मै सपनों का ताना बना ,यूँ अकेले बुना करता हूँ
मंदिर का करता सजदा, मस्जिद भी पूजा करता हूँ
जिस दिन मिलती फुर्सत मुझको, दुनिया के कोलाहल से
राम- रहीम की बस्ती में, अलगू –जुम्मन ढूढा करता हूँ
जब- जब बादल और धुए में, गंध बारूदी मिल जाती है
उस दिन, घर आगन में छुप के, पहरों- पहरों रोया करता हूँमजहब –धरम के रखवाले जितने गहरे उतर न पाते
उस सुलह की गहराई से ,मै मोती साफ चुना करता हूँ
आओ अपना हम उतारें ,ओढा-पहना ,बेसबब नकाब
तुम हो, मेरी शकल से वाकिफ ,किस दिन मै छुपा करता हूँ
सुशील यादव
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