Monday 8 September 2014

नाच न जाने

< सुशील यादव का व्यंग्य - नाच न जाने… नाच न जाने ...... हमारे आंगन में कोई खराबी नहीं थी। पुरखों ने तसल्ली के साथ तीस बाई चालीस का आँगन पुराने जमाने के नक़्शे के मुताबिक़ रख छोड़ा था। इतनी बडी जगह तो आजकल शहरों में, मकान के पूरे प्लाट की मुश्किल से होती है। और तो और फ्लेट वाले युग में आँगन शब्द ही शहरों से लुप्त होने लगा दीखता है। आँगन को लेकर हमारा बहाना बनाना, कतई शोभा नहीं देता, कि हमे इसकी वजह से नाचना नहीं आया या हम नाचना नहीं सीख पाए. या आँगन टेढा था। आँगन लगभग ठीक था कमी या खामी जो थी वो हममें थी। सौ फीसदी बात तो ये, कि सपाट समतल आँगन वाले घरों में बुजुर्गों ने, हममें नाच –गाने वाले संस्कार ही नहीं डाले। उन्होंने स्वयं कभी ठुमका लगाने की सोच रखी हो, तो लानत है। लिहाजा ,सामाजिक बहिष्कार के दंडनीय अपराध से वे कोसो दूर रहे। उनके जमाने में ये गैर जरूरी किस्म की अय्यासी नहीं पाली जा सकती थी। लोगों को ‘मुंह दिखाना’ पड़ता था और ‘मुंह को दिखाने के काबिल’ बनाए रखने के लिए सैकड़ों किस्म के परहेज हुआ करते थे ये करो वो मत करो टाइप का ज़माना हुआ करता था , सो वे कोसों दूर ,नृत्य कला के निपट असंस्कारी जीव बने रहे। हमारे दादा जी को अखाड़े के बाद ‘रामलीला’ में रावण का रोल मिलता रहा, जिसमे उनके राक्षसी उछल कूद किये जाने भर का स्कोप था, लिहाजा नृत्य की किसी एक विधा से भी इस परिवार का कोई परिचय होते-होते बाजू से निकल गया। शादी –ब्याह में जाते हैं तो बडी शर्मिंदगी सी होती है। सब को बेमतलब ,बिना रिदम के फुदकते देखते हैं तो , जी तो मचलता है कि तू भी घुस ले भीतर, देखी जायेगी.......पर तुरंत नृत्य अज्ञानता का बोध होते ही मन मसोस कर रह जाता है। बरात में दुल्हे के ‘फूफाजी’ को नचाने की फरमाइश जैसे ही किसी कोने से शुरू होती है ,हमें दुम दबा के खिसक लेने में भलाई नजर आती है। कौन फजीहत कराये ?सेकण्डो में फेसबुक में फूफा-ग्रेड भौंडापन अपलोड कर देंगे लोग। किसी को रोक कहाँ सकते हैं ?फास्ट ज़माना है। वो जमाने लद गए जब फूफा अपनी बेतुकी कमर हिलाई के नाम पर मुफ्त वाहवाही बटोर लिया करते थे। अब .....अब तो आपको वेलट्रेंड उतरना है मैदान में, वो भी यंग जनरेशन के बीच , वरना ........? कभी –कभी , मन खुद को धिक्कारता है,तू इतने बड़े आँगन का मालिक एक अदद डांस नहीं सीख पाया ,’टू बी एच के’ लोग वो भी बिना आगंन वाले कितने मजे से डांस किये जा रहे हैं देख ? इन मानसिक द्वंद से उबरने के लिए ,बरात प्रोशेसन में, अपने किस्म के ‘फुफाओं’ को व्यस्तता ओढ़ लेने की जबरदस्त आदत होती है। लगभग बरात को लीड करने लग जाते हैं। कभी ट्रेफिक हवलदार की भूमिका में बरात के बगल से हेवी व्हीकल को साइड देते हुए कंही बैड वालो को हाकते हुए........ अय ..आगे ...आगे बढो। मुन्नी .......अगले चौराहे पर ....मुन्नी बदनाम होगी ...भई यहाँ नहीं .....अगली जगह ....अभी तो बढ़ो ......बरात नौ बजे लग जानी है मुहूरत का समय खराब न हो ....। कुल मिला के डांस से परहेज ....... डांस के उन्मादी बारातियों में जबरदस्त उत्साह होता है। ’सपेरा –बीन’ डांस में सूट पहने हुओं को भी जमीन में लोटते देखा है , बशर्ते हलक के नीचे तीन –चार पेग उतारी हुई हो। उन्हें धुन की मस्ती के बीच दुल्हे के बाप पर तरस खाने का मौक़ा नहीं मिलता। बेचारा बाप कोसते रहता है कि काहे को इसे बरात में ले आया ,नाक कट रही है। वो बार-बार खीसे से रुमाल निकाल के नाक की सलामती को जांचते रहता है। आवाज आती है, शादी का पंडाल करीब आने को है। दो-तीन जरूरी गाने बाकी रह गए है, जिसमे अहम बराती -डांस निपटाना है ,एक तो ,सदाबहार ‘आज मेरे यार की शादी है ,दूसरा.... ले जायेंगे ले जायेंगे ....तीसरा सीजन बेस्ट यानी लेटेस्ट रिलीज मूवी का हिट जो समय-समय पे कभी कजरारे ....,उ ला ला ....मुन्नी बदनाम हुई टाइप हुआ करता है ,का बजना-बजाना जरूरी होता है । मैंने एक भी बारात ऐसी नहीं देखी जिसमे ‘मेरे यार की शादी’ वाला गाना बेरोकटोक बजा न हो। गिनीज रिकार्ड वालो को, इस गाने को बिना किसी वेरीफिकेशंस के रिकार्ड में शामिल कर लेना चाहिए। बैण्ड वाले दो धुनों के अन्त्तराल में ट्यूनिंग करने के नाम पर मातमी धुन बजा डालते हैं, उनमें भी मस्त .उत्साही बाराती जन पैर थिरकाए बिना नही रहते। आजकल ज़माना बदल गया है। बड़े –बड़े ‘नच- बलिए’ हो रहे हैं। घर में दिन-दिन भर शोर कोलाहल रहता है ,उंची आवाज में केसेट चल रहे होते हैं, डांस की बकायदा ट्रेनिग दी जाने लगी है। बच्चों को नृत्य संस्कार में पारंगत बनाने का काम चालू हो गया है। मुझे लगता है आने वाले दिनों में नृत्य पारंगत,ट्रेंड फुफाओ’ से बरात जादा गुलजार मिलेगा। मंकी डांस ,लूंगी डांस ,एरोबिक,सर्कस डांस, सब कुछ होगा। एक अलग किस्म का ‘डांस पे चांस’ मारते हुए फूफाओं का मजेदार स्ट्रीट शो ..... ----------------- सुशील यादव न्यू आदर्श नगर दुर्ग आगे पढ़ें: रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - नाच न जाने… http://www.rachanakar.org/2014/07/blog-post_2.html#ixzz3CncClKGo

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