Thursday, 29 December 2011

उन दिनों ये शहर......

उन दिनों ये शहर बेतरतीब हुआ करता था
मगर दिल के बहुत ,करीब हुआ करता था

यूं लगता था, तुझे छू के बस आई हो हवा
मेरे बियाबान का ये नसीब हुआ करता था

छीन कर मेरी परछाई, मुझसे बिछड़ने वाले
‘तमस’, तेरे वजूद का रकीब हुआ करता था

मेरे मागने से वो मुझको देता भी क्या
मेरा खुदा ,मेरी तरह, गरीब हुआ करता था

sushil yadav 291211

Wednesday, 28 December 2011

सीने में लिखा नाम

धुआँ-धुआँ है शहर में, हवा नही है
मै जो बीमार हूं ,मेरी दवा नहीं है

तलाश उस शख्श की, है अभी जारी
जिसके पावों छाले-छाले, जो थका नहीं है

कहाँ तक लाद कर हम ,बोझ को चलें
बनके श्रवण माँ –बाप को पूजा नहीं है

दंगो के शहर दहशत लिए फिरता हूँ मै
कोई हादसा करीब से बस छुआ नहीं है

लहरों से मिटी है , रेतो की इबारत
सीने में लिखा नाम तो मिटा नहीं है

Sushil Yadav,09426764552, Vadodara

Sunday, 14 August 2011

काश हमारे शब्द अपाहिज नही होते

न जाने किन पैरों पर ,
खड़ा रहता है आसमान
दिन-रात बिना थके हुए ?
मेरे तुम्हारे शब्दों को,
बैसाखी की जरुरत,
महसूस हुआ करती है |
हम शायद ...
आहात-अपाहिज मन से बोलते हैं
या सहानुभूतियो की किताब,
उस जगह से खोलते हैं,
जहाँ पृष्ठभर हाशिए के सिवा
होता नही कुछ ....
कभी हम , निकल जाते हैं
सिद्धार्थ की तरह,
यथार्थ की खोज में
न जाने किन पैरों पर
खड़ा रहता है आसमान....?
काश हमें पहले बता दिया गया होता
आसमाँ कुछ नहीं ,
एक हवा है , धुआँ है , शून्य है
और ,
हवा को,
धुआँ को
शून्य को ...
बैसाखी की जरूरत
महसूस नहीं हुआ करती ,
वह तो अपने शाश्वत सत्य पर
टिका रहता है
दिन रात.... बिना थके हुए ...
काश यूँ ही..... हमारे शब्द
बिना सहारे ,
हवा की तरह....
धुआँ की तरह ....
शून्य की तरह ....
दिन–रात ,बिना थके
टिके रहते ..... अपने अर्थ पर
काश; हमारे शब्द कभी अपाहिज नही होते
SUSHIL YADAV
09426764552
VADODARA

Saturday, 13 August 2011

महानगर मेरे अनुभव

महानगर मेरे अनुभव

खुशियों को मैंने हाशिए पर
छोड़ दिया है,
बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल
पीड़ा की बात कहता हूँ
***
दोस्त,
इस भीड़ भरे ,
रिश्तों के अपरिचित…
अनजान नगर में,
जब से आया,
कटा –कटा,
टूटा,
मुरझाया-सा
अकेला रहता हूँ
***
यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे
रौदती हैं ,
कल-कारखानो की आवाज ,
बिजलियाँ बन ,मन कौंधती हैं ....
यह महानगर नर्क है,
ऊपरी दिखावे , चमक –धमक ऊपरी
और बेडा सभी का गर्क है ...
महज…
अपने –अपनों में सब,
घिरे लगते हैं,
जिंदगी के, कठिन भिन्न को
करते सरल , सिरफिरे लगते हैं ...
यहाँ , आदमी, आदमी को नहीं पहचानते
इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...
इसीलिए ,
भूखो बिलखती यहाँ
सलमा और सीता
कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के,
कुरान व् गीता
इसी नगर के चौराहे पर,
खून पसीना , निर्धन बिकता है
इमान –मजहब , मन बिकता है
जिन्दा –जिस्म , कफन बिकता है...
इसी नगर की गलियों से,
उठती लहरें बगावत की
तूफां यही होता है पैदा ,
झगड़े –झंझट , झंझावत भी |
इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलते
मै..
तंग आ गया हूँ,
फिर भी सब सहता हूँ
बस दोस्त ,
इसीलिए ,कुछ जी हल्का करने
तुमसे ,पीड़ा की बात
पृष्ठों पर कहता हूँ ....
***
वैसे तो सभ्यता के नाम पर,
मैंने भी चाहा...
मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,
यहाँ रहने –बसने वालो का
अनवरत कल्याण हो,
पर कोई साक्ष्य नहीं..
जो उंगली पकड़े
इस बीमार नगर की
पीडाओं को बांटे ,
अपरचित, सुनसान डगर की
हर चेहरा यहाँ,
बेबस है ,लाचार है ....
हमारा साहस बौना ,
सामने.... , विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त
इतने बड़े, शहर में तुम,
मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ?
रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में ,
मुझे अकेले ढूँढ , पहचान सकोगे ?
वैसे तो मै ...,
‘खुद’ से गुम गया हूँ ,
मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ
पर कभी कभी अब भी लगता है
मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ
बहता हूँ ,
बस दोस्त ,
इसीलिए कुछ जी हल्का करने
तुमसे , पीड़ा की बात
मै पृष्ठों पर कहता हूँ ,
खुशियों को अलग मैंने....
हाशिए पर छोड़ दिया है |

