Sunday, 10 July 2011

रिश्तों का जर्जर पुल

कोई वजह, या बात कुछ, पर्वतनुमा नहीं
केवल रिश्तों का, पुल जर्जर, दरमियाँ नहीं


     आदत मेरी ,जरूरतों से बोलता हूँ कम
     सोच ,किसी मायने मगर ,बे-जुबां नही


बोझ की जिन्दगी लिए, थक सा गया हूँ  
मगर अच्छी बात कि, उम्र को गुमाँ नहीं

     बहारो के मौसम ,यहाँ –वहाँ ढूँढ के देखा

     यादो के आसपास मौजूद, तितलियाँ नहीं  


अपनी शक्ल, इन दिनों लगभग, लगती बुरी
नीयत की तरह साफ, शायद , आइना नहीं  



सुशील यादव

मुझको कब आया.....


 सोच समझ कर सही  फैसला करना
 मस्जिद में पूजा ,मंदिर सजदा करना


             कहाँ ये मुमकिन अब, बारिश में यारो
      बचपन की, भीगी-यादों, बचा करना  


इसी तजुर्बे से, निभती है दुनियादारी,
किस मुकाम झुकना, कहाँ अडा करना


     उम्मीद के हर परिंदे को ये हिदायत
    अपनी पहुंच, आकाश ही  उडा करना


जो दिल तक उतरे, किताबें मजहब की
तहे दिल, केवल वही, सुना –पढ़ा करना


     मेरे चेहरे पर कब रहा है, कोई नकाब
     मुझको कब आया, खुद से, छिपा करना


सुशील यादव

गांव के बाशिंदे कहाँ गए.....



‘पर’ जिनके कटे थे ,परिंदे कहाँ गए
सीधे सादे गांव के, बाशिंदे कहाँ गए


जमीन खा गई,उसे कि निगला आसमा
निगरानी शुदा थे जो, दरिंदे कहाँ गए


मजहब कि जमीं, और बारूद का धुँआ
फिर,ढेर लगा लाशो का दरिंदे कहाँ गए


तेरे होने का सुकून था कहीं भीतर
सर रख के जिसपे रोते ,कंधे कहाँ गए


सुशील यादव





आसान से सदमो में....

बादल तो मेरे छत को, भीगोने नहीं आते
आसान से सदमो में , रोने नहीं आते


     कई दिन रहा रूठा, मेरे जज्बात का मासूम
     कुछ दिन से इधर बिकने, खिलौने नहीं आते


मंद हुनर हैं,  मेरी किस्मत के जुलाहे
बुनने को तरीके से, बिछौने नहीं आते
 
     बंजर सी मिली हमको, विरासत में जमीने
     क्या काटेगें, ये सोच के, बोने नही आते


कुछ दिन से हुआ, मेरी आदत में शुमार
जी घर नहीं लगता , हम सोने नहीं आते

SUSHIL YADAV

Friday, 8 July 2011

from Narmada Neer ..

इस संगदिल को ....

जिसे जहाँ होना चाहिए, वहाँ पर नहीं मिलता
तेरी आँखों में पहले सा समुन्दर नहीं मिलता



तमाम जंगल, तब्दील हो गए, बन के शहर
सांप की केचुली, कहीं, अजगर नहीं मिलता



अपने साये से, हकीकतन दूर था अँधेरे में,अब
वो उजाले में भी , बेहिचक, आकर नहीं मिलता



किसपे करूं यकीन ,तसल्ली किस बात पे मिले
मायूस मेरे दिल को , कोई चारागर नहीं मिलता  



बुत बना के रखता तुझे, दिल के किसी कोने में
इस संगदिल को ढूढे से कही , पत्थर नहीं मिलता



सुशील यादव

खजाने का पता......

