Thursday, 13 September 2012

MERI JANKARI KA PAHLA ANNA


MERI JANKARI  KA PAHLA ANNA
मेरी जानकारी का वो पहला अन्नाज्योतिषाचार्य पन्डित रामनारायण त्रिवेदी थे | वे ब्राम्हण पारा ,जो उन दिनों शहर का सिविल लाइन जैसा रुतबा रखता था , वही रहते थे | खपरैल वाला ,लिपा-पुता ,साफ सुथरा सा मकान था |उनके मकान की खासियत थी |अजीब गहरे नीले रंग की दीवाल पर गेरू से लिखे पहले लाइन की शुरूआत ही जबरदस्त थी , सब आने जाने वालो की निगाह बरबस चली जाती थी , किस्सा-कोताह यूँ कि कांग्रेस के नमक    हराम , गद्दार ......., साठ के दशक में जब सभी कांग्रेस की तारीफ के कसीदे काढ़ते रहते थे ,  तब उनका यू चलैन्ज करता हुआ खुला इश्तेहार , बेखौफ ,बेलाग , बेधड़क बयान , लोगो के लिए अजूबा हुआ करता था ,वैसे तब हमारी समझ भी ज्यादा नही थी , बमुश्किल प्रायमरी में पढ़ते थे | उनका लिखा पूरा मजनून भी सिवाय उस सामने की लाइन के ख्याल नहीं आ रहा |मगर पन्डित जी के चैलेंजदार तबीयत के चलते उन्हें देखने की इच्छा रहती थी |कभी- कभार वो आराम कुर्सी में बैठे पंचांग मिलाते  मिल जाते | पंडिताई  से उनकी जीविका कैसे चलती  थी  पता नहीं | लगता था , उनके भित्त-लिखित सरकार के खिलाफ प्रवचन को पढ़ कर कोई भी अपना हाथ दिखा भविष्य जानने की इच्छा नहीं रखता आ होगा  |पूजा-पाठ ,शादी-ब्याह में जाते वो कभी दिखे नहीं ,या उनको बुलाने की किसी की हिम्मत भी नहीं होती रही होगी |
बहुत व्यस्तता के बाद , शहर की उस गली में जाना हुआ | सब बदला बदला सा लगा |पुराना कोई मकान साबूत नहीं था , नई-नई बिल्डिंग बन गई थी | पन्डित जी के पूरे भित्त-आलेख को, सज्ञान पढ़ना चाहता था |उनके उन दिनों के मनोविज्ञान में घुसने की दबी हुई कोशिश सी थी  |वो घर खँडहर में तब्दील हुआ सामने था |बाहरी दीवाल गिर चुकी थी |पन्डित जी के बारे में पता चला , उनको गुजरे हुए अरसा हो गया |मैंने उस मुहल्ले में  रहने वाले परिचित से जानना चाहा |उसने बताया , यार वो सनकी था |लोग अलग अलग बाते करते हैं |कोई कहता है , वो स्वतंत्रता संग्राम में जेल गया था , उसकी मुखबिरी करने वाला आजादी के बाद , नेतागिरी करके खूब कमाया |वही इनको कांग्रेस से निकलवाने में एडी-चोटी का जोर किए रहता था | कोई कहता है ,निकाल दिया तो कोई बताते हैं खुद निकल गए | कट्टर कांग्रसी थे , किसी दूसरी पार्टी में नहीं गए | स्वार्थ के लिए अनशन नहीं किया |सिफारिश ले के नही पहुचे| बस मन की  कुछ  चुभन थी सो दीवाल पे लिख दिया |
मैं भारी मन से उस गिरी दीवाल की मिट्टी को देखते रह गया |
SUSHIL YADAV
7.9.12