सुशील यादव
०९४२६७६४५५२




Sunday, 10 July 2011

रिश्तों का जर्जर पुल

कोई वजह, या बात कुछ, पर्वतनुमा नहीं
केवल रिश्तों का, पुल जर्जर, दरमियाँ नहीं


     आदत मेरी ,जरूरतों से बोलता हूँ कम
     सोच ,किसी मायने मगर ,बे-जुबां नही


बोझ की जिन्दगी लिए, थक सा गया हूँ  
मगर अच्छी बात कि, उम्र को गुमाँ नहीं

     बहारो के मौसम ,यहाँ –वहाँ ढूँढ के देखा

     यादो के आसपास मौजूद, तितलियाँ नहीं  


अपनी शक्ल, इन दिनों लगभग, लगती बुरी
नीयत की तरह साफ, शायद , आइना नहीं  



सुशील यादव

मुझको कब आया.....


 सोच समझ कर सही  फैसला करना
 मस्जिद में पूजा ,मंदिर सजदा करना


             कहाँ ये मुमकिन अब, बारिश में यारो
      बचपन की, भीगी-यादों, बचा करना  


इसी तजुर्बे से, निभती है दुनियादारी,
किस मुकाम झुकना, कहाँ अडा करना


     उम्मीद के हर परिंदे को ये हिदायत
    अपनी पहुंच, आकाश ही  उडा करना


जो दिल तक उतरे, किताबें मजहब की
तहे दिल, केवल वही, सुना –पढ़ा करना


     मेरे चेहरे पर कब रहा है, कोई नकाब
     मुझको कब आया, खुद से, छिपा करना


सुशील यादव

गांव के बाशिंदे कहाँ गए.....



‘पर’ जिनके कटे थे ,परिंदे कहाँ गए
सीधे सादे गांव के, बाशिंदे कहाँ गए


जमीन खा गई,उसे कि निगला आसमा
निगरानी शुदा थे जो, दरिंदे कहाँ गए


मजहब कि जमीं, और बारूद का धुँआ
फिर,ढेर लगा लाशो का दरिंदे कहाँ गए


तेरे होने का सुकून था कहीं भीतर
सर रख के जिसपे रोते ,कंधे कहाँ गए


सुशील यादव





आसान से सदमो में....

बादल तो मेरे छत को, भीगोने नहीं आते
आसान से सदमो में , रोने नहीं आते


     कई दिन रहा रूठा, मेरे जज्बात का मासूम
     कुछ दिन से इधर बिकने, खिलौने नहीं आते


मंद हुनर हैं,  मेरी किस्मत के जुलाहे
बुनने को तरीके से, बिछौने नहीं आते
 
     बंजर सी मिली हमको, विरासत में जमीने
     क्या काटेगें, ये सोच के, बोने नही आते


कुछ दिन से हुआ, मेरी आदत में शुमार
जी घर नहीं लगता , हम सोने नहीं आते

SUSHIL YADAV

Friday, 8 July 2011

from Narmada Neer ..

इस संगदिल को ....

जिसे जहाँ होना चाहिए, वहाँ पर नहीं मिलता
तेरी आँखों में पहले सा समुन्दर नहीं मिलता



तमाम जंगल, तब्दील हो गए, बन के शहर
सांप की केचुली, कहीं, अजगर नहीं मिलता



अपने साये से, हकीकतन दूर था अँधेरे में,अब
वो उजाले में भी , बेहिचक, आकर नहीं मिलता



किसपे करूं यकीन ,तसल्ली किस बात पे मिले
मायूस मेरे दिल को , कोई चारागर नहीं मिलता  



बुत बना के रखता तुझे, दिल के किसी कोने में
इस संगदिल को ढूढे से कही , पत्थर नहीं मिलता



सुशील यादव

खजाने का पता......

