महानगर मेरे अनुभव
खुशियों को मैंने हाशिए पर
छोड़ दिया है,
बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल
पीड़ा की बात कहता हूँ
***
दोस्त,
इस भीड़ भरे ,
रिश्तों के अपरिचित…
अनजान नगर में,
जब से आया,
कटा –कटा,
टूटा,
मुरझाया-सा
अकेला रहता हूँ
***
यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे
रौदती हैं ,
कल-कारखानो की आवाज ,
बिजलियाँ बन ,मन कौंधती हैं ....
यह महानगर नर्क है,
ऊपरी दिखावे , चमक –धमक ऊपरी
और बेडा सभी का गर्क है ...
महज…
अपने –अपनों में सब,
घिरे लगते हैं,
जिंदगी के, कठिन भिन्न को
करते सरल , सिरफिरे लगते हैं ...
यहाँ , आदमी, आदमी को नहीं पहचानते
इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...
इसीलिए ,
भूखो बिलखती यहाँ
सलमा और सीता
कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के,
कुरान व् गीता
इसी नगर के चौराहे पर,
खून पसीना , निर्धन बिकता है
इमान –मजहब , मन बिकता है
जिन्दा –जिस्म , कफन बिकता है...
इसी नगर की गलियों से,
उठती लहरें बगावत की
तूफां यही होता है पैदा ,
झगड़े –झंझट , झंझावत भी |
इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलते
मै..
तंग आ गया हूँ,
फिर भी सब सहता हूँ
बस दोस्त ,
इसीलिए ,कुछ जी हल्का करने
तुमसे ,पीड़ा की बात
पृष्ठों पर कहता हूँ ....
***
वैसे तो सभ्यता के नाम पर,
मैंने भी चाहा...
मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,
यहाँ रहने –बसने वालो का
अनवरत कल्याण हो,
पर कोई साक्ष्य नहीं..
जो उंगली पकड़े
इस बीमार नगर की
पीडाओं को बांटे ,
अपरचित, सुनसान डगर की
हर चेहरा यहाँ,
बेबस है ,लाचार है ....
हमारा साहस बौना ,
सामने.... , विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त
इतने बड़े, शहर में तुम,
मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ?
रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में ,
मुझे अकेले ढूँढ , पहचान सकोगे ?
वैसे तो मै ...,
‘खुद’ से गुम गया हूँ ,
मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ
पर कभी कभी अब भी लगता है
मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ
बहता हूँ ,
बस दोस्त ,
इसीलिए कुछ जी हल्का करने
तुमसे , पीड़ा की बात
मै पृष्ठों पर कहता हूँ ,
खुशियों को अलग मैंने....
हाशिए पर छोड़ दिया है |
सुशील यादव
०९४२६७६४५५२
No comments:
Post a Comment