Saturday, 27 October 2012

एक खोजी पत्रकार का हल्का –फुल्का स्टिंग


एक खोजी पत्रकार का हल्का –फुल्का स्टिंग
वो पत्रकार थे |बड़ी मुश्किल से उन्हें  हमारे मोहल्ले में किराए का मकान मिल पाया था ,वो भी तब जब उन्होंने कहा था कि छः –सात महीनों में उनका खुद  का मकान बन जाएगा |मुझसे पुराना परिचय होने के नाते वो अक्सर मेरे पास चाय-नाश्ते के लिए आ धमकते  |
मै झेलने की तर्ज में बस एक श्रोता से ज्यादा की हैसियत नही रखता था |
बात ,दुनिया –भर की होती , मगर सार उनके मकान बनाने पर आकर ख़त्म होती, मसलन आज मुनिस्पल -आफिस में नक्शा के नाम पर चिकचिक हो गई |पास नहीं कर रहे थे |२० परसेंट जमीन छोड़ने की कह रहे थे |मालूम  आज जमीन का रेट क्या  है?
क्यों छोड़े कोई अपनी खरीदी जमीन ?
मैंने कहा शोर्ट में बताओ , नक्शा पास हुआ या नहीं ?
उसने कहा ,होता कैसे नहीं? ऊपर वाले को पकड़ा|ऊपर वाले को पकड़ो ,सब ठीक हो जाता है |मेरा तो यही फार्मूला है |
मै उस पत्रकार को बस इसी फार्मूले के नाम पर झेल जाता हूँ|करेंट में क्या फार्मूला किसा जगह कैसा चल रहा है , इसकी ताजा खबर घर में बैठे ही मिल जाती है |
वो सप्ताह बाद भिन्नाये हुए आये |क्या समझ रखा है ,इन हरामखोर ठेकेदारों ने , स्सालो ने ठेके के नाम पर पूरी जमीन को खोखला  करने की ठान लिए  हैं |
मैंने सोचा कोई टी-व्ही खबर को वो  री-टेलीकास्ट करने वाला है , मैंने कहा ऐसी कोई खबर तो नजर नहीं आई |
वो बोले सुशील भाई , आप रहते कहाँ हैं ?ये जो शिवनाथ नदी के आस –पास का इलाका है न , पूरा का पूरा मुरुम-रेती, भाई लोग बिना रायल्टी के निकाल लिए हैं |आप-अपने कंप्यूटर-इन्टरनेट की दुनिया से बाहर निकल कर भी देखो? क्या-क्या अंधेर हो रहा है ?मुझे मेरी नाकामी गिना गया |मुझे महसूस हुआ , शायद ,पत्रकार महोदय के मकान की नीव-भराई का काम शुरू हो गया है |
मैंने श्रीमती को चाय लाने  को कहकर पूछा , क्या पिट-फीलिंग ,लेबलिग़ चालु हो गया |उसने कहा , हाँ , इसी सिलसिले में आर्डर देने गया था |रेट अनाप –शनाप बोले, तो मुझसे रहा नहीं गया |मैंने भी पुरे दिन की तहकीकात कर पता लगा लिया कि आखिर मायनिग वाले सो कहाँ रहे हैं ?
मैंने मजाक के लहजे में पूछा , पता चला उनके सोने-जागने की जगह ? उसने कहा , पता क्यों नहीं  चलेगा भला ?
ठेकेदार और मायानिग वालो की मिली –भगत रहती है |हर ट्रक के पीछे रकम बंधी रहती है |अछा लूट रहे हैं |
अब देखो मै , खुद मोबाईल में शूट करके ,इनकी करतूत सामने लाता हूँ |
मुझे पत्रकार की औकात –हैसियत का पता था |
अपने काम के होने तक का जोश मारेगा फिर टांय-टांय फिस्स|
दो तीन दिन बाद  मिले, तो मैंने  पूछा  , क्या हुआ ,माइनिग का |उसने कहा , फ्री में दस-बीस ट्रक ड़ाल गए स्साले |मैंने सोचा ,स्टिंग की नौबत ,जिसकी संभावना कम ही थी , नहीं आई |
उनके मकान की सिलसिलेवार प्रगति होते रही और मुझे लगातार जानकारी मुहय्या होते रही |
कभी सीमेंट के व्यापारी तो ,कभी दरवाजा-खिड़की के लिए, वन विभाग  वाले उनका शिकार या निशाना बनते रहे |
 कभी  एंगल –सरिया वालो को इनकम-टैक्स ,एक्साइज का वो रौब दिखाते | नमूना-बतौर, एक-आध, दो इंची कालम का लेख ,  अपने लोकल अखबार में छाप कर, उन तक ले जाते|उस लेख की  एक भी प्रति न बिकती न वो खुद बेचने में यकीन रखते |
इधर आर टी आई ने उनका काम बहुत आसान कर दिया था |जहाँ मुश्किल पेश आती वो इसे फिट कर देते ,काम निकल जाता |  
लोकल ब्रेकिंग-न्यूज की वो जबरदस्त जानकारी रखते थे |मुझे इस कारण भी उसमे तनिक दिलचस्पी हो जाती , वरना मै भी बहुत सम्हाल के ,डर के रहता, क्या पता कब मुश्किल पैदा हो जाए ?
उनके मकान की तैयारी के चलते इन दिनों वो एक तरफा न्यूज ही दे पा रहे थे, मोहल्ले –पडौस की दिलचस्प खबरे नदारद सी थी |
एक दिन वो छोटा सा निमंत्रण-पत्र लिए आए , मकान के उदघाटन-गृह-प्रवेश का बुलावा था |मैंने कहा , आखिर बन गया आपका मकान |
वो एक लम्बी सांस लेकर  बोले, हाँ , सुशील भाई , आइएगा जरूर |
मैंने पता नहीं क्यों अंदरूनी राहत महसूस किया ,मुझे लगा चलो , बहुत से खाने –पीने वाले लोग, स्टिंग आपरेशन की भेट चढ़ने से बच गए | कई विभाग आर.टी आई के अनाप-शनाप सवाल जवाब में घिरते –घिरते रह गए |
गृह –प्रवेश में उनके घर को देख मुझे लगा , वाकई कम खर्चे में , भव्य मकान बनते मैंने  कम ही देखा है |
सुशील यादव
केन्सास सिटी , अमेरिका
००१ ९१३३७८७५६६
दिनांक २६.१०.१२ 