कौन किसी को बड़ी सौगात दौलत देता है
खजाने का पता, खुदा बस मुहब्बत देता है

    तुम छीन नहीं सकते, किसी की उखड़ी सासें
    कौन सा मजहब, इसकी इजाजत देता है

फटना चाहता है,किसी बात पे, जब ये दिल
अंदर से, चुप रहने की, कोई हिदायत देता है

   तेरे शहर में, मशवरा भी, यूँ काम आया
   रंगीनियों से, बच निकलने की, आदत देता है

तुमसे सीख लेते, बर्फीले हवा, जीने का हुनर
कौन एहसास, तुमको सुकून –हरारत देता है

   वो शहर धूप में कुम्हलाते नहीं ,जिसकी जड़ो
   पानी का निजाम ,बागबान अपनी ताकत देता है

सुशील यादव

सूरते-हाल बदलने की तम्मना

कुछ सूरते-हाल, बदलने की, तम्मना लेकर
निकले हम, अन्धो के शहर, आइना लेकर

जुबां न हो खामोश , बंधे न कोई हाथ
    कोई चले  न अब , बैसाखी- बेडियाँ लेकर

सलामत रहें ,मुल्क में अमनो –इमान,फिर
हो मुहब्बत की, तिजारत बस, कोडियां लेकर

मेरे भीतर भी, हुआ करता, जिहाद का जूनून
     निकलेगा, किसी दिन तमाम, रुसवाईयों लेकर     

क्या पता, कब हो जाएँ, महफिल में रुसवा 
हम कहाँ जा पाएंगे, ये मुंह भी, अपना लेकर

     सिले थे होंठ पर हमने क्या कुछ नहीं कहा
     क्या फायदा , अब तफसील से बयां लेकर

उनसे मुद्दतों, कोई बात, नहीं होती मगर
अपनी जगह, खुश हम, दूरी–दरमियां लेकर

गाँधी की, शक्ल का वो,आदमी था हू-ब-हू 
     रास्ते मिला , अल्फाज का , तमंचा लेकर

जुगनुओं से कर लेंगे,स्याह-रातो को रोशन
मत ढूढना कभी हमको, जश्ने-चिरागां लेकर

http://www.kavitakosh.org  सुशील यादव

०९४२६७६४५५२




Thursday, 7 July 2011

सपनों का ताना-बना




मै सपनों का ताना बना ,यूँ अकेले बुना करता हूँ
मंदिर का करता सजदा, मस्जिद भी पूजा करता हूँ


    जिस दिन मिलती फुर्सत मुझको, दुनिया के कोलाहल से
    राम- रहीम की बस्ती में, अलगू –जुम्मन ढूढा करता हूँ


जब- जब बादल और धुए में, गंध बारूदी मिल जाती है
उस दिन, घर आगन में छुप के, पहरों- पहरों रोया करता हूँ

     मजहब –धरम के रखवाले जितने गहरे उतर न पाते
     उस सुलह की गहराई से ,मै मोती साफ चुना करता हूँ

आओ अपना हम उतारें ,ओढा-पहना ,बेसबब नकाब
तुम हो, मेरी शकल से वाकिफ ,किस दिन मै छुपा करता हूँ 

सुशील यादव

मेरे सुकून का पता

 मेरे सुकून का पता

भीड़ में, कोई किसी को, रास्ता नहीं देता
जैसे तिनका, डूबते को, आसरा नहीं देता

    कहाँ ले जाओगे, अपनी उखड़ी-उखड़ी सासें
    कोई बीमार को ,तसल्ली- भर हवा नहीं देता

पल दो पल को, मिल जाए, शायद तुम्हे हंसी
जिन्दगी-भर को ,मुस्कान, मसखरा नहीं देता

    मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब
    ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता


कुरेद कर चल देते ,ये  जख्म शहर के लोग
चारागर बन के, मुफीद , कोई दवा नहीं देता

     कल की कुछ, धुंधली, तस्वीर बनी रहती है
     आज का अक्स संवार के आईना नहीं देता

उससे मिल कर, जुदा हुए, बरसो बीत गए
मेरे सुकून का, कोई ठिकाना, पता नहीँ देता


सुशील यादव ७/७/११

Monday, 4 July 2011