Friday, 30 November 2012
SUSHIL YADAV,VADODARA: जड खोदने की कला
SUSHIL YADAV,VADODARA: जड खोदने की कला: जंगल विभाग से उनका रिटायरमेंट क्या हुआ वे पडौसियो के लिए कष्ट दायक हो गए |कही भी चले आते हैं |तरह –तरह की खबर ,दुबे,चौबे,शर्मा ,द्वेवेद...
जड खोदने की कला
जंगल विभाग से उनका रिटायरमेंट क्या हुआ वे पडौसियो के लिए कष्ट दायक
हो गए |कही भी चले आते हैं |तरह –तरह की खबर ,दुबे,चौबे,शर्मा ,द्वेवेदी सब के
घरों का हाल उनसे मुह –ज़ुबानी पूछ लें |कहाँ क्या चल रहा है?उन्हें एक-एक की खबर होती है |
उनको ,चूहों से अगर बच गए हों तो,घर के ,पूरे साल भर के अखबार की
खबरों को कुतरने में चंद दिन लगते हैं |
अखबार पढ़ने के बारे में वो कहते हैं कि जंगल के सर्विस में उनको स्टडी
का मौक़ा नहीं मिला सो वे राजनैतिक –सामाजिक सरोकार से दूर थे |अब फुर्सत है सो
अध्ययन –मनन में समय बिताने की सोच रहे हैं |
मैंने कहा ,फिर अखबार ही क्यों ?मनन –चिंतन के लिए साहित्य का भण्डार
है ,पढते क्यों नहीं ?
वो
बोले अब साहित्य-वगैरा पढ़ के कोई एक्जाम तो पास करना नहीं है |मोहल्ले –पडौस में
ज्ञान बघारने के लिए रोज टी वी देख लो ,कुछ अखबार बांच लो काफी है |
मैंने मन में सोचा ,पांडे जी का तर्क अकाट्य है |हर आदमी इतना ही
ज्ञान रखता है इन दिनों|काम चलना चाहिए |ज्यादा ज्ञानी हुए नही कि समाज के लिए मिस-फिट हो जाता है आदमी|
मैंने पांडे जी को छेड़ते हुए कहा ,चुनाव-उनाव क्यों नहीं लड़ लेते |अभी
पार्षद बनने का ,फिर अगले साल एम् एल ए बनाने का खूब मौक़ा है |
उसे लगा कि मैंने उनको बुढापे की वैतरणी पार करने का नुस्खा दे दिया
है |
वो तुरंत लपक लिए ,ऐसे आदमी मुझे भले लगते हैं जो बिना किसी तर्क के
मेरी बात मान लेते हैं , बोले ऐसा हो सकता है?
अपने को एम्.एल.ए तक तो जाना नहीं है |खर्चा बहुत होता है ,पूरा पेंशन
निपट जाएगा तो खायेंगे-पहनेंगे क्या ?
पांडे जी को जितना लाइटली मै लेता था उतने वो थे नहीं |जिस आदमी को
पेंशन बचाने का शऊर हो,वो आर्थेक मामले में भला कहाँ से किसी के कहने में आ सकता है ?किसी के चढाने को वे उसी हद तक
लेते थे जितनी वे चढ़ सकें |बहरहाल उनने मेरी सलाह को ,बतौर टर्निग –प्वाइंट नोट कर
लिया |वे चले गए |
अगले महीनों तक वे कई बार टकराए ,कभी सब्जी –भाजी ले कर बाजार से
लौटते हुए ,कभी किराने का सामान लादे हुए |हाय –हेलो से ज्यादा बात नहीं हुई |एक
दिन वे रेल -रिजवेशन की लाइन में लगे थे
,मैंने पूछा ,पांडे जी कही घूमने जा रहे हैं क्या ?
वो बोले ,बोले क्या बस महीने भर की दास्तान सुनाने लगे |
किस–किस नेता से मिले ,कितनी
पार्टी का चक्कर लगाया |सक्रिय सदस्य बनने के लिए कई एक पार्टी का मुआयना कर आए हैं |
अब अभी राजधानी जा रहे हैं |दो-तीन पार्टी हेड से मिल देखते हैं ,देखे
क्या बनता है ?
मैंने कहा ,पांडे जी मैंने तो यूं ही मजाक में कह दिया था ,चुनाव-सुनाव
के बारे में |आपने सीरियसली ले लिया |मुझे अपने कथन के साथ –साथ ,पांडे जी में
भविष्य का पार्षद भी दिख रहा था,उनकी जीवटता को देखते हुए |
उनका रिजर्वेशन का नम्बर आ गया वे टिकट ले लिए |दूसरी जगह जाने के लिए
मेरा टिकट वेटिंग का निकला सो मैंने अपना
निर्णय बदल दिया |
वो ऑटो से आए थे मगर वापसी में मेरे स्कूटर में चिपक लिए |
रास्ते भर लोकल पालटिक्स की बातो से ऊपर नहीं उठे|सब की बखिया उधेडते रहे |मेयर ने
पानी की टंकी में किताना छेद किया |दीगर पार्षद क्या –क्या गुल खिला रहे हैं
|विधायक रात कहाँ सोने जाता है |मुझे लगा महीने भर में पांडे जी ने थीसिस
जितना आंकड़ा जमा कर लिया है |मन ही मन ,उनके खोजी चालूपन को दाद दिए बिना नहीं रह
सका|
मैंने पूछा ये सब इतनी जल्दी कैसे जमा हो गया?बहुत मेहनत की होगी आपने ?