मेरी जानकारी का वो पहला अन्ना’ ज्योतिषाचार्य पन्डित रामनारायण त्रिवेदी थे वे ब्राम्हण पारा ,जो उन दिनों शहर का सिविल लाइन जैसा रुतबा रखता था वही रहते थे खपरैल वाला ,लिपा-पुता ,साफ सुथरा सा मकान था |उनके मकान की खासियत थी |अजीब गहरे नीले रंग की दीवाल पर गेरू से लिखे पहले लाइन की शुरूआत ही जबरदस्त थी सब आने जाने वालो की निगाह बरबस चली जाती थी किस्सा-कोताह यूँ कि ‘ कांग्रेस के नम हराम गद्दार .......|, साठ के दशक में जब सभी कांग्रेस की तारीफ के कसीदे काढ़ते रहते थे  तब उनका यू चलैन्ज करता हुआ खुला इश्तेहार बेखौफ ,बेलाग बेधड़क बयान , लोगो के लिए अजूबा हुआ करता था|  वैसे तब हमारी समझ भी ज्यादा नही थी | बमुश्किल प्रायमरी में पढ़ते थे उनका लिखा पूरा मजनून भी, सिवाय उस सामने की लाइन के ख्याल नहीं आ रहा |मगर पन्डित जी के चैलेंजदार तबीयत के चलते उन्हें देखने की इच्छा रहती थी |कभीकभार वो आराम कुर्सी में बैठे पंचांग मिलाते  मिल जाते पंडिताई  से उनकी जीविका कैसे चलती  थी  पता नहीं | लगता था उनके भित्त-लिखित सरकार के खिलाफ प्रवचन को पढ़ कर, कोई भी अपना हाथ दिखा, भविष्य जानने की इच्छा नहीं रखता  हा    होगा  |पूजा-पाठ ,शादी-ब्याह में जाते वो कभी दिखे नहीं ,या उनको बुलाने की किसी की हिम्मत भी नहीं होती रही होगी |
बहुत व्यस्तता के बाद शहर की उस गली में जाना हुआ सब बदला बदला सा लगा |पुराना कोई मकान साबूत नहीं था नई-नई बिल्डिंग बन गई थी पन्डित जी के पूरे भित्त-आलेख को, सज्ञान पढ़ना चाहता था |उनके उन दिनों के मनोविज्ञान में घुसने की दबी हुई कोशिश सी थी  |वो घर खँडहर में तब्दील हुआ सामने था |बाहरी दीवाल गिर चुकी थी |पन्डित जी के बारे में पता चला उनको गुजरे हुए अरसा हो गया |मैंने उस मुहल्ले में  रहने वाले परिचित से जानना चाहा |उसने बताया यार वो सनकी था |लोग अलग अलग बाते करते हैं |कोई कहता है वो स्वतंत्रता संग्राम में जेल गया था उसकी मुखबिरी करने वाला आजादी के बाद नेतागिरी करके खूब कमाया |वही इनको कांग्रेस से निकलवाने में एडी-चोटी का जोर किए रहता था कोई कहता है ,निकाल दिया तो कोई बताते हैं खुद निकल गए | कट्टर कांग्रसी थे किसी दूसरी पार्टी में नहीं गए स्वार्थ के लिए अनशन नहीं किया |सिफारिश ले के नही पहुचेबस मन की  कुछ  चुभन थी सो दीवाल पे लिख दिया |
मैं भारी मन से उस गिरी दीवाल की मिट्टी को देखते रह गया |
SUSHIL YADAV
7.9.12

