Monday 8 September 2014

आता माझी सटकली

दिमाग, जब ‘दिमाग’ का काम करना बंद कर दे तो ‘सटकली’ वाली बात पैदा हो जाती है | फिलहाल, ये डिस्क्लेमर भी लगाता चलूं, कि यहाँ अभी हम ‘ब्रेन-डेड’ की वजह से दिमागी तौर पे सटके हुओं की चर्चा नहीं कर रहे हैं |अगले किसी एपिसोड में इनको भी देख लेगे | गौर करेंगे तो आपको अपने आसपास ही बात-बे –बात सटकने वाले लोगों की लंबी फेहरिस्त मिल जाएगी| बनिया ,मास्टर ,दर्जी ,नाइ ,धोबी ,दूधवाला ,सब्जीवाला ,कामवाली बाई और तो और आपकी अपनी वाली भी....| सब के सब जब ‘माझी-सटकली’ के भूत पर कभी न कभी सवार हो लेते हैं|कोई किसी से पंगा करके सटक लिया होता है तो कोई दूसरे के द्वारा देख लिए जाने की धमकी में सटक गया होता है | अगर सटके हुओं के सटकने से किसी वजह , विकराल स्तिथी उत्पन्न हो जाए तो स्तिथी की समीक्षा और मान-मनौव्वल के लिए आस-पास के यार –दोस्तों को घेरना पडता है | अपने यहाँ सटके हुओं की , परंपरा, रामायण -महाभारत के जमाने से ,विधिवत निभाई जाते रही है | माता कैकई की ‘सटकली’ राम को भारी पडी,..| इसी के चलते ,दशरथ जी पुत्र-वियोग, और ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ की परंपरा निर्वाह में परलोक सिधार गए | जिसे सत्ता काबिज होना था वे वन-वन भटकने ,राक्षसों से लडने ,असुरों के नाश करने के अभियान में निकल गए | जिसे सत्ता-काबिज करवाना था , वो स्वयं सटके हुए से केवल ‘खडाऊ –राज’ चलाते रहे | रावण महाराज , अपने दस सिरों में से, एक भी सर से सही काम न ले सके |दस के दस ‘सटक’ गए से थे | सीता-मईया किडनेपिंग केस , यानी रामायण के शब्दों में रावण द्वारा ‘उठा ले जाने पर’ उनके अहंकार का जो विनाश दो भाइयों ने किया, उस अंजाम का रिप्ले ,लोग ,आज तक सालाना लाइव-टेलीकास्ट के बतौर गली –गली, शहर –शहर दशहरा के नाम से इंज्वाय करते हैं| पहले मुझे रामलीला देखने का जबरदस्त शौक था |जहाँ कहीं रामलीला मंडली आती थी, मै सुबह –शाम-रात चक्कर मार लिया करता था | सुबह-शाम इसलिए कि देखे राम तैयार हुए कि नहीं? लक्ष्मण ,शूर्पनखा –सीता-माई नहाई –धोई कि नहीं ? धोबी-नाइ जो भारत –शत्रुघ्न का रोल प्ले करते हैं अपनी दूकान खोले कि नहीं ? इसके अलावा कुछ और स्थानीय पात्र होते, जो मुझे बाजार में सब्जी लेते ,गाय को चराने ले जाते दिख जाते | उन दिनों उनका क्रेज आज के ‘सलमान –केटरीना’ टाइप हुआ करता था |चाय के टपरे वाले, समोसे-चाय के, उनसे कभी पैसे लेते न देखे गए | रात को ‘लीला’ चालू होने पर अपनी जगह चुन के चिपक जाना,लीला चालू होने के पहले, उसी वक्त के बने साथियो के साथ राम-रावण युद्ध का पात्र बनना शौक और शगल सा था | थोड़ा बड़ा हुआ तो तर्क के साथ ‘लीला’ देखने लगा |हर साल बेचारे रावण को मरते देखता | मुझे यूँ लगता कि राम के पास, न तो पुलिसिया वर्दी है न लालबत्ती वाला रोब, और तो और ढंग के जवान,फौज-फटाके भी नहीं ,फिर कैसे वे रावण जैसे असुर सम्राट ,दस-दस ‘भेजों’ के मालिक से युद्ध में विजयी हो के लौट आए ? उसके घर में जा के उसी को पटखनी दे देना ,भेजे में आज भी घुसता नहीं ,मगर आज के फ़िल्मी हीरो को देख –देख के असहज बात सहज सी लग जाती है|चलो वैसा भी हुआ होगा ? पिताजी को, इन तर्को के बारे में, कभी-कभी जब वे अच्छे मूड में पाए जाते थे,दबी जुबान में सवाल किया करता? वे उल्टे पूछ पड़ते ,स्कूल का होमवर्क किया कि नहीं ?