वो मंजे हुए अंदाज में कहने लगे ,हाँ मेहनत तो होती है |जंगल में हम
लोग खूब मेहनत किए हैं |हम लोग मिनिस्टर –अफसरान को शेर दिखने के लिए जो तरीका
अपनाते रहे,वही यहाँ काम करता है |खबर को बाहर निकालने के लिए ‘मचान’ बाँध कर
बैठो |शेर को कुछ भूखा रखो ,चारा –पानी का सही इंतजाम हो तो हांके में शेर आ जाता
है |दफ्तर के छोटे –छोटेबाबू,बाबूनुमा
अफसर या दफ्तर के बेवडो को,अर्जी पकड़ा दो वे सब लेखा-जोखा आप ही आप समझा देते हैं
|ध्यान से सुनो तो वे,आकडे देते वक्त साहब लोगो के ‘गुणगान’ यूँ करते हैं कि वो
तो पाक साफ हैं बाकी सब उनको ही पहुचता है |
मेरा स्कूटर कई बार,पांडे जी के बयान से दचके खाते-खाते बचा |मैंने
मन ही मन सोचा पांडे ने कमाल का काम किया है |मैंने चलते में पूछ लिया ,पांडे जी ,लगता
है ,जंगल मुहकमे में पेडों को जम के उखाड़ा है आपने |
जमी हुई जडो को अच्छी तरह से उखाडने वाले पांडे जी के प्रति मेरी
प्रजातंत्रीय-श्रधा जाने क्यों उंमड आई|
मेरे कटाक्ष पर वे ही.-ही कर हंस दिये|
मुझे हल्का सा ब्रेक लगाना पड़ा |घर भी करीब था वे उतर लिए |
मै पांडे जी के रूप में जाते हुए,भावी पार्षद को देख रहा था
|उनमे मुझे एक कर्मठ नेता की आगामी
छवि दिख रही थी|
शायद प्रजातन्त्र की नीव रखने
वालो ने,उसकी इमारत की खिडकी – दरवाजों में ,कभी दीमक या घुन लगने के
बारे में सोचा भी नहीं होगा?
बहरहाल ,मुझे पांडे जी में कोई ओछापन नहीं दिख रहा था ,उस जैसे
जुझारू आदमी को झोककर छोटी-मोटी परेशानियों से बाहर निकला जा सकता है |मै अपने
आकलन में अलग से जुट गया |
उंनके पार्षद बन जाने पर,मेरे घर के सामने सड़क के बीचो-बीच खड़े खम्भे
को उखडवाने का,शायद मै उनको पहला काम सौपूं ?
सुशील
यादव
अपार्टमेंट
३०७ ,
८०५० फारले स्ट्रीट
केन्सास
,अमेरिका
30.11.12
30.11.12
Sunday, 18 November 2012
छटी-इन्द्रिय वाले लोग
मुझे कुछ बातो की जानकारी घटना के कुछ पहले अचानक हो जाती है |पता नही क्यों मेरी छटी-इन्द्रिय, मीडिया
के “बाबा-तहलका” के बाद
एकाएक कैसे एक्टिव हो गई ? अफसोस ,मुझे मेरे
अन्दर छिपी हुई प्रतिभा के बारे में पता तब चला , जब बाबा-लोग छटी इन्द्री का, खेल- खेलकर करोडो कमा कर निपट लिए |
उनके कमाने का तरीका न्यूटन –आइन्स्टाइन –आर्कमिडीज
के जमाने में होता तो इस धरती में हम बिना
सेव गिरे का गुरुत्वाकर्षण मान लेते, संसार बिजली के
खम्भों पर टिका नहीं होता यथा , कुत्तो को जो शंका –निवारण सुख मिला है वो नसीब
नही होता ,यूरेका –यूरेका चिल्लाते नंगे
नही भागते लोग|
जब सब
कुछ बिना मेहनत के मिल रहा हो तो कोई क्यों सर खपाए ?
अनाप -शनाप बोल के कमाने का नायाब तरीका इजाद हो
चुका है |
कब नहाए थे ,चड्डी लक्स की पहनी थी या डोरा की
|अगर लक्स की पहनी थी तो अब डोरा की पहन के देखो... शायद भला हो जाए | हाँ ,एक
पेकेट अगरबत्ती किसी गरीब के झोपड़े में ज्ररूर जला आया करो , अवश्य कल्याण होगा |
मनोविज्ञान का तुक यहाँ जबरदस्त है| आदमी की पसंद
को चोट करो , जो वो कर रहा है वही गलत है |आदमी की झख खुल जाती है|बीबी के ताने को
बल मिल जाता है ,हमने तो पहले ही कहा था ,डोरा की लो |हमारी तो सुनते ही नहीं|
फिर भक्ति मार्ग में ले जाकर अगरबत्ती
पकड़ा दो | मंदिर जाने को कहने में लोगो
को कुछ नया क्या मिलेगा|लोग कुछ नया मिले तो जरुर आजमाते हैं |लोगो को, सरकार की तरह ,गरीब की तरफ भेज दो, इससे सामजिक पकड मजबूत होती है |मॉस-मीडया की जबर्दस्त कव्हरेज मिलती है |
सरकार, ‘गरीब’ शब्द के बीच में आ जाने से थोड़े देर तक
और सोते रहती है ?