कौन किसी को बड़ी सौगात दौलत देता है
खजाने का पता, खुदा बस मुहब्बत देता है

    तुम छीन नहीं सकते, किसी की उखड़ी सासें
    कौन सा मजहब, इसकी इजाजत देता है

फटना चाहता है,किसी बात पे, जब ये दिल
अंदर से, चुप रहने की, कोई हिदायत देता है

   तेरे शहर में, मशवरा भी, यूँ काम आया
   रंगीनियों से, बच निकलने की, आदत देता है

तुमसे सीख लेते, बर्फीले हवा, जीने का हुनर
कौन एहसास, तुमको सुकून –हरारत देता है

   वो शहर धूप में कुम्हलाते नहीं ,जिसकी जड़ो
   पानी का निजाम ,बागबान अपनी ताकत देता है

सुशील यादव

सूरते-हाल बदलने की तम्मना

कुछ सूरते-हाल, बदलने की, तम्मना लेकर
निकले हम, अन्धो के शहर, आइना लेकर

जुबां न हो खामोश , बंधे न कोई हाथ
    कोई चले  न अब , बैसाखी- बेडियाँ लेकर

सलामत रहें ,मुल्क में अमनो –इमान,फिर
हो मुहब्बत की, तिजारत बस, कोडियां लेकर

मेरे भीतर भी, हुआ करता, जिहाद का जूनून
     निकलेगा, किसी दिन तमाम, रुसवाईयों लेकर     

क्या पता, कब हो जाएँ, महफिल में रुसवा 
हम कहाँ जा पाएंगे, ये मुंह भी, अपना लेकर

     सिले थे होंठ पर हमने क्या कुछ नहीं कहा
     क्या फायदा , अब तफसील से बयां लेकर

उनसे मुद्दतों, कोई बात, नहीं होती मगर
अपनी जगह, खुश हम, दूरी–दरमियां लेकर

गाँधी की, शक्ल का वो,आदमी था हू-ब-हू 
     रास्ते मिला , अल्फाज का , तमंचा लेकर

जुगनुओं से कर लेंगे,स्याह-रातो को रोशन
मत ढूढना कभी हमको, जश्ने-चिरागां लेकर

http://www.kavitakosh.org  सुशील यादव

०९४२६७६४५५२




Thursday, 7 July 2011

सपनों का ताना-बना




मै सपनों का ताना बना ,यूँ अकेले बुना करता हूँ
मंदिर का करता सजदा, मस्जिद भी पूजा करता हूँ


    जिस दिन मिलती फुर्सत मुझको, दुनिया के कोलाहल से
    राम- रहीम की बस्ती में, अलगू –जुम्मन ढूढा करता हूँ


जब- जब बादल और धुए में, गंध बारूदी मिल जाती है
उस दिन, घर आगन में छुप के, पहरों- पहरों रोया करता हूँ

     मजहब –धरम के रखवाले जितने गहरे उतर न पाते
     उस सुलह की गहराई से ,मै मोती साफ चुना करता हूँ

आओ अपना हम उतारें ,ओढा-पहना ,बेसबब नकाब
तुम हो, मेरी शकल से वाकिफ ,किस दिन मै छुपा करता हूँ 

सुशील यादव

मेरे सुकून का पता

 मेरे सुकून का पता

भीड़ में, कोई किसी को, रास्ता नहीं देता
जैसे तिनका, डूबते को, आसरा नहीं देता

    कहाँ ले जाओगे, अपनी उखड़ी-उखड़ी सासें
    कोई बीमार को ,तसल्ली- भर हवा नहीं देता

पल दो पल को, मिल जाए, शायद तुम्हे हंसी
जिन्दगी-भर को ,मुस्कान, मसखरा नहीं देता

    मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब
    ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता


कुरेद कर चल देते ,ये  जख्म शहर के लोग
चारागर बन के, मुफीद , कोई दवा नहीं देता

     कल की कुछ, धुंधली, तस्वीर बनी रहती है
     आज का अक्स संवार के आईना नहीं देता

उससे मिल कर, जुदा हुए, बरसो बीत गए
मेरे सुकून का, कोई ठिकाना, पता नहीँ देता


सुशील यादव ७/७/११

Monday, 4 July 2011