Tuesday, 9 September 2014

हो सके तो

सुशील यादव हो सके तो .... 
हर निगाह चमक, हरेक होठ, हँसी ले के आओ 
हो सके तो, कमजर्फो के लिए, जिंदगी ले के आओ
 इस अँधेरे में दो कदम, न तुम चल सकोगे, न हम 
धुधली सही ,समझौते की मगर , रोशनी ले के आओ
 कुछ अपनी, हम चला सकें, कुछ दूर तुम चला लो
 सोच है ,कागज़ की कश्ती है ,नदी ले के आओ 
चाह के, ठीक से पढ़ नहीं पाते, खुदगर्जों का चेहरा
 पेश्तर किसी नतीजे, हम आये , रोशनी लेके आओ 
सिमट गए हैं, अपने-अपने दायरे, सब के नसीब
 ‘पारस’ की जाओ, कही ढूँढ के, ‘कनी’ ले के आओ
 खुदा तेरे मयखाने, जाने कब से, प्यासा है ये ‘रिंद
’ किसी बोतल ,किसी कोने ‘बची’, ज़रा-सी ले के आओ
 १५ जून १४

Monday, 8 September 2014

नाच न जाने

< सुशील यादव का व्यंग्य - नाच न जाने… नाच न जाने ...... हमारे आंगन में कोई खराबी नहीं थी। पुरखों ने तसल्ली के साथ तीस बाई चालीस का आँगन पुराने जमाने के नक़्शे के मुताबिक़ रख छोड़ा था। इतनी बडी जगह तो आजकल शहरों में, मकान के पूरे प्लाट की मुश्किल से होती है। और तो और फ्लेट वाले युग में आँगन शब्द ही शहरों से लुप्त होने लगा दीखता है। आँगन को लेकर हमारा बहाना बनाना, कतई शोभा नहीं देता, कि हमे इसकी वजह से नाचना नहीं आया या हम नाचना नहीं सीख पाए. या आँगन टेढा था। आँगन लगभग ठीक था कमी या खामी जो थी वो हममें थी। सौ फीसदी बात तो ये, कि सपाट समतल आँगन वाले घरों में बुजुर्गों ने, हममें नाच –गाने वाले संस्कार ही नहीं डाले। उन्होंने स्वयं कभी ठुमका लगाने की सोच रखी हो, तो लानत है। लिहाजा ,सामाजिक बहिष्कार के दंडनीय अपराध से वे कोसो दूर रहे। उनके जमाने में ये गैर जरूरी किस्म की अय्यासी नहीं पाली जा सकती थी। लोगों को ‘मुंह दिखाना’ पड़ता था और ‘मुंह को दिखाने के काबिल’ बनाए रखने के लिए सैकड़ों किस्म के परहेज हुआ करते थे ये करो वो मत करो टाइप का ज़माना हुआ करता था , सो वे कोसों दूर ,नृत्य कला के निपट असंस्कारी जीव बने रहे। हमारे दादा जी को अखाड़े के बाद ‘रामलीला’ में रावण का रोल मिलता रहा, जिसमे उनके राक्षसी उछल कूद किये जाने भर का स्कोप था, लिहाजा नृत्य की किसी एक विधा से भी इस परिवार का कोई परिचय होते-होते बाजू से निकल गया। शादी –ब्याह में जाते हैं तो बडी शर्मिंदगी सी होती है। सब को बेमतलब ,बिना रिदम के फुदकते देखते हैं तो , जी तो मचलता है कि तू भी घुस ले भीतर, देखी जायेगी.......पर तुरंत नृत्य अज्ञानता का बोध होते ही मन मसोस कर रह जाता है। बरात में दुल्हे के ‘फूफाजी’ को नचाने की फरमाइश जैसे ही किसी कोने से शुरू होती है ,हमें दुम दबा के खिसक लेने में भलाई नजर आती है। कौन फजीहत कराये ?सेकण्डो में फेसबुक में फूफा-ग्रेड भौंडापन अपलोड कर देंगे लोग। किसी को रोक कहाँ सकते हैं ?फास्ट ज़माना है। वो जमाने लद गए जब फूफा अपनी बेतुकी कमर हिलाई के नाम पर मुफ्त वाहवाही बटोर लिया करते थे। अब .....अब तो आपको वेलट्रेंड उतरना है मैदान में, वो भी यंग जनरेशन के बीच , वरना ........? कभी –कभी , मन खुद को धिक्कारता है,तू इतने बड़े आँगन का मालिक एक अदद डांस नहीं सीख पाया ,’टू बी एच के’ लोग वो भी बिना आगंन वाले कितने मजे से डांस किये जा रहे हैं देख ? इन मानसिक द्वंद से उबरने के लिए ,बरात प्रोशेसन में, अपने किस्म के ‘फुफाओं’ को व्यस्तता ओढ़ लेने की जबरदस्त आदत होती है। लगभग बरात को लीड करने लग जाते हैं। कभी ट्रेफिक हवलदार की भूमिका में बरात के बगल से हेवी व्हीकल को साइड देते हुए कंही बैड वालो को हाकते हुए........ अय ..आगे ...आगे बढो। मुन्नी .......अगले चौराहे पर ....मुन्नी बदनाम होगी ...भई यहाँ नहीं .....अगली जगह ....अभी तो बढ़ो ......बरात नौ बजे लग जानी है मुहूरत का समय खराब न हो ....। कुल मिला के डांस से परहेज ....... डांस के उन्मादी बारातियों में जबरदस्त उत्साह होता है। ’सपेरा –बीन’ डांस में सूट पहने हुओं को भी जमीन में लोटते देखा है , बशर्ते हलक के नीचे तीन –चार पेग उतारी हुई हो। उन्हें धुन की मस्ती के बीच दुल्हे के बाप पर तरस खाने का मौक़ा नहीं मिलता। बेचारा बाप कोसते रहता है कि काहे को इसे बरात में ले आया ,नाक कट रही है। वो बार-बार खीसे से रुमाल निकाल के नाक की सलामती को जांचते रहता है। आवाज आती है, शादी का पंडाल करीब आने को है। दो-तीन जरूरी गाने बाकी रह गए है, जिसमे अहम बराती -डांस निपटाना है ,एक तो ,सदाबहार ‘आज मेरे यार की शादी है ,दूसरा.... ले जायेंगे ले जायेंगे ....तीसरा सीजन बेस्ट यानी लेटेस्ट रिलीज मूवी का हिट जो समय-समय पे कभी कजरारे ....,उ ला ला ....मुन्नी बदनाम हुई टाइप हुआ करता है ,का बजना-बजाना जरूरी होता है । मैंने एक भी बारात ऐसी नहीं देखी जिसमे ‘मेरे यार की शादी’ वाला गाना बेरोकटोक बजा न हो। गिनीज रिकार्ड वालो को, इस गाने को बिना किसी वेरीफिकेशंस के रिकार्ड में शामिल कर लेना चाहिए। बैण्ड वाले दो धुनों के अन्त्तराल में ट्यूनिंग करने के नाम पर मातमी धुन बजा डालते हैं, उनमें भी मस्त .उत्साही बाराती जन पैर थिरकाए बिना नही रहते। आजकल ज़माना बदल गया है। बड़े –बड़े ‘नच- बलिए’ हो रहे हैं। घर में दिन-दिन भर शोर कोलाहल रहता है ,उंची आवाज में केसेट चल रहे होते हैं, डांस की बकायदा ट्रेनिग दी जाने लगी है। बच्चों को नृत्य संस्कार में पारंगत बनाने का काम चालू हो गया है। मुझे लगता है आने वाले दिनों में नृत्य पारंगत,ट्रेंड फुफाओ’ से बरात जादा गुलजार मिलेगा। मंकी डांस ,लूंगी डांस ,एरोबिक,सर्कस डांस, सब कुछ होगा। एक अलग किस्म का ‘डांस पे चांस’ मारते हुए फूफाओं का मजेदार स्ट्रीट शो ..... ----------------- सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - नाच न जाने… http://www.rachanakar.org/2014/07/blog-post_2.html#ixzz3CncClKGo

हर दिल जो प्यार करेगा ....

हर दिल जो प्यार करेगा .... जनाब आपका जवाब गलत .....! आपकी तो ये आदत है कि मुखडा देखते ही तीर निशाने पे लगाने की सोच लेते हो ? आज के जमाने में ये जरूरी नही कि प्यार करने वालों को गाना, गाना अनिवार्य हो ? अब फिल्मी ,हीर –रांझा ,लैला-मजनू,शीरी –फरहाद वाले दिन लद गए। तब किसी डायरेक्टर को रोमेंटिक दो-चार गानो का जुगाड हुआ नहीं कि, पूरी फिल्म बनाने की सोच लेते थे । अपने हीरो हीरोइँन से बात –बात पे गाना गवा बैठते थे । इधर पिता ने इम्तिहान का मार्कशीट देखना खत्म नहीं किया, उससे पहले गाने के बोल चालु हो जाते थे । ये कैसा इम्तिहान प्रभु ,ये कैसा इम्तिहान ...., तुने बनाया इंसान प्रभु ,तू ने बनाया इंसान । अगर बनाया इंसान ,काहे न डाले प्राण ..... गणित ,भूगोल कराया फेल .... दिया ‘दीया’ हाथ बिन तेल ... कभी भगत को पहचान ....प्रभु, कभी भगत को पहचान.. बाप का पिघलना,बेटे की पढ़ाई छुड़वाना,बेरोजगार अपढ़ बेटे का रईस बनना सब एक गाने के फ्लेश-बेक में हो जाता था । हीरोइन से इश्क के मुद्दे पर घर वालो से नाराजगी,इंटरवेल के बाद चलती थी । डाइरेक्टर को ,नदी के गाने ,’पनिया भरन’ के गाने ,सखी-सहेली के गाने,मंदिर जाने के बहाने वाले गाने और सब गानों में उलाहनो ,उलझनों को ...फिल्माने का उस जमाने में एक्सपर्ट होना जरूरी होता था । सब गानों में मीठी याद, याद में कसक, कसक में दर्द, दर्द में पीड़ा , जो जितनी अच्छी तरह से समेट ले वही बड़ा डायरेक्टर ....। रात का गहरा सन्नाटा है मगर हीरोइन के चहरे में गजब की लाईट दिखा के भाव को उभारना ,दिन का उज्वल प्रकाश है ,मगर हीरो किसी परछाई के नीचे दम साधे मायूसी का गीत गवा देना डिरेक्टर का कमाल होता था । उस जमाने में ये भी एक नजारा था । “मेरे पीया गए रंगून ,किया है वहाँ से टेलीफून ,तुम्हारी याद सताती है । ” जिस जमाने में चार-पांच दिन लाइन मिलाने में लग जाते थे वहा ,बहुत सहज भाव से रंगून एस टी डी लगी-लगाईं मिल रही है। प्यार करने वालों को हर जगह छूट का,कंसेशन का प्रायरटी का मामला हो जैसे । तब के लोगो को सिनेमाई नसीहत दी जाती थी कि ,गाव में कोई ‘खाप-पंचायत’ नहीं बेखौफ हो के प्यार करो ,गाना गाओ ,विलेन ठोको, शादी बनाओ। पूरे फ़िल्मी एपीसोड में बाप से ज्यादा कोई दूसरा तंग-बेहाल नहीं रहता था । बेचारा बाप अपनी इज्जत ,पगडी और प्रतिष्ठा के नाम पर बेटे को, बेटी को ‘प्यार’ से दूर रखने की कोशिशे करता था । आखिर में उसे झुकना है ,ये दर्शक टिकट लेने के पहले भी जानते थे । जनाने क्लास में सुबकियों का दौर चलता था ,बड़ा जालिम बाप है ,ये बुआ को तो काट के फेक देना चाहिए बहुत दुष्ट है, जैसे कमेंट्स लाखों बार सुने गए होंगे । हीरो या हिरोइन तब के हालात में सिसकियों भरा विरह गीत गा लेती थी जो बिनाका गीत माला में सुपरहिट हो के दो-तीन सालों तक बजा करता था । जनाब हमने भी प्यार-व्यार किया है । जिंदगी भर गाना गाने का सिचुएशन तलाशते रह गए । गाने की स्क्रिप्ट नहीं मिली । खुद की बनाई ‘चार लाइन’ के ‘बोल-धुन’ नहीं जमे । अकेले भी गुनगुनाने की हिम्मत नहीं हुई । कभी उसको चेताया कि इस मौके पर हमें कुछ गाने का जी कर रहा है, तो वे कहती कोई फिल्मी गाना वो भी सुर में गा सको तो सुना दो वरना टाइम क्यों खराब करते हो ? हमारे सिनेमा वाले, जाने कैसे सत्तर-अस्सी सालो से दिल की आवाज को लगातार बिना रोक-टोक फिल्माए जा रहे हैं ? हाल के दिनों में प्यार की अभिव्यक्ति में मुन्नी बदनाम हो रही है,चमेली पउव्वा चढा रही है ,कोई झंडू बाम रगड रही है,तो कोई उ.... ला... ला करके मस्तिया रही है। किसी की एंट्री में घंटी बज रही है तो कोई लुगी खिचाई में लगा दीखता है । इजहारे मोहब्बत का ये आलम कहाँ जा के रुकेगा पता नहीं ? प्यार के एक्सप्रेशंन ,इमोशन के तरीके में बदलाव हर युग में अपने –अपने तरीकों से होते आया है। तुझको मिर्ची लगी तो मै क्या करू .....? पहले खिचडी की गंध से पता चलता था कि अमुक घर में कोई बीमार चल रहा है ,अब तो घर-घर खिचडी पक रही है,मगर जरूरी नहीं कि सब बीमार हों ? सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ. ग.) २५.६.१४ आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का हास्य-व्यंग्य - हर दिल जो प्यार करेगा… http://www.rachanakar.org/2014/07/blog-post_8808.html#ixzz3CnbioDrv

मन तड़पत हरी दर्शन को

<जब भी मैं अपनी आस्था के दिए में, जी भर के तेल –घी डाल के बस जलाने ही वाला होता हूँ कि कहीं न कहीं बवाल हो जाता है। स्वनाम धन्य महाराज,अघोरी, एकटक बाबा ,पेट्रोल वाले बाबा,बुलेट बाबा,पायलट बाबा और ऐसे ही स्वयं घोषित बाबाओं -भगवानों को मैं , अपनी श्रधा-सुमन पेश करने की नीयत से तैयार करता हूँ या ज्यादातर कहूँ कि अर्धांगनी द्वारा एक्सपेल किया जाता हूँ कि “मानो .....नहीं मानोगे तो सद्गगति नहीं मिलती” ,तो यकायक कोई न कोई चमत्कार हो जाता है और मैं ढोगी लोगों के चक्कर में आते-आते रह जाता हूँ। पत्नी द्वारा मुझे, सदगति को समझाते-समझाते तकरीबन पच्चीस साल हो गए। इतना लंबा प्रवचन अनास्था को आस्था में बदलने का अपने आप में मिसाल है। शायद कहीं न मिले। जितनी जीवटता से उनने अपने प्रयास किये हैं उतनी शिद्दत से मैं भी अपनी अकड में कायम रहा हूँ। नहीं, मुझे इन ढकोसलेबाज साधू-महात्माओं के बीच मत घसीटो। मैं किसी दिन उनसे उलझ पडुंगा। ये लोग अजवाइन,मुग- मुलेठी,हरड,बहर,त्रिफला और किचन में शामिल चीजों के उपयोग और फायदे बता-बता के अपना प्रवचन टी आर पी बनाए रखते हैं। बीमारी के कारण और निदान के लिए क्या खाना है,-केला,करेला नीबू आंवला की जानकारी प्रवचन , बीच-बीच में देते रहते हैं। इनका मकसद होता है ज्यादा से ज्यादा लोगे घेरे में आयें। चढावा मिलता रहे। अमेरिका में ये क्या चल पायेंगे ?वहाँ वैज्ञानिक प्रमाण के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। इन बाबाओ की दाल पच्चास सीटी भी दे दो तो उधर के कुकर में नहीं गलेगी। हमने साइंस पढ़ा है। साइंस में ऐसी कोई चमत्कारिक चीज नहीं जिसके तह में उसके होने या न होने का कारण न छुपा हो। ये बाबा लोग सिर्फ और सिर्फ कुछ प्रयोग ,कुछ हाथ की सफाई ,नजरों का धोखा और सम्मोहन के उथले जानकार होते हैं। सिद्धियाँ किसी को नहीं मिली होती। हस्त रेखा बाबाओं को किसी मुर्दे के हाथ की छाप दिखा के देखो। उसके लंबी जीवन की गाथा पढ़ देंगे। इलेक्शन जीता देने की ग्यारंटी दे देंगे, राजयोग के हकदार बता देंगे। किसी बीमार मरणासन्न की कुंडली में, उनको बच्चे के यशस्वी होने का पूरा भविष्य दिख जाएगा, बता देंगे बहनजी ये एक दिन ऐसा सिक्सर लगाएगा कि दुनिया देखती रह जायेगी ! बशर्ते कुंडली बिच्ररवाने, किसी कुलीन घर की धनी महिला पहुंची हो। मेरे तर्कों को खारिज करना, और किसी बहाने मुझको देव दर्शन के लिए प्रति माह-दो माह में राजी कर लेना पत्नी का हक बनता है इससे मुझे आज भी इनकार नहीं है। सबकुछ ,जानकार ,मैं चुपचाप बिना बहस के उनके द्वारा ले जाए जाने वाले हर जगह, हर तीर्थ में सर नवा लेता हूँ। वैवाहिक जीवन की नय्या को पार लगाने के लिए ,इतनी आस्था की वो हकदार भी है ? अपने तर्कों से, उनकी भक्ति भाव को क्षीण करने में मेरी उक्तियाँ , भले कोई असर न छोडी हो मगर बाबाओं के प्रपंच से उनको सचेत जरुर कर रखा है। पहले, ‘बाबा दर्शन मात्र’ से पुलकित हो उठाती थी। चेहरा दमकने लगता था।ये भी लगता था कि, किसी जन्म के पुन्य थे, जो बाबा घर पधारे। बाबाओं का सत्कार करने, उनको ड्राइंग रूम में बिठाके मेवा-मिष्ठान का अंबार लगा देने ,छप्पन भोज परोसने में वो ये जतलाती थी कि मोहल्ले के किसी घर में है इतना दम ? ,दान-दक्षिणा में, सोने-चांदी,कपडे पैसे, यथा बाबा तथा चढावा का जी खोल अनुसरण करती। अब ,मेरे समझाइश को तव्वजो दे के , फक्त, पांच सौ से नीचे की राशि ही, इस मद में किसी –किसी बाबा को आवंटित कर पाती है। मैंने काश्मीर से कन्या-कुमारी तक के भक्ति-मार्ग, भक्तों और देवगणों की व्याख्या अपने तरीके से की है। उनके भगवान से पूछा है, जब इतने सारे भक्त-गण काल-कलवित हुए केदारनाथ में घटी त्रासदी में भगवान कहाँ गए थे ?मोक्ष को पाने का यही सुगम रास्ता है तो हर साल ये सुनामी क्यों नहीं आती ? पत्नी से अब ,जब आग्रह करता हूँ कि इस बार केदार बाबा के पास चलें, वो बहाने से टाल देती है, मंजू अभी पेट से है उसकी देखभाल जरूरी है ? कभी गंगा –हरिद्वार जाने की सोचा तो, मीडिया वालों ने इतना हल्ला मचाया कि गंगा मैं ली हो गई है? सरकारी सफाई अभियान में अनुमानित है ,अस्सी करोड लगेंगे| हमने सोचा लगा लो भाई , अस्सी करोड, तब चले जायेंगे, कौन जल्दी है ? कम से कम बदली हुई गंगा को , देख के ये तसल्ली हो सकेगी कि भगीरथ ने जिस गंगा के लिए इतना तप किया उस गंगा को हम सवा करोड लोग, क्या कारण थे कि अस्सी करोड वाली भेट नहीं दे सके थे आजतक ? गंगा दर्शन बाद, फक्र से मैंय्या से कहेंगे माँ गंगे हमने अस्सी करोड आपमें समर्पित किये हैं। अब तो अपने चाहने वालों का उद्धार करो माँ। ’माते’ हमारे कहे, इस आंकड़े में फेर हो तो, हमें क्षमा करना| इनमें से कुछ करोड अगर , भारत की भूखी जनता ,नेता .ठेकेदार ,इंजीनीयर के उदर में समा गए हो तो हमारे आकडे को माँ आप स्वयं सुधार लेना। माँ सब आपके बेटे हैं ,इनके अपराध क्षमा करना। कल वे सब ‘अस्थिया’ बन के आप के पास आयेंगे। तब के लिए ,आप अपना ‘सलूक’ इन गैर-इरादतन भ्रष्टाचारियों के प्रति अभी से सुरक्षित रख लें माँ। अगले पडाव में हम साईं को रखे हुए थे। अब कुछ संत लोग ये समझाइश दिए जा रहे हैं कि साईं जी को भगवान की श्रेणी में, लोगों ने, पैसा कमाने की नीयत से रख दिया था। वे कभी अपने आप को भगवान बोले ही नहीं ? तस्सल्ली है तो इस बात की कि इस मामले में कोई जांच आयोग बैठेगा नहीं| कोई सी बी आई, पुलिस वाले किसी को हडकायेंगे नहीं कि बताओ किसके कहने पे ये भगवान का दर्जा दिया ?बेचारा फकीर तुझसे बोलने तो नहीं आया था कि मुझे सम्मान दो ?बेकार दूसरों के कटोरे की आमदनी खराब कर दी ? लोग आस्था रखते हैं नेक आचरण पर ? अपने को भगवान कहलाये जाने वाले एक संत ने अमेरिका में जाके प्रवचन दिया। जिस किसी ने उन प्रवचनों में अपने आप को बहा लिया वे उन सब के लिए भगवान हो गए। बिल्कुल ऐसे ही ,लोगों ने अपना अभीष्ट साईं में देखा ,साईं उनके भगवान हो गए। किसी के हाथ –पैर तो बाँधना नहीं है कि नहीं .....इन्हें मत मानो ..... जहाँ हम अपने तर्क को घुसेड देते हैं, भगवान वहाँ से प्राय: लुप्त हो जाते हैं। या यूँ कहे, भगवान वहीं निवास करते हैं जो बिना राग-द्वेष-इर्ष्या-लालच के उनमे लींन हो जाए। फायदे की कोई बात न हो। सब प्रभु की इच्छा है ,यही सोच उत्तम रखे । अगर कहीं सचमुच प्रभु हैं, तो ‘प्रभु दर्शन की अवहेलना’ का पाप, मुझको कदम-कदम लगते जा रहा है ? इस ‘सहारे’ को ‘बुढापे की लाठी’ लोग यूँ ही नहीं कहते ? किसी दिन पूरी अनास्था छोड़ के, मैं अगर माथा टेके किसी दर पे मिल जाऊ, तो कतई आश्चर्य मत कीजियेगा। इतना जरुर है ,भगोड़े बाबाओं को, अगर वे मुझे ‘पारस’ देने का भी लालच दें, तो उनको अपनी गाँठ की चवन्नी भी न दूँ। सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग {छ.ग.} ८.७.१४ mob:09426764552 आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - मन तडपत .....हरी दर्शन को .... http://www.rachanakar.org/2014/07/blog-post_9.html#ixzz3CnbGjdJR