काम निकालने में मनोविज्ञान का सहारा, जिसने लिया
उसकी नय्या सुनामी प्रूफ हो जाती है |
बड़े –बड़े विज्ञापनो का कमाल है, कि
उनका खोटा सिक्का धूम से चलता है |
हम लोगो को पता नही, कौन से स्कूल -कालिज में,
क्या पढ़ाया –लिखाया ,हम लोग कुछ बन नहीं
पाए |ठूस-ठूस कर गिनती-पहाडा ,नैतिक ज्ञान ,सामाजिक अध्ययन ,सामान्य विज्ञानं
,अर्थ -शास्त्र ,केमिस्ट्री –फिजिक्स सब भर दिए .जिसमे आज के जमाने में दो जून की
रोटी मुहाल करना भारी पड़ता है |जिन्होंने स्कूल -कालिज का रुख नहीं किया ,वे बड़े
मजे में दिखते हैं|
मेरे एक
परचित, मजे से किसानी कर रहे थे ,पता नही नेताओं को, नेता का क्या अकाल पड़ा ,उसे एक दिन उठा ले गए|अपनी पार्टी की टिकिट दे दी |भले-मानुष ने लाख
समझाया, कि उसे ठीक से बोलना नही आता ,और तो और वो कभी स्कूल पढने भी नही गया |पार्टी वालो ने कहा इसी खूबी के चलते तो उसे
पार्टी का टिकिट दिया गया है ,वरना टिकिट मागने वालो में डाक्टर –इंजीनियर की तो
लाइन लगी थी |वो मासूम-सूरत, और पार्टी की प्रयोग-धर्मिता के नाम पर जीत गया |जीता क्या , उसकी काया ही
पलट गई |
काया-पलट का खेल लोगो को बहुत अजूबा लगा |लोगों
ने ,किस्से –कहानियों में उसे फिट कर दिया
|हर निकम्मे –अलाल लोगों को, उसका उदाहरण
देकर मार्ग –प्रशस्त करने का काम पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जाने लगा |निकम्मे
-अलाल लोग मुगेरी के सपनो में खो गए |
उनका प्रसंग आते ही , “जैसे उनके दिन फिरे “....वाली बात, आम सी हो गई|
वैसे अंगूठा-छाप से शिक्षा –मंत्री बनना ,इस धरती
पर कुदरत के कुछ चमत्कारों में से एक है |
चुनाव जीत्तने
से मंत्री बनाने तक का उनका सफर
मानो रोलर-कोस्टर में बैठने की तरह से था |
मंत्री जी धकधकाए से फकत भगवान को याद करते रहे
|उनकी छटी-इन्द्रीय का जागरण तभी से हुआ |रोलर –कोस्टर जैसे सफर
को कैसे पार लगना है सो मिन्नतो का ,कसमो का ,ठोस निर्णय का ,कुछ त्यागने
और कुछ तहे दिल से अपनाने का उन्होंने उसी दिन से मानो तय कर लिया |अभी तक जो हुआ सो हुआ, की तर्ज पर
उन्होंने अपनी गाडी सन्मार्ग के रास्ते में डाल दी |वो हरदम व्यस्त नजर आने लगे |आदमी अगर व्यस्त रहे तो
अपने आप बहुत कुछ सीख लेता है या
बन जाता है| उनकी व्यस्तता आजकल गजब की है
कभी अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाते |
मंत्री जी ने लोगों से बचने का नया फार्मूला ये निकाला है कि वक्त –बेवक्त
, लेपटाप ले कर बैठ जाते हैं| इससे ये
सन्देश जाता है कि जनाब जरुरी काम में व्यस्त हैं | कोई इनको छेड़ता नही|
मैंने एकाएक उनको लेपटाप लिए देखा तो अजीब सा लगा ,कारण की मैं
उनको भैस लगाते ,सानी –चारा देते ,या खलिहान में झाड –बुहार करते ही देखा करता था |बहुत
दिनों बाद , अचानक एक दिन यूँ ही पहुचा था
मैं |मुझे देख कर वे थोड़ा असहज से हुए ,
फिर नेतानुमा बेशर्मी भी तत्काल हवा में घुल-मिल गई |हम दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक
हो गए |मैंने पुराने संदर्भो में जो उनको देखा था ,सो पूछ बैठा ,ये लेपटाप भी ,,,,,
?