लाओ ,रिपोर्ट कार्ड दिखाओ ,बहुत ‘डल’ चल रहे हो आजकल | कहे देते हैं ,कल से घूमना फिरना बंद |और ये रामलीला की तरफ गए तो बता देते हैं टाग तोड़ देंगे | रामलीला जाना रुक गया | रामलीला के पूर्ण-विराम ने रूचि परिवर्तन का रोल स्वत: निभा दिया , उन दिनों छोटे-मोटे कवि- सम्मेलन खूब होते थे ,वहाँ घुसपैठ जारी हो गई|यहाँ एक बात सटीक जो थी वो ये कि कवि-सम्मेलनो में व्यक्त विचारों में ‘तर्क’ की कोई जगह बनती नहीं थी | अच्छी कविता हो तो ज्यादा ‘दाद’ नहीं हो तो हूट करके बिठा दिए जाने का चलन था उन दिनों | वहीं एक कवि को इतना दाद दिया, कि वे दाद पा-पा कर मेरे मुरीद हो गए| जहां भी जाते हमें साथ लिए जाते | ’साहित्य’ को उनने, मुझ जैसा ‘होनहार’ सौपकर, स्वयं ‘दुनिया-ए–फानी’ से रुखसत हो लिए | खैर उनकी आत्मा को शान्ति मिले |हम अपने सब्जेक्ट से भटके जा रहे हैं ,लौटते हैं वहीं फिर; दु:शासन ,दुर्योधन ,शकुनी धृतराष्ट्र और कौरवो के सामूहिक ‘सटकने’ का खटकना,किसने महसूस नहीं किया ? युद्ध की भयानक त्रासदी , वीभत्स परिणाम इंच-इंच जमीन के लिए अपनो का खून –खराबा ,जुए की हार-जीत पर झगड़ा-झंझट ,जोरू की लज्जा बचाव अभियान के लिए दंगा-फसाद|अपनों ने अपनों को मारा |लाशो पे लाशें बिछा दी | कुल मिला कर वही जर,जमीन,जोरू की लड़ाई में तब से आज तक ‘माझा-सटकली’ की बुनियाद | सटकने का अपना-अपना स्टाइल होता है| जिनके सटकने की ‘चरम’ नाना-स्टाइल की होती है,उनको उनका सटकना कभी –कभी बहुत भारी पड जाता है | मेरे ताऊ जी इसी केटेगरी के हैं, वे वक्त की नजाकत पहचानते नहीं ,भरी भीड़ में अनाप-शनाप बक आते हैं |भीड़ वाले उनको ढूढ –ढूढ कर पीटते हैं | कभी-कभी टिकट होने के बावजूद टी.टी.आई से रेलवे कानून पर यूँ भिडते हैं कि अगले स्टाप आने पर वे जी.आर.पी .के मेहमान हो जाते हैं |हम लोग उनके ‘समय –कुसमय’, ‘सटक’ जाने की गाथा का तफसील से ब्यौरा देकर छुडा पाते हैं | थानेदार कमेन्ट जरूर कर देते हैं ,ऐसे लोगों को खुला क्यूँ छोड़ देते हो? कुछ लोग हैं जिनको राजनीति में चाणक्य का खिताब मिला है| अब एक, जो राजनीति में हो और उपर से चाणक्य का खिताबधारी हो , उनका सटकना तो किसी सूरत में बनता ही नहीं ?मगर दिमाग तो दिमाग है कब घूम जाए ,किस बात पे कौन सा पुर्जा अपना काम करना बंद कर दे, कहा नहीं जा सकता| दिल पे जब कोई पास वाला चोट कर दे तो दिमाग से वे सब भी सटकेले पाए जाते हैं | किस्से –कहानियों में ये बात है कि, सूरज सात घोडो में सवार हो के निकलता है ,ऐक अकेला वही सारथी है ,जो सब को साथ लेकर अनगिनत युगों से बिना दम लिए चल रहा है बिना ज़रा सा सटके हुए ,भटके हुए | सुशील यादव आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - आता माझी सटकली http://www.rachanakar.org/2014/08/blog-post_31.html#ixzz3CnZncoUt

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