तू काहे न धीर धरे

काहे न धीर धरे ...... वैसे तो किसी के पास ‘मन’ दस –बीस नहीं होता, सो अपने पास भी नहीं है| ले-दे के ,पैदाइशी एक है जो,ज़रा सा भी कच्चे में उतरना नहीं चाहता | ऐशो-आराम का ‘तलबी’ है कमबख्त ....|. ज़रा सी गड़बड़ हुई नहीं कि उदास हो जाता है | कोप भवन में जाने का रिकार्ड , कैकेई माता के बाद मानो इसी का है | अब की बार इस दिल को जो शिकस्त मिली है, वो तो पूरे पांच साल वाली चोट है | उबर पायेंगे कि नहीं कह नहीं सकते ? आप तो खुद जानते हैं,राजनीति में ‘मुगालतें’ पालना एक ऐसी घुट्टी है, जो हर कोई राजनीति में आने के ‘डे-वन’ से पिए रहता है | गौर करने वाली बात है ,आपके पास अपनी कोई ‘शख्शियत’ नहीं, मगर पार्टी के दम में दहाड़ के, अच्छे-अच्छों की बोलती बंद किये रहते हैं | वे जो दिग्गज नेता हैं जिनके बारे में पता होता है कि वे घर में भी बैठे तो जीत जायेंगे |मगर वही दिग्गज पार्टी से दरकिनार कर दिए जाते हैं तो मानो उनकी कलई खुल जाती है|जमानत बचने-बचाने के लाले पड़े दिखते हैं | मुगालता, हम भी पाले बैठे थे.....? हमारे चमचों ने, कहाँ –कहाँ से आंकड़े ला के दिए, लगा हम दमखम से पार्टी के साथ कुर्सी हथिया रहे हैं|मिनिस्ट्री बन रही है |शपथ लिए जा रहे हैं |.......आंकड़े खुले तो चारों खाने चित्त | सपने में नहीं सोचे थे कि सींकिया पहलवान छाप बीडी जैसे लोग , हम खाते-पीते हुए ‘चुरुटो’ पर भारी पडेगे | ऐसा विचित्र किन्तु भ्रामक तथ्य बस फिल्मों में होते पाया जाता था | खैर अभी....मन जो है .....टुकड़े-टुकड़े है ....क्या करें कुछ समझ में नहीं आता ? ’मन’ में जोड़ लगाने वाला फेवीकोल ,क्विकफिक्स कहीं इजाद हुआ हो तो कहो ? ऐ भाई साहब.....!!! हमको मन में जोड़ लगाना है ,दो टूटे सिरों को गाँठ बाँध के जोडना नहीं है .....आप भी एकदम शार्टकट वाली पे आ जाते हो ? वैसे मन को टेम्परेरी तौर पर जोडने के, लोकल टाइप नुस्खे आजमाने में , कई ‘आदम’ जात लोग, ‘बोतल’ या ‘हव्वा’ की तरफ ताक-झांक करते पाऐ जाते हैं | हम जैसे ‘संस्कारी’ लोग जाए तो जाए कहाँ ...? हारने का दंश है....|नाग का डसा है.....,जख्म गहरा है.....| कहने को आम धारणा तो है,ये धीरे-धीरे उतरेगा –आप ही आप चला जाएगा ...? न जाने क्यों हमारी छठी इन्द्रिय, इलेक्शन के बीच-बीच में जवाब दिए जा रही थी, अब की बार ‘बालिंग’ ठीक नहीं हो रही है जनाब सम्हलो ....! हम दस-बीस साल पहले के सठियाये हुए पार्टी के धुरंधरों को बतलाने की कोशिशे की माजरा खुल के समझाना चाहा |वे हमे आलाकमान तक खुलने नही देते थे सो अनसुनी करते रहे ...| ”बाल” बल्ले के बीचो-बीच नहीं आ रहा है, शायद ‘पिच’ बनाने वाले ने गडबड की है ,मैच हाथ से निकला सा दिख रहा है |हमारी बात ऊपर , ‘रुई मास्टरों की फौज’ में दब के रह गई ?उल्टे हमी पे सबोटाज वाला इल्जाम लगा के इलेक्शन बाद सस्पेंड करवाने ,और देख लेने की जुगत में रहे भाई लोग | हमारा मन इस वजह से खट्टा जरूर हुआ, मगर इलेक्शन मझधार में फटा नहीं | अपना गनपत, खबर निकाल के लाया था, कि हमें हरवाने में हमारी पार्टी के दिग्गज ही एक हो लिए थे ? उनको लगा कि हम जीते तो मिनिस्ट्री पक्की |हमारी मिनिस्ट्री यानी मुन्नाफे की संभावनाएं भी हमारी | आजकल दूसरे की थाली को सजते हुए देखने का रिवाज मानो खत्म सा हो गया है | खेल कैसा भी हो,जो जीत रहा हो उसका बिगडना चाहिए | न खायेंगे न खाने देंगे वाली मानसिकता का नारा उछल गया है | बिलकुल नजदीकी लोग टांग खींचे रहते हैं क्या करें ? हमारे पास हमारे जीतने के बहुत से कारण और आंकड़े थे |गोया; हमने बाढ में, गाँव में फंसे लोगो की मदद की |राशन –पानी, टेंट,दवा दिलवाया |फसल बीमा का मुआवजा दिलवाया|मुरूम वाली सड़क को कोलतार वाली बनवाया |जिसमे ठेकेदार ने मुरूम पे सिर्फ कोलतार की पेंट चढा दी लोग उसे न पकड़ के मुझ पे इल्जाम थोप दिए |जनतंत्र में जनता की बात मानी जावे ये सोच के हम बोल नहीं पाए |(दिल यहाँ भी क्रेक हुआ |) गौरव पथ नाम के कई सड़कों का जीर्णोद्धार किया,तब जाके कुछ दिनों के लिए वे अपना नाम सार्थक कर सके |हम अपनी बिरादरी के लोगों को सायक्ल स्टेंड,मुफ्त रिक्शे,बच्चियों को सायकल ,बच्चों को लेपटाप और न जाने क्या-क्या बाटे |पाने वाले ज्यादा बता सकते हैं | इस पर भी हमें हारना लिखा था ....?धिक्कार है .....? लानत है ऐसे ‘माहौल’को या जाहिल ,गंवार,नासमझ,जनता को, जो, मायाजाल ,छलावा, लालच और भ्रम में जीने के लिए कुंठित हो गई है ?..... दिल टूटा है भाई! कह लेने दो ! ऐसे ही बस जी हल्का करने की फिराक में रहता हूँ |मुझे खुदा के वास्ते रोको मत ...... -- सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग) mob 08109949540 dt, 8.6.14

समीक्षा के बहाने

मुझे लिखते हुए बरसों हो गए। मैंने दरबार नहीं लगाए। जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया ,देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करते नहीं बनेगी। आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता। बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मैं ,साफ इंगित करते चलूँगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहाँ -कहाँ कितना दम है ?इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए। बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पाँव लौट जाना बेहतर समझता है। मै सोचता हूँ मुझे इतना घमंडी ,इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए ?क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग ?साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं ? फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं ....इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है। ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं। साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांत: सुखाय वाले हैं ,कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पाँव भाति राजधानी के आसपास ,जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है। हमने कविता लिखने वाले देखे ,चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं। मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं। इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है। श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है। परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए ? व्यंग,कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं। डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं “किसी की भावना को ठेस न लगे” का भरपूर ख्याल रखा गया है। जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी। यही तो इसकी जान है। आजकल इस ‘जान’ को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता। वो पिटना नहीं चाहता ,समझौता कर लेता है ?अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है। गैर-जरूरी विवाद में ,किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है ?साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ दम तोड़ देती है ? लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है। ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो ,ग्रीन है जाने दो। लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें ? मगर ,सोच की सीमा तय नहीं है,जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नई—नई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो ? हमारे एक मित्र ने,कहीं लेखक की खूबी यूँ बया की है कि इन पर “किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी”, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा । हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव ,तोलस्ताय,टैगोर.परसाई,शरद जोशी,शुक्ल,चतुर्वेदी सब समा जाए। सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलाँ-फलां की छाप मिलती है ? लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहाँ से पैदा होगी ?फिर भाई साब ,आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा। ‘समीक्षा’ के अघोषित आयाम होते हैं। भाषा की पकड़ ,शैली, सब्जेक्ट का फ्लो ,कथानक,। अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहाँ तक है ? सबसे अहम बात तो ये कि ,पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया। समीक्षक को निरंतर , लेखक का, “विज्ञापन- सूत्रधार” की भूमिका में देखते –देखते जी मानो उब सा गया है। सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ ग) आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - समीक्षा के बहाने http://www.rachanakar.org/2014/07/blog-post_5953.html#ixzz3Cnab6NUa

आता माझी सटकली

दिमाग, जब ‘दिमाग’ का काम करना बंद कर दे तो ‘सटकली’ वाली बात पैदा हो जाती है | फिलहाल, ये डिस्क्लेमर भी लगाता चलूं, कि यहाँ अभी हम ‘ब्रेन-डेड’ की वजह से दिमागी तौर पे सटके हुओं की चर्चा नहीं कर रहे हैं |अगले किसी एपिसोड में इनको भी देख लेगे | गौर करेंगे तो आपको अपने आसपास ही बात-बे –बात सटकने वाले लोगों की लंबी फेहरिस्त मिल जाएगी| बनिया ,मास्टर ,दर्जी ,नाइ ,धोबी ,दूधवाला ,सब्जीवाला ,कामवाली बाई और तो और आपकी अपनी वाली भी....| सब के सब जब ‘माझी-सटकली’ के भूत पर कभी न कभी सवार हो लेते हैं|कोई किसी से पंगा करके सटक लिया होता है तो कोई दूसरे के द्वारा देख लिए जाने की धमकी में सटक गया होता है | अगर सटके हुओं के सटकने से किसी वजह , विकराल स्तिथी उत्पन्न हो जाए तो स्तिथी की समीक्षा और मान-मनौव्वल के लिए आस-पास के यार –दोस्तों को घेरना पडता है | अपने यहाँ सटके हुओं की , परंपरा, रामायण -महाभारत के जमाने से ,विधिवत निभाई जाते रही है | माता कैकई की ‘सटकली’ राम को भारी पडी,..| इसी के चलते ,दशरथ जी पुत्र-वियोग, और ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ की परंपरा निर्वाह में परलोक सिधार गए | जिसे सत्ता काबिज होना था वे वन-वन भटकने ,राक्षसों से लडने ,असुरों के नाश करने के अभियान में निकल गए | जिसे सत्ता-काबिज करवाना था , वो स्वयं सटके हुए से केवल ‘खडाऊ –राज’ चलाते रहे | रावण महाराज , अपने दस सिरों में से, एक भी सर से सही काम न ले सके |दस के दस ‘सटक’ गए से थे | सीता-मईया किडनेपिंग केस , यानी रामायण के शब्दों में रावण द्वारा ‘उठा ले जाने पर’ उनके अहंकार का जो विनाश दो भाइयों ने किया, उस अंजाम का रिप्ले ,लोग ,आज तक सालाना लाइव-टेलीकास्ट के बतौर गली –गली, शहर –शहर दशहरा के नाम से इंज्वाय करते हैं| पहले मुझे रामलीला देखने का जबरदस्त शौक था |जहाँ कहीं रामलीला मंडली आती थी, मै सुबह –शाम-रात चक्कर मार लिया करता था | सुबह-शाम इसलिए कि देखे राम तैयार हुए कि नहीं? लक्ष्मण ,शूर्पनखा –सीता-माई नहाई –धोई कि नहीं ? धोबी-नाइ जो भारत –शत्रुघ्न का रोल प्ले करते हैं अपनी दूकान खोले कि नहीं ? इसके अलावा कुछ और स्थानीय पात्र होते, जो मुझे बाजार में सब्जी लेते ,गाय को चराने ले जाते दिख जाते | उन दिनों उनका क्रेज आज के ‘सलमान –केटरीना’ टाइप हुआ करता था |चाय के टपरे वाले, समोसे-चाय के, उनसे कभी पैसे लेते न देखे गए | रात को ‘लीला’ चालू होने पर अपनी जगह चुन के चिपक जाना,लीला चालू होने के पहले, उसी वक्त के बने साथियो के साथ राम-रावण युद्ध का पात्र बनना शौक और शगल सा था | थोड़ा बड़ा हुआ तो तर्क के साथ ‘लीला’ देखने लगा |हर साल बेचारे रावण को मरते देखता | मुझे यूँ लगता कि राम के पास, न तो पुलिसिया वर्दी है न लालबत्ती वाला रोब, और तो और ढंग के जवान,फौज-फटाके भी नहीं ,फिर कैसे वे रावण जैसे असुर सम्राट ,दस-दस ‘भेजों’ के मालिक से युद्ध में विजयी हो के लौट आए ? उसके घर में जा के उसी को पटखनी दे देना ,भेजे में आज भी घुसता नहीं ,मगर आज के फ़िल्मी हीरो को देख –देख के असहज बात सहज सी लग जाती है|चलो वैसा भी हुआ होगा ? पिताजी को, इन तर्को के बारे में, कभी-कभी जब वे अच्छे मूड में पाए जाते थे,दबी जुबान में सवाल किया करता? वे उल्टे पूछ पड़ते ,स्कूल का होमवर्क किया कि नहीं ?लाओ ,रिपोर्ट कार्ड दिखाओ ,बहुत ‘डल’ चल रहे हो आजकल | कहे देते हैं ,कल से घूमना फिरना बंद |और ये रामलीला की तरफ गए तो बता देते हैं टाग तोड़ देंगे | रामलीला जाना रुक गया | रामलीला के पूर्ण-विराम ने रूचि परिवर्तन का रोल स्वत: निभा दिया , उन दिनों छोटे-मोटे कवि- सम्मेलन खूब होते थे ,वहाँ घुसपैठ जारी हो गई|यहाँ एक बात सटीक जो थी वो ये कि कवि-सम्मेलनो में व्यक्त विचारों में ‘तर्क’ की कोई जगह बनती नहीं थी | अच्छी कविता हो तो ज्यादा ‘दाद’ नहीं हो तो हूट करके बिठा दिए जाने का चलन था उन दिनों | वहीं एक कवि को इतना दाद दिया, कि वे दाद पा-पा कर मेरे मुरीद हो गए| जहां भी जाते हमें साथ लिए जाते | ’साहित्य’ को उनने, मुझ जैसा ‘होनहार’ सौपकर, स्वयं ‘दुनिया-ए–फानी’ से रुखसत हो लिए | खैर उनकी आत्मा को शान्ति मिले |हम अपने सब्जेक्ट से भटके जा रहे हैं ,लौटते हैं वहीं फिर; दु:शासन ,दुर्योधन ,शकुनी धृतराष्ट्र और कौरवो के सामूहिक ‘सटकने’ का खटकना,किसने महसूस नहीं किया ? युद्ध की भयानक त्रासदी , वीभत्स परिणाम इंच-इंच जमीन के लिए अपनो का खून –खराबा ,जुए की हार-जीत पर झगड़ा-झंझट ,जोरू की लज्जा बचाव अभियान के लिए दंगा-फसाद|अपनों ने अपनों को मारा |लाशो पे लाशें बिछा दी | कुल मिला कर वही जर,जमीन,जोरू की लड़ाई में तब से आज तक ‘माझा-सटकली’ की बुनियाद | सटकने का अपना-अपना स्टाइल होता है| जिनके सटकने की ‘चरम’ नाना-स्टाइल की होती है,उनको उनका सटकना कभी –कभी बहुत भारी पड जाता है | मेरे ताऊ जी इसी केटेगरी के हैं, वे वक्त की नजाकत पहचानते नहीं ,भरी भीड़ में अनाप-शनाप बक आते हैं |भीड़ वाले उनको ढूढ –ढूढ कर पीटते हैं | कभी-कभी टिकट होने के बावजूद टी.टी.आई से रेलवे कानून पर यूँ भिडते हैं कि अगले स्टाप आने पर वे जी.आर.पी .के मेहमान हो जाते हैं |हम लोग उनके ‘समय –कुसमय’, ‘सटक’ जाने की गाथा का तफसील से ब्यौरा देकर छुडा पाते हैं | थानेदार कमेन्ट जरूर कर देते हैं ,ऐसे लोगों को खुला क्यूँ छोड़ देते हो? कुछ लोग हैं जिनको राजनीति में चाणक्य का खिताब मिला है| अब एक, जो राजनीति में हो और उपर से चाणक्य का खिताबधारी हो , उनका सटकना तो किसी सूरत में बनता ही नहीं ?मगर दिमाग तो दिमाग है कब घूम जाए ,किस बात पे कौन सा पुर्जा अपना काम करना बंद कर दे, कहा नहीं जा सकता| दिल पे जब कोई पास वाला चोट कर दे तो दिमाग से वे सब भी सटकेले पाए जाते हैं | किस्से –कहानियों में ये बात है कि, सूरज सात घोडो में सवार हो के निकलता है ,ऐक अकेला वही सारथी है ,जो सब को साथ लेकर अनगिनत युगों से बिना दम लिए चल रहा है बिना ज़रा सा सटके हुए ,भटके हुए | सुशील यादव आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - आता माझी सटकली http://www.rachanakar.org/2014/08/blog-post_31.html#ixzz3CnZncoUt