वो एक गहराए कुए से बाहर निकल कर बोले , हाँ
चलाना अब आ गया है , अरे ये सब तो बहुत आसान है |थोड़ी सी अंगरेजी का ट्यूशन ले
लिया था |ये सब तो खेत में हल जोतने और दीगर किसानी कामो का एक चौथाई भी नहीं है | अव्यक्त में माने वे कह रहे थे,अब तक कहाँ झक मारते रहे बेकार |
आगे उन्होंने कहा अब बड़े-बड़े लोगो के साथ रहना पड़ता है न , नहीं तो ये
मिनिस्टर को बेच खाये |मैंने उनके कथन पर हामी भरते हुए ,एक नजर उनके स्टेटस पर डाली ,वो बिना विज्ञापन ,
बिना ज्ञान ,बिना शिष्टाचार निभाए बहुत हैसियत वाले हो गए थे |
वो लेपटाप से ध्यान हटा भी नहीं पा रहे थे ,मेरी
बातो का नेता-नुमा हल्का-फुल्का जवाब तब भी मिल रहा था |
-मेरी इच्छा हुई , छीन कर उसका लेपटाप देखू ?
- ऐसे लोग आखिर देखते क्या
हैं ?ढूंढते क्या हैं ? शायद मेरी छटी इन्द्रीय में कही से सन्देश आ जाए |
-मैं अपनी छटी –इन्द्रीय को उस दिन से, हर ऐसे काम की तरफ लगाने की कोशिश में रहता हूँ, जहां ‘बिना टैक्स का इनकम
’ बेहिसाब हो |
*&*
सुशील यादव
केन्सास , अमेरिका
१५.११.१२
चरित्र आस-पास के.....
.
जिसे लोग नरेंद्र
महाराज के नाम से जानते हैं ,वो हमारे लिए
मात्र नरेंद्र या अरे –अबे शर्मा था |
साथ में पढने वालो
के नाम, बिना अरे
, अबे ,स्साले के कहो तो बहुत बुरा लगता है |
कभी-कभी ठीक –ठीक
नाम से बुला दो तो लगत्ता है ,बन रहे हैं |
कई बार स्तिथी बदल
भी जाती है |कई इतने हैसियत वाले हो जाते हैं कि लगता है, कम बात करे तो ही अच्छा
है |
मेरे मित्रों में से एक जज , एक कालिज का प्रिंसिपल , एक मंत्री , एक सांसद,एक पंडित बन
बैठा है |मेरी हैसियत मात्र एक ठेकेदार तक की है |इंजिनियरिंग करने के बाद सोचा
नौकरी क्या करना . अपना ही कुछ किया जावे ,सो ठेकेदारी शुरू कर दी |
कभी –कभार पुराने,
हैसियत वाले दोस्तों से मिलना हो जाए, तो
वे मजे से कह देते हैं , क्या सुशील , कैसा है तू ?
मुझे लगता है जवाब
दू , अच्छा हूँ स्साले , तू बता ,तू कैसा
है ? मगर मै मुश्किल से दुविधा में
सकुचाए हुए कह पाता हूँ , अच्छा हूँ
भाई ,आप कहो क्या चल रहा है ?
ये सब वो लोग हैं
जो मेरे नोट्स लेकर ,मेरे बताए नुस्खो ,तरीको को आजमा-आजमा के आज हैसियत वाले हो
गए |
इनकी ऊँची आवाज में
अब वो दब्बूपन जाने कहाँ खो गया ,जिसको निकालने के लिए हमने इनको रेगिंग कैसे करना
है , सिखाया था |
कालिज के वो अजीब
से दिन थे |पिकनिक –पार्टी मेरे बिना या तो बनाती
न थी या इसके आयोजन की कोई सोचता भी न था |
लडकियां जो अब शादी
-शुदा हो अपने –अपने ठिकाने लग गई ,उनको बीच में लाने का ,अब बनता नहीं , वरना कई
किस्से इन साहबानो के साथ जुड़े थे |
इन-दिनों जब ये
मुझसे मिलते हैं , सीधे –सीधे पूछने में उनको हिचकिचाहट सी महसूस होती है ,वो
घुमा-फिरा के पूछते , रेखा-राधिका ,अगरवाल-सबरवाल के क्या हाल हैं ?
मै सब के बारे में
बरी-बारी बता देता |किसके दो बच्चे हैं , किसका आदमी बैंक में, किसका बैंकाक में
है |
बस उनके मतलब की
जानकारी को दबा के कहता , आप जिस के चक्कर में थे ,उसका बहुत दिनों से कुछ पता
नहीं चला |मै टच में हूँ ,बताउंगा |मै ज्यादा बात करने से बच जाता |वो अपनी राह निकल लेते |
एक
बार जज साहब से, किसी दोस्त की पार्टी में
मुलाक़ात हो गई , दोस्तों-परिचितों के साथ घिरे गप-शप कर रहे थे , मुझे अनदेखा कर
रहे हैं ऐसा मुझे लगा |सीधे –सीधे आमना –सामना
होने पर उसे कहना पडा , और सुशील कैसा है तू? ,मैंने कहा अच्छा हूँ मैंने भी तात्कालिक पूछ लिया ,तुम कैसे हो ?
