काजल की कोठरी...
कोयले
के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी | रलवे कालोनी में सुबह -शाम
लोग कोयले
की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़ते थे|खाना बनाने की पूर्व
प्रक्रिया में पूरे का
पूरा मोहल्ला धुंए से बेदम हो जाता था | आँखों में कोयले का धुआं रुलाने तक ला छोड़ता
था | तब
इन्हीं सिगड़ियो के मार्फत घरो के अंदर का हाल मालूम हो जाता |जिसने बड़ी सिगड़ी
लगाई है उसके यहाँ कोई मेहमान जरूर आया होगा |तीज त्यौहार के
दिनों में तो मुहल्ला पूरा धुंध फ़िल्म का शूटिंग स्पाट लगता |तब औरतों में दूसरो
की सिगड़ी देख कभी नहीं लगता था कि उसकी बड़ी क्यों ? तब यूं भी नहीं होता
था कि
मारे आलस के कोई पड़ोसन दूसरे की भट्टी में रोटी सेक लेने के लिए पेड़े लिए आ
जाये या थोड़ी -बहुत
छोक-बघार कर ले | सब
को अपने-अपने कोयले
का गुमान रहता था |सभी सुविधा
सम्पन्न कोयलाधारी हुआ करते थे | सस्ता
भी बहुत था | एक -आध रुपया किलो
बस |
किसी -किसी को मुफ्त
में भी मिल जाता था ,बशर्ते
, रेलवे
में अच्छी धाक हो | कोई अपने लिए गिरवा लेता |उन
दिनों कोयले के रेक आने की खबर हाथो-हाथ फैल जाती थी |रेक आया नही कि सब के सब चढ़ जाते थे | कोयला
नीचे गिराते ,ड्राइवर ,गार्ड
की कमाई हो जाती थी | अच्छा
जमाना था | भाप की इन्जन बंद क्या हुई , मुहल्ले का धुँआ जैसे हवा में हमेशा के लिए उड़ गया | कुछ दिनों बाद कोयले के लडू भी लोकल फार्मूले पर,
मसलन गोबर -चूरा मिला के बनने लगे मगर वो मजे नही मिले |
हमे तब बड़ी धांधली लगती थी | इच्छा
होती थी ,देश
को बताये , मगर देश कहाँ होता था उन दिनों ये भी खबर नही थी |हम इस बात पे
तसल्ली किए रहते थे कि कोई स्विस
बैंक लायक मोटा नही हो पा रहा है |
क्या खाक अपनी इज्जत दांव पर लगायें, सो चुप रहे |
कोयले पर हमारी जानकारी में इजाफा ,हमारी बुनियाद या
हमारी पकड़ , शास्त्री मास्टर जी की वजह से तकरीबन नवमी
-दसवी क्लास से मजबूत
हुई |वो बकायदा केमेस्ट्री में एम् एस सी थे ,
उन्हें सर कहते
किसी एंगल से नही जमता था | तेल से चिपचिपे बाल , पीछे
चुटिया ,मुड़े -तुड़े बिना
प्रेस किए सादा कपडे , तिलक धारी माथा ,गला , बाजू में चन्दन
रोज एक ही मार्का में छपे हुए | सो
थोडा सा डीग्रेड होके मास्टर जी के नाम से जाने जाते थे | वो
पढ़ने में जितने तेज रहे होगे , उससे ज्यादा
पढ़ाने में लगते थे |कार्बन -डाइ -आक्साइड , कार्बन
मोनोआक्साईड नाम के गैस जो कोयला जनित थे पढने में आया |मास्टर जी फायदा नुक्सान की अलग फेहरिस्त बनवा
लेते , कहते रट लो इक्जाम में फायदा होगा |अगली
क्लास में कार्बन का विकराल रूप इथेन -मीथेन -बेंजीनर
न जाने ,ग्लूकोज, फ्रुक्टोज
और न जाने कितने बड़े-बड़े फार्मूले
दार कार्बन के रूप |पढ़ते -पढ़ते कार्बन को लानत भेजने का जी करता
|जरा सी चुक पर बड़ा गर्क |अर्थ का अनर्थ |फार्मूला गलत तो मार्क गोल |
बहुत आफत भरे आपातकाल
जैसे वो दिन हुआ करते थे |हर समय कार्बन ही कार्बन आखो में फार्मूला बन
के नाचता था |
मस्स्टर
जी पढाते खूब थे
| वो दूर दृष्टी वाले लोगो में से थे | इंपोर्टेंट हैं
, कह-कह के पूरे क्लास का ध्यान खीचे रहते थे |
उन्होंने हीरा
(डायमंड ) के बारे में बातो -बातो में य़ू खुलासा किया , हुआ यूँ कि , अटेंडेंस लेते समय 'हीरालाल