हम नहीं सुधरंगे

हम नहीं सुधरेंगे ..... बचपन की पढ़ी हुई एक कविता याद आ रही है ,जिसमें नटखट कन्हैय्या को माता यशोदा, पेड़ की ऊँची डाली से उतरने का मनुहार कर रही हैं। सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कलम से कुछ यूँ लिखी गई थी नीचे उठाओ मेरे भइय्या तुम्हें मिठाई दूंगी , नए खिलौने ,माखन मिश्री दूध मलाई दूगी ....... इस दृश्य का नटखट हाथ कब लगा पता नहीं? हमारे 7x7 दिनों वाले साहब ने,झाड़ू ले के गजब का साहस किया। समूचे इन्द्रप्रस्थ में फिरा दिया। वाह-वाह लायक सफाई हुई। वे मुगालता पालने लगे। जहां इतनी कम तैय्यारी में यूँ बड़ा काम हो सकता है तो क्यों न पूरे देश के कचरे से निपटा जावे ? भाई लोग स्वच्छ टोपी पहन के कचरे -गंदगी की तलाश में चारों तरफ फैल गए। कुछ डस्ट से एलर्जी रखने वाले लोगों ने उनसे कहा, हम लोग डस्ट वाली हवा में सांस नहीं ले पाते हैं, अगर आप सफाई पर आमादा ही हैं तो पानी का छींटा मार ज़रा दबा कर झाड़ू फेरिये ,जिससे डस्ट न उड़े ? स्वच्छ टोपी की नोक वाले अपने में मस्त किसकी परवाह करते ? उनको सफाई का तजुर्बा इस कदर मिल गया रहा कि, वे अपने –आप को फाइव-स्टार होटल सफाई के ठेके के हकदार जैसा समझाने लगे। इनकी जमात के ‘ओव्हर कांफिडेनसी’ ने बिना वैतरणी गंगा में डुबकी लगा ली । अब गंगा मैय्या सब को थोड़े ही पार लगवाती है। इन्हें किनारे वोटिंग लिस्ट की तरफ धकेल दिया। भाई साहब को गंगा मैय्या के आस-पास ,मान-माफिक चारों ओर कचरा ही कचरा ज्यादा फैला मिला। वे सफाई उत्साहित बहुत खुश हुए। मेरी पीठ अब जोरों से ठोंकी जायेगी। जनता की ‘गणित’ में , हर बार दो और दो मिल कर चार नहीं होते। उन्होंने जबरदस्त ठोंक दी कि कमर तक असर आन पहुंचा। कभी ये गणित ,अलग परिणाम दे जाते हैं। भाई साहब उबर नहीं पाए या यूँ कहें ,यहाँ फेल हो गए। कहते हैं ,करिश्मा,अजूबा और चमत्कार एक बार होता है। काठ की हांडी एक बार चढती है चाहे जो पका लो। हाँ खिचडी जबरदस्त बनती है। खाने का लुफ्त आ जाता है और हाजमा भी दुरुस्त रहता है। ये भी कहते हैं ,लाइफ में लक्ष्मी,सरस्वती ,दुर्गा,शान्ति जैसी देवियाँ, तरीके से एक बार ही आपका ‘दर’ खटखटाती है। समय रहते आपने ‘दर’ खोल लिया, उनका अच्छे से स्वागत किया, तो वे देर तक आपका साथ निभा जाती हैं। अगर आपका छत फटा नहीं है तो ये शक्तियाँ कहती हैं ,अपना छप्पर पहाड़ लो हमें आपको कुछ देना है। आप में समझ हो तो आप छप्पर भरी बरसात में तो न फाड़ेंगे ? ‘वेट’ करना, के मायने जो डिक्शनरी में है उसे जिन्दगी के व्याकरण में जरुर शामिल करना चाहिए। वक्त जरूरत यही तजुरबा के साथ-साथ दुनियादारी भी सिखाता है। जल्दबाजी में, इन देवियों को एक साथ रखने या पाने का आपका प्लान अगर आप बनाते हैं तो कहीं न कहीं फेल होना लाजिमी है। शास्त्र –पुराण कहते हैं इनका मेल एक साथ कदाचित नहीं होता। किस्मत के ‘जबरदस्त धनी’ होने में आप की गिनती यदा-कदा ही हो सकती है ? आप जबरदस्ती अपने आप को ‘धनी’ गिनवाने का लालच रखें , ये अलग बात है। इन्द्रप्रस्थ वाली जनता का कितना मनुहार था, कि भइय्या, नीचे हो लो। जितनी है उतने में चलाओ। ज्यादा की उम्मीदें मत पालो। हमें धीरे-धीरे,हमसे किये वादों का, हिसाब लेना आता है । हमें जल्दी नहीं है हिसाब-किताब के उबाऊ लफड़े में फसने की।थोड़ा बहुत जो हो सकता है कर देखो। हमारे उम्मीदों की ये मेले- ठेले को जाने वाली ‘मेट्रो’ नहीं है जो दुबारा नहीं मिलेगी ? हम इन्द्रप्रस्थियों को इन्तिजार में मजा आता है ,कल देखेंगे.कल हो जाएगा ,अभी क्या जल्दी है ? आप अपनी पूरी तैय्यारी के साथ ,पूरी प्लानिग के साथ ,मजबूती लिए आयें ,तब तक ,हम फिर से किसी अनहोनी छलावे के लिए अपने को तैयार किये लेते हैं ? सुशील यादव

नए नए चाणक्य .....?

