Sunday 14 August 2011

काश हमारे शब्द अपाहिज नही होते

न जाने किन पैरों पर ,
खड़ा रहता है आसमान
दिन-रात बिना थके हुए ?
मेरे तुम्हारे शब्दों को,
बैसाखी की जरुरत,
महसूस हुआ करती है |
हम शायद ...
आहात-अपाहिज मन से बोलते हैं
या सहानुभूतियो की किताब,
उस जगह से खोलते हैं,
जहाँ पृष्ठभर हाशिए के सिवा
होता नही कुछ ....
कभी हम , निकल जाते हैं
सिद्धार्थ की तरह,
यथार्थ की खोज में
न जाने किन पैरों पर
खड़ा रहता है आसमान....?
काश हमें पहले बता दिया गया होता
आसमाँ कुछ नहीं ,
एक हवा है , धुआँ है , शून्य है
और ,
हवा को,
धुआँ को
शून्य को ...
बैसाखी की जरूरत
महसूस नहीं हुआ करती ,
वह तो अपने शाश्वत सत्य पर
टिका रहता है
दिन रात.... बिना थके हुए ...
काश यूँ ही..... हमारे शब्द
बिना सहारे ,
हवा की तरह....
धुआँ की तरह ....
शून्य की तरह ....
दिन–रात ,बिना थके
टिके रहते ..... अपने अर्थ पर
काश; हमारे शब्द कभी अपाहिज नही होते
SUSHIL YADAV
09426764552
VADODARA

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