Thursday 7 July 2011

सपनों का ताना-बना




मै सपनों का ताना बना ,यूँ अकेले बुना करता हूँ
मंदिर का करता सजदा, मस्जिद भी पूजा करता हूँ


    जिस दिन मिलती फुर्सत मुझको, दुनिया के कोलाहल से
    राम- रहीम की बस्ती में, अलगू –जुम्मन ढूढा करता हूँ


जब- जब बादल और धुए में, गंध बारूदी मिल जाती है
उस दिन, घर आगन में छुप के, पहरों- पहरों रोया करता हूँ

     मजहब –धरम के रखवाले जितने गहरे उतर न पाते
     उस सुलह की गहराई से ,मै मोती साफ चुना करता हूँ

आओ अपना हम उतारें ,ओढा-पहना ,बेसबब नकाब
तुम हो, मेरी शकल से वाकिफ ,किस दिन मै छुपा करता हूँ 

सुशील यादव

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