नए नए चाणक्य .....? उस दिन कन्छेदी लगभग भागता हुआ आया। उसके इस प्रकार के लगभग भागते हुए, मेरी बैठक में मंच-प्रवेश, मुझे आशंकाओं के इर्द-गिर्द कर देता है। मैं पानी का गिलास ऐसे समय के लिए तत्काल हाजिर किये जाने का फरमान जारी किये हुए हूँ, जिसका पालन भी तत्काल हो जाता है। उसने दायें –बाए देखा, मै समझ गया मामला प्रायवेसी चाहता है। अन्य लोगो को हटाने का इशारा करके पूछा ,बताओ क्या बात है ? गुरुजी ,क्या गजब हो रहा है,उसने खुफियाना अंदाज में कहा , लोग पार्टी से धकियाये जा रहे हैं। नए –नए छोकरे घुस आये हैं। वे अपने आप को चाणक्य बताये जा रहे हैं। हैं स्साले मात्र ग्रेजुएट,पी जी वाले। क्या गुरुजी ,एम-बी- ए वगैरा की डिग्री में ऐसा कोई कोर्स होता है क्या ?कहते हैं हम सब बदल देंगे। गुरुजी आप कुछ तोड़ तो बताइये ?इन लौंडों-लापाडो से कैसे निपटें ? कन्छेदी मुझे स्वयं-भू गुरु माने बैठा है। दो –चार बार उसके आड़े वक्त में जो सलाह दी वो कामयाब रही। इलेक्शन के समय उसे कहाँ कैसी तैय्यारी करना है किससे बचना है किसको ठुकवाना है, उसके बहुत काम आया| भले इलेक्शन वो अपनी काबलियत पर जीता हो मगर तब से गुरु का खिताब मेरे सर पर रख गया। उसके चलते बाक़ी लोग भी मुझे गुरु ही बुलाने लग गए हैं। मैंने कहा कन्छेदी ,नये –नये चाणक्यों में कोई चोटीधारी भी है क्या ?उसने स-आश्चर्य पूछा क्यों गुरुजी ? मैंने कहा ,सिर्फ चोटी वाले ही किसी का कुछ बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। वे चोटी को कसम के साथ को फिट कर देते हैं। शपथ के साथ भरी सभा में हूंकार भर के कह जाते हैं, ये चोटी तभी बंधेगी जब अमुक का सर्वनाश होगा ? बाक़ी लोग अपने को भले चाणक्य की केटेगरी का समझते हों वे मात्र एम बी ऐ वाले स्टूडेंट हैं उनसे खतरा भापने की जरूरत नहीं। मगर हाँ ,डिटेल में बताओ आजकल तुम्हारे पालिटिक्स में क्या हो रहा है इधर ? क्या बताये गुरुदेव ,एक नारा उछल गया है, न खायेंगे न खाने देंगे| भला पालिटिक्स में ये सब चलता है क्या ? हमारी समझ से गुरुदेव पालिटिक्स बना ही खाने पीने के वास्ते है। जो बताते हैं देश सेवा के वास्ते इधर भटक रहे हैं,मई साफ-साफ कहूँ , वे सब जनता को गुमराह किये दे रहे हैं। देश सेवा मूक-बधिर माफिक की जाती है, चुपचाप। किसी को कानो-कान खबर नहीं होती की देश –सेवा की जा रही है। लोग भगवान –गाड- अल्लाह की पूजा –इबादत करते हैं तो हल्ला बिलकुल नहीं करते जो भी मन्नंत मागना हो मांग लेते हैं चुपचाप। यही इश वन्दना है और ऐसे ही देश-सेवा की जानी चाहिए। हमने तो गुरुजी आपसे पहले दिन ही कह दिया था, जब आपने पूछा था पालिटिक्स में आने का हमारा मकसद क्या है ?हमने कहा था नाम कमाना चाहते हैं। (दाम कमाने के बारे में संकोच से कुछ कह न पाए थे )|अब नाली –पानी सुधरवाने के लिए तो हम पालिटिक्स में घुसे न थे ना ? गुरुजी हमारा काम अच्छे से चल निकला था ,मिनिस्ट्री हाथ लगाने को थी मगर कुछ तोडू –दस्ता बीच में घुस आये। नए –नए विधायक बने हैं तीसमारखा समझाते हैं, तैमूरलंग की औलाद लोग । कभी नहा के अपनी चड्डी धोये-सुखाये नहीं। इन्हें क्या मालूम तकनीक क्या है ? कहते हैं उम्र दराज लोगों को किनारे करो। हम नये हैं नया उत्साह है ,नइ उमंगे हैं कुछ कर दिखाने का हममे ओर केवल हमी में दम है| गुरुजी क्या वे सही बोल रहे हैं ?हमारी नय्या डोलने लगी है। आशंकाओं से नीद कोसो दूर हो गई है अब क्या होगा की चिंता सताए-खाए जा रही है। सी एम ,अगर उनकी सुनते हैं तो हम लोग दरकिनार कर दिए जायेगे ? मैंने कहा ,देखो कन्छेदी ,ये सब जनता की एक तरफा सोच का नतीजा है उनने एक पार्टी को तीन-चौथाई बहुमत में भेज दिया। आजकल इसके ये मायने हो गए हैं कि ऊपर ओहदे में बैठा आदमी स्वेच्छाचारी बन गया है। उसे अपनी पसन्द के लोगो को साथ रखने की खुली छूट मिल गई है। पहले चार-आठ दलो को लेकर कुर्सी के पाए सधाए जाते थे ,जिसमे हर बुजुर्ग की अहम् भूमिका नजर आती थी। यही कारण था कि तुम्हारी खबर भी अच्छे से ली जाती रही अबतक ?समझे की नहीं ? खैर, बात कुछ ज्यादा बिगड़ी नहीं ,कितने बुजुर्ग लोग हैं तुम्हारे साथ ?एक आन्दोलन खडा करना पड़ेगा। तरीके से, न खायेंगे न खाने देंगे का नारा बुलंद करना पड़ेगा ? तुम लोगों को, एक ‘निगरानी -दफ्तर’ के माफिक काम करना होगा। एक-एक काम का ,एक-एक ठेके का ,एक-एक मिनिस्टर की हैसियत का लेखा-जोखा देखना-परखना जांचना होगा। घी सीधी उंगली से न निकले तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है। उगली करने के और भी तरीके हैं वक्त आने पर इसकी ट्रेनिग लेने के लिए खुद को तैयार रखना। फिलहाल इतने से काम चल जाएगा। अगर नहीं चला तो मुझसे आगे मिलना ,कुछ नए करिश्मे वाली बात बताउंगा ? कन्छेदी ,पैर छूकर चलता बना। सुशील यादव
रेट कार्ड 09/01/2014 नए-नए चाणक्य! सुशील यादव उस दिन कन्छेदी लगभग भागता हुआ आया। उसके इस प्रकार के लगभग भागते हुए, मेरी बैठक में मंच-प्रवेश, मुझे आशंकाओं के इर्द-गिर्द कर देता है। मैं पानी का गिलास ऐसे समय के लिए तत्काल हाजिर किये जाने का फरमान जारी किये हुए हूँ, जिसका पालन भी तत्काल हो जाता है। उसने दायें-बाए देखा, मै समझ गया मामला प्रायवेसी चाहता है। अन्य लोगांे को हटाने का इशारा करके पूछा, बताओ क्या बात है? गुरुजी, क्या गजब हो रहा है, उसने खुफियाना अंदाज में कहा, लोग पार्टी से धकियाये जा रहे हैं। नए-नए छोकरे घुस आये हैं। वे अपने आप को चाणक्य बताये जा रहे हैं। हैं साले मात्र ग्रेजुएट, पी जी वाले। क्या गुरुजी, एम-बी-ए वगैरा की डिग्री में ऐसा कोई कोर्स होता है क्या? कहते हैं हम सब बदल देंगे। गुरुजी आप कुछ तोड़ तो बताइये? इन लौंडों-लापाडो से कैसे निपटें? कन्छेदी मुझे स्वयं-भू गुरु माने बैठा है। दो-चार बार उसके आड़े वक्त में जो सलाह दी वो कामयाब रही। इलेक्शन के समय उसे कहाँ कैसी तैय्यारी करना है किससे बचना है किसको ठुकवाना है, उसके बहुत काम आया। भले इलेक्शन वो अपनी काबिलियत पर जीता हो मगर तब से गुरु का खिताब मेरे सर पर रख गया। उसके चलते बाक़ी लोग भी मुझे गुरु ही बुलाने लग गए हैं। मैंने कहा कन्छेदी, नये-नये चाणक्यों में कोई चोटीधारी भी है क्या? उसने स-आश्चर्य पूछा क्यों गुरुजी ? मैंने कहा, सिर्फ चोटी वाले ही किसी का कुछ बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। वे चोटी को कसम के साथ को फिट कर देते हैं। शपथ के साथ भरी सभा में हूंकार भर के कह जाते हैं, ये चोटी तभी बंधेगी जब अमुक का सर्वनाश होगा? बाक़ी लोग अपने को भले चाणक्य की केटेगरी का समझते हों वे मात्र एम बी ऐ वाले स्टूडेंट हैं उनसे खतरा भापने की जरूरत नहीं। मगर हाँ, डिटेल में बताओ आजकल तुम्हारे पालिटिक्स में क्या हो रहा है इधर? क्या बताये गुरुदेव, एक नारा उछल गया है, न खायेंगे न खाने देंगे। भला पालिटिक्स में ये सब चलता है क्या? हमारी समझ से गुरुदेव पालिटिक्स बना ही खाने पीने के वास्ते है। जो बताते हैं देश सेवा के वास्ते इधर भटक रहे हैं, मई साफ-साफ कहूँ, वे सब जनता को गुमराह किये दे रहे हैं। देश सेवा मूक-बधिर माफिक की जाती है, चुपचाप। किसी को कानांे-कान खबर नहीं होती की देश-सेवा की जा रही है। लोग भगवान -गाड- अल्लाह की पूजा -इबादत करते हैं तो हल्ला बिलकुल नहीं करते जो भी मन्नत मागना हो मांग लेते हैं चुपचाप। यही इश वन्दना है और ऐसे ही देश-सेवा की जानी चाहिए। हमने तो गुरुजी आपसे पहले दिन ही कह दिया था, जब आपने पूछा था पालिटिक्स में आने का हमारा मकसद क्या है? हमने कहा था नाम कमाना चाहते हैं। (दाम कमाने के बारे में संकोच से कुछ कह न पाए थे )। अब नाली-पानी सुधरवाने के लिए तो हम पालिटिक्स में घुसे न थे ना? गुरुजी हमारा काम अच्छे से चल निकला था, मिनिस्ट्री हाथ लगाने को थी मगर कुछ तोडू-दस्ता बीच में घुस आये। नए-नए विधायक बने हैं तीसमारखा समझाते हैं, तैमूरलंग की औलाद लोग। कभी नहा के अपनी चड्डी धोये-सुखाये नहीं। इन्हें क्या मालूम तकनीक क्या है? कहते हैं उम्र दराज लोगों को किनारे करो। हम नये हैं नया उत्साह है ,नइ उमंगे हैं कुछ कर दिखाने का हममे और केवल हमी में दम है। गुरुजी क्या वे सही बोल रहे हैं? हमारी नय्या डोलने लगी है। आशंकाओं से नीद कोसो दूर हो गई है अब क्या होगा की चिंता सताए-खाए जा रही है। सी एम ,अगर उनकी सुनते हैं तो हम लोग दरकिनार कर दिए जायेगे? मैंने कहा ,देखो कन्छेदी ,ये सब जनता की एक तरफा सोच का नतीजा है उनने एक पार्टी को तीन-चौथाई बहुमत में भेज दिया। आजकल इसके ये मायने हो गए हैं कि ऊपर ओहदे में बैठा आदमी स्वेच्छाचारी बन गया है। उसे अपनी पसन्द के लोगो को साथ रखने की खुली छूट मिल गई है। पहले चार-आठ दलो को लेकर कुर्सी के पाए सधाए जाते थे, जिसमे हर बुजुर्ग की अहम् भूमिका नजर आती थी। यही कारण था कि तुम्हारी खबर भी अच्छे से ली जाती रही अबतक? समझे की नहीं? खैर, बात कुछ ज्यादा बिगड़ी नहीं, कितने बुजुर्ग लोग हैं तुम्हारे साथ? एक आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा। तरीके से, न खायेंगे न खाने देंगे का नारा बुलंद करना पड़ेगा? तुम लोगों को, एक �निगरानी -दफ्तर� के माफिक काम करना होगा। एक-एक काम का, एक-एक ठेके का ,एक-एक मिनिस्टर की हैसियत का लेखा-जोखा देखना-परखना जांचना होगा। घी सीधी उंगली से न निकले तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है। उगली करने के और भी तरीके हैं वक्त आने पर इसकी ट्रेनिग लेने के लिए खुद को तैयार रखना। फिलहाल इतने से काम चल जाएगा। अगर नहीं चला तो मुझसे आगे मिलना, कुछ नए करिश्मे वाली बात बताउंगा? कन्छेदी, पैर छूकर चलता बना। 0 @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 08/22/2014 हम नहीं सुधरेंगे... -सुशील यादव- बचपन की पढ़ी हुई एक कविता याद आ रही है, जिसमें नटखट कन्हैय्या को माता यशोदा, पेड़ की ऊंची डाली से उतरने का मनुहार कर रही हैं। सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कलम से कुछ यूं लिखी गई थी नीचे उठाओ मेरे भइय्या, तुम्हें मिठाई दूंगी, नए खिलौने, माखन मिश्री ,दूध मलाई दूगी....... इस दृश्य का नटखट हाथ कब लगा पता नहीं? हमारे 7 गुणा 7 दिनों वाले साहब ने, झाड़ू ले के गजब का साहस किया। समूचे इन्द्रप्रस्थ में फिरा दिया। वाह-वाह लायक सफाई हुई। …….वे मुगालता पालने लगे…….। जहां इतनी कम तैय्यारी में यूं बड़ा काम हो सकता है तो क्यों न पूरे देश के कचरे से निपटा जावे? भाई लोग स्वच्छ टोपी पहन के कचरे -गंदगी की तलाश में चारों तरफ फैल गए। कुछ डस्ट से एलर्जी रखने वाले लोगों ने उनसे कहा, हम लोग डस्ट वाली हवा में सांस नहीं ले पाते हैं, अगर आप सफाई पर आमादा ही हैं तो पानी का छींटा मार ज़रा दबा कर झाड़ू फेरिये, जिससे डस्ट न उड़े? स्वच्छ टोपी की नोक वाले अपने में मस्त किसकी परवाह करते? उनको सफाई का तजुर्बा इस कदर मिल गया रहा कि, वे अपने दृआप को फाइव-स्टार होटल सफाई के ठेके के हकदार जैसा समझाने लगे। इनकी जमात के ओव्हर कांफिडेनसी ने बिना वैतरणी गंगा में डुबकी लगा ली। अब गंगा मैय्या सब को थोड़े ही पार लगवाती है। इन्हें किनारे वोटिंग लिस्ट की तरफ धकेल दिया। भाई साहब को गंगा मैय्या के आस-पास, मान-माफिक चारों ओर कचरा ही कचरा ज्यादा फैला मिला। वे सफाई उत्साहित बहुत खुश हुए। मेरी पीठ अब जोरों से ठोंकी जायेगी। जनता की गणित में, हर बार दो और दो मिल कर चार नहीं होते। उन्होंने जबरदस्त ठोंक दी कि कमर तक असर आन पहुंचा। कभी ये गणित, अलग परिणाम दे जाते हैं। भाई साहब उबर नहीं पाए या यूं कहें, यहां फेल हो गए। कहते हैं, करिश्मा, अजूबा और चमत्कार एक बार होता है। काठ की हांडी एक बार चढती है चाहे जो पका लो। हां खिचडी जबरदस्त बनती है। खाने का लुफ्त आ जाता है और हाजमा भी दुरुस्त रहता है। ये भी कहते हैं, लाइफ में लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, शान्ति जैसी देवियां, तरीके से एक बार ही आपका दर खटखटाती है। समय रहते आपने दर खोल लिया, उनका अच्छे से स्वागत किया, तो वे देर तक आपका साथ निभा जाती हैं। अगर आपका छत फटा नहीं है तो ये शक्तियां कहती हैं, अपना छप्पर पहाड़ लो हमें आपको कुछ देना है। आप में समझ हो तो आप छप्पर भरी बरसात में तो न फाड़ेंगे? वेट करना, के मायने जो डिक्शनरी में है उसे जिन्दगी के व्याकरण में जरुर शामिल करना चाहिए। वक्त जरूरत यही तजुरबा के साथ-साथ दुनियादारी भी सिखाता है। जल्दबाजी में, इन देवियों को एक साथ रखने या पाने का आपका प्लान अगर आप बनाते हैं तो कहीं न कहीं फेल होना लाजिमी है। शास्त्र दृपुराण कहते हैं इनका मेल एक साथ कदाचित नहीं होता। किस्मत के जबरदस्त धनी होने में आप की गिनती यदा-कदा ही हो सकती है? आप जबरदस्ती अपने आप को धनी गिनवाने का लालच रखें, ये अलग बात है। इन्द्रप्रस्थ वाली जनता का कितना मनुहार था, कि भइय्या, नीचे हो लो। जितनी है उतने में चलाओ। ज्यादा की उम्मीदें मत पालो। हमें धीरे-धीरे, हमसे किये वादों का, हिसाब लेना आता है। हमें जल्दी नहीं है हिसाब-किताब के उबाऊ लफड़े में फसने की। थोड़ा बहुत जो हो सकता है कर देखो। हमारे उम्मीदों की ये मेले-ठेले को जाने वाली मेट्रो नहीं है जो दुबारा नहीं मिलेगी? हम इन्द्रप्रस्थियों को इन्तिजार में मजा आता है, कल देखेंगे.कल हो जाएगा, अभी क्या जल्दी है? आप अपनी पूरी तैय्यारी के साथ, पूरी प्लानिग के साथ, मजबूती लिए आयें, तब तक, हम फिर से किसी अनहोनी छलावे के लिए अपने को तैयार किये लेते हैं? @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 08/20/2014 आता माझी सटकली ……. -सुशील यादव- दिमाग, जब दिमाग का काम करना बंद कर दे तो सटकली वाली बात पैदा हो जाती है। फिलहाल, ये डिस्क्लेमर भी लगाता चलूं, कि यहां अभी हम ब्रेन-डेड की वजह से दिमागी तौर पे सटके हुओं की चर्चा नहीं कर रहे हैं। अगले किसी एपिसोड में इनको भी देख लेगे। गौर करेंगे तो आपको अपने आसपास ही बात-बे-बात सटकने वाले लोगों की लंबी फेहरिस्त मिल जाएगी। बनिया, मास्टर, दर्जी, नाइ, धोबी, दूधवाला, सब्जीवाला, कामवाली बाई और तो और आपकी अपनी वाली भी....। सब के सब जब माझी-सटकली के भूत पर कभी न कभी सवार हो लेते हैं। कोई किसी से पंगा करके सटक लिया होता है तो कोई दूसरे के द्वारा देख लिए जाने की धमकी में सटक गया होता है। अगर सटके हुओं के सटकने से किसी वजह, विकराल स्तिथी उत्पन्न हो जाए तो स्तिथी की समीक्षा और मान-मनौव्वल के लिए आस-पास के यार-दोस्तों को घेरना पड़ता है। अपने यहां सटके हुओं की, परंपरा, रामायण -महाभारत के जमाने से, विधिवत निभाई जाते रही है। माता कैकई की सटकली राम को भारी पड़ी। इसी के चलते, दशरथ जी पुत्र-वियोग, और प्राण जाए पर वचन न जाए की परंपरा निर्वाह में परलोक सिधार गए। जिसे सत्ता काबिज होना था वे वन-वन भटकने, राक्षसों से लडने, असुरों के नाश करने के अभियान में निकल गए। जिसे सत्ता-काबिज करवाना था, वो स्वयं सटके हुए से केवल खडाऊ-राज चलाते रहे। रावण महाराज, अपने दस सिरों में से, एक भी सर से सही काम न ले सके।दस के दस सटक गए से थे। सीता-मईया किडनेपिंग केस, यानी रामायण के शब्दों में रावण द्वारा उठा ले जाने पर उनके अहंकार का जो विनाश दो भाइयों ने किया, उस अंजाम का रिप्ले, लोग, आज तक सालाना लाइव-टेलीकास्ट के बतौर गली-गली, शहर-शहर दशहरा के नाम से इंज्वाय करते हैं। पहले मुझे रामलीला देखने का जबरदस्त शौक था।जहां कहीं रामलीला मंडली आती थी, मै सुबह-शाम-रात चक्कर मार लिया करता था। सुबह-शाम इसलिए कि देखे राम तैयार हुए कि नहीं? लक्ष्मण, शूर्पनखा-सीता-माई नहाई-धोई कि नहीं? धोबी-नाइ जो भारत-शत्रुघ्न का रोल प्ले करते हैं अपनी दूकान खोले कि नहीं? इसके अलावा कुछ और स्थानीय पात्र होते, जो मुझे बाजार में सब्जी लेते, गाय को चराने ले जाते दिख जाते। उन दिनों उनका क्रेज आज के सलमान-केटरीना टाइप हुआ करता था।चाय के टपरे वाले, समोसे-चाय के, उनसे कभी पैसे लेते न देखे गए। रात को लीला चालू होने पर अपनी जगह चुन के चिपक जाना, लीला चालू होने के पहले, उसी वक्त के बने साथियो के साथ राम-रावण युद्ध का पात्र बनना शौक और शगल सा था। थोड़ा बड़ा हुआ तो तर्क के साथ लीला देखने लगा।हर साल बेचारे रावण को मरते देखता। मुझे यूं लगता कि राम के पास, न तो पुलिसिया वर्दी है न लालबत्ती वाला रोब, और तो और ढंग के जवान, फौज-फटाके भी नहीं, फिर कैसे वे रावण जैसे असुर सम्राट, दस-दस भेजों के मालिक से युद्ध में विजयी हो के लौट आए? उसके घर में जा के उसी को पटखनी दे देना, भेजे में आज भी घुसता नहीं, मगर आज के फिल्मी हीरो को देख-देख के असहज बात सहज सी लग जाती है।चलो वैसा भी हुआ होगा? पिताजी को, इन तर्को के बारे में, कभी-कभी जब वे अच्छे मूड में पाए जाते थे, दबी जुबान में सवाल किया करता? वे उल्टे पूछ पड़़ते, स्कूल का होमवर्क किया कि नहीं?लाओ, रिपोर्ट कार्ड दिखाओ, बहुत डल चल रहे हो आजकल। कहे देते हैं, कल से घूमना फिरना बंद।और ये रामलीला की तरफ गए तो बता देते हैं टाग तोड़ देंगे। रामलीला जाना रुक गया……।……रामलीला के पूर्ण-विराम ने रूचि परिवर्तन का रोल स्वतः निभा दिया, उन दिनों छोटे-मोटे कवि-सम्मेलन खूब होते थे, वहां घुसपैठ जारी हो गई। यहां एक बात सटीक जो थी वो ये कि कवि-सम्मेलनो में व्यक्त विचारों में तर्क की कोई जगह बनती नहीं थी। अच्छी कविता हो तो ज्यादा दाद नहीं हो तो हूट करके बिठा दिए जाने का चलन था उन दिनों। वहीं एक कवि को इतना दाद दिया, कि वे दाद पा-पा कर मेरे मुरीद हो गए। जहां भी जाते हमें साथ लिए जाते। साहित्य को उनने, मुझ जैसा होनहार सौपकर, स्वयं दुनिया-एदृफानी से रुखसत हो लिए। खैर उनकी आत्मा को शान्ति मिले। हम अपने सब्जेक्ट से भटके जा रहे हैं, लौटते हैं वहीं फिर, दुःशासन, दुर्योधन, शकुनी धृतराष्ट्र और कौरवो के सामूहिक सटकने का खटकना, किसने महसूस नहीं किया? युद्ध की भयानक त्रासदी, वीभत्स परिणाम इंच-इंच जमीन के लिए अपनो का खून-खराबा, जुए की हार-जीत पर झगड़ा-झंझट, जोरू की लज्जा बचाव अभियान के लिए दंगा-फसाद। अपनों ने अपनों को मारा।लाशो पे लाशें बिछा दी। कुल मिला कर वही जर, जमीन, जोरू की लड़ाई में तब से आज तक माझा-सटकली की बुनियाद। सटकने का अपना-अपना स्टाइल होता है। जिनके सटकने की चरम नाना-स्टाइल की होती है, उनको उनका सटकना कभी-कभी बहुत भारी पड़ जाता है। मेरे ताऊ जी इसी केटेगरी के हैं, वे वक्त की नजाकत पहचानते नहीं, भरी भीड़ में अनाप-शनाप बक आते हैं।भीड़ वाले उनको ढूढ-ढूढ कर पीटते हैं। कभी-कभी टिकट होने के बावजूद टीटीआई से रेलवे कानून पर यूं भिडते हैं कि अगले स्टाप आने पर वे जी.आर.पी .के मेहमान हो जाते हैं।