Wednesday, 28 December 2011
आरंम्भ से अंत तक..... सुशील यादव
... सुशील यादव
कब तक बोलो हम अपने कंधों पर विवशताओं का रेगिस्तान उठाए चलें ? भावनाओ की मरीचिका को आश्वासन दे-दे , बोलो कब तक बहलाए चलें ? जवाब दो, इस रेगिस्तान में हम कहाँ तक भटकें किस दिशा में तलाशे पत्थर और माथा अपना पटकें सुना है नई व्यवस्था के नाम पर मील के सभी पत्थरों को तुमने मन्दिरों में तुमने कैद कर रखा है जो अब महज तुम्हारे इशारों पर नाचते हैं तुम्हारी ही सुरक्षा के कवच रात –दिन, नए- नए मुखौटों में सांचते हैं बताओ ऐसे में हमे दिक्-बोध कहाँ से हो | हमने , कितना रास्ता तय किया कितना हम निकल आये तुम्हे क्या, हमारी जिन्दगी रेगिस्तानी हो कटती है कटे , अंदर ही अंदर , जले-भुने पिघल जाए ? तुमने तो शायद पैदाईशी शपथ ले ली है तुम किसी तरस पर, आनावृत नहीं होओगे सहानभूतियो की फसल न काटोगे , और न बोओगे और शायद इसी कारण तुम्हारे जीवन को तय करने वाले पांव बौने होने के बावजूद थकते नहीं आरंम्भ से अंत तक ........ |
सीने में लिखा नाम.....
धुआँ-धुआँ है शहर में, हवा नही है
मै जो बीमार हूं ,मेरी दवा नहीं है तलाश उस शख्श की, है अभी जारी
जिसके पावों छाले-छाले, जो थका नहीं हैकहाँ तक लाद कर हम ,बोझ को चलें
बनके श्रवण माँ –बाप को पूजा नहीं है दंगो के शहर दहशत लिए फिरता हूँ मै
कोई हादसा करीब से बस छुआ नहीं है लहरों से मिटी है , रेतो की इबारत
सीने में लिखा नाम तो मिटा नहीं है Sushil Yadav, Vadodara,28.12.11
09426764552
Saturday, 13 August 2011
महानगर मेरे अनुभव
महानगर मेरे अनुभव
खुशियों को मैंने हाशिए पर
छोड़ दिया है,
बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल
पीड़ा की बात कहता हूँ
***
दोस्त,
इस भीड़ भरे ,
रिश्तों के अपरिचित…
अनजान नगर में,
जब से आया,
कटा –कटा,
टूटा,
मुरझाया-सा
अकेला रहता हूँ
***
यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे
रौदती हैं ,
कल-कारखानो की आवाज ,
बिजलियाँ बन ,मन कौंधती हैं ....
यह महानगर नर्क है,
ऊपरी दिखावे , चमक –धमक ऊपरी
और बेडा सभी का गर्क है ...
महज…
अपने –अपनों में सब,
घिरे लगते हैं,
जिंदगी के, कठिन भिन्न को
करते सरल , सिरफिरे लगते हैं ...
यहाँ , आदमी, आदमी को नहीं पहचानते
इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...
इसीलिए ,
भूखो बिलखती यहाँ
सलमा और सीता
कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के,
कुरान व् गीता
इसी नगर के चौराहे पर,
खून पसीना , निर्धन बिकता है
इमान –मजहब , मन बिकता है
जिन्दा –जिस्म , कफन बिकता है...
इसी नगर की गलियों से,
उठती लहरें बगावत की
तूफां यही होता है पैदा ,
झगड़े –झंझट , झंझावत भी |
इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलते
मै..
तंग आ गया हूँ,
फिर भी सब सहता हूँ
बस दोस्त ,
इसीलिए ,कुछ जी हल्का करने
तुमसे ,पीड़ा की बात
पृष्ठों पर कहता हूँ ....
***
वैसे तो सभ्यता के नाम पर,
मैंने भी चाहा...
मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,
यहाँ रहने –बसने वालो का
अनवरत कल्याण हो,
पर कोई साक्ष्य नहीं..
जो उंगली पकड़े
इस बीमार नगर की
पीडाओं को बांटे ,
अपरचित, सुनसान डगर की
हर चेहरा यहाँ,
बेबस है ,लाचार है ....
हमारा साहस बौना ,
सामने.... , विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त
इतने बड़े, शहर में तुम,
मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ?
रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में ,
मुझे अकेले ढूँढ , पहचान सकोगे ?
वैसे तो मै ...,
‘खुद’ से गुम गया हूँ ,
मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ
पर कभी कभी अब भी लगता है
मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ
बहता हूँ ,
बस दोस्त ,
इसीलिए कुछ जी हल्का करने
तुमसे , पीड़ा की बात
मै पृष्ठों पर कहता हूँ ,
खुशियों को अलग मैंने....
