उनके |
वे अपने-अपने पति के मेहनत(रिश्वतखोरी) का  गुणगान करते नहीं अघाती थी |चन्नू के पापा , जब भी कोई नया टेंडर खुलता है ,मुझसे पूछ जाते हैं,कोई सेट चाहिए क्या?
हमारे शर्मा जी दौरे से लौटते हुए कुछ न कुछ उठा लाते हैं |मै इंनपे बिगडती हूँ ,ये क्या वही-वही फिरोजी कलर ,मै तो उकता गई हूँ |
वो पार्टी में मजे से रस-झोल गिराते –गिराते खाती ,दुबारा वो साडी या तो काम वाली बाई के  हत्थे चढती या उनके बदले  कटोरी –गिलास-बाल्टी खरीद लेती |
सुबह-सुबह ,मार्निग वाक् में हम लोग पिछले चौबीस घंटों की  घटनाओं का जिक्र कर ही लेते थे |रविवार की सुबह तो सविस्तार बहस हो जाती थी |रिपीट टेलीकास्ट की नौबत बन जाती थी |
हाँ तो बद्रीधर जी ,जो आप क्या –क्या कह रहे थे परसों ,कि हमने  शहर के चमचमाते नेमप्लेट ,कुत्तों से सावधान वाले घरों को देख के  कभी सफेद -काली कमाई  का आकलन किया है ?
ये तो वाकई सोचने वाली बात है ,कि जिस घर के सामने कलफदार कपड़ों में दरबान हो ,खुशबूदार फूल ,कारीने से कटे पौधे , हरे-भरे  लान हो  , ये सब सेठ –मारवाड़ियों के ठाठ नहीं होते|
वे अपनी कमाई की नुमाइश लगाने की बजाय शाप या फेक्ट्री में खपा देते हैं |
ये ठाठ तो यकीनन अफसर या मंत्री के होते हैं | 
दीवाली –होली तो ये लोग ही खूब मनाते हैं |
रात में नियत समय बाद पटाखे छुटाने की मनाही के बावजूद दो-तीन बजे तक  धमाल किए रहते हैं |पता नहीं इनके कौन से आका-काका पटाखों का जखीरा छोड़ गए होते हैं ?
ताश की तीन-पत्ती में इनको  ‘ब्लाईंड’ खेलते देख के तो यूं लगता है कि इनका बस चले तो , पूरे देश का बजट यहीं झोंक दें|
होली में इनको पक्का रंग मिलता है |इनके यहाँ रंगे जाने का मतलब हप्ते –दस दिन के लिए कलरफुल बने रहना |
सब ओर ‘ड्राई’ रहते हुए, इनके तरफ बाल्टियाँ भरी होती हैं |इनके इन्तिजाम मास्टर अचूक होते हैं |इनको कहीं से कोई आदेश नहीं होता, स्वस्फूर्त संचालित हुए से रहते हैं |
जो पीट रहे होते हैं ,उनसे  ‘पिटने-वाले’ बकायदा बहुत खुश रहते हैं |
ऐसा अजूबा, ऐसे सम्बन्ध, बाप-बेटे ,मजदूर –मालिक या दुनिया के किसी रिश्ते में नहीं मिलता |
ये दो-धारी तलवार, जहाँ  धार के एक ओर  ‘नोक से लेकर पकड’ तक -चपरासी ,बाबू ,क्लर्क ,मुंसिफ ,दरोगा ,डाक्टर,इंजिनीयर ,संतरी-मंत्री हैं ,वहीं दूसरी ओर इनसे फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और ले-दे कर काम करवाने वाले लोग होते हैं |
 इन दोनों ‘धार’ की मार आखिर में येंन-केन प्रकारेण जनता झेलती है |
 किसी शहर के सुपर सिविल लाइंस के किसी भी घर का  इतिहास  झाँक लो , जो आज्  दस-बीस-पचास –सौ ,हजार करोड के मालिक हैं ,कल तक वे टूटे स्कूटर में घूमते पाए जाते थे |
पंचर बनाने के जिनके पास पैसे न थे वे आज चार –छ: गाडियां लिए फिरते हैं |
इन्होंने ,जंगल बेच दिए ,जमीन बेच दी, खदान लुटा दिए,टेंडर में घपला किए ,खरीद में, दलाली में  हर लेन-देन में गफलत, कमीशन |
चाल-चरित्र और चेहरे में  मासूमियत लिए, हर पांच साल बाद आ फटकने वाले लोग कब देश बेच खाएं कुछ कहा नहीं जा सकता ?   


**सुशील यादव ,श्रिम सृष्टि, अटलादरा,सन फार्मा रोड ,वडोदरा (गुज) 

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