Tuesday, 23 October 2012

“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे” ....



तब अंग्रेजी का अपना एक अलग रूतबा हुआ करता था ,एक सख्त किसम के टीचर हमें पढाते थे ,क्लास में उनके घुसते ही एक वीरानी ,सन्नाटा या सच कहें तो मनहूसियत का माहौल हो जाता था |
पता नहीं उनकी याददाश्त या डिक्शनरी में कम शब्द  या प्रोवर्भ थे .जो आए दिन कहा करते थे ;
रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे......|
इस वाक्य के बोलते समय ,उनका चेहरा एक अलग किस्म के तनाव से भर जाता था ,टीचर जी पढ़ाते पढाते कहीं खो जाते थे |उनकी वापसी तब होती थी जब कोई  प्यून रजिस्टर ले के आता ,या छात्रों की  गपशप की आवाज ऊँची गूंजती  .या स्कूल में पिरीयड बदलने की टन्न बजती |  
मैं उन दिनों अखबार पढ़ लिया करता था, इसलिए मुझे अतिरिक्त ज्ञान हो गया था ,मसलन मै,घपलो-घोटालो, राजनीतिक पहुँच , उपरी लेन-देन , पैसों के लिए बाबू से मंत्री तक के,चारित्रिक स्तर  के बारे में जानने लग गया था |
टीचर जी के उस वाक्य के मायने कि , रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे ..... यू लगता था कि ,रोम चाहे चार दिन में बना हो या चार सौ सालों में ,हमारा क्या वास्ता ? दूसरी बात ये खटकती कि ,रोम के ठेकेदार ,कारीगर ज्यादा  सुस्त रहे होंगे , या  रोम में वो कौम नहीं रही होगी  जो स्पीड- मनीपर विश्वास करती थी ?
शायद रोम में अच्छे ‘बाबू इंजीनियर-नेता’  लोग पैदा होना भूल  गए  थे  ,कि रोमको बनने-बनाने  में बरसो लग गए ?
कौतुहल के और अनेक कारण भी थे ,जो रोम को एक बार देखने की वजह आज भी बने हुए हैं  |
हमारे तरफ की बात अलग है,इधर  आर्डर हुआ नही कि रातो-रात रोमबस जाता है|
पूरी की पूरी राजधानी बन  जाती है |
ठेकेदार ,इंजीनियर जेब  में एक से एक डिजाइन का ‘रोम-रोमियो’ का  नक्शा लिए घूमते रहते हैं |
एक-एक दिन की खबर रहा करती है ,कब केबिनेट की मीटिंग हो रही है ,फाइल किस टेबल तक पहुची है |
किसने रोड़ा डाला|रोड़ा डालने वाले की कितनी औकात है|कितना वजन डालना होगा |कितने तक में मामला सेट होगा |उन तक पहुचने का अप्रोच रोड क्या है?
वो सब के सब  टकटकी लगाए बस ये देखते रहते हैं कि ,कब साहब का फरमान हो , रोम की लेन लगा दें |
स्वीमिंग पुल ,रोड ,नाहर बिजली पानी सब का दुरुस्त इन्तिजाम| मिनटों  में जहाँ कहे रोम-रोम में फिट कर दें |
डिस्काउंट   के बतौर ,मेम साहिबानों के लिए छोटे-छोटे रोम की अलग से भेट | 
कहते हैं ,पैसा बोलता है| इन इन्तिजमो को देख के लगता है ,पैसा लाउडस्पीकर की आवाज भी रखता है .तभी तो इसकी आवाज क्लर्क बाबू . ठेकेदार ,इंजीनियर ,सांसद-विधायक ,मंत्री संतरी सभी एक साथ सुनकर रोम,बनाने में हाथ बंटाते हैं |
कुछ पत्रकार अडंगेबाज होकर , रोकने की मुद्रा में खड़े होते हैं |
नए रोम के बारे में वे  अनाप-शनाप लिखते हैं ,बताते है नया रोम संस्कृति के खिलाप है |कई खामियां गिनाते हैं|
 उधर विधायक विपक्ष , सांसद विपक्ष अकड़े  हुए से आंकड़े फेकते हैं ,थू-थू से माहौल थर्राया सा लगता है |
लगता है ये सब रोम के पाए को कहीं भी , कभी भी जमने नही देंगे |जिस-जिस ने रोम के पाए पर अपना कंधा दिया है , वे उनको ही दफना के दम लेंगे |