Monday, 3 September 2012

MERI JANKARI KA PAHLA ANNA



MERI JANKARI  KA PAHLA ANNA
मेरी जानकारी का वो पहला अन्नाज्योतिषाचार्य पन्डित रामनारायण त्रिवेदी थे | वे ब्राम्हण पारा ,जो उन दिनों शहर का सिविल लाइन जैसा रुतबा रखता था , वही रहते थे | खपरैल वाला ,लिपा-पुता ,साफ सुथरा सा मकान था |उनके मकान की खासियत थी |अजीब गहरे नीले रंग की दीवाल पर गेरू से लिखे पहले लाइन की शुरूआत ही जबरदस्त थी , सब आने जाने वालो की निगाह बरबस चली जाती थी , किस्सा-कोताह यूँ कि कांग्रेस के नमक    हराम , गद्दार ......., साठ के दशक में जब सभी कांग्रेस की तारीफ के कसीदे काढ़ते रहते थे ,  तब उनका यू चलैन्ज करता हुआ खुला इश्तेहार , बेखौफ ,बेलाग , बेधड़क बयान , लोगो के लिए अजूबा हुआ करता था ,वैसे तब हमारी समझ भी ज्यादा नही थी , बमुश्किल प्रायमरी में पढ़ते थे | उनका लिखा पूरा मजनून भी सिवाय उस सामने की लाइन के ख्याल नहीं आ रहा |मगर पन्डित जी के चैलेंजदार तबीयत के चलते उन्हें देखने की इच्छा रहती थी |कभी- कभार वो आराम कुर्सी में बैठे पंचांग मिलाते  मिल जाते | पंडिताई  से उनकी जीविका कैसे चलती  थी  पता नहीं | लगता था , उनके भित्त-लिखित सरकार के खिलाफ प्रवचन को पढ़ कर कोई भी अपना हाथ दिखा भविष्य जानने की इच्छा नहीं रखता आ होगा  |पूजा-पाठ ,शादी-ब्याह में जाते वो कभी दिखे नहीं ,या उनको बुलाने की किसी की हिम्मत भी नहीं होती रही होगी |
बहुत व्यस्तता के बाद , शहर की उस गली में जाना हुआ | सब बदला बदला सा लगा |पुराना कोई मकान साबूत नहीं था , नई-नई बिल्डिंग बन गई थी | पन्डित जी के पूरे भित्त-आलेख को, सज्ञान पढ़ना चाहता था |उनके उन दिनों के मनोविज्ञान में घुसने की दबी हुई कोशिश सी थी  |वो घर खँडहर में तब्दील हुआ सामने था |बाहरी दीवाल गिर चुकी थी |पन्डित जी के बारे में पता चला , उनको गुजरे हुए अरसा हो गया |मैंने उस मुहल्ले में  रहने वाले परिचित से जानना चाहा |उसने बताया , यार वो सनकी था |लोग अलग अलग बाते करते हैं |कोई कहता है , वो स्वतंत्रता संग्राम में जेल गया था , उसकी मुखबिरी करने वाला आजादी के बाद , नेतागिरी करके खूब कमाया |वही इनको कांग्रेस से निकलवाने में एडी-चोटी का जोर किए रहता था | कोई कहता है ,निकाल दिया तो कोई बताते हैं खुद निकल गए | कट्टर कांग्रसी थे , किसी दूसरी पार्टी में नहीं गए | स्वार्थ के लिए अनशन नहीं किया |सिफारिश ले के नही पहुचे| बस मन की  कुछ  चुभन थी सो दीवाल पे लिख दिया |
मैं भारी मन से उस गिरी दीवाल की मिट्टी को देखते रह गया |
SUSHIL YADAV
7.9.12

SUSHIL YADAV,VADODARA: sushilyadav: मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के...



