Friday, 8 July 2011

सूरते-हाल बदलने की तम्मना

कुछ सूरते-हाल, बदलने की, तम्मना लेकर
निकले हम, अन्धो के शहर, आइना लेकर

जुबां न हो खामोश , बंधे न कोई हाथ
    कोई चले  न अब , बैसाखी- बेडियाँ लेकर

सलामत रहें ,मुल्क में अमनो –इमान,फिर
हो मुहब्बत की, तिजारत बस, कोडियां लेकर

मेरे भीतर भी, हुआ करता, जिहाद का जूनून
     निकलेगा, किसी दिन तमाम, रुसवाईयों लेकर     

क्या पता, कब हो जाएँ, महफिल में रुसवा 
हम कहाँ जा पाएंगे, ये मुंह भी, अपना लेकर

     सिले थे होंठ पर हमने क्या कुछ नहीं कहा
     क्या फायदा , अब तफसील से बयां लेकर

उनसे मुद्दतों, कोई बात, नहीं होती मगर
अपनी जगह, खुश हम, दूरी–दरमियां लेकर

गाँधी की, शक्ल का वो,आदमी था हू-ब-हू 
     रास्ते मिला , अल्फाज का , तमंचा लेकर

जुगनुओं से कर लेंगे,स्याह-रातो को रोशन
मत ढूढना कभी हमको, जश्ने-चिरागां लेकर

http://www.kavitakosh.org  सुशील यादव

०९४२६७६४५५२




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