मुझसे ‘तुम’ सुनकर,
भिन्नाए ,अच्छा हूँ , बोलते हुए , वो एक
इज्जतदार आदमी की तरह, एक तरफ खिसक लिए.... |
विकास
देशमुख , अब विकास –योजना मंत्री हैं ,मेरे बेटे का इंटर-व्यू आया , घर वालो की
जिद के चलते उनसे मिलना हुआ |
हम कई-कई रात
कंबाइंड स्टडी में बिताते |कहीं रात में चाय
पीने निकल जाते तो अक्सर उनकी जेब खाली
रहती |
खैर , उनसे मिला |
बा-हैसियत उनके स्पेशल मिलने वालो में
मेरा नाम ,मेरे इस बयान से कि मै उनका ख़ास मित्र हूँ ,लिख लिया गया |
किसी ने बताया कि
बिना एप्वाइन्टमेन्ट के उनसे मुलाकात कराने पर मंत्री जी खफा होते हैं और मना भी कर रखा है |
यहाँ सब अपने को
ख़ास ही बता कर घुसना चाहते हैं |
मुझे बुरा भी ख़ूब
लगा |मैंने कहा , मै मोबाइल से बात किए लेता हूँ , बस उनको मोबाइल आन करने को कह
दें आप लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी |
उनके कार्यकर्ता
नर्म हुए |मेरा बुलावा भी आ गया |अन्दर का माहौल मेरे लिए नया था ,कभी यूँ मिलना
पडेगा सोचा न था | वो तपाक से मिले , मेरी झिझक को भापते हुए ,तात्कालिक दूसरो को
बाहर भेज दिया |बोले , इत्मिनान से कहो ,आज इतने दिनों बाद कैसे आना हुआ ? यू
क्यों नहीं करते, हम कल या परसों अपने फार्म –हाउस में मिले. साथ लंच लें |खैर अभी
,ज़रा जल्दी बताओ ,कैसे आना हुआ |उसकी व्यस्तता और मेरे संकोच ने ,बेटे के इंटरव्यू
को बीच में लाना उचित नहीं जाना |मैंने कहा , लंच में मिलकर बात कर लेंगे |उसने
हाथ मिलाया ,उसके लंच के नाम पर दो दिनों तक मै देर-देर से खाना खाया |बुलावा उधर
से आया ही नहीं|
घर वालो को, बेटे
के इंटरव्यू निकाल लेने पर ,मेरे बेटे की क़ाबलियत से ज्यादा, मेरे मंत्री के
रिश्ते पर विश्वास होता है|
कभी-कभी
दोस्तों की बेदिली से , जब उब सा जाता हूँ तो नरेंद्र –निवास की तरफ रुख कर लेता
हूँ |इत्मीनान से अकेले में बीते दिनों को याद कर हम दोनों ख़ूब हंस –बोल लेते हैं |
हम लोग किसी भी राज की बात बे-तकल्लुफ पूछ लिया करते
हैं |हमारा एक दूसरे के प्रति , अबे-अरे के संबोधन में अब तक कोई फर्क नहीं आया है|एक दिन
मैंने पुछा ,अबे नरेंद्र, बता तू पंडित
कैसे हो गया ?
उसने कहा –यार क्या करता ग्रेजुएशन
के बाद नौकरी के लिए भटका –घुमा ,चप्पल घिसे ,मगर काम नहीं बना |पिताजी के साथ
पंडिताई में जाते –जाते काम के लायक कुछ सीख गया , उसी के भरोसे चल रहा है |
पंडित गिरी में सब
अंदाज का होता है ,यजमान की सुविधा में मुहूर्त ,यजमान के रिश्तेदारों की सुविधा
में सब नेग-नियम,हमलोग तात्कालिक बना देते
हैं और वही सुविधा देने वाला पंडित सबसे अच्छा
पंडित होता है|
पिताजी तो गुजर गए
पर उनके गुरु मन्त्र से रोजी –रोटी अच्छे से चल रही है|बाहर इज्जत ,मान सम्मान भी बहुत है|और चाहिए भी क्या
?
अचानक उसने कहा ,
बहुत दिन हो गए, यार , एक-आध पेग लेगा
क्या ,दरअसल ,बिना कम्पनी के लेना जमता नहीं |वो मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर ,बोतल
उठा लाया | हम कालिज के दिनों में खो से गए |फिर एक-एक दोस्त खबर ली, उनको जी भर के गालियाँ दी, जो चोचले बघारते आजकल बाहर
फिरते हैं |
सुशील यादव,
केन्सास सिटी
अमेरिका
२६.१०१२
Saturday, 27 October 2012
एक खोजी पत्रकार का हल्का –फुल्का स्टिंग
एक खोजी पत्रकार का हल्का –फुल्का स्टिंग
वो पत्रकार थे |बड़ी
मुश्किल से उन्हें हमारे मोहल्ले में किराए
का मकान मिल पाया था ,वो भी तब जब उन्होंने कहा था कि छः –सात महीनों में उनका
खुद का मकान बन जाएगा |मुझसे पुराना परिचय
होने के नाते वो अक्सर मेरे पास चाय-नाश्ते के लिए आ धमकते |
मै झेलने की तर्ज
में बस एक श्रोता से ज्यादा की हैसियत नही रखता था |
बात ,दुनिया –भर की
होती , मगर सार उनके मकान बनाने पर आकर ख़त्म होती, मसलन आज मुनिस्पल -आफिस में नक्शा
के नाम पर चिकचिक हो गई |पास नहीं कर रहे थे |२० परसेंट जमीन छोड़ने की कह रहे थे
|मालूम आज जमीन का रेट क्या है?