' की प्राक्सी किसी ने जड़ दी |वे चौकने थे , समझ गए गलत हीरा है |फिर
सारे क्लास पर बरसने लगे | गुस्से में वो अकेले ही संसद के बिफरे विपक्ष की तरह फनफना जाते | मैं से हम पर अगर आ गए तो शामत समझो |पर ज्ञान की बात
से समझौता कदापि नहीं करते थे |हम लोग तुम्हे
तराश कर 'हीरा 'बनाना चाहते हैं
, और तुम लोगों को मस्ती सूझे रहती है |तुम लोगों को मालूम ?, 'हीरा' बनने में सालो
लग जाते हैं | जमीन में दबे हुए कोयले में दबाव और तापमान को
सह कर कोयला हीरा बनता है |ये कोयले का रीफाइंड रूप है ,जो ठोस कार्बन है |हम
लोगो को विश्वाश नहीं होता
कि कोयले का चमकदार पहलू 'हीरा' है | वो कहते ,वैसे तो हीरा मामूली चमक लिए रहता है , मगर इसे तराश दो तो और चमक पैदा हो जाती है |
वे हीरा तराशने
के चक्कर में रहते और पूरा क्लास जुम्हाइयो में चल देता |मास्टर
जी की बातो में दम परीक्षा हाल में पता चलता ,
जिस -जिस को जोर देकर कहे होते
, वही पूछा जाता | कोयले
और कार्बन पर उनकी सोच आज भी अपनी इम्पोर्टेंट
चमक लिए है |
जब हम कालिज में पहुचे तो नया शगल बन गया ,ट्रेनों
में बिना टिकिट लिए सफर करना
| तब टी.टी.ई की गिरफ्त में कभी आ जाते तो जैसे
-तैसे छूटने की जुगाड़ में
लग जाते | वो खुर्राट होते ,बिना
किसी एक्स रे के हमारी जेब में कितना है
पता लगा लेते | वो बड़े इत्मीनान से भाषण पिलाते -पिलाते टिकट
बुक में जब कार्बन फंसाते तब हमारी जेब ढीली हो जाती ,
हम आख़री मौक़ा ताड़ कर कुछ ले दे की बात करते |उन्हें
तो राजी होना ही रहता था | तब लगता था कि कार्बन फंसा कर कैसे लूटा जा सकता है | भ्रष्टाचार
का उन दिनों का ये ट्रेलर दो तरफा हुआ करता |एक तो हम आधे -अधूरे पैसे देकर सफर कर लेते,
दुसरे टी.टी.ई अपने घर
की बुनियाद मजबूत किए जैसा फील करता | कार्बन
फंसा के माल निकलवाने में उस्ताद आर टी ओ भी कम नहीं | भय को बढ़ाऔ , आदमी
की जेब ढीली होते जाएगी |
कार्बन -कोयले की इन दलालियो में तब कोई स्विस -बैंक जैसा नहीं था |
छोटी -मोटी दाल -रोटी के तर करने की व्यवस्था थी |
मेरे पडौसी गुप्ता जी को बिहार , झारखंड
, छत्तीसगढ़ के कोयल माफियाओं से शिकायत रहती है , ससुरो
ने सारी जमीन को खोखला कर दिया है |माल निकाल के भरते कुछ नहीं , कब पूरे का पूरा शहर चासनाला बन के बैठ जाए कहा
नही जा सकता | बस दादागिरी है |एक खदान बरसू से सुलगा हुआ है | अरबों
का कोयला जल रहा है कोई रोकने वाला नहीं |रोकने वाला तो तब हो जब सोचने वाला हो |यहाँ व्यवस्था ये है , जहाँ
दाम नहीं वहां काम नहीं, और
दूसरी व्यवस्था ये भी है
जहाँ दाम ही दाम है वहां काम में सब अटपटा जायज है | मैंने कहा गुप्ता जी
छोडिये , ये सब आपके सोचने की उम्र नहीं| वे फनफनाते चले गए , बाबा -अन्ना बोले तो
जायज ? मुझे लगा किसी शामियाने वाले को बुला कर उनका
अनशन फिक्स करना पडेगा |
-मेरी
कोयला -परख आँख बहुत देर बाद इसलिए खुली ,कि जब कभी माँ
काजल का डिठौना लगाने कज्रौटी लिए आती , मै मिचमिचा कर आँख बंद किए भाग खड़ा होता |
-लगता
है पूरा देश ,कज्रौटी लिए ,माँ को देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा
है |आँख मिच्मिचाए ,बंद
किए , काजल न लगाने का बहाना ढूंढ रहा है |
-वैसे
काजल लगाए आँख की सुन्दरता के क्या कहने |
सुशील यादव