हम लोग उनके समय-कुसमय, सटक जाने की गाथा का तफसील से ब्यौरा देकर छुडा पाते हैं। थानेदार कमेन्ट जरूर कर देते हैं, ऐसे लोगों को खुला क्यूं छोड़ देते हो? कुछ लोग हैं जिनको राजनीति में चाणक्य का खिताब मिला है। अब एक, जो राजनीति में हो और उपर से चाणक्य का खिताबधारी हो, उनका सटकना तो किसी सूरत में बनता ही नहीं? मगर दिमाग तो दिमाग है कब घूम जाए, किस बात पे कौन सा पुर्जा अपना काम करना बंद कर दे, कहा नहीं जा सकता। दिल पे जब कोई पास वाला चोट कर दे तो दिमाग से वे सब भी सटकेले पाए जाते हैं। किस्से-कहानियों में ये बात है कि, सूरज सात घोडो में सवार हो के निकलता है, ऐक अकेला वही सारथी है, जो सब को साथ लेकर अनगिनत युगों से बिना दम लिए चल रहा है बिना जरा सा सटके हुए, भटके हुए। @ for webvarta news Agency Login | Registration 07/25/2014 समीक्षा के बहाने -सुशील यादव- मुझे लिखते हुए बरसों हो गए। मैंने दरबार नहीं लगाए। जो एक-दो लोग पुस्तक छपवाने से पहले, भूमिका लिखवाने का आग्रह लेकर आये भी तो, मैं बकायदा टालने की गरज से कह दिया, देखिये मुझसे बिना किसी ठोस वजह के आपके लेखन की लाइन दर लाइन वाह-वाही करते नहीं बनेगी। आपको किसी विशिष्ठ लेखक के समकक्ष सिद्ध करने की न मेरी हैसियत है और न क्षमता। बिना किसी लाग लपेट के आपके द्वारा लिखे आर्टिकल्स पर मैं, साफ इंगित करते चलूंगा कि, आप की लेखकीय क्षमता में कहां -कहां कितना दम है? इतनी साफ गोई की बातों से आपका साहित्यिक करियर अधमरा या मृत प्राय हो जाएगा, आप सोच लीजिए। बेचारा लेखक बिना चाय की प्रतीक्षा के उल्टे पांव लौट जाना बेहतर समझता है। मै सोचता हूं मुझे इतना घमंडी, इतना निरंकुश नहीं होना चाहिए? क्या बिगाड़ रहे हैं ये लोग? साहित्य की सेवा ही तो कर रहे हैं? फिर दूसरे, मेरी धारणा बनती है नहीं.... इनके साथ सख्त होना साहित्य की ज्यादा सेवा है। ये लोग साहित्य के नाम पर उल-जलूल चीजें दे रहे हैं। साहित्य सेवा की आड में कुछ स्वांतः सुखाय वाले हैं, कुछ उथली प्रशश्ति के लिए लालायित हैं, कुछ राजनीति में दाल-रोटी की जुगाड वाले, या दीगर चाटुकारिता में अंगद के पांव भाति राजधानी के आसपास, जमने-जमाने के फिराक में सरकारी विज्ञापन बटोरू लोग है। हमने कविता लिखने वाले देखे, चार कविता ले के जिंदगी भर गोष्ठियों में घूमते रहते हैं। मंच में फूहडता और चुटकुलेबाजी के दम पर टिके रहने के ख्वाहिशमंद मिलते हैं। इन लोगों ने साहित्य का पूरा बन्ठाधार कर दिया है। श्रोताओं का यही टेस्ट बना दिया है। परिणाम सामने है आज एक भी श्रोता उपलब्ध नहीं है, जो पूरे आयोजन में अपनी कान लगाए? व्यंग, कहानी लिखने वाले बच के लिखना चाहते हैं। डिस्क्लेमर पहले से लगा के चलते हैं �किसी की भावना को ठेस न लगे� का भरपूर ख्याल रखा गया है। जब तक आप किसी की भावना को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ठेस नहीं पहुचाओगे, आपके व्यंग की आत्मा अतृप्त रहेगी। यही तो इसकी जान है। आजकल इस जान को बचाने के चक्कर में लेखक अपनी जान जोखिम में नही डालना चाहता। वो पिटना नहीं चाहता, समझौता कर लेता है? अगर लेखक हिम्मत भी दिखा दे तो प्रकाशक पीछे हट जाता है। गैर-जरूरी विवाद में, किसी की फटी में टांग घुसेडने की किसको पडी है? साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता यहां दम तोड़ देती है? लेखक सांकेतिक जीव हो जाता है। ट्रेफिक कंट्रोलर की भूमिका मात्र रह जाती है लाइट रेड है रोक दो, ग्रीन है जाने दो। लेखन से गंभीर तत्व की बिदाई ऐसे हो गई है, जैसे हमारे पहले के लोगो ने पूरे टापिक पर लिख ही दिया है अब बचा क्या है क्या लिखें? मगर, सोच की सीमा तय नहीं है, जब तक सोच दिमाग में उथल-पुथल करता रहेगा नईकृनई चीजे इजाद होटी रहेगी चाहे वो साहित्य ही क्यं न हो? हमारे एक मित्र ने, कहीं लेखक की खूबी यूं बया की है कि इन पर �किसी साहित्यिक मुगले आजम की छाप नहीं पडी�, मुझे यहीं तरस आता है, कम से कम कुछ छाप पडी होती तो सिद्ध हस्त लेखक बन गया होता बेचारा। हम तो चाहते हैं कि हममें चेखव, तोलस्ताय, टैगोर-परसाई, शरद जोशी, शुक्ल, चतुर्वेदी सब समा जाए। सब का निछोड एक कालजयी रचना बन के तो निकले लोग कहे इनमे फलां-फलां की छाप मिलती है? लेखक जब सिद्ध-हस्तों को पढेगा नहीं तो छाप कहां से पैदा होगी? फिर भाई साब, आपका कहना सोचना सोलह आने सही है कि साहित्य के मुग़ल दरबार की आंच से वो बचा रहा। समीक्षा के अघोषित आयाम होते हैं। भाषा की पकड़, शैली, सब्जेक्ट का फ्लो, कथानक। अगर रचना सामयिक है तो समसामयिक घटनाओं-बयानों-आंकड़ों में लेखक की पहुच कहां तक है? सबसे अहम बात तो ये कि, पाठक वर्ग तलाश करने में रचना कितनी सक्षम है? इसका और केवल इसी एक बात का अगर व्यापक विश्लेषण कर लिया जावे तो समझो समीक्षक ने बड़े महत्व का काम कर लिया। समीक्षक को निरंतर, लेखक का, �विज्ञापन-सूत्रधार� की भूमिका में देखते दृदेखते जी मानो उब सा गया है। (साभार: रचनाकार) • @ for webvarta news Agency रेट कार्ड 07/21/2014 रेट कार्ड Login | Registration 07/21/2014 कुछ कहने पे तूफान उठा लेती है दुनिया.... ये दुनिया इतनी बड़ी नहीं कि मुट्ठी में न समा सके....? आप की वाणी इतनी सरल दृसहज हो कि हरदम, सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय की भाषा बोले। आजकल अनुवादक लोगो की भीड़ है। ये दुनिया इतनी बड़ी नहीं कि मुट्ठी में न समा सके....? आप की वाणी इतनी सरल दृसहज हो कि हरदम, सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय की भाषा बोले। आजकल अनुवादक लोगो की भीड़ है। बिना मिर्च-मसाला लगाए भी अनुवाद की अनंत गुंजाइश रहती है। आप संसार में छा जाने लायक कोई काम तो करें, कीर्ती का पताका दूर से नजर आने लगेगा। पहले जमाने में अपनी मनवाने की एक ही भाषा होती थी। तलवार-भाले के साथ चंद विश्वासपात्रो को ले के निकल जाओ, लोग लाइन से झुकते चले जाते थे। वे सोचते भी न थे कि कौन आया, कौन गया। वे तलवार को बहुत सम्मान देते थे। दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ वाला ज़माना था। प्रभु के गुण, गाने देने में किसको एतराज होता भला....?वे लोग परवाह नही करते थे कि कौन राम को भज रहा है, कौन रोजे में सजदा किए है, कौन बाइबिल में प्रभ इशु के वचनों को सुन दृसुना रहा है। ये वो ज़माना था जब इलेक्शन नहीं होते थे। कोई इलेक्शन करवाने वाला मुहकमा नहीं होता था। जिनको भी हुकूमत करने की इच्छा होती थी वही शेर बन के जितनी दूर तक टहलना होता था टहल आया करता था। आजकल अपनी तरफ, लोकतंत्र का हर पांच साल में, हेप्पी बर्थ डे मनाने का जो सिलसिला चालु हुआ है, वो दिन-ब दिन खर्चीला और तू-तू, मै-मै स्टाइल के लुगी डांस में समाप्त होने जैसा, हो गया है। आपने कभी सोचा है......? लोकतंत्र की राह, बहुत कठिन डगर पनघट की स्टाइल का टफ हो गया है। ज़रा उन महिलाओं की सोचे जो पनघट से जल भरने मटकियां ले के जाया करती थी...। कोलतार का जन्म, चूंकि कोई घोटाला नहीं हुआ था, इसलिए हो नही पाया था, और शायद इसी कारण कोई भी सड़क या सडकें डामर रोड वाली सड़क उन दिनों, नही कही जाती थी। बहरहाल, कच्ची पगडंडी नुमा सड़के, पनिहारिनो को मुहया थी। नदी, तालाब, पोखर, कुओ के पानी में कोई अवगुण बताने वाला पत्रकार नहीं पैदा हुआ था, अत; वो सब पानी बिना पीलिया-भय के पीने के काबिल हुआ करता था। मवेशी धोते चरवाहे से सुख-दुःख बतियाती वे महिलायें, बिलकुल बाजू से पानी भर के निकल जाया करती थी। पनघट के रास्ते में कष्ट था तो बस, छिछोरे कन्हैय्या नुमा लौंडो का । हरामी स्साले महीने में एक या दो तो, छिप-छिपा के फोड ही देते थे। कभी सामने आते तो उनको नानी याद दिलवा देते। गाव में न पंचायत थी न मंनरेगा। जरूरत भी कहां होती थी..? खेत से अनाज, घर की बाड़ी से शाक-भाजी का मिलना बस काफी होता था। राशन के लिए लंबी-लम्बी लाइन नही लगती थी उन दिनों..। एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया....। आज मीडिया है.....? ये मीडिया, बहुत कुछ हमारी बुआ की याद दिला देते है। उनके पेट में क्या खलबली होती थी कि, किसी से भी सुनी बात घंटे दृआध घंटे उनके पेट में रह जाए तो बवाल आ जाता था। पूरे गांव में ढिढोरा पीट लेने के बाद शांत होती थी। बाहर दोनों पार्टी, एक जिनके बारे में कहा गया, दूसरे जिनको सुन के दूसरों से नमक-मिर्च लगा के सुनाया, कलह-कुहराम होते रहता था। बुआ अपनी तर्क क्षमता प्रदशित कर दोनों को शांत करती। यानी उनके, बोलने का मतलब ये नहीं, वो था....। पूरे इलेक्शन भर मीडिया का रोल यूं रहा, कि उम्मीदवार ने जैसे ही कुछ कहा, शाम को प्राइम टाइम में, ये चार लोगों के पेनल बिठा के, पोस्ट-मार्टम, छिछा-लेदर में लग गई। इसमें छी और छा के साथ-साथ लेदर उतारने का काम बखूबी होता रहा । किसी ने कहा, लोग अय्याशी करते हैं, इसलिए महंगाई बढ़ रही है, हमारी पार्टी सत्ता में आई तो हम अय्याशी के खिलाफ कानून बना के निपटेंगे। किसी ने अगर कह दिया, कि वो नीची राजनीति कर रहे है, तो अगले ने उसे जातिगत टिप्पणी से जोड़ के हल्ला बोल दिया। एक फिल्मी प्रसंग याद कर लें यहां, होता यूं है कि फ़िल्म पड़ौसन में हीरो गाना सीखने, गुरु किशोर कुमार के संपर्क में आते हैं। गुरु दो-चार अन्य शिष्यों की मौजूदगी में कहते हैं, बागाडू, ज़रा एक-आध गाने का गा के नमूना तो बताओ ......? हीरो, बेहूदे और कुछ ऊंची आवाज में शुरू हो जाता है लिस पर किशोर जी कहते हैं, बांगडू, ज़रा नीचे....नीचे से रे........ हीरो तत्काल, उची आसंदी से उतर के नीचे बैठ के अलाप लेने लगता है.......। किशोर जी उनके अलाप लेने के तरीके से चौक जाते हैं। हीरो सुर को नीची करने की बजाय, खुद नीचे, बेसुरे राग के साथे अलाप लगाते मिले। गुरु ने बंठाधार वाला माथा ठोक लिया। वहां अज्ञानता थी, भोलापन था। यहां चालाकी, चतुराई और पालिटिक्स मिली......। अपनी- अपनी बारी को सब भुनाने में लगे रहे। जिसे जो हाथ लग जाए.....? कोई राम-राज की बात करता रहा तो, कोई अजान सुनते ही भाईजान को याद कर लेता रहा। सब अपने दृअपने में मस्त, मगर तीखे बोलने से कोई चूक नहीं रहे थे। मार-काट की भाषा, वादों का हुजूम, उसने ये दिया, तो मेरी तरफ से तू ये रख। बिना योजना वाले लोग, जो सामने दिख जाए, वही लुटाने को तैयार। जीतने के बाद सरकारी खजाना भले दो दिन चले, हमे क्या वाली सोच....? �सेवन-बाई सेवन वालों ने दिल्ली में यही किया था। दुनिया-भर के वादों के लिए सरकारी बटुआ खोले बैठे थे। हिसाब लगा के देखा तो धरती खिसकती दिखी। भाग लिए...। हर रोज नए किस्से, नई कवायदें, नया रोग, नई नस्ल, नया आतंक....। इलेक्शन खत्म होते तक लगता था डिक्शनरी में शब्दों के कई मायने बदल जायेंगे। किसी शब्द, भाव, वाक्यांश या मुहावरे के, बिटवीन द लाइन क्या क्या अर्थ हो सकते हैं, कयास लगाने वालों ने पता नहीं क्या-क्या सोच लिया, क्या-क्या ने अर्थ दृसन्दर्भ खोज लिए। चुनावी भावार्थ में जैसे संज्ञा, विशेषण, क्रिया के अलावा, ये मायने भी लिखे जा सकते है किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी....। आगे दुनिया बहुत पडी है। इस देश में कई इलेक्शन आयेगे....मगर आज जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र की रक्षा या, इसके चलाने वालों के चाल-चलन और चरित्र, पर लंबी बहस की जाए। खतरा सामने है, ड्राइविंग सीट पे जो बैठे, आहिस्ता चले, सबको ले के चले, धीमे चले....? कहते हैं दुर्घटना से देर भली.....। ज्यादा क्या कहें, कुछ कहने पे तूफान उठा लेती है दुनिया.......? -सुशील यादव- @ for webvarta news Agency 07/19/2014 मन तडपत.....हरी दर्शन को.... सुशील यादव- जब भी मैं अपनी आस्था के दिए में, जी भर के तेल दृघी डाल के बस जलाने ही वाला होता हूं कि कहीं न कहीं बवाल हो जाता है। स्वनाम धन्य महाराज, अघोरी, एकटक बाबा, पेट्रोल वाले बाबा, बुलेट बाबा, पायलट बाबा और ऐसे ही स्वयं घोषित बाबाओं -भगवानों को मैं, अपनी श्रधा-सुमन पेश करने की नीयत से तैयार करता हूं या ज्यादातर कहूं कि अर्धांगनी द्वारा एक्सपेल किया जाता हूं कि �मानो .....नहीं मानोगे तो सद्गगति नहीं मिलती�, तो यकायक कोई न कोई चमत्कार हो जाता है और मैं ढोगी लोगों के चक्कर में आते-आते रह जाता हूं। पत्नी द्वारा मुझे, सदगति को समझाते-समझाते तकरीबन पच्चीस साल हो गए। इतना लंबा प्रवचन अनास्था को आस्था में बदलने का अपने आप में मिसाल है। शायद कहीं न मिले। जितनी जीवटता से उनने अपने प्रयास किये हैं उतनी शिद्दत से मैं भी अपनी अकड में कायम रहा हूं। नहीं, मुझे इन ढकोसलेबाज साधू-महात्माओं के बीच मत घसीटो। मैं किसी दिन उनसे उलझ पडुंगा। ये लोग अजवाइन, मुग- मुलेठी, हरड, बहर, त्रिफला और किचन में शामिल चीजों के उपयोग और फायदे बता-बता के अपना प्रवचन टी आर पी बनाए रखते हैं। बीमारी के कारण और निदान के लिए क्या खाना है, -केला, करेला नीबू आंवला की जानकारी प्रवचन, बीच-बीच में देते रहते हैं। इनका मकसद होता है ज्यादा से ज्यादा लोगे घेरे में आयें। चढावा मिलता रहे। अमेरिका में ये क्या चल पायेंगे? वहां वैज्ञानिक प्रमाण के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। इन बाबाओ की दाल पच्चास सीटी भी दे दो तो उधर के कुकर में नहीं गलेगी। हमने साइंस पढ़ा है। साइंस में ऐसी कोई चमत्कारिक चीज नहीं जिसके तह में उसके होने या न होने का कारण न छुपा हो। ये बाबा लोग सिर्फ और सिर्फ कुछ प्रयोग, कुछ हाथ की सफाई, नजरों का धोखा और सम्मोहन के उथले जानकार होते हैं। सिद्धियां किसी को नहीं मिली होती। हस्त रेखा बाबाओं को किसी मुर्दे के हाथ की छाप दिखा के देखो। उसके लंबी जीवन की गाथा पढ़ देंगे। इलेक्शन जीता देने की ग्यारंटी दे देंगे, राजयोग के हकदार बता देंगे। किसी बीमार मरणासन्न की कुंडली में, उनको बच्चे के यशस्वी होने का पूरा भविष्य दिख जाएगा, बता देंगे बहनजी ये एक दिन ऐसा सिक्सर लगाएगा कि दुनिया देखती रह जायेगी! बशर्ते कुंडली बिच्ररवाने, किसी कुलीन घर की धनी महिला पहुंची हो। मेरे तर्कों को खारिज करना, और किसी बहाने मुझको देव दर्शन के लिए प्रति माह-दो माह में राजी कर लेना पत्नी का हक बनता है इससे मुझे आज भी इनकार नहीं है। सबकुछ, जानकार, मैं चुपचाप बिना बहस के उनके द्वारा ले जाए जाने वाले हर जगह, हर तीर्थ में सर नवा लेता हूं। वैवाहिक जीवन की नय्या को पार लगाने के लिए, इतनी आस्था की वो हकदार भी है? अपने तर्कों से, उनकी भक्ति भाव को क्षीण करने में मेरी उक्तियां, भले कोई असर न छोडी हो मगर बाबाओं के प्रपंच से उनको सचेत जरुर कर रखा है। पहले, बाबा दर्शन मात्र से पुलकित हो उठाती थी। चेहरा दमकने लगता था।ये भी लगता था कि, किसी जन्म के पुन्य थे, जो बाबा घर पधारे। बाबाओं का सत्कार करने, उनको ड्राइंग रूम में बिठाके मेवा-मिष्ठान का अंबार लगा देने, छप्पन भोज परोसने में वो ये जतलाती थी कि मोहल्ले के किसी घर में है इतना दम?, दान-दक्षिणा में, सोने-चांदी, कपड़े पैसे, यथा बाबा तथा चढावा का जी खोल अनुसरण करती। अब, मेरे समझाइश को तव्वजो दे के, फक्त, पांच सौ से नीचे की राशि ही, इस मद में किसी दृकिसी बाबा को आवंटित कर पाती है। मैंने काश्मीर से कन्या-कुमारी तक के भक्ति-मार्ग, भक्तों और देवगणों की व्याख्या अपने तरीके से की है। उनके भगवान से पूछा है, जब इतने सारे भक्त-गण काल-कलवित हुए केदारनाथ में घटी त्रासदी में भगवान कहां गए थे?मोक्ष को पाने का यही सुगम रास्ता है तो हर साल ये सुनामी क्यों नहीं आती? पत्नी से अब, जब आग्रह करता हूं कि इस बार केदार बाबा के पास चलें, वो बहाने से टाल देती है, मंजू अभी पेट से है उसकी देखभाल जरूरी है? कभी गंगा दृहरिद्वार जाने की सोचा तो, मीडिया वालों ने इतना हल्ला मचाया कि गंगा मैं ली हो गई है? सरकारी सफाई अभियान में अनुमानित है, अस्सी करोड लगेंगेद्य हमने सोचा लगा लो भाई, अस्सी करोड, तब चले जायेंगे, कौन जल्दी है? कम से कम बदली हुई गंगा को, देख के ये तसल्ली हो सकेगी कि भगीरथ ने जिस गंगा के लिए इतना तप किया उस गंगा को हम सवा करोड लोग, क्या कारण थे कि अस्सी करोड वाली भेट नहीं दे सके थे आजतक? गंगा दर्शन बाद, फक्र से मैंय्या से कहेंगे मां गंगे हमने अस्सी करोड आपमें समर्पित किये हैं। अब तो अपने चाहने वालों का उद्धार करो मां……..।माते हमारे कहे, इस आंकड़े में फेर हो तो, हमें क्षमा करना| इनमें से कुछ करोड अगर, भारत की भूखी जनता, नेता .ठेकेदार, इंजीनीयर के उदर में समा गए हो तो हमारे आकडे को मां आप स्वयं सुधार लेना। मां सब आपके बेटे हैं, इनके अपराध क्षमा करना। कल वे सब अस्थिया बन के आप के पास आयेंगे। तब के लिए, आप अपना सलूक इन गैर-इरादतन भ्रष्टाचारियों के प्रति अभी से सुरक्षित रख लें मां। अगले पडाव में हम साईं को रखे हुए थे। अब कुछ संत लोग ये समझाइश दिए जा रहे हैं कि साईं जी को भगवान की श्रेणी में, लोगों ने, पैसा कमाने की नीयत से रख दिया था। वे कभी अपने आप को भगवान बोले ही नहीं? तस्सल्ली है तो इस बात की कि इस मामले में कोई जांच आयोग बैठेगा नहींद्य कोई सी बी आई, पुलिस वाले किसी को हडकायेंगे नहीं कि बताओ किसके कहने पे ये भगवान का दर्जा दिया?बेचारा फकीर तुझसे बोलने तो नहीं आया था कि मुझे सम्मान दो?बेकार दूसरों के कटोरे की आमदनी खराब कर दी? लोग आस्था रखते हैं नेक आचरण पर? अपने को भगवान कहलाये जाने वाले एक संत ने अमेरिका में जाके प्रवचन दिया। जिस किसी ने उन प्रवचनों में अपने आप को बहा लिया वे उन सब के लिए भगवान हो गए। बिल्कुल ऐसे ही, लोगों ने अपना अभीष्ट साईं में देखा, साईं उनके भगवान हो गए। किसी के हाथ दृपैर तो बांधना नहीं है कि नहीं .....इन्हें मत मानो ..... जहां हम अपने तर्क को घुसेड देते हैं, भगवान वहां से प्रायः लुप्त हो जाते हैं। या यूं कहे, भगवान वहीं निवास करते हैं जो बिना राग-द्वेष-इर्ष्या-लालच के उनमे लींन हो जाए। फायदे की कोई बात न हो। सब प्रभु की इच्छा है, यही सोच उत्तम रखे । अगर कहीं सचमुच प्रभु हैं, तो प्रभु दर्शन की अवहेलना का पाप, मुझको कदम-कदम लगते जा रहा है? इस सहारे को बुढापे की लाठी लोग यूं ही नहीं कहते? किसी दिन पूरी अनास्था छोड़ के, मैं अगर माथा टेके किसी दर पे मिल जाऊ, तो कतई आश्चर्य मत कीजियेगा। इतना जरुर है, भगोड़े बाबाओं को, अगर वे मुझे पारस देने का भी लालच दें, तो उनको अपनी गांठ की चवन्नी भी न दूं। @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration रेट कार्ड Login | Registration 07/14/2014 जहां जाइयेगा, हमें पाइयेगा..... इस देश के 542 सीट के उम्मीदवारों, जनता आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली। जनता अब जाग गई है। चैन से तुम्हे सोना है...... तो अब तुम भी जाग जाओ.....। हम काश्मीर से कन्याकुमारी, राजस्थान से बंगाल समूचे भारत के आम आदमी हैं। इस देश के 542 सीट के उम्मीदवारों, जनता आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली। जनता अब जाग गई है। चैन से तुम्हे सोना है...... तो अब तुम भी जाग जाओ.....। हम काश्मीर से कन्याकुमारी, राजस्थान से बंगाल समूचे भारत के आम आदमी हैं। हमें तुमने खूब उल्लू बनाया।अब उल्लू बनाने का नइ ....। हमारे हाथ में काम भले न हो, इंटरनेट वाला मोबाइल जरुर है।सो उल्लू बनाविंग का खेल ख़त्म। पारदर्शिता वाला गेम चालू, .....। दृश्य 1.... मार्च का महीना, अंतिम सप्ताह, बजट का अनाप-शनाप पैसा, लेप्स होने के कगार में। ताबड़तोड़ खरीददारी का अभियान चालू। आफिस में ये होते रहता है। बड़े बाबू, क्या-क्या चाहिए? सब फटाफट 31 के पहले खरीद लो। मेरे रूम का ऐ सी बदल दो, पुराने सभी फर्नीचर चेज कर दो, और स्टाफ को जो-जो चाहिए सब दिला दो। बड़ा बाबू, जो बात-बात पर डाट खाते रहता साहब के तेवर से हकबकाते हुए कहता, सर, पहले कोटेशन्स मंगवाना पड़ेगा। ये क्या कोटेशन्स लगा रखी है, पहले कभी खरीदे नही क्या? श्याम फर्नीचर को फोन लगाओ, कहो साहब ने याद किया है। तीन-तीन कोटेशन ले के आ जाए। कल बिल, पेश कर दे, पेमेंट कर देंगे। सामान आते रहेगा। बड़े बाबू ने दबी जुबान से कहा, सर वो आडिट....? हम हैं ना? तुम क्यों घबराते हो ....। देख लेगे आडिट वालों को भी, एक-आध ऐ सी से ज्यादा क्या मुह फाड़ेंगे? दृश 2 नगर निगम विभाग, रोड टेंडर .....। क्या गुप्ता जी बहुत घटिया माल लगा रहे हो। रोड टिकता ही नहीं। अभी तीन महीने हुए हैं, पोटिया सड़क बने हुए, देख के आओ, क्या हालत हो गई है। तुम्हारा टेंडर खुल भी जाए तो काम देने का मन नहीं करता।?, हमे भी तो ऊपर जवाब देना होता है कि नहीं। पत्रकार लोग पीछा नहीं छोड़ते। साहब, आप को कोई झमेला नहीं आयेगा? आप्प बिल पास करवाते जाइए, बाकी से हम निपट लेगे।और आपको बता दें, इसी निपटने के चक्कर में हमारा काम बढिया नही हो पाता।क्वालिटी मेंटेन नही कर पाते हम लोग, वरना हम वो सड़क बना के दे कि बुलडोजर चला लो चाहे प्लेन उतार लो सड़क नही टूटेगी। गुप्ता जी आजकल ज्यादा फेकने लगे हो।जाओ काम दिखाओ, काम में मन लगाओ। दृश्य 3 नक्सलाईट उवाच: कमांडर, यहां लगा दे लेंड माइंस .....? वहां क्या तेरा बाप गुजरेगा, बहन के पिल्लै। इस गांव में एक मतदाता है, सरकार पच्चीसों मुलाजिम भेजती है, हमको गुमराह करती है।हम चाहे तो मतदाता को पकड़ ला सकते हैं, वे चाहे तो मतदाता को हेलीकाफ्टर में ले जाके मतदान करवा सकते हैं। मगर हम दोनों ये नहीं चाहते। हम दोनों का हक़ इस एक मतदाता वाले गांव से जुडा है। सरकार को हम पर निगरानी रखने की एवज हेलिकाफ्टर, बोलेरो, अनेक गाड़ियां और अन्य सुविधाए मिलाती हैं।ऊपर से पैसे आते हैं।हमे सरकार की तरफ से ये सुव्विधा है कि वे हम पर इस गांव में छुपे होने की निगरानी नहीं करते। दृश्य 4 नेता जी, कुछ आम आदमी सस्ते में मिल रहे हैं, खरीद ले. क्या? क्या रेट बोलते हैं? ...... अरे ये तो पिछली बार से दो-गुना ज्यादा है, क्यों? -वे कहते हैं, आप सत्ता में आते ही दाम बढाते हो, तब तो कुछ नहीं कहते?इलेक्शन ख़त्म होते ही पेट्रोल-गैस, साग-सबजी के दामो में आग लगनी है। -जिनसे चंदा लेकर चुनाव लड रहे हो उनकी भर-पाई में लग के, आम आदमी को जो भूल जाओगे, उसका क्या? -अरे यार, बहस मत करो, जो भी मागते हैं दे दो। आज उनकी हर बात जायज है। आने दो ...... इस तरह कुछ कुछ नेता, कुछ अधिकारी, कुछ आम आदमी के बहकने-बिकने मात्र से प्रजातंत्र का खेल एकतरफा हो गया है, आप समझे कि नइ.......? (सुशील यादव, न्यू आदर्श नगर दुर्ग, छ.ग.) Copy this News @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 07/13/2014 तीसरा बटन..... आज कालेज केम्पस में गजब का सन्नाटा पसरा है। तीन छात्र की पिकनिक मनाते हुए नदी में डूब जाने से अकस्मात मौत हो गई। सभी होनहार थे। हमेशा खुशमिजाज रहना दूसरों की मदद करना उनकी दिनचर्या थी। आज कालेज केम्पस में गजब का सन्नाटा पसरा है। तीन छात्र की पिकनिक मनाते हुए नदी में डूब जाने से अकस्मात मौत हो गई। सभी होनहार थे। हमेशा खुशमिजाज रहना दूसरों की मदद करना उनकी दिनचर्या थी। वे हमारे सीनियर्स हुआ करते थे। कालिज का फर्स्ट इयर, यानी न्यू कमर्स के लिए भीगी बिल्ली बने हुए रहना होता था। न्यू कमर्स का ड्रेस कोड, रोज शेविंग करना, सीनियर्स को देख के निगाह चुपचाप कमीज के तीसरे बटन पर ले जाना अनिवार्य सा अघोषित नियम था। इस नियम से पंगा करने का मतलब सीनियर्स की धुलाई से ताल्लुक रखता होता था। इस वजह से हम सब उन नियमों के हामी और पाबंद थे। हम लोगो को ये नसीहते भी दी गई थी, कि सीनियर्स की डाट दृफटकार से, उनकी कही गई हरकतों को मान लेने से, आदमी के व्यवहार में गजब का आत्म-विश्वास पैदा होता है। इस रेगिग से, जीवन के किसी भी फील्ड में निर्णायक निर्णय लेने की क्षमता पैदा हो जाती है।