क्यों छोड़े कोई
अपनी खरीदी जमीन ?
मैंने कहा शोर्ट
में बताओ , नक्शा पास हुआ या नहीं ?
उसने कहा ,होता
कैसे नहीं? ऊपर वाले को पकड़ा|ऊपर वाले को पकड़ो ,सब ठीक हो जाता है |मेरा तो यही
फार्मूला है |
मै उस पत्रकार को बस इसी फार्मूले के
नाम पर झेल जाता हूँ|करेंट में क्या फार्मूला किसा जगह कैसा चल रहा है , इसकी ताजा
खबर घर में बैठे ही मिल जाती है |
वो सप्ताह बाद
भिन्नाये हुए आये |क्या समझ रखा है ,इन हरामखोर ठेकेदारों ने , स्सालो ने ठेके के
नाम पर पूरी जमीन को खोखला करने की ठान
लिए हैं |
मैंने सोचा कोई
टी-व्ही खबर को वो री-टेलीकास्ट करने वाला
है , मैंने कहा ऐसी कोई खबर तो नजर नहीं आई |
वो बोले सुशील भाई
, आप रहते कहाँ हैं ?ये जो शिवनाथ नदी के आस –पास का इलाका है न , पूरा का पूरा
मुरुम-रेती, भाई लोग बिना रायल्टी के निकाल लिए हैं |आप-अपने कंप्यूटर-इन्टरनेट की
दुनिया से बाहर निकल कर भी देखो? क्या-क्या अंधेर हो रहा है ?मुझे मेरी नाकामी गिना
गया |मुझे महसूस हुआ , शायद ,पत्रकार महोदय के मकान की नीव-भराई का काम शुरू हो
गया है |
मैंने श्रीमती को
चाय लाने को कहकर पूछा , क्या पिट-फीलिंग
,लेबलिग़ चालु हो गया |उसने कहा , हाँ , इसी सिलसिले में आर्डर देने गया था |रेट
अनाप –शनाप बोले, तो मुझसे रहा नहीं गया |मैंने भी पुरे दिन की तहकीकात कर पता लगा
लिया कि आखिर मायनिग वाले सो कहाँ रहे हैं ?
मैंने मजाक के लहजे
में पूछा , पता चला उनके सोने-जागने की जगह ? उसने कहा , पता क्यों नहीं चलेगा भला ?
ठेकेदार और मायानिग
वालो की मिली –भगत रहती है |हर ट्रक के पीछे रकम बंधी रहती है |अछा लूट रहे हैं |
अब देखो मै , खुद मोबाईल में
शूट करके ,इनकी करतूत सामने लाता हूँ |
मुझे पत्रकार की
औकात –हैसियत का पता था |
अपने काम के होने
तक का जोश मारेगा फिर टांय-टांय फिस्स|
दो तीन दिन बाद मिले, तो मैंने
पूछा , क्या हुआ ,माइनिग का |उसने
कहा , फ्री में दस-बीस ट्रक ड़ाल गए स्साले |मैंने सोचा ,स्टिंग की नौबत ,जिसकी
संभावना कम ही थी , नहीं आई |
उनके मकान की
सिलसिलेवार प्रगति होते रही और मुझे लगातार जानकारी मुहय्या होते रही |
कभी सीमेंट के
व्यापारी तो ,कभी दरवाजा-खिड़की के लिए, वन विभाग
वाले उनका शिकार या निशाना बनते रहे |
कभी एंगल
–सरिया वालो को इनकम-टैक्स ,एक्साइज का वो रौब दिखाते | नमूना-बतौर, एक-आध, दो
इंची कालम का लेख , अपने लोकल अखबार में
छाप कर, उन तक ले जाते|उस लेख की एक भी
प्रति न बिकती न वो खुद बेचने में यकीन रखते |
इधर आर टी आई ने
उनका काम बहुत आसान कर दिया था |जहाँ मुश्किल पेश आती वो इसे फिट कर देते ,काम
निकल जाता |
लोकल ब्रेकिंग-न्यूज की वो जबरदस्त
जानकारी रखते थे |मुझे इस कारण भी उसमे तनिक दिलचस्पी हो जाती , वरना मै भी बहुत
सम्हाल के ,डर के रहता, क्या पता कब मुश्किल पैदा हो जाए ?