काजल की कोठरी...
कोयले के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी | रलवे कालोनी में सुबह -शाम लोग  कोयले की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़ते थे|खाना बनाने की पूर्व प्रक्रिया में  पूरे  का पूरा मोहल्ला धुंए से बेदम हो जाता  था | आँखों में कोयले का धुआं रुलाने तक ला छोड़ता था | तब इन्हीं सिगड़ियो के मार्फत घरो के अंदर का हाल मालूम हो जाता |जिसने बड़ी सिगड़ी लगाई है उसके यहाँ कोई मेहमान जरूर आया होगा |तीज त्यौहार के दिनों में तो मुहल्ला पूरा धुंध फ़िल्म का शूटिंग स्पाट लगता |तब औरतों में दूसरो की सिगड़ी देख कभी नहीं लगता था कि उसकी बड़ी क्यों ? तब यूं भी नहीं होता था  कि मारे आलस के कोई पड़ोसन दूसरे की भट्टी में रोटी सेक लेने के लिए पेड़े लिए आ जाये या थोड़ी -बहुत छोक-बघार कर ले | सब को अपने-अपने  कोयले का गुमान रहता था |सभी सुविधा सम्पन्न कोयलाधारी हुआ करते थे | सस्ता भी बहुत था | एक -आध रुपया किलो बस |
 किसी -किसी को मुफ्त में भी मिल जाता था ,बशर्ते , रेलवे में अच्छी धाक हो | कोई अपने लिए  गिरवा  लेता |उन  दिनों कोयले के रेक आने की खबर हाथो-हाथ फैल जाती थी |रेक आया नही कि सब के सब चढ़ जाते थे | कोयला नीचे गिराते ,ड्राइवर ,गार्ड की कमाई  हो जाती थी | अच्छा जमाना था | भाप की इन्जन  बंद क्या हुई , मुहल्ले का धुँआ जैसे हवा में हमेशा के लिए उड़ गया | कुछ दिनों बाद कोयले के  लडू भी लोकल फार्मूले पर, मसलन गोबर -चूरा मिला के बनने लगे मगर वो मजे नही मिले  | हमे तब बड़ी धांधली लगती थी | इच्छा होती थी  ,देश को बताये , मगर देश कहाँ  होता था उन दिनों ये भी खबर नही थी |हम इस बात पे तसल्ली किए रहते थे कि कोई स्विस बैंक लायक मोटा नही हो पा रहा है | क्या खाक अपनी इज्जत दांव पर  लगायें, सो चुप रहे |
कोयले पर हमारी जानकारी में इजाफा ,हमारी बुनियाद या हमारी पकड़ , शास्त्री मास्टर जी की वजह से तकरीबन नवमी -दसवी क्लास से  मजबूत हुई |वो बकायदा केमेस्ट्री में एम् एस सी थे , उन्हें सर कहते किसी एंगल से नही जमता था | तेल से चिपचिपे बाल , पीछे चुटिया ,मुड़े -तुड़े बिना प्रेस किए सादा  कपडे , तिलक धारी  माथा ,गला , बाजू में चन्दन  रोज एक ही मार्का में छपे हुए | सो थोडा सा डीग्रेड होके   मास्टर जी के नाम से जाने जाते थे  | वो पढ़ने में जितने तेज रहे होगे , उससे  ज्यादा पढ़ाने में लगते थे |कार्बन -डाइ -आक्साइड , कार्बन मोनोआक्साईड नाम के गैस जो कोयला जनित थे पढने में आया |मास्टर जी फायदा नुक्सान की अलग फेहरिस्त बनवा लेते , कहते रट लो इक्जाम में फायदा होगा |अगली क्लास में कार्बन का विकराल रूप इथेन -मीथेन -बेंजीनर न जाने  ,ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और न जाने कितने बड़े-बड़े फार्मूले दार कार्बन के रूप |पढ़ते -पढ़ते कार्बन को लानत भेजने का जी करता |जरा सी चुक पर बड़ा गर्क |अर्थ का अनर्थ |फार्मूला गलत तो मार्क गोल |
बहुत आफत भरे  आपातकाल जैसे वो दिन हुआ करते थे |हर समय कार्बन ही कार्बन आखो में फार्मूला बन के नाचता था |
                मस्स्टर जी पढाते  खूब थे | वो दूर दृष्टी वाले लोगो में  से थे | इंपोर्टेंट  हैं , कह-कह के पूरे क्लास का ध्यान खीचे रहते थे | उन्होंने हीरा  (डायमंड ) के बारे में बातो -बातो में य़ू खुलासा किया , हुआ यूँ कि , अटेंडेंस लेते समय 'हीरालाल ' की प्राक्सी किसी ने जड़ दी |वे चौकने थे , समझ  गए  गलत हीरा है |फिर सारे क्लास पर बरसने लगे | गुस्से में वो अकेले ही संसद के बिफरे  विपक्ष की तरह फनफना जाते | मैं से हम पर अगर आ गए तो शामत  समझो |पर ज्ञान की बात से समझौता कदापि नहीं करते थे |हम लोग तुम्हे तराश कर 'हीरा 'बनाना चाहते हैं , और तुम लोगों को मस्ती सूझे रहती है |तुम लोगों  को  मालूम ?, 'हीरा' बनने में सालो लग जाते हैं | जमीन में दबे हुए कोयले में दबाव और तापमान को सह कर कोयला हीरा बनता है |ये कोयले का रीफाइंड  रूप है ,जो ठोस कार्बन है |हम लोगो को विश्वाश नहीं होता कि कोयले का चमकदार पहलू 'हीरा' है | वो कहते ,वैसे तो हीरा मामूली चमक लिए रहता है , मगर इसे तराश दो तो और चमक पैदा हो जाती है | वे हीरा तराशने के चक्कर में रहते और पूरा क्लास जुम्हाइयो में चल देता |मास्टर जी की बातो में दम परीक्षा हाल  में पता चलता , जिस -जिस  को जोर देकर  कहे  होते , वही पूछा जाता | कोयले और कार्बन पर उनकी सोच आज भी अपनी इम्पोर्टेंट चमक लिए है |

