आरंम्भ से अंत तक..... सुशील यादव
... सुशील यादव
कब तक बोलो हम अपने कंधों पर विवशताओं का रेगिस्तान उठाए चलें ? भावनाओ की मरीचिका को आश्वासन दे-दे , बोलो कब तक बहलाए चलें ? जवाब दो, इस रेगिस्तान में हम कहाँ तक भटकें किस दिशा में तलाशे पत्थर और माथा अपना पटकें सुना है नई व्यवस्था के नाम पर मील के सभी पत्थरों को तुमने मन्दिरों में तुमने कैद कर रखा है जो अब महज तुम्हारे इशारों पर नाचते हैं तुम्हारी ही सुरक्षा के कवच रात –दिन, नए- नए मुखौटों में सांचते हैं बताओ ऐसे में हमे दिक्-बोध कहाँ से हो | हमने , कितना रास्ता तय किया कितना हम निकल आये तुम्हे क्या, हमारी जिन्दगी रेगिस्तानी हो कटती है कटे , अंदर ही अंदर , जले-भुने पिघल जाए ? तुमने तो शायद पैदाईशी शपथ ले ली है तुम किसी तरस पर, आनावृत नहीं होओगे सहानभूतियो की फसल न काटोगे , और न बोओगे और शायद इसी कारण तुम्हारे जीवन को तय करने वाले पांव बौने होने के बावजूद थकते नहीं आरंम्भ से अंत तक ........ |
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