Saturday 6 October 2012

इसीलिए तो ,


इसीलिए तो ,

होंट सिए हमने अनुबंधों  में
जहर पिए खुद के सौगंधों ने
इसीलिए तो ,
बस्ती सपनो की रात बसाई,
रह –रह उजड गई
रह –रह उजड गई
***
अंधियारे  सा अभिशापित मन
उजियारे का देखे कैसे दर्पण ,
इसीलिए तो ,
अनुकरण की बात बनाई
रह –रह बिगड़ गई
रह –रह बिगड़ गई
****
मेहंदी वाले हाथ ले अपने
लौट गए अनब्याहे सपने ,
इसीलिए तो ,
पथ यादो की सुर –शहनाई ,
रह –रह बिफर गई
रह –रह बिफर गई
***
सुशील यादव

No comments:

Post a Comment