Monday, 3 September 2012

SUSHIL YADAV,VADODARA: sushilyadav: मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के...



काजल की कोठरी...
कोयले के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी | रलवे कालोनी में सुबह -शाम लोग  कोयले की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़ते थे|खाना बनाने की पूर्व प्रक्रिया में  पूरे  का पूरा मोहल्ला धुंए से बेदम हो जाता  था | आँखों में कोयले का धुआं रुलाने तक ला छोड़ता था | तब इन्हीं सिगड़ियो के मार्फत घरो के अंदर का हाल मालूम हो जाता |जिसने बड़ी सिगड़ी लगाई है उसके यहाँ कोई मेहमान जरूर आया होगा |तीज त्यौहार के दिनों में तो मुहल्ला पूरा धुंध फ़िल्म का शूटिंग स्पाट लगता |तब औरतों में दूसरो की सिगड़ी देख कभी नहीं लगता था कि उसकी बड़ी क्यों ? तब यूं भी नहीं होता था  कि मारे आलस के कोई पड़ोसन दूसरे की भट्टी में रोटी सेक लेने के लिए पेड़े लिए आ जाये या थोड़ी -बहुत छोक-बघार कर ले | सब को अपने-अपने  कोयले का गुमान रहता था |सभी सुविधा सम्पन्न कोयलाधारी हुआ करते थे | सस्ता भी बहुत था | एक -आध रुपया किलो बस |
 किसी -किसी को मुफ्त में भी मिल जाता था ,बशर्ते , रेलवे में अच्छी धाक हो | कोई अपने लिए  गिरवा  लेता |उन  दिनों कोयले के रेक आने की खबर हाथो-हाथ फैल जाती थी |रेक आया नही कि सब के सब चढ़ जाते थे | कोयला नीचे गिराते ,ड्राइवर ,गार्ड की कमाई  हो जाती थी | अच्छा जमाना था | भाप की इन्जन  बंद क्या हुई , मुहल्ले का धुँआ जैसे हवा में हमेशा के लिए उड़ गया | कुछ दिनों बाद कोयले के  लडू भी लोकल फार्मूले पर, मसलन गोबर -चूरा मिला के बनने लगे मगर वो मजे नही मिले  | हमे तब बड़ी धांधली लगती थी | इच्छा होती थी  ,देश को बताये , मगर देश कहाँ  होता था उन दिनों ये भी खबर नही थी |हम इस बात पे तसल्ली किए रहते थे कि कोई स्विस बैंक लायक मोटा नही हो पा रहा है | क्या खाक अपनी इज्जत दांव पर  लगायें, सो चुप रहे |
कोयले पर हमारी जानकारी में इजाफा ,हमारी बुनियाद या हमारी पकड़ , शास्त्री मास्टर जी की वजह से तकरीबन नवमी -दसवी क्लास से  मजबूत हुई |वो बकायदा केमेस्ट्री में एम् एस सी थे , उन्हें सर कहते किसी एंगल से नही जमता था | तेल से चिपचिपे बाल , पीछे चुटिया ,मुड़े -तुड़े बिना प्रेस किए सादा  कपडे , तिलक धारी  माथा ,गला , बाजू में चन्दन  रोज एक ही मार्का में छपे हुए | सो थोडा सा डीग्रेड होके   मास्टर जी के नाम से जाने जाते थे  | वो पढ़ने में जितने तेज रहे होगे , उससे  ज्यादा पढ़ाने में लगते थे |कार्बन -डाइ -आक्साइड , कार्बन मोनोआक्साईड नाम के गैस जो कोयला जनित थे पढने में आया |मास्टर जी फायदा नुक्सान की अलग फेहरिस्त बनवा लेते , कहते रट लो इक्जाम में फायदा होगा |अगली क्लास में कार्बन का विकराल रूप इथेन -मीथेन -बेंजीनर न जाने  ,ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और न जाने कितने बड़े-बड़े फार्मूले दार कार्बन के रूप |पढ़ते -पढ़ते कार्बन को लानत भेजने का जी करता |जरा सी चुक पर बड़ा गर्क |अर्थ का अनर्थ |फार्मूला गलत तो मार्क गोल |
बहुत आफत भरे  आपातकाल जैसे वो दिन हुआ करते थे |हर समय कार्बन ही कार्बन आखो में फार्मूला बन के नाचता था |
                मस्स्टर जी पढाते  खूब थे | वो दूर दृष्टी वाले लोगो में  से थे | इंपोर्टेंट  हैं , कह-कह के पूरे क्लास का ध्यान खीचे रहते थे | उन्होंने हीरा  (डायमंड ) के बारे में बातो -बातो में य़ू खुलासा किया , हुआ यूँ कि , अटेंडेंस लेते समय 'हीरालाल ' की प्राक्सी किसी ने जड़ दी |वे चौकने थे , समझ  गए  गलत हीरा है |फिर सारे क्लास पर बरसने लगे | गुस्से में वो अकेले ही संसद के बिफरे  विपक्ष की तरह फनफना जाते | मैं से हम पर अगर आ गए तो शामत  समझो |पर ज्ञान की बात से समझौता कदापि नहीं करते थे |हम लोग तुम्हे तराश कर 'हीरा 'बनाना चाहते हैं , और तुम लोगों को मस्ती सूझे रहती है |तुम लोगों  को  मालूम ?, 'हीरा' बनने में सालो लग जाते हैं | जमीन में दबे हुए कोयले में दबाव और तापमान को सह कर कोयला हीरा बनता है |ये कोयले का रीफाइंड  रूप है ,जो ठोस कार्बन है |हम लोगो को विश्वाश नहीं होता कि कोयले का चमकदार पहलू 'हीरा' है | वो कहते ,वैसे तो हीरा मामूली चमक लिए रहता है , मगर इसे तराश दो तो और चमक पैदा हो जाती है | वे हीरा तराशने के चक्कर में रहते और पूरा क्लास जुम्हाइयो में चल देता |मास्टर जी की बातो में दम परीक्षा हाल  में पता चलता , जिस -जिस  को जोर देकर  कहे  होते , वही पूछा जाता | कोयले और कार्बन पर उनकी सोच आज भी अपनी इम्पोर्टेंट चमक लिए है |

