लिख के कोई क्या समझाए ,,?
मन तपा हर पल यादो में , छूकर देखो इन अंगारों को
हरा –भरा है बाग़ –बगीचा
अंतस की सूखी खेती है
हाथो से बस उम्रर फिसलती
मुठ्ठी –भर सांस की रेती है ...
दर्प –चुभा हर –पल सुई सा , क्या उड़ायें गुब्बारों को
लिख के कोई क्या समझाए
मन की बात अधूरी लगती
सम्बन्धो में दरार हो जैसे
टूटी हुई सी धूरी लगती ...
समझा - समझा के हार गए , संयम के पहरेदारो को
सुशील यादव
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