हर प्रकार की झिझक खत्म हो जाती है। किसी इंटरव्यू को फेस करने में घबराहट, नाम मात्र को नहीं होती। पूरा काम अनैतिक होते हुए भी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मजबूत नीव बनाती है। हम जूनियर्स ने अपने आप को अघोषित इनके हवाले कर रखा था। जो कहते हुक्म बजा लाते। खुद की भावना और सोच को परे रख देने में दूर कहीं भलाई है, ये समझने लग गए थे हम लोग....। एक दिन एक सीनियर ग्रोसरी-शाप में दिखे। परंपरा मुताबिक मेरी निगाह तीसरे बटन पर थी। -- तो पापड खरीद रहे हो....? मैंने निगाह नीची किये कहा, जी सर...... बला मात्र संक्षेप में आई थी, टल गई......साँसे वापस लौटी.....। मैंने लिस्ट में उस शाप का नाम दर्ज कर लिया, भूले से, दुबारा नहीं जाना। इलाका सीनियर का था....। पापड की इतनी सी घटना ने, सीनियर्स के दिमाग में नया फितूर भर दिया। वे जूनियर्स को अगले दिन शाम चार बजे इकठ्ठा किये। सब को श्मसान चलने को कहा। हम जूनियर्स नीची निगाहों से एक दूसरे का मुह देखने लगे क्या नई आफत आने वाली है का डर भीता-भीतर समाने लगा। रास्ते में एक सीनियर ने पापड खरीदा। श्मसान में दो तीन चिताएं जल रही थी। लगभग सभी चिताओं की लकडियाँ सुलग-खप चुकी थी। उन चिताओं के दावेदार, सगे सबन्धी, रिश्तेदार आग देकर बिदा हो गए थे। सन्नाटा पसरा हुआ था। सीनियर ने सब के हाथ में एक दृएक पापड दिया। ये पापड सेक कर खाना है ? समझे.....? हम लोग सन्न रह गए....?हमारे संस्कार आड़े आने लगे....। रुलाई छूटने को हुई...। मन में लगा छोडो बी ई का चक्कर.....। कहीं क्लर्की कर लेगे। हम भागने दृकतराने की तरकीब में दबी जुबान से सीनीयर्स से पहली बार भिडने की हिम्मत जुटा के कहने लगे ये नहीं होगा सर....हम ब्राम्हण हैं....हमारा जनेऊ है......। इत्तिफाकन सीनियर में एक शर्मा सर भी थे....। उसने अपनी शर्ट खोली, जनेऊ उतारा जेब में रखा। पापड माँगा, भुना और खा लिया.....। हम सब भौचक्क उनको देखते रह गए। एक दृएक टुकड़ा प्रसाद जैसे बाटा, स्वाद में कोई फर्क था नहीं। उसने कहा, यही होता है। विचार हमारे मन की बाधाएं हैं। हमें जो संस्कार में दिया गया है उससे ऊपर की हम सोचते नहीं। एक सांचे में हमे ढालने की कोशिशे हो जाती है हम उससे जुदा कुछ बनने की, करने की सोचते नहीं....। स्वाद में देखा कोई फर्क है......? अब हम लोगो के पास कोई रास्ता बाकी न था। उसके प्रवचन ने जाने क्या असर किया....सबने वही किया.....अपने-अपने पापड गटक लिए। सीनीयर्स ने कहा आज तुम लोगों की अंतिम परीक्षा थी। तुम सब पास हुए। आज से हम सब फेंड्स.......। आन्वर्डस........ नो आईस.... ओन योवर्स शर्टस थर्ड बटन......ओ के........। हम सब ने राहत की सांस ली.......। तब से हम दोस्तों के बीच कोड- वर्ड शुरू हो गया है पापड-पार्टी.....। न घर में न कालिज में किसी को खबर नहीं है कि ये पापड-पार्टी ;क्या बला है....? इस पापड दृपार्टी के गुजरे बमुश्किल तीन महीने गुजरे हैं। ये हादसा हो गया। वही श्मशान, वही जगह, वही सीनीयर्स,......। चिता में लिटाये जाते वक्त लगता था, कमीज न होते हुए भी, वे सब तीसरे बटन की ओर देख रहे हैं.....। (सुशील यादव, न्यू आदर्श नगर दुर्ग, छ.ग) @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 07/12/2014 रेट कार्ड07/04/2014 हर दिल जो प्यार करेगा... -सुशील यादव- जनाब आपका जवाब गलत! आपकी तो ये आदत है कि मुखडा देखते ही तीर निशाने पे लगाने की सोच लेते हो? आज के जमाने में ये जरूरी नही कि प्यार करने वालों को गाना, गाना अनिवार्य हो? अब फिल्मी, हीर दृरांझा, लैला-मजनू, शीरी दृफरहाद वाले दिन लद गए। तब किसी डायरेक्टर को रोमेंटिक दो-चार गानो का जुगाड हुआ नहीं कि, पूरी फिल्म बनाने की सोच लेते थे। अपने हीरो हीरोइंन से बात दृबात पे गाना गवा बैठते थे। इधर पिता ने इम्तिहान का मार्कशीट देखना खत्म नहीं किया, उससे पहले गाने के बोल चालु हो जाते थे। ये कैसा इम्तिहान प्रभु, ये कैसा इम्तिहान।, तुने बनाया इंसान प्रभु, तू ने बनाया इंसान। अगर बनाया इंसान, काहे न डाले प्राण। गणित, भूगोल कराया फेल। दिया दीया हाथ बिन तेल। कभी भगत को पहचान। प्रभु, कभी भगत को पहचान। बाप का पिघलना, बेटे की पढ़ाई छुड़वाना, बेरोजगार अपढ़ बेटे का रईस बनना सब एक गाने के फ्लेश-बेक में हो जाता था। हीरोइन से इश्क के मुद्दे पर घर वालो से नाराजगी, इंटरवेल के बाद चलती थी। डाइरेक्टर को, नदी के गाने, पनिया भरन के गाने, सखी-सहेली के गाने, मंदिर जाने के बहाने वाले गाने और सब गानों में उलाहनो, उलझनों को। फिल्माने का उस जमाने में एक्सपर्ट होना जरूरी होता था। सब गानों में मीठी याद, याद में कसक, कसक में दर्द, दर्द में पीड़ा, जो जितनी अच्छी तरह से समेट ले वही बड़ा डायरेक्टर। रात का गहरा सन्नाटा है मगर हीरोइन के चहरे में गजब की लाईट दिखा के भाव को उभारना, दिन का उज्वल प्रकाश है, मगर हीरो किसी परछाई के नीचे दम साधे मायूसी का गीत गवा देना डिरेक्टर का कमाल होता था। उस जमाने में ये भी एक नजारा था। मेरे पीया गए रंगून, किया है वहां से टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है। जिस जमाने में चार-पांच दिन लाइन मिलाने में लग जाते थे वहा, बहुत सहज भाव से रंगून एसटीडी लगी-लगाईं मिल रही है। प्यार करने वालों को हर जगह छूट का, कंसेशन का प्रायरटी का मामला हो जैसे। तब के लोगो को सिनेमाई नसीहत दी जाती थी कि, गाव में कोई खाप-पंचायत नहीं बेखौफ हो के प्यार करो, गाना गाओ, विलेन ठोको, शादी बनाओ। पूरे फ़िल्मी एपीसोड में बाप से ज्यादा कोई दूसरा तंग-बेहाल नहीं रहता था। बेचारा बाप अपनी इज्जत, पगडी और प्रतिष्ठा के नाम पर बेटे को, बेटी को प्यार से दूर रखने की कोशिशे करता था। आखिर में उसे झुकना है, ये दर्शक टिकट लेने के पहले भी जानते थे। जनाने क्लास में सुबकियों का दौर चलता था, बड़ा जालिम बाप है, ये बुआ को तो काट के फेक देना चाहिए बहुत दुष्ट है, जैसे कमेंट्स लाखों बार सुने गए होंगे। हीरो या हिरोइन तब के हालात में सिसकियों भरा विरह गीत गा लेती थी जो बिनाका गीत माला में सुपरहिट हो के दो-तीन सालों तक बजा करता था। जनाब हमने भी प्यार-व्यार किया है। जिंदगी भर गाना गाने का सिचुएशन तलाशते रह गए। गाने की स्क्रिप्ट नहीं मिली। खुद की बनाई चार लाइन के बोल-धुन नहीं जमे। अकेले भी गुनगुनाने की हिम्मत नहीं हुई। कभी उसको चेताया कि इस मौके पर हमें कुछ गाने का जी कर रहा है, तो वे कहती कोई फिल्मी गाना वो भी सुर में गा सको तो सुना दो वरना टाइम क्यों खराब करते हो? हमारे सिनेमा वाले, जाने कैसे सत्तर-अस्सी सालो से दिल की आवाज को लगातार बिना रोक-टोक फिल्माए जा रहे हैं? हाल के दिनों में प्यार की अभिव्यक्ति में मुन्नी बदनाम हो रही है, चमेली पउव्वा चढा रही है, कोई झंडू बाम रगड रही है, तो कोई उ ला ला करके मस्तिया रही है। किसी की एंट्री में घंटी बज रही है तो कोई लुगी खिचाई में लगा दीखता है। इजहारे मोहब्बत का ये आलम कहां जा के रुकेगा पता नहीं? प्यार के एक्सप्रेशंन, इमोशन के तरीके में बदलाव हर युग में अपने दृअपने तरीकों से होते आया है। तुझको मिर्ची लगी तो मै क्या करू? पहले खिचडी की गंध से पता चलता था कि अमुक घर में कोई बीमार चल रहा है, अब तो घर-घर खिचडी पक रही है, मगर जरूरी नहीं कि सब बीमार हों? (साभार: रचनाकार) Copy this News @ for webvarta news Agency रेट कार्ड 06/21/2014 डॉगी महिमा -सुशील यादव- तेरे डागी को मुझपे भौंकने का नई...... मैं अगर डरता हूं तो केवल कुत्तों से। ये खौफ बचपन से मुझपर हाबी है। स्कूल से छुट्टी होते ही घर लौटते समय टामी का इलाका पडता था। मजाल है कि कोई उससे बच के निकल जाए? क्या सायकल क्या पैदल, क्या अमीर क्या गरीब, क्या हिन्दू दृमुसलमान सब को सेकुलर तरीके से दौड़ा देता था। हम बस्ता लटकाए एक कोने में दुबके हुए से रहते कि कब टामी का ध्यान बटे और हम तडी-पार कर जाएं। विपरीत दिशा में आते हुए लोगों पर उसका भौंकना चालू होता था, कि हम टाइमिंग एडजस्ट र्का लेते थे कि इतने सेकण्डों में हम टामी क्षेत्र से बाहर निकल जायेंगे। कभी कभी हमारा गणित फेल हो जाता था वो आधे रास्ते अपने पुराने शिकार को छोड़ हम पर पिल जाता था। बस्ते हो उस पर पटकते दृफेकते, बजरंग बली की जय जपते, हांफते घर पहुंचते। घर में डाट पडती, फिर टामी को छेड़ दिया न। बता देती हूं चौदह इंजेक्शन लगेंगे, वो भी पेट में। हम अपनी सफाई क्या देते, क्या समझाते कि किस सिचुएशन में फंसे थे? प्रेमिका भी मिली तो उनके घर में कुत्ता था। वो मोबाइल युग नहीं था जो जाने के पहले चेताते। कालबेल दबाते ही भौकना चालू। मां-बाप, भाई-बहन सब एक सुर में नइ सुसैन नइ....भौकने का नइ...मैं उससे कोफ्त से कहता...जब तक ये तुम्हारा कुत्ता है.....मैं आगे कुछ बोलता इससे पहले वो बोल देती, कुत्ता नहीं...क्या गंवारों जैसे बोलते हो.....? नाम नहीं ले सकते तो कम से कम डागी तो बोला करो। मै कहता या तो तुम दागी सम्हालो या मुझे.....और जानते हैं न वो डागी सम्हालने में लग गई। पच्चीस सालो बाद अचानक एक बड़े शहर के शापिंग माल में दिखी, मैंने अचकचाते हुए से कहा, रेणु तुम? वो एक तक देखने के बाद, जैसे सोते से जगी हो गदगद हो के बोली, क्या सुशी, बहुत अरसे बाद मिले, कहां थे क्या करते हो? कुछ खबर ही नहीं दिए? मैंने जवाब देने के पहले पूछा, कहां है तुम्हारा कुत्ता...? वो बड़े झेपते हुए बोली, फिर वही.....? डागी की पूछ रहे हो, सुसैन को मरे तो बीसों साल बीत गए। मैंने हलके-फुलके माहौल करने की गरज से कहा, दूसरा वाला कहां है? वो इशारा समझ के बोली क्या तुम अब भी मजाक के मूड में रहते हो? छेडने से बाज नहीं आते......? वो दुबई में रहते हैं। साल में एक दो बार आ पाते हैं। मैं यहां पढाती हूं, बच्चे सब सेटल हो गए। तुम अपनी कहो....। मेरी सुनने-सुनाने के लिए काफी-हाल चलना होगा, चलो बैठते हैं। बहुत इत्मीनान, तसल्ली से जी भर के बातें हुई। एकदृएक यार दोस्तों की खबर लेते-देते, कैफे बंद करने का समय हो गया। जाते दृजाते वो बोली घर आओ कभी.....। मैंने मुस्कुराते हुए पूछा.....डागी तो नहीं है न? वो बोली अभी तक तो नहीं है...हां अगर तुम ज्यादा चक्कर मारने लगोगे तो जरुर एक पाल लूंगी...। पच्चीस साल पुरानी वाली खिलखिलाहट हवा में तैर गई....। (साभार: रचनाकार) @ for webvarta news Agency रेट कार्ड 05/25/2014 अब पछताए होत क्या...? @ for webvarta news Agency सोमवार, 08 सितंबर, 2014 : 7 : 42 AM रेट कार्ड Login | Registration 05/25/2014 अब पछताए होत क्या...? पछताने के अलग दृअलग सीजन, अलग मूड, अलग फील्ड, अलग माहौल और ऊपर बाले ने पता नहीं कितने अलग-अलग आचार-विचार, रंग दृढंग बनाए हैं। -सुशील यादव- पछताने के अलग दृअलग सीजन, अलग मूड, अलग फील्ड, अलग माहौल और ऊपर बाले ने पता नहीं कितने अलग-अलग आचार-विचार, रंग दृढंग बनाए हैं। किसान खेतों में बीज डाल के, चिड़िया के चुग जाने पर पछताता है। उसे आज तक कोई ऐसी तकनीक या पद्यति विकसित हो के नहीं मिली कि वो खेतों में बीज डाले और आराम से सौ प्रतिशत फसल के उगने की प्रतीक्षा करे। दस दृबीस परसेंट तो वो बिजूका बना के देशी तरोके से बचा लेता है मगर इससे उसके अफसोस करने के देशी तरीकों में कमी नहीं आ पाती। जमींदारों के बिगडैल बच्चे, चिडिमार बन्दूक का खेल, नुमाइश बतौर कर लेते हैं, उनका सोचना है कि स्टेनगन मिल जाती तो वे समूचे एरिया को फसल नष्ट करने वाले या वाली चिड़ियों से छुटकारा दिलवा देते। गांव के सरपंच का मानना है कि इससे गांव का माहौल बिगडेगा।लौंडे पोज मारेंगे, भोली दृभाली गाव की कन्याओं के साथ......बंदूक-बन्दूक खेलने लग जायेंगे। वे गाव की भलाई के चलते कभी बन्दूक के लाइसेंस की सिफरिश नहीं करते। एक झक्की किस्म का एग्रिकल्चर प्रोफेसर गांव का चक्कर मार लेता है।पी एच डी, थीसिस के नाम पर अनाप-शनाप सुझाव दे जाता है।उनका कहना है कि बीज के साथ सस्ते किस्म के डमी बीज डालो, जिसे खाकर चिड़िया का पेट भर जाए। बीजें दवाओं से यूं उपचारित करो कि चिडियाओं का हाजमा बिगड़े। वे आपकी खेतों को देखना पसंद न करे। देखे तो दूर से भाग जाए। अब तक सरकारें, ग़रीबों का उन्मूलन यूं ही सस्ते अनाजों के चारे से कर रही है। उन्हें रोगग्रस्त, अलाल, आलसी बनाए जा रही है। उनकी सहानुभूति बटोरने मुफ्त ईलाज के लीये स्मार्ट कार्ड बनवाए दे रही है। खेलकूद में पछताने का सीजन छोटे-मोटे इवेंट्स को मिलाकर सालों चलता, है मगर पिछले पांच दृछह सालों से आई पी एल की वजह से पछतावे का दायरा बढ़ गया है। वेटरन्स ये सोच के दुखी रहते हैं कि उनके जमाने में ये क्यों नहीं चला, वे भी मजे से बिकते। करोडों में बिकने वाला-खरीदने वाला, अपने-अपने तरीकों से सोचते हैं। इतने गेम जिताए, कहीं और जाता तो ज्यादा ही मिल जाते....? स्साला, खा-खा के मोटा दृभदभदा हो गया है। गधा, दौड़ता ही नहीं जब देखो, रन आउट होते रहता है।..इसके लिए इतना महंगा खरीदा था...। किक आउट करने लायक है।..पाजी....। स्टूडेंट दो-चार नम्बर की चूक के लिए अपने आप को जिंदगी भर कोसते रहता है काश थोडा मन और लगा लेता, ये क्लर्की, और ये घोड़ी तो पल्ले न बंधती। विगत दिनों पछतावे का कुम्भ सम्पन्न हुआ। हर शहर-गांव गली, मोहल्ले में उम्मीदवार, मतदाता, किसान, व्यापारी, लेखक, पत्रकार, .;.. जिनके अपने चहेतों का हाथ छूटा, साथ छूटा या असफल हुए, गमगीन नजर आते रहे।अफसोस की सुनामी आई।पछताने का सैलाब उमडॉ. ....। भाई जी धाराशाई क्या हुए, उन्हें लगा उनका अपना निपट गया....।वे जवाब देने के काबिल नहीं बचे ....।कैसे इतना बड़ा संकट पैदा हुआ....? पहले महामारी में गांव दृकुनबे उजड़ते थे, ये तो कोई माहामारी वाले लक्षणों में से नहीं था.....। जादूगर लोग मॉस को हिप्नोटाइज्ड कर खेल दिखा के, वाहवाही लूटा करते थे, वैसा ही खेल तो कहीं नहीं हो गया....? सब एक दूसरे को, शक की निगाह से देखे जा रहे हैं, शायद इनके कुनबे ने समर्थन नहीं किया ...। हमें इनको अच्छी तरह से साधना था, इन छोटे विचारधारा के लोगों को कितना भी करो कम रहता है। शायद कहीं कसर बाकी रह गई थी, शायद थोडा और करना था.....। बात बन जाती ....भैईया जी अपनी सीट तो जरूर निकाल लेते......। (साभार: रचनाकार) Copy this News 0 @ for webvarta news Agency रेट कार्ड 05/22/2014 सब कुछ सीखा हमने...... -सुशील यादव- होशियारी कहां सीखी जाती है ये हमें आज तक पता नहीं चला? यूं तो हम हुनरमंद थे, धीरे-धीरे मन्द-हुनर के हो गये हैं। हमारे फेंके पासे से सोलह-अट्ठारह से कम नहीं निकलते थे, न जाने क्यों एन वक्त पर, पडना बंद हो गए। बिसात धरी की धरी रह गई। हमारे चारों तरफ हुजूम होता था। आठ दृदस माइक से मुंह ढका रहता था। एक-एक शब्द निकलवाने के लिए मीडिया वाले खुद वेन लिए, हमारे कारवां के पीछे सुबहो-शाम भागते थे। सुबह से देर रात तक मुलाकातियों का दौर चलता था। हमने सब की सहूलियत को देखकर अलग-अलग टाइम स्लाट में अपनी दिनचर्या को बांट रखा था। सुबह भजन कीर्तन, मंदिर दृमस्जिद वालों से मुलाक़ात, फिर उदघाटन, फीता कटाई के आग्रहकर्ताओं से भेंट....। लंच तक ट्रांसफर- पोस्टिंग आवेदकों की सुनवाई, यथा आग्रह उनके बॉस या मिनिस्ट्री को फोन...। उसके बाद टेन्डर, ठेका लेने वालों से बातचीत, हिसाब-किताब। नाली, चबूतरा, रोड, पानी बिजली जैसे अनावश्यक समस्याओं के लिए छोटी-छोटी समितियां, देखरेख में लगा दी जाती थी। आप सोच सकते हैं, हमारे छोटे से पांच साला मंत्री रूपी कार्यकाल में, घर के सामने चाय-समोसे के टपरे की आमदनी इतनी थी, कि उसका दो मंजिला पक्का मकान तन गया। आप अंदाजा लगा लो कितनी भीड़, कितने लोगों से हम बावस्ता होते रहे ? जो हमारे दरबार चढा, सब को सब कुछ, जी चाहा दिया।किसी से डायरेक्ट किसी चढोतरी की फरमाइश नहीं की। उस समय गदगद हुए चेहरों को देख के तो यूं लगता था, कि लोग हमारे एहसान तले दबे हुए हैं। इनसे जब जो चाहो मांग सकते हो। ना नहीं करेंगे.....। हम इलेक्शन में खड़े हुए। इन्हीं लोगों से इनके पास की सबसे तुच्छ चीज यानी व्होट, फकत अपने पक्ष में मांग बैठे। वे हमें न दिए। जाने कहां डाल आये। हमारी सुध न ली। जमानत तक नहीं बचा सके हम....? तीस दृपैंतीस साल की हमारी मेहनत पर पानी फेर देने वाला करिश्मा किसी अजूबे से हमें कम नहीं लगा। इस वक्त हम अकेले आत्म-चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं। साथ बतियाने वाला एक भी हितैषी, शुभचिंतक, जमीनी कार्यकर्ता सामने नहीं है। चाय वाला मक्खियां मारने से बेहतर, कहीं और चला गया है। हमे लगता है समय रहते हमे जरा सी होशियारी सीख लेनी थी....? (साभार: रचनाकार) @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration06/17/2014 पीठ के पीछे की सुनो..... -सुशील यादव का- आजकल मुह पे लोग गलत कुछ नहीं बोलते। ढेर सारी चिकनी दृचुपडी सुना के जाते हैं। क्या जी आपने तो खूब मेहनत की। लोग आप को समझ नहीं पाए जी। पिछली बार अच्छे से समझे थे। पता नहीं इस बार क्या कारण रहा? आपको कुछ मालुम है क्या कारण रहे होंगे भला....? प्रकट में हारे हुओं के साथ हमदर्दी के यही शब्द जगह-जगह कहे जाते हैं। परोक्ष में, यानी पीठ के ठीक पीछे.......कहते फिरते हैं, खूब ताव आ गया था.......स्साले में, आदमी को आदमी नहीं समझता था। कुत्तों, गुलामो की तरह बिहेव करता था। हारना ही था। अब भुगतो पांच साल को। और पांच भी क्या ग्यारंटी कि वापस हो ले। गए.....। उधर प्रकट में, नेता जी की मति फिरती है, इतने सारे लोग कह रहे हैं हमारी हार होनी नहीं थी...? फिर हुई तो हुई कैसे....? हार के कारणों के विश्लेषण के लिए अपने चमचों की कमेटी को काम सौंपते हैं। देखो हार के बाद अब ज्यादा खर्च करने के मूड में तो हम हूं नहीं, मगर कारण जानने भी अहम जरुरी हैं। तुम लोग अलग-अलग जगह जाओ और कारण तलाशो। देखे क्या निकलता है। चमचे नेता जी से राशन-पानी, डीजल-पेट्रोल दुपहिया-चार पहिया का इन्तिजाम पाकर निकल पड़ते है। आठ-दस दिनों की खोजबीन में इकट्ठे किये तथ्यों को वे एक के बाद एक सामने रखते हैं। महराज, मैं किशनपुरा इलाके में गया था, वहां से आप बीस हजार से पिछड़े थे। जिस महाजन बनिया के घर में आपने पार्टी दफ्तर खोल रखा था, दरअसल, लोग उसके सख्त खिलाफ थे। वो डीजल में केरोसीन मिला के गाव में दुगने दाम में बेचता था। अनाज, कपडे रोजाना के सामान, सब खराब क्वालिटी का रखता मगर सबके दाम आसमान में चढाये रखता था, जिसे गरज हो वो ले नहीं तो पचास कोस दूर शहर को जाए। सामान वापस करने जाओ तो, दैय्या-मैया करके भगा देता था। किसानों को चौमासे में जो उधार दिए रहता था उसका सूद इतना चढा देता था कि लोग अपनी गिरवी रखी चीज वापस ही नहीं पा सकते थे। अब ऐसे दुष्ट के साथ आप अपना प्रचार करवाने निकलोगे तो जीतने की गुजाइश कहीं बचती है क्या? भैय्याजी, हम उसी के बगल वाले गांव की रिपोर्ट लाये हैं। वहां ये हुआ है कि, मंनरेगा में जिस ठेकेदार को आपने काम दिलवाया था वो पडौस के किसी दूसरे के गाव से कम दाम वाले कमीशन में अपने मजदूर भर लिए। अपने गाव के मतदाता मजदूरों को कहीं और मजदूरी करने को जाना पडता रहा और तो और वे मतदान के दिन तो दूर के दूसरे गाव में थे सो मत कहा दे पाते। लिहाजा आपको ७-८ हजार की चोट पहुची। भय्या जी आपके लठैत के रंग दृढंग अच्छे नहीं थे। -काय बिलवा, खुल के बता न...? अब वे भइय्या जी का उखाड लेंगे....? भईया जी, हमने पहले कही थी, लठैतों को शुरु से मत उतारो। आप मानते कहा हो...? वे रोज दारु-मटन खा-पी मस्तियाय रहे। गांव में लौंडिया छेड़ते रहे। आपकी, वो क्या कहते हैं, साफ सुथरी इमेज को सर्फ से धोने लायक भी न रख छोड़ा। जानते हैं अगर ये लठैत नहीं होते तो आप ठेठवार- कुर्मियों के गाव से अकेले पच्चीस दृ तीस की लीड करते। महाराज, जिसे आपने अपने पक्ष में, पांच पेटी दे के बिठाया, वो मनराखन साहू, बहुत कपटी आदमी निकला। विरोधियों से मिल कर दो-तीन लाख और बना लिया हरामी पिल्ले ने.....। वो तो अच्छा हुआ कि न वो हमारे न विरोधी के पक्ष में काम किया। दारु पी के सोते रहा पूरे इलेक्शन भर। आप भी कहां-कहां फंस जाते हो, समझ नहीं आता। वो पिल्ला बोलता है, इलेक्शन के खम्भे हर साल क्यों नहीं गडाए जाते...? मूतने में सहूलियत होती। महराज, आपने एक बात, पटरी पार वाले गांव की नोट की? आपने उधर शहर को जोड़ने वाले पुल बनवाए। रोड को मजबूती दी, सीमेंटीकरण करवाए, बुजुर्गो के लिए उद्यान, कन्याओं के लिए गर्ल्स कालेज खुलवाए। उधर के लोग आपको जबरदस्त मानते हैं। आपको बेतहाशा सपोर्ट मिले हैं। केवल इसी एरिया में आपका परचम जी भर के लहराया है भाई जी। काश ऐसे ही विकास के काम और जगह हुए होते...? आपकी जीत निश्चित होती। (रचनाकार) • @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 05/13/2014 अपनी तो ये आदत है....