सुशील यादव
1...सुर्खाब का ‘पर’
नसीब में कहाँ था, सुर्खाब का ‘पर’ कभी
जिसे समझते, खुशनुमा मंजर कभी
गुनाह को रहमदिल मेंरे माफ कर देना
मकतल गिर छूटा कहीं, खंजर कभी
मकतल गिर छूटा कहीं, खंजर कभी
हमें हैरत हुई इन ‘शीशों’ को देख के
तराशा हुआ मिल गया , पत्थर कभी
नहीं खेल! किस्मत.; जहाँ में है आसा
लकीर खिच, कब रुका है समुंदर कभी
तराशा हुआ मिल गया , पत्थर कभी
नहीं खेल! किस्मत.; जहाँ में है आसा
लकीर खिच, कब रुका है समुंदर कभी
तुझे टूट कर चाहने का इनाम ये
तलाश करते हैं, खुद को अन्दर कभी
तलाश करते हैं, खुद को अन्दर कभी
शहंशाह मिटते हैं बस आन पे साहब
झुका के सर, जिया है क्या, अकबर कभी ?
झुका के सर, जिया है क्या, अकबर कभी ?
2....बेवफा तुझको कहूँ
मै रुठ गया अगर ,सूना घर न रह जाये
ढूढने मशगूल मुझको ,शहर न रह जाये ....
तुम न चाहो ,हसी ख़्वाब की ,तरह मुझको
टूटने का फिर, कहीं अब डर न रह जाये
एक सवाल अजीब, मेरे सामने यूँ आया
बेवफा तुझको कहूँ तो कसर न रह जाये
मै रुठ गया अगर ,सूना घर न रह जाये
ढूढने मशगूल मुझको ,शहर न रह जाये ....
तुम न चाहो ,हसी ख़्वाब की ,तरह मुझको
टूटने का फिर, कहीं अब डर न रह जाये
एक सवाल अजीब, मेरे सामने यूँ आया
बेवफा तुझको कहूँ तो कसर न रह जाये
वो निभाने चार दिन वादा कुछ अगर कर ले
जनम –जनम ‘सुशील’ बंन्ध कर न रह जाये ..?
जनम –जनम ‘सुशील’ बंन्ध कर न रह जाये ..?
3......सोए बाजार में, जागते लोग
पर कटे से कबूतर ये पाले नहीं जाते
जर्द से खत तुम्हारे सम्हाले नहीं जाते
जर्द से खत तुम्हारे सम्हाले नहीं जाते
देख लो साब ,यादो में रख लो, बसा के अब
सोए बाजार में, जागते लोग, ढाले नहीं जाते
सोए बाजार में, जागते लोग, ढाले नहीं जाते
कर नहीं पाए समझौते हम, आदतों अपनी
कोशिशें ,बंदिशें कल पे टाले नहीं जाते
कोशिशें ,बंदिशें कल पे टाले नहीं जाते
जिस्म का जख्म तो, भर जाता कभी शायद
ये जो शामिल ,तहे दिल है ,छाले नहीं जाते
ये जो शामिल ,तहे दिल है ,छाले नहीं जाते
4......दोस्ती का हक
दोस्ती का यूँ हक वो अदा कर चला गया
मुझको बेसबब, मुझ से जुदा कर चला गया
मुझको बेसबब, मुझ से जुदा कर चला गया
कुछ दिनों से रूठा था, न जाने ,कही कश्ती
याद के गहरे समुंदर, डुबा कर चला गया
याद के गहरे समुंदर, डुबा कर चला गया
चाहत ये उसकी, सुकरात सा, जहर वो पिये
मयकदे, आब-दाना , उठा कर चला गया
मयकदे, आब-दाना , उठा कर चला गया
तोड़ लिए थे चमन के उसने फूल, सब खुदा
पतझड को आँख अपनी ,दिखा कर चला गया
पतझड को आँख अपनी ,दिखा कर चला गया
उंगली थाम चलता इशारों मेरे कभी
आज मुझको नसीहत थमा कर चला गया
आज मुझको नसीहत थमा कर चला गया
कर कहाँ पाए, खुद की तलाश, गज दो जमी
नाखुदा ये हकीकत ,बता कर चला गया
नाखुदा ये हकीकत ,बता कर चला गया
5.....साये की फिकर रखना
धूप में निकले ,साये की फिकर रखना
मोम सा मन पिघले, मन पे नजर रखना
मोम सा मन पिघले, मन पे नजर रखना
मंजिल जानिब दो चार तो, कदम चलो
फिर पलट कहीं ,मील का पत्थर रखना
फिर पलट कहीं ,मील का पत्थर रखना
हाथो लोग लिये , इल्जाम के पत्थर
क्यूँ नुमाइश , शीशे का घर रखना
क्यूँ नुमाइश , शीशे का घर रखना
मन भीतर मिल जाए, ‘यकीन’ उजाला
दिए उम्मीद के, क्या इधर-उधर रखना
दिए उम्मीद के, क्या इधर-उधर रखना
6.......ख्वाब में जो समाया रहा...