सरकार सोते  से जागती है ,वो रोम निर्माण में अनर्थ ढूढने की जी तोड़ कोशिश करती है|उंनसे अनर्थ ढूढा ही नही जा पाता| वो थक-हार के निर्णय लेती है ,निगरानी-आयोग के हवाले मामला दे दिया जाए |सरकार के पास और भी काम  है वो अगले इलेक्शन की तैय्यारी में लग जाती है |सरकार की उपलब्ध्दियो में रोम -कथा , कम समय ,कम खर्च में बना हुआ  बताया जाता है | गरीबों से इसे जोड़ते हुए श्रम उपलब्ध कराने का  जरुरी तरीका बताया जाता  है| ये कहा जाता है कि मंनरेगा के तहत काम उपलब्ध कराए गए |पक्ष वालो को वोट की फसल लहलहाते दिखती है |
एक ठेकेदार को मै करीब से जानता हूँ , हमेशा बड़े दुखी मन से मिलते रहे |वो  पर्यावरण ,स्वास्थ्य परिवार-नियोजन ,जेल इत्यादि  सभी मंत्रालयों की विस्तृत जानकारी रखते हैं ,भले वे अपने  लड़के का फोन नंबर भूल जाए. तमाम दूसरो के नम्बर तात्कालिक मौखिक याद रखते हैं |
वे मिल कर , इस बात का रोना रोते हैं ... कि अब की बार अच्छी बारिश हो गई है , नहर  का काम शायद रुक जाए...|बाजार में अच्छे टीके आ रहे हैं लोग बीमार नहीं पड़ेंगे... | अगला सप्लाई आर्डर केंसिल हो न जाए|... बच्चे कम पैदा हो रहे हैं , लोग घरो में दुबक गए हैं ,आगे काम कम हो जाएगा |
मै उनको आश्वस्त कर  कहता हूँ , ऐसा कुछ नहीं होने वाला , यहाँ तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं |
 ऊपर से खुद ब-खुद फरमान आएगा ,फलां पुल जर्जर हो गया है ,तोड़ के बना दो,/ कही से मेट्रो निकाल दो , इंटरनेश्नल स्वास्थ्य का हवाला देकर , गरीबो के लिए आलीशान फाइव-स्टार नुमा हास्पिटल बना दो | कसाब की सुरक्षा खतरे में है , जेल को सद्दाम के बख्तरबंद नुमा महल में तब्दील कर दो |
हम उस जगह है जहां काम की कमी ही नही ?
वो एक गहरी सांस में, ‘आमीन की मुद्रा’  लेकर मुझसे बिदा ले चल देता है  |
  मुझे उनसे रोम-टाइप के  कई डिटेल अपडेट मिलते रहने का सिलसिला बरसों तक चला |
मै भी करीब-करीब ठेकेदार जैसा हो गया था |किसी बनते हुए पुल या रोड को देखकर ,घंटों वहीं खड़े होकर , उसके बनाने वालो की हैसियत का अंदाजा लगाने लगता |
निर्माणाधीन –स्थल को देखकर ,यह भी बताने की स्तिथि में रहता कि , फाइल कहाँ होनी चाहिए ?
मेरे तजुर्बे से कई लोग फ़ायदा  उठाने की कोशिश में रहते कोई फ़ायदा उठा भी लेते ,कहते आपकी वहां पहुंच है ,ये काम  करवा दीजिए ,एहसान मानेंगे , वो एहसान से कभी आगे बढ़े नहीं और मै वही का वहीं रह गया...... |
अरे हाँ , टीचर जी का  ‘रोम’ वाला वाकिया  नाट बिल्ट इन अ डे पीछे छुट गया... |बहरहाल , उन दिनों ,हम छात्रो की जुबान में भी रोम चढने लग गया था|बात –बात में हम लोग भी कहने लग गए थे रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे |
हमारी जुबान का ये ‘तकिया-कलाम’ हो ,इससे पहले, भला हो  हमारे  क्लास के, विवेक नाम के एक लड़के का, जिसने पता लगा कर बताया कि ,यार अपने अंग्रजी वाले सर जी कई दिनों से अपना मकान बनवा रहे हैं | सस्ताहा टाइप ठेकेदार मिस्त्री को काम दे रखे  हैं| किसी के पास पूरा सेंट्रिंग-मटेरियल नहीं तो कोई मजदूर होली मनाने गया तो लौटा नहीं| काम कई महीनो से रुक-रुक कर धीरेधीरे चलने से टीचर जी परेशान  से रहे|  कर्जा भी ख़ूब हो गया, लगता है | मगर हाँ , गनीमत समझो , कल छत की ढलाई हो गई |शायद टीचर जी अब चैन की सांस लें|अब रोम के बनने –बिगड़ने का असर उन पर न पड़े |और सच ही ,वो उसके बाद ‘रोम-विहीन’ हो गए |
हम ‘रोम’ की गली से गुजर कर कब अगली क्लास में पहुँच  गए ? पता ही नहीं चला |.