-सुशील यादव- हम बचपन से, चुप रहने का ख़ासा तजुर्बा रखते आये हैं। बीपीएल, ओबीसी, वालो को, वैसे भी स्कूल, हास्टल, गेम्स या पालिटिक्स में कुछ ज्यादा कहने या करने का हक़ उन दिनों नहीं मिला करता था। विरोध के स्वर मुखर हुए नहीं कि स्कूल-कालिज, निकाला होने का खतरा मंडरा जाता था। किसी आन्दोलन में हिस्सा लेने पर पुलिसिया सुताई, इतनी होती थी, कि विकलांग होने का भय सताता था। हम लोगो की जुबान, उन दिनों बाजार में मिलने वाले चपकन्हा ताले माफिक था। ये वो ताला होता है, जिसे बंद करने के लिए चाबी की जरूरत नहीं पड़ती, बस कुण्डी ने लगा के दबा दो, बंद हो जाता है। हमारी जुबान को एक धमकी में कोई भी, किसी भी वक्त बंद करवा सकता था। एक बार बंद हो जाने के बाद हमारी जुबान, बंद करने वाले आका की हो जाती थी। आका जब तक न चाहे नहीं खुलती थी। सैकड़ो राज को दफन करके रखने का उस जमाने जैसा प्रचलित आर्ट आज के लोगों को आता कहां है? ये वो जमाना था कि किसी को जुबान दे दी का मतलब, मरते दम तक किसी से कुछ नहीं कहेंगे, टाइप का होता था। क्षत्रिय धर्म पालन करने वालों की देखा-सीखी, करीब-करीब दूसरे लोगो में प्राण जाय पर वचन न जाएस्टाइल का कर्म योग आ जाया करता था। गफलत की गुंजाइश नहीं के अनुपात में हुआ करती थी। जहां एक ओर वचन लेने-देने की परंपरा का निर्वाह होता था वहीं दूसरी ओर लोगों की आवाज दबाने या नहीं उभरने देने का रिवाज भी होता था। उसी रिवाज की आखिरी पीढ़ी के बचे हुए हम लोग हैं। हमारी जुबान को बंद करने वाले समाज के सभ्रांत ठेकेदारों के बाद, दूसरे कारको में, पेरेंट, उसके बाद मास्टर-गुरूजी-सर, फिर उसके बाद दबंग अफसर और अंत में पुलिसिया रॉब-दाब हुआ करते थे। ये सब के सब, हमारे अन्दर के बोलने वाले यंत्र के स्क्रू को ढीले किये रहते थे। आजकल के लोगों को सरेआम, आम चौराहे मंच पर बकबकाते सुनते हैं तो मजा आ जाता है। कोई तो माई का लाल है जो सरे आम ललकार लेता है। बड़ी-बड़ी गालियां अभी भी, कहीं भी, किसी के लिए भी निकाल लेता है। अपनी उर्जावान वाणी से अपने प्रतिद्वंदी के पूरे खानदान की मट्टी पलीद किये रहता है। दहाड़ मार-मार के पुरखों तक को घसीट लेता है। आंकड़ो पे आंकड़े देकर बता देता है कि किससे कब कहां कितना लिया-दिया।कब स्विस बैंक का खता खोला कितना जमा किया, खातों के क्या अकाउंट नंबर हैं, पासवर्ड में अपने कुत्ते का नाम किस प्री-फिक्स-सफिक्स के साथ लगा रखा है। बोलने वालों को जब बोलते सुनते हैं तो लगता है वे जनता की नजर में अपनी बेगुनाही का सबूत दे रहे हैं। दूसरों को चोर, उचक्का, उठाइगीर, मवाली. किडनेपर, हत्यारा जाने क्या-क्या कह डालते है? इनकी जुबान को किसी की, कभी नजर कैसे नहीं लगती ताज्जुब होता है? सीइसी (आयोग) वालो को आचार संहिता की तर्ज में, हर उम्मीदवार के कंठ में व्होकल मीटर फिट करवा देना चाहिए, चुनाव में खर्च की सीमा की तरह बोलने की सीमा तय हो कि, ज्यादा बकवास करके मतदाताओं की सुनने की स्वछंदता का हनन न करें। बोलने के नाम पर इन दिनों मीडिया वाले भी बहुत कूद लेते हैं। ये इतना उछलते हैं कि इनकी टी आर पी इंडेक्स रोज नया रिकार्ड बनाता है। इनके खोजी पत्रकारों की फौज एक-एक नेता के छींकने-पादने की पड़ताल करते नजर आते हैं। दावे के साथ ये कहते हैं कि हमारे चैनल ने सबसे पहले ये बताया कि बिना ब्रश किये नाश्ता ले कर हमारे नेता ने कहां-कहां रैली को संबोधित किया। पत्रकारों को पुचकारते हैं, दुलराते हैं इन्हें डांटते-फटकारते भी हैं, इंहे अपना हर रोल मन्जूर है। सहनशीलता की सदैव गुंजाइश बनी रहती है। नेताओं को घेरने में उस्ताद पत्रकार, पेनल को संचालित करने वाला धाकड एंकर व्ही बात उगलवा लेता है जो इअनके चेनल मालिक के हित का होता है। मुझे लगता है इनके खोजी पत्रकार बने हुए लोगो में ज्यादातर लोग, कभी बड़ी घुटन-तड़फ-संत्रास के मारे-सताए हुए रहे होंगे। मेरी इस सोच के पीछे का तर्क ये है कि, ये जनता की जुबान बनने की जुगत में, जिनकी जुबान बरसों बंद रहती है, ज्यादा आक्रामक हो जाते हैं। वे पूछते हैं, कितना कुचलोगे, कितना दबाओगे? लगता है दबी जुबानों के तह में कहीं ज्वालामुखी है, जो फट के बाहर आना चाहता है। असंतोष की सुनामी है, जो अपनी जद में आई हुई हर नाकामी में, कहर बन के टूटना चाहती है। कलम और तलवार के बीच श्रेष्ठता साबित करने के लिए किये गए किसी वाद-विवाद में सुना था, कि तलवार से ज्यादा धार कलम की होती है। तर्क देने वाले ने कहा था कि तलवार अपने सामने आये दुश्मन को सौ-पचास-हजार की तादाद में मारती है। इसमें सिर्फ मारक क्षमता है, जिलाने के लिए मरीज अस्पताल के रहमो-करम पर रहता है। मगर कलम की धार, एक पीढ़ी को, एक युग को मार-जिला सकती है। परसाई जी की पिटाई से पैरो की हडडी का टूटना, जनाब सफदर हाशमी का सरे-आम, आम चौराहे पर दर्दनाक रूप से मारा जाना, कलम की धार से हुए वार के परिणामों में से कुछ एक उदाहरण मात्र हैं, पर ऐसी अनेकों कई घटनाएं है, जो कलम के पैनेपन को अहसास कराने में अहम् कारण बनती हैं। कलम के धनी लोग जब मीडिया में, पहुंचे हुए लोगों के बीच जब पहुंचते हैं तब बात ही दूसरी हो जाती है। ये लोग देश को एक नये अंजाम तक ले जाने की क्षमता रखने लगे हैं। हवा का रुख बदलने में ये माहिर से हो गए हैं? इनके दिमाग में, स्टिंग केमरा की जगह, दूरदृष्टि वाला दूरबीन फिट हो जाता है। वो दूर-दूर की खबर लाते हैं कि शांत माहौल में गर्मी पैदा हो जाती है। खोजी पत्रकारिता के थोड़े से जोखिम उठा के ये लोग राजा को रंक, रंक को राजा बनाने का खेल खेलने लगे है। ओपिनियन पोल की आस्थाको ज्योतिष-शास्त्र के समतुल्य बिठा के, लोगों की नजरों में, दिमाग में, दिन-रात, यही काबिज करवाया जा रहा है कि जो हम बता रहे हैं वही कल का भविष्य है। अगर कायदे से ये पोल की खोल, किसी दल के पक्ष में न चढे अथवा न चढाई जाए तो परिणाम ठीक उलटे भी आ सकते हैं। लहर-हवाये दो ऐसे शब्द हैं जो चुनाव के संदर्भ में बहुत मायने रखते हैं। जिसकी लहर उसकी सरकार, जिसकी हवा उसकी जीत।ये नये पर्याय मीडिया ने दिये हैं। अब क्या करें ! जनता नादान बेचारी, दिशाहीन, बह जाती है लहरों में, हवाओं में........। बस; अपनी तो ये आदत है।......, अब कुछ नहीं कहते? (साभार: रचनाकार) • @ for webvarta news Agency रेट कार्ड Login | Registration 05/09/2014 आवारा कुत्तों का रोड शो... -सुशील यादव- मार्निग-वाक में डागी सीसेंन को घुमाने का काम फिलहाल मेरे जिम्मे आ गया है। रास्ते में दीगर कुत्तों से बचा के निकाल ले जाने का टिप, गणपत ने जरूर दिया था, मगर प्रेक्टिकल में तजुर्बा अलग होता है। एक हाथ में डंडा, एक हाथ में पटटा पकडे, कुत्ते के बताए रास्ते में खुद खिचते चले जाओ। सामने आये दूसरी नस्ल की बिरादरी वालो को भगाते रहो। उस दिन शर्मा जी साथ हो लिए, पूछे कौन सा है? मैंने कहा अल्शेशियन। कितने का लिए? मैंने कहा, एक मित्र के यहां बोल रखा था, उनने दिलवाया। वे बोले; और कोई मिले तो दिलवाइए हमें भी। मैंने कहा, शर्मा जी, कंझट का काम है कुत्ते का शौक करना। अपना बस चले तो अभी ये पट्टा आपको थमा के छुट्टी पा लें, मगर पिंटू का शौक है; सो खींचे जा रहे हैं। वैसे भी आप मांस-मच्छी, अंडा कहां खिला पाओगे, ये नस्ल तो इनके बिना गाय माफिक हो जायेगी। शर्मा जी नान वेज पर टिक नहीं पाए; वे राजनीति में उतर आये। क्या कहते हैं? किसकी बनेगी? मैंने कहा जो ज्यादा भौक ले वही मैदान से दूसरों को खदेड़ने के काबिल होता है, आपका क्या कहना है? आपकी बात तो सही है। आजकल टी वी देख-देख, सुन सुन के तो कान पाक गए हैं। ये तो अच्छा है कि आई पी एल वाले सम्हाल ले रहे हैं, आप इंटरेस्ट रखते हैं न, क्रिकेट में? मैंने कहा हां, क्यों नहीं, सीसेंन उधर नही ....रास्ते में चलो ....। शर्मा जी ने कहा आपकी बात समझ लेता है, देखो रास्त में आ गया। मैंने कहा शर्मा जी यही तो खूबी है इन कुत्ते लोगो की। भौकते जबरदस्त हैं, दौड़ाएंगे भी खूब, मगर जब तक मालिक न कहे काटेंगे नहीं। आगे देखिये......, वे जो कुछ आवारा कुत्ते आ रहे हैं कैसे गुर्रायेगे इस पर....... लगेगा अकेला आये तो नोच लेगे........। मगर वहीं, जब हमारा अल्शेशियां एक गुर्रायेगा तो दुम दबा के भाग खड़े हो जायेंगे स्साले ...। शर्मा जी को तत्कालिक परिणाम भी देखने को मिल गया। चक्रव्यह की माफिक, आवारा रोड छाप कुत्तों से, अल्शेशियन सीसेन घिर गया। , वो थोडा सहमा मगर जैसे ही हमने हिम्मत दी, वो उन सब पर भरी पडने लगा। आवारा कुत्ते आपनी रोड शो रैली को, दूसरी गली की तरफ ले गए। मैंने कहा देखा शर्मा जी, यही हमारे इधर भी हो रहा है। रैलियां देख के हम अंदाजा लगा लेते हैं उमीदवार में दम है। जब तक कोई ताल ठोंक के सामने आके नहीं गुर्रायेगा जनता बेचारी भ्रम पाले रहेगी और अपना वोट देते रहेगी। हमारा मानना है, आप क्वालिटी देखो नस्ल देखो, दमखम देखो। ये नहीं कि चोर, उठाईगीर धोखेबाज, सुपारी-किलर, ब्लेक मार्केटियर, दलाल-ठेकेदार कोई भी टिकट हथिया ले, और उसे आप चुन लो। शर्मा जी आजकल यही सबकुछ हो रहा है। एक ने भाषण झाडने में महारत हासिल कर ली, दूसरे ने पोल खोलने की विद्या सीख ली, और बन गए राजनीति के दिग्गज पंडित। गुंडे-मवाली, घूसखोरो से देश को बचाओ भइ ... बहुत हो गया। इतनी देर खड़े गपियाने में, सीसेन कब दिशा मैदान से फारिग हो गया, पता ही नहीं चला। (साभार: रचनाकार) @ for webvarta news Agency रविवार, 07 सितंबर, 2014 : 10 : 40 AM रेट कार्ड05/07/2014 रेट कार्ड04/20/2014 रोड शो, हाईकमान और मै -सुशील यादव- मैंने कभी जिन्दगी में नही सोचा था, कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि मेरे नाम का कहीं रोड शो भी आयोजित होगा? बड़े आराम से �दाल-रोटी वाली जिन्दगी� जी जा रही थी। �बेटर हाफ� ने कभी �चुपड़ी हुई की� फरमाइश नहीं की, मगर इसका ये कतई मतलब नहीं कि हम �लो-प्रोफाईल� वालों में से थे। हमारे रिमोट कंट्रोलर से, जब वे अच्छे मूड में हुआ करती थी, कई जबरदस्त सुझाव आया करते थे। दस रुपिया फीट की जमीन, जिसका दाम आज दो हजार रुपिया फीट का है, खरीदने का सुझाव देकर, उनने अपनी बात का लोहा मनवा लिया है। वो ताना देने से आज भी नहीं चूकती। आज ये जमीन, ये घर, लाखो का है किसकी बदौलत? हम अपनी क्लर्की का, भला इस समझदारी भरे सौदे को माइनस कर, भला क्या नाज करते?सो कभी-कभी उनकी कही बातों को आजमा लेने में पति -धर्म की लाज समझते हैं। एक दिन खाना परोस के �चटाई-कान्फेंस� में उनने कहा, बुढापे का कुछ सोचा है?फकत पेशन से क्या उद जलेगा? मै अप्रत्याशित प्रश्न से, उठाया हुआ कौर वापस रखते हुए पूछा, मतलब?.... वो बोली, पहले खाना खा लो फिर बाते करते हैं। मै समझ गया, कोई प्लानिग पर श्रीमती जी आकर रुक गई हैं। अक्सर बड़े-बड़े सुविचार, बड़ी घोषणाओं की गवाह हमारी �चटाई� रही है। मैंने खाने पर, पारी समाप्ति की घोषणा की, मुह तौलिये से पोछते हुए पूछा, अब बताओ, क्या बोल रही थी? मै देख रही हूं रिटायरमेंट के साल गुजरने के बाद आप कोई साइड का काम धंधा शुरू नहीं किये हो। कुर्सी तोड़ते रहने से कई बीमारियां घेर लेगी। किसी से मिलते-जुलते नहीं, कहीं आते दृजाते नहीं। बस दिन-रात टी-व्ही, मोबाइल, लेपटाप से घिरे रहते हो, ऐसा कब तक चलेगा?बुढापे में कौन पूछेगा? देखो !नई-नई पार्टियां खुल रही हैं कही घुस क्यों नही जाते? बतर्ज श्रीमती, हमने कहा मान लिया। उनकी सुझाई पार्टी ज्वाइन कर ली। उनकी सक्रियता पार्टी के प्रति अलग बनी रही। पता नहीं महीने दृदो महीने में क्या गुल खिला कि पार्टी वाले �टिकट� परस कर रख दिए? हमने उनसे कहा लो, तुम तो पार्टी की कहती थी. वे टिकट टिका गए। अब समझो रही दृसही अपनी जमा पूंजी भी ख़तम! तुम अपने को हरदम बहुत अकल वाली मत समझा करो, किसी दिन ले डूबोगी ! उनने समझाया, गाठ की खर्च, कौन टूटपुन्जिया नेता करता है? दीवाल रंग दृरोगन को छोड़ के, दस-बीस हजार गंवा के खेल-तमाशा देखने में हर्जा क्या है? इस साल समझो तीरथ -विरथ जाने के बदले, चुनावी गंगा में दुबकी लगा लिए समझेगे, और क्या? �बेटर-हाफ� के लाजवाब तर्क से, मुझमे कई बार अतिरिक्त ऊर्जा का संचार हुआ है। मैं उसकी बात पर एक गहरी सांस लेता हूं तो वो खुद समझ जाती है, कि �फेरे� के दौरान दिए गए वचन का मै एकलौता हिमायती पति हूं। पत्नी की सक्रियता से कहां-कहां से चंदा मिला, फार्म जमा हुआ, लोग इकट्ठे हुए। कब घर.मोहल्ले, सड़को में मेरे नाम के नारे पोस्टर, बैनर लगने शुरू हुए पता ही नहीं चला? बड़े रोड शो करने के पहले, छोटे दृछोटे रोड शो का रिहर्सल शुरू हुआ। पच्चीस-पचास मोटर-सायकल, स्कूटर वालों का जुगाड़ हुआ। उनमें पेट्रोल डलवाने मात्र से मुझे खर्च के स्टीमेट में रखे आधे पैसों का निकलना नजर आया। इससे फले कि मै चकराऊ शहर के चक्कर का कार्यक्रम चालू हो गया। जिस चौराहे पर बिना हेलमेट के स्कूटर चलाने में, पिछले पखवाड़े मुझ पर फाइन ठोकने के बदले, पच्चास रुपए जिस ठोले ने लिया था, एकदम उसी के सामने से रैली गुजरी। मैंने स्कूटर नजदीक ले जाकर कहा, आज क्यों ...फाइन दृवाइन नही करेगे?पन्द्रह दिन पहले यहीं फाइन ठोका था न तुमने?वो मुंडी झुका लिया। प्रजातंत्र में आप कब किसकी मुंडी झुकवा लें कह नहीं सकते। इससे पहले कि बाक़ी रैली वाले ठोले से भिड़ें दृउलझें, वो समझदार चुपके से, पचास निकाल के दे दिया। मैं मन ही मन मुस्काया, चलो नेता बनने की पहली फीस तो मिली, भले अपनी ही लक्ष्मी वापस क्यों न लौटी हो। इस वाकिये से श्रीमती गदगद हो जायेगी। उस दिन वो पीछे बैठी, हेलमेट नहीं पहनने पर जो उलाहने दे रही थी, उलटे-सीधे फायदे नुकसान गिना रही थी, अब क्या कहेंगी अंदाज लगाना मुश्किल है। बहरहाल रिहलसल वाली रैली में लोगों का बहुत तादात में तमाशाई होना, मुझे भ्रम में डाल रहा था कि, मेरी हवा तो नही बन रही? मुझे बड़े रोड शो का इन्तिजाम करना पडेगा। हाईकमान को वीडियो फुटेज भेज कर, एक सेलेब्रिटी, एक स्टार प्रचारक का इन्तिजाम करने को कहा। हाईकमान फंड कम होने का रोना ले बैठी है। पार्टी के पास फंड की कमी है। आप अपना इन्तिजाम खुद करो। हमने कहा, दीगर जगह अपनी पार्टी के बड़े-बड़े रोड शो हुए हैं, कहां से आया फंड? हम कुछ नही जानते! एक रोड शो हमारे लिए नही किया तो रोड में हिसाब मागेंगे!, वो भी ऐन इलेक्शन के पहिले। दोस्तों, �न्यूसेंस वेल्यु� भी दम की चीज है। इसे हिन्दी वाले अंगुली टेढ़ी करना भी कहते हैं। समझो हमने अंगुली टेढ़ी की, पार्टी वाले जी जान से जुटे। पूरे ताम-झाम के साथ रोड शो शुरू हुआ। इतना मजा तो हमें अपनी शादी में घोड़ी चढने में नहीं आया था .जितना कि रोड शो की सजी जीप पर चढ़ने में आ गया। प्रायोजित फूल मालाये, जो यहां चढती और दुसरे चौराहे पर फिर इस्तेमाल करने को निकाल के भेज दी जाती, पखुडियां वन टाइम यूज वाली थी जो जगह दृजगह बरसायी जाती रही। लोग �इस देश का नेता कैसा हो� के नारे जब लगाते तो छाती गज भर चौड़ी हो जाती। पत्नी कनखियों से देख के यूं शर्माती जैसे उसे हम पहली बार बिदा कराने ससुराल पहुचे हों?पूरे रोड शो में हमारा कनखियों वाला अलग शो चलता रहा। ज़रा भी गुमान नहीं हुआ कि बासठवे पार किये हुए हैं। पत्नी की थ्योरी में कि समझो इस बार �चुनावी गंगा� में दुबकी लगा लिए, मुझे सचमुच दम नजर आया। वोट, मशीनों-पेटियों में बंद हो गए हैं, अब देखे परिणाम क्या आता है? (साभार: रचनाकार) @ for webvarta news Agency 03/30/2014 निर्दलीय होने का सुख 03/30/2014 निर्दलीय होने का सुख पहली बार उनका सामना माइक से हुआ। आपको पांचवीं बार निर्दलीय चुनाव लड़ते हुए कैसा लग रहा है? -सुशील यादव- पहली बार उनका सामना माइक से हुआ। आपको पांचवीं बार निर्दलीय चुनाव लड़ते हुए कैसा लग रहा है? वे बोले, मैं बहुत खुश हूं। क्या आपको उम्मीद है ये चुनाव आप निकाल लेंगे? देखिये !चुनाव निकालने के लिए पैसे, प्रचार, कार्यकर्ताओं की फौज जरूरी होता है। मेरे पास ये सब न तब थे, न अभी हैं। इस हालत में चुनाव निकाल लूं .....ऐसी मेरी सोच कभी नहीं रही। फिर आप क्यूं बार-बार मैदाने-जंग में कूद जाते हैं? देखिये! हम गांधीजी के अनुयायी हैं। उनके साथ पैदल तो नहीं चले, कभी जेल में रहने का भी तजुर्बा नहीं रहा, मगर हम देश को उतना ही प्यार करते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, �आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है, लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि आप उस काम को करें तो सही।� हम जानते हैं हमारा निर्दलीय चुनाव लड़ना महत्वहीन है, लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि हम मतदाताओं की जागरूकता की परीक्षा ले रहे हैं, आप समझिये कि ये गांधीगिरी का प्रयोग है। मतदाताओं को बिकने दो, मुफ्त की पीने दो, वादा-खिलाफी के दंश सहने दो, वे एक दिन लौट के अच्छे केन्डीडेट के पीछे आयेंगे जरुर। -आपको लोग यहां जानते भी तो नहीं, आप पिछले पांच इलेक्शन से बेनाम से खड़े हो जाते हैं हजार-दो हजार वोट बटोर पाते हैं बस? -आपको मालूम है हमारे देश में वोट बटोरना, भीड़ जुटाना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं। बहुत सीधे-सादे लोग हैं यहां। बाबाओं के प्रवचन में, जहां वे लोग चंद घरेलू नुस्खे, सर्दी-जुकाम की दवा और केंसर से लेकर असंख्य असाध्य रोग को जड़-मूल से दूर करने का दावा फेंकते हैं पब्लिक टूट के आती है। केवल आती ही नहीं पूजा भक्ति भी शुरू कर देती हैं। बाबाओं का ताबीज-पानी बिकने लगता है। वे घास-फूस को भी पेक कर दें तो लोगो में लेने की होड़ लग जाती है। हमारे यहां दावा को परखने की �अमेरिका स्टाइल� वैज्ञानिक कसौटी नहीं है। लोग वहम पालते हैं। एक के कहे हुए को अनेक लोग फैलाते हैं। टीवी चेनल में एक कुर्सी पर बिना हिले डुले बैठे हुए का ढ़िंढ़ोरा पिट जाता है, ये वही शख्श है जो शुगर पेशेंट को खीर खाने की सलाह दे के अपने को अवतारी पुरषों में गिनाये जाने का भ्रम पाल लेता है। शक्तियों की कृपा और कृपाओं की शक्ति दोनों इन पर मेहबान हैं। एक योगी है जो लोगों को दो दिन के अभ्यास के बाद, खड़े कर-कर के पूछता है कि, वजन दो किलो कम हुआ कि चार?लोग ढीले-ढाले कपडे पहने हुए, या बाबा की डिफेक्टिव मशीन में वजन करा के वहम पाल लेते हैं, समझो धोखा देने का गोरखधन्धा चला रखा है। अपने देश को वहम की दुनिया से यथार्थ की दुनिया में ले जाने का हम सब को निर्दलीय बन के ही, बीड़ा उठाना पड़ेगा। आज लोगों को अरबों लूटने वाले ढोंग-धतूरा बेचने वाले इन बाबाओं से मुक्त कराना होगा। आप को लगता है, आप अपने मुहीम में किसी दिन सफल होंगे? मुझे नहीं मालुम। मगर मैं कहे देता हूं कि जैसे आपकी नजर मुझमें पिछले पांच इलेक्शन बाद अब पड़ी वैसे ही प्रपंची उमीदवारों से ऊबे हुए लोग मेरी मुहिम में शामिल होंगे। इलेक्शन जीतने के आसान से नुस्खे हैं, मैं अगर एक दिन का अनशन करता हूं तो दस हजार वोट पक्का। अनुमान लगाइए कितने दिन के अनशन में मुझे लीड मिल सकती है? आज आपका मुझ पर लिया हुआ इंटरव्यू हब-हु छप गया तो वोट प्रतिशत में इजाफा जरुर होगा ये मान के चलिए। लोग न जाने कितने वादे कर लेते हैं?वादा करने वाला मतदाताओं को हिप्नोटाइज्ड कर लेता है। आम-जन बखूबी उनकी बात को अपने फायदे से जोड़ के देखने लग जाते हैं। यहां हर वो माल मिनटों में खत्म हो जाता है, जिसमें लोगों को एकबारगी फायदा सा सहारा दिखता है। -आपने कोई पार्टी ज्वाइन नहीं किया या पार्टी वाले आपको लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाए? -चक्कर तो कई लोग लगाए मगर, हम जैसे अंतरात्मा रखने वाले लोगों के साथ, राजनीति में दिक्कत है। इसे बेचकर या इससे समझौता करके ही यहां कोई टिक सकता है। मैं चाहता हूं शुद्ध अंत;करण वाले लोग आयें। अगर लहर लाने का दवा-दिखावा करते हैं तो इतना ख्याल जरुर रखें कि रेत में लिखी पुरखों की इबारत कभी मिटने न पाए। अपना चेहरा दो-दो आईने में देखने से, चेहरा बदला हुआ दिखेगा ये जरुरी नहीं? (साभार: रचनाकार) @ for webvarta news Agency 08/08/2014 बेवफा तुझको कहूँ! 08/08/2014 बेवफा तुझको कहूँ! सुशील यादव मै रुठ गया अगर, सूना घर न रह जाये ढूढने मशगूल मुझको, शहर न रह जाये .... सुशील यादव मै रुठ गया अगर, सूना घर न रह जाये ढूढने मशगूल मुझको, शहर न रह जाये .... तुम न चाहो, हसी ख्वाब की ,तरह मुझको टूटने का फिर, कहीं अब डर न रह जाये एक सवाल अजीब, मेरे सामने यूँ आया बेवफा तुझको कहूँ तो कसर न रह जाये वो निभाने चार दिन वादा कुछ अगर कर ले जनम-जनम �सुशील बंन्ध कर न रह जाये ..? 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Tuesday, 10 June 2014