उनके मकान की तैयारी के चलते इन
दिनों वो एक तरफा न्यूज ही दे पा रहे थे, मोहल्ले –पडौस की दिलचस्प खबरे नदारद सी
थी |
एक दिन वो छोटा सा
निमंत्रण-पत्र लिए आए , मकान के उदघाटन-गृह-प्रवेश का बुलावा था |मैंने कहा , आखिर
बन गया आपका मकान |
वो एक लम्बी सांस
लेकर बोले, हाँ , सुशील भाई , आइएगा जरूर
|
मैंने पता नहीं
क्यों अंदरूनी राहत महसूस किया ,मुझे लगा चलो , बहुत से खाने –पीने वाले लोग,
स्टिंग आपरेशन की भेट चढ़ने से बच गए | कई विभाग आर.टी आई के अनाप-शनाप सवाल जवाब
में घिरते –घिरते रह गए |
गृह –प्रवेश
में उनके घर को देख मुझे लगा , वाकई कम खर्चे में , भव्य मकान बनते मैंने कम ही देखा है |
सुशील यादव
केन्सास सिटी , अमेरिका
००१ ९१३३७८७५६६
दिनांक २६.१०.१२
गृह –प्रवेश
में उनके घर को देख मुझे लगा , वाकई कम खर्चे में , भव्य मकान बनते मैंने कम ही देखा है |
Tuesday, 23 October 2012
“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे” ....
तब अंग्रेजी का अपना एक अलग रूतबा हुआ करता था ,एक सख्त किसम के टीचर हमें पढाते थे
,क्लास में उनके घुसते ही एक वीरानी ,सन्नाटा या सच कहें तो मनहूसियत का
माहौल हो जाता था |
पता नहीं उनकी याददाश्त या डिक्शनरी में कम शब्द या प्रोवर्भ
थे .जो आए दिन कहा करते थे ;
“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”......|
इस वाक्य के
बोलते समय ,उनका चेहरा एक अलग किस्म के तनाव से भर जाता था ,टीचर जी पढ़ाते –पढाते कहीं खो जाते थे |उनकी वापसी तब होती थी जब कोई प्यून रजिस्टर ले के आता ,या छात्रों की गपशप की आवाज ऊँची
गूंजती .या स्कूल में पिरीयड बदलने की टन्न बजती |
मैं उन दिनों अखबार पढ़ लिया करता था, इसलिए मुझे
अतिरिक्त ज्ञान हो गया था ,मसलन मै,घपलो-घोटालो, राजनीतिक पहुँच , उपरी लेन-देन , पैसों के लिए बाबू से मंत्री तक के,चारित्रिक स्तर के बारे में जानने लग गया था |
टीचर जी के उस वाक्य के मायने कि ,“ रोम वाज नाट
बिल्ट इन अ डे .....” यू लगता था कि ,“रोम” चाहे चार दिन में
बना हो या चार सौ सालों में ,हमारा क्या वास्ता ? दूसरी बात ये खटकती कि ,रोम के ठेकेदार ,कारीगर ज्यादा सुस्त रहे होंगे , या “रोम” में वो कौम नहीं रही होगी जो ‘स्पीड- मनी’ पर विश्वास करती थी ?
शायद रोम में अच्छे ‘बाबू –इंजीनियर-नेता’ लोग पैदा होना
भूल गए थे ,कि ‘रोम’ को बनने-बनाने में बरसो लग गए ?
कौतुहल के और अनेक कारण भी थे ,जो रोम को एक बार देखने की वजह आज
भी बने हुए हैं |
हमारे तरफ की बात अलग है,इधर आर्डर हुआ नही कि रातो-रात “रोम” बस जाता है|
पूरी की पूरी राजधानी बन जाती है |
ठेकेदार ,इंजीनियर जेब में एक से एक
डिजाइन का ‘रोम-रोमियो’ का नक्शा लिए
घूमते रहते हैं |
एक-एक दिन की खबर
रहा करती है ,कब केबिनेट की मीटिंग हो रही है ,फाइल किस टेबल तक पहुची है |
किसने रोड़ा डाला|रोड़ा
डालने वाले की कितनी औकात है|कितना वजन डालना होगा |कितने तक में मामला सेट होगा |उन तक पहुचने का अप्रोच रोड क्या
है?
वो सब के सब टकटकी लगाए बस ये देखते रहते हैं कि ,कब साहब का फरमान हो , रोम की लेन लगा दें |
स्वीमिंग –पुल ,रोड ,नाहर बिजली –पानी सब का दुरुस्त इन्तिजाम| मिनटों में जहाँ कहे रोम-रोम में फिट कर दें |
डिस्काउंट के बतौर ,मेम
साहिबानों के लिए छोटे-छोटे रोम की अलग से भेट |
कहते हैं ,पैसा बोलता है| इन इन्तिजमो को देख के लगता है ,पैसा लाउडस्पीकर की आवाज भी रखता है
.तभी तो इसकी आवाज क्लर्क –बाबू . ठेकेदार ,इंजीनियर ,सांसद-विधायक ,मंत्री –संतरी सभी एक साथ सुनकर “रोम”,बनाने में हाथ बंटाते हैं |
कुछ पत्रकार अडंगेबाज होकर , रोकने की मुद्रा में खड़े होते हैं |
नए रोम के बारे में वे अनाप-शनाप लिखते हैं ,बताते है नया रोम संस्कृति के खिलाप
है |कई खामियां गिनाते हैं|
उधर विधायक विपक्ष , सांसद विपक्ष अकड़े हुए से