नींद में ,ख्वाब में जो समाया रहा बरसो
एक अजनबी, दिल- दिमाग छाया रहा बरसो
एक अजनबी, दिल- दिमाग छाया रहा बरसो
लोग घर को सजाने, नहीं, क्या-क्या करते
वो मुस्कान लिए, घर को, सजाया रहा बरसो
वो मुस्कान लिए, घर को, सजाया रहा बरसो
खामुशी का सबब, था यकीनन यही इतना
एक मर्ज समझ उसको , छुपाया रहा बरसों
एक मर्ज समझ उसको , छुपाया रहा बरसों
लिख के रखता, किसी नाम को, हर घड़ी माथे
दाग वो ‘दामन’ लगा , मिटाया रहा बरसो
दाग वो ‘दामन’ लगा , मिटाया रहा बरसो
देख उन्हें , सब्ज-शजर,चन्दन, गुमा होता
खुश्बुओ से, फक्र से,नहाया रहा बरसों
खुश्बुओ से, फक्र से,नहाया रहा बरसों
जिनको दहलीज पे तवज्जो न दिए हों लेकिन
यूँ ही ताबीज सा हरदम उसे , लगाया रहा बरसो
यूँ ही ताबीज सा हरदम उसे , लगाया रहा बरसो
मोड वो जिस जगह हुए , जंग, आपसी शिकवे
मोड वो ‘नफरतों’ का मिलाया रहा बरसों
मोड वो ‘नफरतों’ का मिलाया रहा बरसों
कायदे का कभी, तू निशाना, इस तरह बन
नाम उसके खत लिखे, छुपाया रहा बरसो
थी तम्मना हमें ,जो कभी खुल के हंसे
बात वो हंस लिए,जो रुलाया रहा बरसो
अब नही निकलते, बेसबब हद से बाहर हम
एक तडफ को तहेदिल, लगाया रहा बरसों
नाम उसके खत लिखे, छुपाया रहा बरसो
थी तम्मना हमें ,जो कभी खुल के हंसे
बात वो हंस लिए,जो रुलाया रहा बरसो
अब नही निकलते, बेसबब हद से बाहर हम
एक तडफ को तहेदिल, लगाया रहा बरसों
7......जले जंगल में
होठ सीकर चुप्पियों में जीता रहा आदमी
दर्द आंसू , जहर खून पीता रहा आदमी
दर्द आंसू , जहर खून पीता रहा आदमी
तुम ज़रा दाग पर दामन बदलने की सोचते
दाग-वाली, कमीजों को सीता रहा आदमी
दाग-वाली, कमीजों को सीता रहा आदमी
जल उठे जंगलों में उम्मीदों के परिंदे कहाँ
सावन दहाड़ता खूब चीता रहा आदमी
सावन दहाड़ता खूब चीता रहा आदमी
काट ले बेसबब , बेमतलब उनको, बारहा
महज उदघाटनों का ये, फीता रहा आदमी
महज उदघाटनों का ये, फीता रहा आदमी
साफ नीयत, पढ़ो तो, किताबें कभी ,संयम की
हर सफा के तह कुरान- गीता रहा आदमी
हर सफा के तह कुरान- गीता रहा आदमी
8......पत्थर के शहर में ...
शहर में घूम के देखा ,मुस्कान न पाए हम
पत्थर दिखी हवेली ,एक मकान न पाए हम
पत्थर दिखी हवेली ,एक मकान न पाए हम
मिली, नाजुक बदन लड़की ,दिखा शिकन में चेहरा
क्या उसने कहा रुक के, पहचान न पाए हम
क्या उसने कहा रुक के, पहचान न पाए हम
कतर के रख, दिया जैसे,अभी परिंदों के ‘पर’
उन्मुक्त ! बन गगन पंन्छी , उड़ान न पाए हम
उन्मुक्त ! बन गगन पंन्छी , उड़ान न पाए हम
अँधेरे तीर हम भी तो चला लेते ,मगर
सब अस्त्र था, हमें हासिल ,कमान न पाए हम
हमारी पूछ परख में शायद रही हो कमी
रुठ के, वापस हो लौटे ,मेहमान न पाए हम
सब अस्त्र था, हमें हासिल ,कमान न पाए हम
हमारी पूछ परख में शायद रही हो कमी
रुठ के, वापस हो लौटे ,मेहमान न पाए हम
०००
9......सूरत कुछ अपनी सी लगी..