रचनाकार: पखवाड़े की कविताएँ

रचनाकार: पखवाड़े की कविताएँ

सुशील यादव


1...सुर्खाब का ‘पर’
नसीब में कहाँ था, सुर्खाब का ‘पर’ कभी
जिसे  समझते, खुशनुमा मंजर कभी
गुनाह को रहमदिल मेंरे माफ कर देना
मकतल गिर  छूटा  कहीं, खंजर कभी  
हमें हैरत हुई इन  ‘शीशों’ को देख के 
तराशा हुआ  मिल गया , पत्थर कभी

नहीं खेल! किस्मत.; जहाँ में है आसा 
लकीर खिच, कब रुका है समुंदर कभी
तुझे टूट कर चाहने का इनाम ये
तलाश करते हैं, खुद को अन्दर कभी
शहंशाह मिटते हैं बस  आन पे साहब 
झुका के सर, जिया है क्या, अकबर कभी ?



2....बेवफा तुझको कहूँ
मै रुठ गया अगर  ,सूना घर न रह जाये
ढूढने मशगूल मुझको ,शहर न रह जाये ....
तुम न चाहो ,हसी ख़्वाब की ,तरह मुझको
टूटने का फिर, कहीं अब डर न रह जाये
एक सवाल अजीब, मेरे सामने यूँ  आया 
बेवफा तुझको कहूँ तो कसर न रह जाये
वो निभाने चार दिन वादा कुछ अगर कर ले
जनम –जनम  ‘सुशील’     बंन्ध कर   न रह जाये ..?
3......सोए बाजार में, जागते लोग
पर कटे से कबूतर ये पाले नहीं जाते
जर्द से खत तुम्हारे सम्हाले नहीं जाते
देख लो साब ,यादो में रख लो, बसा के अब  
सोए बाजार में, जागते लोग, ढाले नहीं जाते
कर नहीं पाए समझौते हम, आदतों अपनी
कोशिशें ,बंदिशें कल पे टाले नहीं जाते
जिस्म का जख्म तो, भर जाता कभी शायद
ये जो शामिल ,तहे दिल है ,छाले नहीं जाते

4......दोस्ती का हक
दोस्ती का यूँ  हक वो अदा कर चला गया
मुझको बेसबब, मुझ से जुदा कर चला गया
कुछ दिनों से रूठा था, न जाने ,कही कश्ती 
याद के गहरे  समुंदर, डुबा कर चला गया
चाहत ये उसकी, सुकरात सा, जहर वो पिये
मयकदे, आब-दाना , उठा कर चला गया
तोड़ लिए थे चमन के उसने फूल, सब खुदा
पतझड को आँख अपनी ,दिखा कर चला गया  
उंगली थाम चलता इशारों मेरे कभी
आज मुझको नसीहत थमा कर चला गया
कर कहाँ पाए, खुद की तलाश, गज दो जमी
नाखुदा ये हकीकत ,बता कर चला गया


5.....साये की फिकर रखना
धूप में निकले ,साये की फिकर रखना
मोम सा मन पिघले, मन पे नजर रखना
मंजिल जानिब दो चार तो, कदम  चलो
फिर पलट कहीं ,मील का पत्थर रखना
हाथो लोग लिये , इल्जाम के पत्थर
क्यूँ  नुमाइश , शीशे का घर रखना
मन भीतर मिल जाए, ‘यकीन’ उजाला
दिए उम्मीद के, क्या इधर-उधर रखना

6.......ख्वाब में जो समाया रहा...
नींद में ,ख्वाब में जो समाया रहा बरसो
एक अजनबी, दिल- दिमाग छाया रहा बरसो   
लोग घर को सजाने, नहीं, क्या-क्या करते
वो मुस्कान लिए, घर को, सजाया रहा बरसो  
खामुशी का सबब, था यकीनन यही इतना 
एक मर्ज समझ उसको , छुपाया रहा बरसों
लिख के रखता, किसी नाम को, हर घड़ी माथे 
दाग  वो ‘दामन’ लगा , मिटाया रहा बरसो
देख उन्हें , सब्ज-शजर,चन्दन, गुमा होता
खुश्बुओ से, फक्र से,नहाया रहा बरसों
जिनको दहलीज पे तवज्जो  न दिए हों  लेकिन
यूँ ही ताबीज सा हरदम उसे , लगाया रहा बरसो     
मोड वो जिस जगह हुए , जंग, आपसी शिकवे
मोड वो ‘नफरतों’ का मिलाया रहा बरसों
कायदे का कभी, तू निशाना, इस तरह बन 
नाम उसके खत लिखे,  छुपाया रहा बरसो

थी तम्मना हमें ,जो कभी खुल के हंसे
बात वो हंस लिए,जो रुलाया  रहा बरसो

अब नही निकलते, बेसबब हद से बाहर हम
एक  तडफ को तहेदिल, लगाया रहा बरसों

7......जले जंगल में
होठ सीकर चुप्पियों में जीता रहा आदमी
दर्द आंसू , जहर खून  पीता रहा आदमी
तुम ज़रा  दाग पर दामन बदलने की सोचते
दाग-वाली, कमीजों को  सीता रहा आदमी
जल उठे जंगलों में उम्मीदों के परिंदे कहाँ
सावन दहाड़ता खूब चीता रहा आदमी
काट ले बेसबब , बेमतलब उनको, बारहा
महज उदघाटनों का ये, फीता रहा आदमी
साफ नीयत, पढ़ो तो, किताबें कभी ,संयम की
हर सफा के तह कुरान- गीता रहा आदमी

8......पत्थर के शहर में ...
शहर में  घूम के देखा ,मुस्कान न पाए हम
पत्थर दिखी हवेली ,एक मकान न पाए हम
मिली, नाजुक बदन लड़की ,दिखा शिकन में चेहरा 
क्या उसने कहा रुक के, पहचान न पाए हम
कतर के रख, दिया जैसे,अभी परिंदों के ‘पर’   
उन्मुक्त ! बन गगन पंन्छी , उड़ान न पाए हम
अँधेरे तीर हम भी तो  चला लेते ,मगर
सब अस्त्र था, हमें हासिल  ,कमान न पाए हम
  
हमारी पूछ परख में शायद रही हो कमी 
रुठ के, वापस हो लौटे ,मेहमान  न पाए हम
०००
9......सूरत कुछ अपनी सी लगी..
कद से बढता रहा, जब कभी साया इन दिनों
पाँव को,  अँधकार तरफ, बढाया इन दिनों
नीयत पे तुम रख न पाए, शक  की ज़रा सी सुई
जहर पी,  खुद दवा और को  पिलाया इन  दिनों 
टूटती कब भला  खामुशी उनकी बारहा
सामने आकर, कहाँ किसी ने हिलाया इन दिनों
वो नहीं रेस का, दौड़ता घोड़ा, कि जिसको
हो इशारा, औ दौड़ा हिन्-हिनाया इन दिनों
सूरत कुछ अपनी सी लगी, जिसको देख के
मन कभी रो लिया, कुछ छटपटाया इन  दिनों 

10.....रूठे हुए उजाले...
चेहरे  में हंसी, पाँव में  छाले देखो
इस बस्ती से अब, रूठे हुए उजाले देखो
जो लिखा करते स्वर्णिम अक्षर आजादी
वो महीन शब्द लिखें, अक्षर  काले देखो 
आने की अब, किस उम्मीद में, रह पाते हम
सौगंधों के लगा दिए जहाँ ,ताले देखो 
समुंदर से ,डर के आजकल; रहता हूँ इतना  
नेक नीयत का तिनका, अगर  बचा ले देखो
मजहब –मजहब अब  बांटने वाले हमको
हो न हो घर तेरा  शाप के  हवाले देखो
००००
11......जर्जर रिश्तों का पुल...
कोई वजह, या बात कुछ पर्वत नुमा नहीं  
जर्जर रिश्तों का पुल यहाँ , अब  दरर्मिया नहीं
आदत मेरी ,मैं बोलता ,हूँ जरुरतों से कम
सोच मगर किसी मायने में बेजुबां  नही
अब जिंदगी का बोझ लिए थक सा गया बहुत
ये अलग बात कि ये ,उम्र को भी गुमा नहीं 
मौसम बहारों के हर कहीं ढूंढता फिरा
अब के ,शरारत को बची कुछ ,तितलियां नहीं
खामोश, ये परचम किस जश्न का फहर गया
गुजरा महीनों, जीत  का जब , कारवां नहीं
अब हमपे तुम करते, यकीन सुशील कितना
हाथो लकीर जब हम  पे ही  महरबा नहीं
सूरत-शकल जाने क्यों लगती बुरी हमें
सीरत के माफिक साफ-सुथरा आइना नहीं

12.....जहाँ खौफ  का मंजर नहीं है....
दर्द ,तूफां, जहाँ खौफ  का मंजर नहीं है
लाख समझो ‘जन्नत’ पर मेरा घर नहीं है
दी जिसे नाम की चमक, जिसे जी भर तराशा
चाह से  निखर पाता , ये वो पत्थर नहीं है
वो जिसे समझते,हम महज हाथ की लकीरें
है अता की हुई रसीद बस , मुक्कदर नहीं है
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