जब हम कालिज में पहुचे तो नया शगल बन गया ,ट्रेनों में बिना टिकिट लिए सफर करना | तब टी.टी.ई की गिरफ्त में कभी आ जाते तो जैसे -तैसे छूटने की जुगाड़ में लग जाते | वो खुर्राट होते ,बिना किसी एक्स रे के हमारी जेब में कितना है पता लगा लेते | वो बड़े इत्मीनान से भाषण पिलाते -पिलाते टिकट बुक में जब कार्बन फंसाते तब हमारी जेब ढीली हो जाती , हम आख़री मौक़ा ताड़ कर कुछ ले दे  की बात करते |उन्हें तो राजी होना ही रहता था | तब लगता था कि कार्बन फंसा कर कैसे लूटा जा सकता है | भ्रष्टाचार   का उन दिनों का ये ट्रेलर दो तरफा हुआ करता |एक तो हम आधे -अधूरे पैसे देकर सफर कर लेते, दुसरे टी.टी.ई अपने घर की बुनियाद मजबूत किए जैसा फील करता कार्बन फंसा के माल निकलवाने में उस्ताद आर टी ओ  भी कम नहीं | भय को बढ़ाऔ , आदमी की जेब ढीली होते जाएगी |
कार्बन -कोयले की इन दलालियो में तब कोई स्विस -बैंक जैसा नहीं था | छोटी  -मोटी दाल -रोटी के तर करने की व्यवस्था थी |

मेरे पडौसी गुप्ता जी को बिहार , झारखंड , छत्तीसगढ़ के कोयल माफियाओं से शिकायत रहती है , ससुरो ने सारी जमीन को खोखला कर दिया है |माल निकाल के भरते कुछ नहीं , कब पूरे का पूरा शहर चासनाला बन के बैठ जाए कहा नही जा सकता | बस दादागिरी है |एक खदान बरसू से सुलगा हुआ है | अरबों का कोयला जल रहा है कोई रोकने वाला नहीं |रोकने वाला तो तब हो जब सोचने वाला हो |यहाँ व्यवस्था ये है , जहाँ दाम नहीं  वहां काम नहीं, और दूसरी व्यवस्था ये भी है  जहाँ दाम ही दाम है वहां काम में सब अटपटा जायज है | मैंने कहा गुप्ता जी छोडिये , ये सब आपके सोचने की उम्र नहीं| वे फनफनाते चले गए , बाबा -अन्ना बोले तो जायज ? मुझे लगा किसी शामियाने वाले को बुला कर उनका अनशन फिक्स करना पडेगा |

-मेरी कोयला -परख आँख बहुत देर बाद इसलिए खुली ,कि जब कभी माँ काजल का डिठौना लगाने कज्रौटी  लिए आती  , मै मिचमिचा कर आँख बंद किए भाग खड़ा होता |
-लगता है पूरा देश ,कज्रौटी लिए ,माँ को देखने का साहस नहीं जुटा पा  रहा है |आँख मिच्मिचाए ,बंद किए , काजल न लगाने का बहाना ढूंढ रहा है |
-वैसे काजल लगाए आँख की सुन्दरता के क्या कहने |

सुशील यादव