आंकड़े फेकते हैं ,थू-थू से माहौल थर्राया सा लगता है |
लगता है ये सब रोम के पाए को कहीं भी , कभी भी जमने नही देंगे
|जिस-जिस ने रोम के पाए पर अपना कंधा दिया है , वे उनको ही दफना के दम लेंगे |
सरकार सोते से जागती है ,वो रोम निर्माण में अनर्थ ढूढने की जी तोड़ कोशिश करती है|उंनसे
अनर्थ ढूढा ही नही जा पाता| वो थक-हार के निर्णय लेती है , ‘निगरानी-आयोग” के हवाले मामला दे दिया जाए |सरकार
के पास और भी काम है वो अगले इलेक्शन की
तैय्यारी में लग जाती है |सरकार की उपलब्ध्दियो में रोम -कथा , कम समय ,कम खर्च में बना हुआ बताया
जाता है | गरीबों से इसे जोड़ते हुए श्रम उपलब्ध कराने का जरुरी तरीका बताया जाता है| ये कहा जाता है कि मंनरेगा के तहत
काम उपलब्ध कराए गए |पक्ष वालो को वोट की फसल लहलहाते दिखती है |
एक ठेकेदार को मै करीब से जानता हूँ , हमेशा बड़े दुखी मन से मिलते रहे |वो पर्यावरण ,स्वास्थ्य परिवार-नियोजन ,जेल इत्यादि सभी मंत्रालयों
की विस्तृत जानकारी रखते हैं ,भले वे अपने लड़के का फोन नंबर भूल जाए. तमाम दूसरो के नम्बर
तात्कालिक –मौखिक याद रखते हैं |
वे मिल कर , इस बात का रोना –रोते हैं ... कि अब की बार अच्छी बारिश हो गई है , नहर का काम शायद रुक जाए...|बाजार
में अच्छे टीके आ रहे हैं लोग बीमार नहीं पड़ेंगे... | अगला सप्लाई आर्डर केंसिल हो न जाए|... बच्चे कम पैदा हो रहे हैं , लोग घरो में दुबक गए हैं ,आगे काम कम हो जाएगा |
मै उनको आश्वस्त कर कहता हूँ , ऐसा कुछ नहीं होने वाला , यहाँ तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं |
ऊपर से खुद –ब-खुद फरमान आएगा ,फलां पुल जर्जर हो गया है ,तोड़ के बना दो,/ कही से मेट्रो निकाल दो , इंटरनेश्नल स्वास्थ्य का हवाला देकर
, गरीबो के लिए आलीशान फाइव-स्टार
नुमा हास्पिटल बना दो | कसाब की सुरक्षा खतरे में है , जेल को सद्दाम के बख्तरबंद –नुमा महल में तब्दील कर दो |
हम उस जगह है जहां काम की कमी ही नही ?
वो एक गहरी सांस में, ‘आमीन की मुद्रा’ लेकर मुझसे
बिदा ले चल देता है |
मुझे उनसे रोम-टाइप के कई डिटेल –अपडेट मिलते रहने का सिलसिला बरसों
तक चला |
मै भी करीब-करीब ठेकेदार जैसा हो गया था |किसी बनते हुए पुल या रोड को देखकर ,घंटों वहीं खड़े होकर , उसके बनाने वालो की हैसियत का
अंदाजा लगाने लगता |
निर्माणाधीन –स्थल को देखकर ,यह भी बताने की स्तिथि में रहता कि , फाइल कहाँ होनी चाहिए ?
मेरे तजुर्बे से कई लोग फ़ायदा उठाने की कोशिश में रहते कोई
फ़ायदा उठा भी लेते ,कहते आपकी वहां पहुंच है ,ये काम करवा दीजिए ,एहसान मानेंगे , वो एहसान से कभी आगे बढ़े नहीं और
मै वही का वहीं रह गया...... |
अरे हाँ , टीचर जी का ‘रोम’
वाला वाकिया “नाट बिल्ट इन अ डे” पीछे छुट गया... |बहरहाल , उन दिनों ,हम छात्रो की जुबान में भी रोम
चढने लग गया था|बात –बात में हम लोग भी कहने लग गए थे “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे” |
हमारी जुबान का ये ‘तकिया-कलाम’ हो ,इससे पहले, भला हो हमारे क्लास के, विवेक नाम
के एक लड़के का, जिसने पता लगा कर बताया कि ,यार अपने अंग्रजी वाले सर जी कई
दिनों से अपना मकान बनवा रहे हैं | सस्ताहा टाइप ठेकेदार –मिस्त्री को काम दे रखे हैं| किसी के पास पूरा सेंट्रिंग-मटेरियल
नहीं तो कोई मजदूर होली मनाने गया तो लौटा नहीं| काम कई महीनो से रुक-रुक कर धीरे–धीरे चलने से टीचर जी परेशान से रहे|
कर्जा भी ख़ूब हो गया, लगता है | मगर हाँ , गनीमत समझो , कल छत की ढलाई हो गई |शायद टीचर जी अब चैन की सांस लें|अब
रोम के बनने –बिगड़ने का असर उन पर न पड़े |और सच ही ,वो उसके बाद ‘रोम-विहीन’
हो गए |
हम ‘रोम’ की गली से गुजर कर कब अगली क्लास में पहुँच गए ? पता ही नहीं चला |.
सुशील यादव
केन्सास ,. अमेरिका
००१-९१३-३७८-७५६६
२२.१०. १२
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