9......सूरत कुछ अपनी सी लगी..
कद से बढता रहा, जब कभी साया इन दिनों
पाँव को, अँधकार तरफ, बढाया इन दिनों
पाँव को, अँधकार तरफ, बढाया इन दिनों
नीयत पे तुम रख न पाए, शक की ज़रा सी सुई
जहर पी, खुद दवा और को पिलाया इन दिनों
जहर पी, खुद दवा और को पिलाया इन दिनों
टूटती कब भला खामुशी उनकी बारहा
सामने आकर, कहाँ किसी ने हिलाया इन दिनों
सामने आकर, कहाँ किसी ने हिलाया इन दिनों
वो नहीं रेस का, दौड़ता घोड़ा, कि जिसको
हो इशारा, औ दौड़ा हिन्-हिनाया इन दिनों
हो इशारा, औ दौड़ा हिन्-हिनाया इन दिनों
सूरत कुछ अपनी सी लगी, जिसको देख के
मन कभी रो लिया, कुछ छटपटाया इन दिनों
मन कभी रो लिया, कुछ छटपटाया इन दिनों
10.....रूठे हुए उजाले...
चेहरे में हंसी, पाँव में छाले देखो
इस बस्ती से अब, रूठे हुए उजाले देखो
इस बस्ती से अब, रूठे हुए उजाले देखो
जो लिखा करते स्वर्णिम अक्षर आजादी
वो महीन शब्द लिखें, अक्षर काले देखो
वो महीन शब्द लिखें, अक्षर काले देखो
आने की अब, किस उम्मीद में, रह पाते हम
सौगंधों के लगा दिए जहाँ ,ताले देखो
सौगंधों के लगा दिए जहाँ ,ताले देखो
समुंदर से ,डर के आजकल; रहता हूँ इतना
नेक नीयत का तिनका, अगर बचा ले देखो
नेक नीयत का तिनका, अगर बचा ले देखो
मजहब –मजहब अब बांटने वाले हमको
हो न हो घर तेरा शाप के हवाले देखो
हो न हो घर तेरा शाप के हवाले देखो
००००
11......जर्जर रिश्तों का पुल...
कोई वजह, या बात कुछ पर्वत नुमा नहीं
जर्जर रिश्तों का पुल यहाँ , अब दरर्मिया नहीं
कोई वजह, या बात कुछ पर्वत नुमा नहीं
जर्जर रिश्तों का पुल यहाँ , अब दरर्मिया नहीं
आदत मेरी ,मैं बोलता ,हूँ जरुरतों से कम
सोच मगर किसी मायने में बेजुबां नही
सोच मगर किसी मायने में बेजुबां नही
अब जिंदगी का बोझ लिए थक सा गया बहुत
ये अलग बात कि ये ,उम्र को भी गुमा नहीं
ये अलग बात कि ये ,उम्र को भी गुमा नहीं
मौसम बहारों के हर कहीं ढूंढता फिरा
अब के ,शरारत को बची कुछ ,तितलियां नहीं
अब के ,शरारत को बची कुछ ,तितलियां नहीं
खामोश, ये परचम किस जश्न का फहर गया
गुजरा महीनों, जीत का जब , कारवां नहीं
गुजरा महीनों, जीत का जब , कारवां नहीं
अब हमपे तुम करते, यकीन सुशील कितना
हाथो लकीर जब हम पे ही महरबा नहीं
हाथो लकीर जब हम पे ही महरबा नहीं
सूरत-शकल जाने क्यों लगती बुरी हमें
सीरत के माफिक साफ-सुथरा आइना नहीं
सीरत के माफिक साफ-सुथरा आइना नहीं
12.....जहाँ खौफ का मंजर नहीं है....
दर्द ,तूफां, जहाँ खौफ का मंजर नहीं है
लाख समझो ‘जन्नत’ पर मेरा घर नहीं है
लाख समझो ‘जन्नत’ पर मेरा घर नहीं है
दी जिसे नाम की चमक, जिसे जी भर तराशा
चाह से निखर पाता , ये वो पत्थर नहीं है
चाह से निखर पाता , ये वो पत्थर नहीं है
वो जिसे समझते,हम महज हाथ की लकीरें
है अता की हुई रसीद बस , मुक्कदर नहीं है
है अता की हुई रसीद बस , मुक्कदर नहीं है
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आगे पढ़ें: रचनाकार: पखवाड़े की कविताएँ http://www.rachanakar.org/2014/05/blog-post_207.html#ixzz34Feivcpx
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