सुशील यादव
केन्सास ,. अमेरिका
००१-९१३-३७८-७५६६
२२.१०. १२

Saturday, 6 October 2012

लिख के कोई क्या समझाए ,,?


लिख के  कोई क्या समझाए ,,?

मन तपा हर पल यादो में , छूकर देखो इन अंगारों को
हरा –भरा है बाग़ –बगीचा
अंतस की सूखी खेती है
हाथो से बस उम्रर फिसलती
मुठ्ठी –भर सांस की रेती है ...
दर्प –चुभा हर –पल सुई सा , क्या उड़ायें गुब्बारों को

लिख के  कोई क्या समझाए
मन की बात अधूरी लगती
सम्बन्धो में  दरार हो जैसे
टूटी हुई सी धूरी लगती ...
समझा - समझा के हार गए , संयम के पहरेदारो को


सुशील यादव

इसीलिए तो ,


इसीलिए तो ,

होंट सिए हमने अनुबंधों  में
जहर पिए खुद के सौगंधों ने
इसीलिए तो ,
बस्ती सपनो की रात बसाई,
रह –रह उजड गई
रह –रह उजड गई
***
अंधियारे  सा अभिशापित मन
उजियारे का देखे कैसे दर्पण ,
इसीलिए तो ,
अनुकरण की बात बनाई
रह –रह बिगड़ गई
रह –रह बिगड़ गई
****
मेहंदी वाले हाथ ले अपने
लौट गए अनब्याहे सपने ,
इसीलिए तो ,
पथ यादो की सुर –शहनाई ,
रह –रह बिफर गई
रह –रह बिफर गई
***
सुशील यादव