हाशिए पर छोड़ दिया है |
सुशील यादव
०९४२६७६४५५२
खुशियों को मैंने हाशिए पर
छोड़ दिया है,
बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल
पीड़ा की बात कहता हूँ
***
दोस्त,
इस भीड़ भरे ,
रिश्तों के अपरिचित…
अनजान नगर में,
जब से आया,
कटा –कटा,
टूटा,
मुरझाया-सा
अकेला रहता हूँ
***
यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे
रौदती हैं ,
कल-कारखानो की आवाज ,
बिजलियाँ बन ,मन कौंधती हैं ....
यह महानगर नर्क है,
ऊपरी दिखावे , चमक –धमक ऊपरी
और बेडा सभी का गर्क है ...
महज…
अपने –अपनों में सब,
घिरे लगते हैं,
जिंदगी के, कठिन भिन्न को
करते सरल , सिरफिरे लगते हैं ...
यहाँ , आदमी, आदमी को नहीं पहचानते
इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...
इसीलिए ,
भूखो बिलखती यहाँ
सलमा और सीता
कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के,
कुरान व् गीता
इसी नगर के चौराहे पर,
खून पसीना , निर्धन बिकता है
इमान –मजहब , मन बिकता है
जिन्दा –जिस्म , कफन बिकता है...
इसी नगर की गलियों से,
उठती लहरें बगावत की
तूफां यही होता है पैदा ,
झगड़े –झंझट , झंझावत भी |
इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलते
मै..
तंग आ गया हूँ,
फिर भी सब सहता हूँ
बस दोस्त ,
इसीलिए ,कुछ जी हल्का करने
तुमसे ,पीड़ा की बात
पृष्ठों पर कहता हूँ ....
***
वैसे तो सभ्यता के नाम पर,
मैंने भी चाहा...
मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,
यहाँ रहने –बसने वालो का
अनवरत कल्याण हो,
पर कोई साक्ष्य नहीं..
जो उंगली पकड़े
इस बीमार नगर की
पीडाओं को बांटे ,
अपरचित, सुनसान डगर की
हर चेहरा यहाँ,
बेबस है ,लाचार है ....
हमारा साहस बौना ,
सामने.... , विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त
इतने बड़े, शहर में तुम,
मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ?
रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में ,
मुझे अकेले ढूँढ , पहचान सकोगे ?
वैसे तो मै ...,
‘खुद’ से गुम गया हूँ ,
मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ
पर कभी कभी अब भी लगता है
मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ
बहता हूँ ,
बस दोस्त ,
इसीलिए कुछ जी हल्का करने
तुमसे , पीड़ा की बात
मै पृष्ठों पर कहता हूँ ,
खुशियों को अलग मैंने....
हाशिए पर छोड़ दिया है |
सुशील यादव
०९४२६७६४५५२
Thursday, 28 July 2011
मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता
Post Title. 07/10/2011
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जिन्दगी-भर को ......
भीड़ में, कोई किसी को, रास्ता नहीं देता
जैसे तिनका, डूबते को, आसरा नहीं देता
कहाँ ले जाओगे, अपनी उखड़ी-उखड़ी सासें
कोई बीमार को ,तसल्ली- भर हवा नहीं देता
पल दो पल को, मिल जाए, शायद तुम्हे हंसी
जिन्दगी-भर को ,मुस्कान, मसखरा नहीं देता
मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब
ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता
कुरेद कर चल देते ,ये जख्म शहर के लोग
चारागर बन के, मुफीद , कोई दवा नहीं देता
कल की कुछ, धुंधली, तस्वीर बनी रहती है
आज का अक्स संवार के आईना नहीं देता
उससे मिल कर, जुदा हुए, बरसो बीत गए
मेरे सुकून का, कोई ठिकाना, पता नहीँ देता
सुशील यादव .....०९४२६७६४५५२
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जिन्दगी-भर को ......
भीड़ में, कोई किसी को, रास्ता नहीं देता
जैसे तिनका, डूबते को, आसरा नहीं देता
कहाँ ले जाओगे, अपनी उखड़ी-उखड़ी सासें
कोई बीमार को ,तसल्ली- भर हवा नहीं देता
पल दो पल को, मिल जाए, शायद तुम्हे हंसी
जिन्दगी-भर को ,मुस्कान, मसखरा नहीं देता
मै चाहता हूँ ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब
ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता
कुरेद कर चल देते ,ये जख्म शहर के लोग
चारागर बन के, मुफीद , कोई दवा नहीं देता
कल की कुछ, धुंधली, तस्वीर बनी रहती है
आज का अक्स संवार के आईना नहीं देता
उससे मिल कर, जुदा हुए, बरसो बीत गए
मेरे सुकून का, कोई ठिकाना, पता नहीँ देता
सुशील यादव .....०९४२६७६४५५२
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