जब हम कालिज में पहुचे तो नया शगल बन गया ,ट्रेनों में बिना टिकिट लिए सफर करना | तब टी.टी.ई की गिरफ्त में कभी आ जाते तो जैसे -तैसे छूटने की जुगाड़ में लग जाते | वो खुर्राट होते ,बिना किसी एक्स रे के हमारी जेब में कितना है पता लगा लेते | वो बड़े इत्मीनान से भाषण पिलाते -पिलाते टिकट बुक में जब कार्बन फंसाते तब हमारी जेब ढीली हो जाती , हम आख़री मौक़ा ताड़ कर कुछ ले दे  की बात करते |उन्हें तो राजी होना ही रहता था | तब लगता था कि कार्बन फंसा कर कैसे लूटा जा सकता है | भ्रष्टाचार   का उन दिनों का ये ट्रेलर दो तरफा हुआ करता |एक तो हम आधे -अधूरे पैसे देकर सफर कर लेते, दुसरे टी.टी.ई अपने घर की बुनियाद मजबूत किए जैसा फील करता कार्बन फंसा के माल निकलवाने में उस्ताद आर टी ओ  भी कम नहीं | भय को बढ़ाऔ , आदमी की जेब ढीली होते जाएगी |
कार्बन -कोयले की इन दलालियो में तब कोई स्विस -बैंक जैसा नहीं था | छोटी  -मोटी दाल -रोटी के तर करने की व्यवस्था थी |

मेरे पडौसी गुप्ता जी को बिहार , झारखंड , छत्तीसगढ़ के कोयल माफियाओं से शिकायत रहती है , ससुरो ने सारी जमीन को खोखला कर दिया है |माल निकाल के भरते कुछ नहीं , कब पूरे का पूरा शहर चासनाला बन के बैठ जाए कहा नही जा सकता | बस दादागिरी है |एक खदान बरसू से सुलगा हुआ है | अरबों का कोयला जल रहा है कोई रोकने वाला नहीं |रोकने वाला तो तब हो जब सोचने वाला हो |यहाँ व्यवस्था ये है , जहाँ दाम नहीं  वहां काम नहीं, और दूसरी व्यवस्था ये भी है  जहाँ दाम ही दाम है वहां काम में सब अटपटा जायज है | मैंने कहा गुप्ता जी छोडिये , ये सब आपके सोचने की उम्र नहीं| वे फनफनाते चले गए , बाबा -अन्ना बोले तो जायज ? मुझे लगा किसी शामियाने वाले को बुला कर उनका अनशन फिक्स करना पडेगा |

-मेरी कोयला -परख आँख बहुत देर बाद इसलिए खुली ,कि जब कभी माँ काजल का डिठौना लगाने कज्रौटी  लिए आती  , मै मिचमिचा कर आँख बंद किए भाग खड़ा होता |
-लगता है पूरा देश ,कज्रौटी लिए ,माँ को देखने का साहस नहीं जुटा पा  रहा है |आँख मिच्मिचाए ,बंद किए , काजल न लगाने का बहाना ढूंढ रहा है |
-वैसे काजल लगाए आँख की सुन्दरता के क्या कहने |

सुशील यादव




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